श्री गणेशाय नमः
Devotional Thoughts
Devotional Thoughts Read Articles सर्वसामर्थ्यवान एवं सर्वशक्तिमान प्रभु के करीब ले जाने वाले आलेख (हिन्दी एवं अंग्रेजी में)
Articles that will take you closer to OMNIPOTENT & ALMIGHTY GOD (in Hindi & English)
Precious Pearl of Life श्रीग्रंथ के श्लोकों पर छोटे आलेख (हिन्दी एवं अंग्रेजी में)
Small write-ups on Holy text (in Hindi & English)
Feelings & Expressions प्रभु के बारे में उत्कथन (हिन्दी एवं अंग्रेजी में)
Quotes on GOD (in Hindi & English)
Devotional Thoughts Read Preamble हमारे उद्देश्य एवं संकल्प - साथ ही प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर भी
Our Objectives & Pledges - Also answers FAQ (Frequently Asked Questions)
Visualizing God's Kindness वर्तमान समय में प्रभु कृपा के दर्शन कराते, असल जीवन के प्रसंग
Real life memoirs, visualizing GOD’s kindness in present time
Words of Prayer प्रभु के लिए प्रार्थना, कविता
GOD prayers & poems
प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा
CLICK THE SERIAL NUMBER BOX TO REACH THE DESIRED POST
97 98 99 100
101 102 103 104
105 106 107 .
क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
97 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 56
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरा आश्रय लेने वाला भक्त मेरी कृपा से शाश्‍वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

हमें किसी भी परिस्थिति में किसी व्यक्ति या वस्तु का आश्रय नहीं लेना चाहिए । हमें सदैव केवल और केवल प्रभु का ही आश्रय होना, प्रभु का ही सहारा होना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि ऐसा जीव जो सर्वथा प्रभु के परायण हो जाता है, अपने को स्वतंत्र नहीं समझता, अपने को प्रभु के आश्रित समझता है उसे अपने उद्धार के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता । प्रभु कहते हैं कि उसका उद्धार स्वयं प्रभु करते हैं । प्रभु का सदा से एक विधान है, एक नियम है कि जो प्रभु की शरण ले लेता है वह प्रभु को प्राप्त कर लेता है ।

जिस जीव को यह बात समझ में आ जाती है और वह प्रभु का आश्रय लेकर साधन, भजन और भक्ति करता है और उसका कल्याण अपने आप सुनिश्चित हो जाता है । प्रभु का तात्पर्य यह है कि जिसने जीवन में केवल प्रभु का आश्रय ले लिया उसका कल्याण प्रभु कृपा से होना ही है, उसे रोकने वाला कोई नहीं है । प्रभु की कृपा के कारण उस जीव का कल्याण स्‍वतः सिद्ध है । पर जीव यह समझता नहीं और वह संसार का आश्रय लेता है और प्रभु से विमुख रहता है । ऐसे में प्रभु कृपा उसके जीवन में फलीभूत नहीं होती ।

जो जीव भक्ति करके प्रभु की शरण में चला जाता है वह परमपद की प्राप्ति कर लेता है । फिर उसे प्रभु के परमधाम जिन्‍हें सत्‍यलोक, बैकुंठलोक, गोलोक, साकेतलोक आदि कहते हैं उनका वास मिल जाता है । ऐसे लोक की प्राप्ति होने पर पृथ्वीलोक से शरीर छोड़ने पर उसे लेने प्रभु के पार्षद आते हैं । यह सिद्धांत है कि जो प्रभु की भक्ति करता है उसे प्रभु की कृपा से परमपद प्राप्त हो जाता है क्योंकि उसने भक्ति करके प्रभु की शरणागति और प्रभु का आश्रय जो ले लिया है ।

जो भक्त भक्ति करके प्रभु का आश्रय ले लेता है उसे अपना कल्याण खुद नहीं करना पड़ता, उसे अपने कल्याण के लिए सोचना भी नहीं पड़ता क्योंकि भगवत् कृपा स्‍वतः ही उसका निश्चित कल्याण करवा देती है ।

प्रकाशन तिथि : 06 जनवरी 2019
98 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 57
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
चित्‍त से संपूर्ण कर्म मुझको अर्पण करके मेरे परायण होकर समता का आश्रय लेकर निरंतर मुझमें चित्‍तवाला हो जा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु इस श्‍लोक में चार बातें कहते हैं जिनको जानना बहुत महत्वपूर्ण है और जो एक भक्‍त के लिए दिशा निर्देश का काम करती है । पहली बात जो प्रभु कहते हैं वह यह कि अपने संपूर्ण कर्म को चित्‍त से प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए । हम कहने को तो कहते हैं कि हमने अपना कर्म प्रभु को अर्पण कर दिया पर हम कर्मफल की इच्छा रखते हैं । चित्‍त से जो कर्म प्रभु को अर्पण करना शुरू कर देता है वह जीव कभी कर्मबंधन में नहीं बंधता । दूसरी बात जो प्रभु कहते हैं वह सबसे महत्वपूर्ण है । प्रभु जीव से कहते हैं कि अपने स्वयं को भी प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए ।

प्रभु आगे तीसरी बात कहते हैं कि संसार से संबंध विच्छेद करके प्रभु से संबंध जोड़ लेना चाहिए । प्रभु चौथी बात कहते हैं कि निरंतर प्रभु में चित्‍तवाला होकर यानी केवल प्रभु के साथ ही अटल संबंध जोड़कर रखना चाहिए । हम अपना संबंध संसार, व्यक्ति, पदार्थ, घटना और परिस्थिति से जोड़कर रखते हैं । प्रभु सबके मालिक हैं इसलिए हमें एकमात्र प्रभु से ही संबंध जोड़कर रखना चाहिए ।

संसार के किसी भी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया से हमारा अपनापन नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा अपनापन रखना केवल मूर्खता है । हमें केवल प्रभु को ही अपना मानना चाहिए और अपने हृदय पटल पर प्रभु की ही मुहर लगा देनी चाहिए । सच्चा भक्त केवल प्रभु के परायण रहता है और प्रभु को ही अपना परम आश्रय मानता है । वह देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना और परिस्थिति आदि से अपना किंचित मात्र भी प्रयोजन नहीं मानता । प्रभु से ऐसा अनन्य भाव रखने वाला भक्‍त ही प्रभु को सर्वाधिक प्रिय होता है ।

प्रभु के हृदय में भक्‍त के लिए जितना प्रेम, करुणा और आदर भाव है वैसा पूरे संसार में कहीं नहीं मिल सकता । भक्ति की पराकाष्ठा होने पर अनंत कोटि ब्रह्माण्‍ड के नायक प्रभु स्वयं को भक्‍त का दास मानने लगते हैं और भक्‍त को अपना मुकुटमणि मानने लगते हैं ।

प्रकाशन तिथि : 08 जनवरी 2019
99 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 58
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझमें चित्‍तवाला होकर तू मेरी कृपा से संपूर्ण विघ्नों से तर जाएगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु का चित्‍तवाला होने का अर्थ है कि प्रभु के साथ अटल संबंध जोड़ लेना । प्रभु कहते हैं कि जो ऐसा कर लेता है वह प्रभु की कृपा पा लेता है । प्रभु की कृपा को प्राप्त करने वाला ऐसा भक्‍त संपूर्ण विघ्न, बाधा, शोक, दुःख आदि से स्‍वतः ही तर जाता है अर्थात उन्हें दूर करने के लिए उस भक्‍त को कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ता ।

जब भक्त अपनी तरफ से अपने सब कर्म प्रभु को अर्पण कर देता है और स्वयं भी प्रभु को अर्पित हो जाता है तो उसके जीवन में विघ्न बाधाओं को दूर करने की पूरी जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है । प्रभु ऐसी जिम्मेदारी वहन करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं कि कोई जीव आकर ऐसी जिम्मेदारी प्रभु को दे । यह शाश्‍वत सिद्धांत है कि प्रभु के परायण होते ही प्रभु की कृपा प्राप्त होती है जिसके कारण संपूर्ण विघ्न बाधाओं से भक्‍त तर जाता है ।

जीव का सबसे बड़ा अपराध यह होता है कि वह संसार से अपना संबंध मान लेता है और प्रभु से विमुख हो जाता है । पर जो भक्त संसार से संबंध तोड़कर प्रभु के सम्‍मुख हो जाते हैं उनकी पूरी जिम्मेदारी, उनका पूरा दायित्व प्रभु ले लेते हैं । प्रभु की कृपा उनके जीवन में फलित होने लगती है । संसार से संबंध और प्रभु से विमुखता यही प्रभु कृपा पाने में सबसे बड़ी बाधा है । जीव परमात्मा का अंश है और उसका शाश्‍वत संबंध केवल प्रभु के साथ ही सदैव से रहा है और सदैव रहने वाला है ।

सबके जीवन में विघ्न और बाधाएं आती हैं । इसलिए प्रभु आश्वासन के रूप में कहते हैं कि प्रभु की शरण लेकर रहने वालों पर प्रभु की कृपा रहती है जिस कारण विघ्न और बाधा स्वतः ही दूर हो जाती हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभु की कृपा में जो शक्ति है वह शक्ति किसी भी साधन में नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : 10 जनवरी 2019
100 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 62
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सर्वभाव से ईश्वर की शरण में चला जा, उनकी कृपा से परम शांति और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाएगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि प्रभु के शरणागत भक्त ही प्रभु की कृपा से शाश्‍वत परमपद को प्राप्त करते हैं । प्रभु की शरण में आने पर जीव संसार के सभी विघ्‍नों से तर जाता है । इसलिए भक्ति में प्रभु की शरणागति का बहुत बड़ा महत्व है । प्रभु ने यहाँ पर भक्‍त का प्रभु की शरण में जाने की बात अपने श्रीवचन में कही है । प्रभु कहते हैं कि जो संसार में किसी का आश्रय न लेकर प्रभु का ही आश्रय लेता है और प्रभु की शरण में चला जाता है उसका कल्याण सुनिश्चित है ।

जीव जब तक प्रभु की शरण में नहीं जाता उसे माया भ्रमित करती रहती है और घुमाती रहती है । माया में उलझा जीव अशांति को प्राप्त करता है और जीवन भर अतृप्‍त रहता है । माया के कारण हमारे शरीर, इंद्रियां और मन का प्रतिकूल व्यवहार हमें झेलना पड़ता है । पर जैसे ही हम प्रभु की शरण में जाते हैं और प्रभु की कृपा प्राप्त करते हैं हमारी विपरीत बुद्धि ठीक हो जाती है और हमारे कल्याण और शांति के लिए काम करने लगती है ।

प्रभु की शरण में जाने पर प्रभु की कृपा से हम परम शांति और शाश्‍वत पद की प्राप्ति करते हैं । सर्वव्यापी प्रभु की शरण में जाने पर ही जीव का एकमात्र कल्याण संभव है, इसी उद्देश्य से प्रभु ने जीव के कल्‍याण के लिए यह बात श्री अर्जुनजी को निमित्त बनाकर बहुत जोर देकर कही है । प्रभु सभी प्राणियों के सुहृद हैं और सबका मंगल चाहने वाले हैं । इसलिए प्रभु ने सबके कल्याण के लिए शरणागति का गूढ़ रहस्य यहाँ पर प्रकट किया है । यह बात हमें दृढ़ता से अपने हृदय में बैठा लेनी चाहिए कि प्रभु की शरण जाने पर ही प्रभु की कृपा से हम संसार के विघ्‍नों को पार कर परम शांति और परमपद की प्राप्ति कर सकते हैं ।

इसलिए जीव को भक्ति करके प्रभु की पूर्ण रूप से शरणागति ग्रहण कर अपने मानव जीवन धन्य करना चाहिए और प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 12 जनवरी 2019
101 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 63
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अब तू इस पर अच्छी तरह से विचार कर जैसा चाहता है वैसा कर ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु ने जीव को कितनी बड़ी स्वतंत्रता दे रखी है यह भाव यहाँ पर प्रभु ने दर्शाया है । प्रभु जीव को भक्ति और शरणागति का प्रभाव बताते हैं, उसका महत्व समझाते हैं और फिर जीव को छूट दे देते हैं कि अब जैसा उसे उचित लगे वह करने का निर्णय ले ले । यह प्रभु की जीव को दी हुई कितनी बड़ी स्वतंत्रता है ? पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम इस स्वतंत्रता का कितना दुरुपयोग करते हैं ।

गूढ़ से भी गूढ़ रहस्य के रूप में प्रभु ने भक्ति और शरणागति को प्रकट किया है । प्रभु भक्ति और शरणागति की बात करके जीव को उसके परम कल्याण का मार्ग दिखाते हैं । फिर प्रभु जीव पर बिना दबाव डाले कहते हैं कि तुम अच्छी तरह से विचार कर लो कि तुम्हें क्या करना है । यहाँ पर प्रभु की अत्यधिक और अतुलनीय कृपालुता और दयालुता के दर्शन होते हैं ।

अनंत कोटि ब्रह्मांड के नायक और सबके परमपिता प्रभु ने इतनी उदारता से इतनी स्वतंत्रता जीव को दे रखी है । आज हमारे सांसारिक माता पिता और गुरुजन भी हमें स्वतंत्रता नहीं देते और अपने हिसाब से हमें चलाने का प्रयास कराते हैं । प्रभु कितनी सुंदर बात कहते हैं कि पहले सभी बातों पर, जिसमें हमारा कल्याण निहित है, उस पर पूरा-पूरा विचार कर ले और फिर जैसी हमारी इच्‍छा हो वैसा करे । प्रभु हमें विचार करने के लिए सावधान भी करते हैं और फिर निर्णय लेने की छूट भी देते हैं । दूसरे शब्दों में प्रभु ने सावधान करके अपना कर्तव्य निभाया और फिर छूट देकर अपनी उदारता दिखाई कि जीव अपनी इच्छानुसार कर्म करे ।

जिस स्वतंत्रता की हम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते वह हमारे परमपिता ने हमें प्रदान की हुई है । पर कल्याण उसी जीव का होता है जो प्रभु की दी हुई इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं करता और प्रभु द्वारा जीव के कल्याण के लिए बताए भक्ति और शरणागति के मार्ग पर चलता है ।

प्रकाशन तिथि : 14 जनवरी 2019
102 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 65
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरा भक्त हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा, ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि साधक को यह मानना चाहिए कि मैं तो केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं । साधक को मानना चाहिए कि वह संसार का नहीं है और संसार उसका नहीं है । इस प्रकार अपने को प्रभु का मानने से प्रभु से स्वाभाविक प्रेम होने लगता है । प्रभु से प्रियता होने पर जीवन में प्रभु के नाम, रूप, गुण, श्रीलीला और प्रभाव का चिंतन होने लगता है । फिर प्रभु में ऐसी लगन लग जाती है कि जीवन का हर कार्य प्रभु के लिए होने लग जाता है ।

प्रभु से ज्‍यों-ज्‍यों संबंध दृढ़ होता जाता है त्‍यों-त्‍यों हमारी शांति और आनंद बढ़ने लगते है और जीवन को प्रभु का मंगलमय विधान मानकर हम सदैव प्रसन्न रहने लगते हैं । भक्‍त को हर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में उसका कल्याण ही नजर आता है । भक्ति जीव को परम शुद्ध बनाकर उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचा देती है ।

प्रभु कहते हैं कि यह मेरी सत्य प्रतिज्ञा है कि मेरा भक्त बनने पर, मेरा पूजन करने पर, मुझे प्रणाम करने पर वह जीव मुझे प्राप्त होता है । प्रभु का भक्त होना, प्रभु में अपना मन लगाना, प्रभु का पूजन करना और प्रभु को प्रणाम करना, इन चारों को करने वाला प्रभु को अतिप्रिय होता है । जीव से अत्यधिक स्‍नेह करना और परम प्रीति करना प्रभु का कृपापूर्ण विधान है । जीवमात्र ही प्रभु को अत्यंत प्रिय हैं । पर जीव ही यह गलती करता है कि संसार से अपना संबंध जोड़ लेता है और प्रभु से अपने संबंध को कमजोर कर लेता है । अतः हमें इस जगत से माने हुए संबंध का त्याग कर जिन प्रभु से हमारा वास्तविक और नित्य संबंध है उन प्रभु की शरण में चले जाना चाहिए ।

प्रभु का भक्त बनना हमारे मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए । प्रभु की भक्ति करके और प्रभु की शरणागति लेकर ही जीव संसार में भी गौरवान्वित होता है और अंत में प्रभु को भी प्राप्त कर लेता है ।

प्रकाशन तिथि : 16 जनवरी 2019
103 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 66
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा, मैं तुम्हें संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत कर ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

यह मेरा परम-परम प्रिय श्लोक है । यह प्रभु का अदभुत श्रीवचन है जो हमारे भीतर विश्वास जागृत करता है और हमें पूर्ण आश्वस्त करता है । श्री महाभारतजी का सार श्रीमद् भगवद् गीताजी को माना गया है और श्रीमद् भगवद् गीताजी के सात सौ श्‍लोकों का साररूप यह अठारहवें अध्याय का छियासठवां श्लोक है । यहाँ पर प्रभु कहते हैं कि धर्म का भार प्रभु को अर्पण कर दें और अनन्य भाव से केवल प्रभु की शरण में आ जाएं । फिर प्रभु का आश्वासन है कि जीव को जो भी पाप डरा रहे हैं उन सबसे प्रभु जीव को सदैव के लिए मुक्त कर देंगे । प्रभु परम वचन कहते हैं कि मेरी शरण में आ जा और सब चिंताओं को छोड़ दे । जीव की सब चिंताओं को वहन करने के लिए करुणामय प्रभु यहाँ स्वयं प्रस्तुत होते हैं ।

श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु के श्रीवचनों में दिए उपदेश का अत्यंत गोपनीय साररूप इस श्‍लोक में प्रकट हुआ है । प्रभु कहते हैं कि सभी धर्मों का आश्रय और धर्मों का विचार छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जाओ क्योंकि प्रभु की शरणागति होना सभी साधनों का सार है । अपने सभी धर्मों और कर्मों को हमें प्रभु को अर्पण करके प्रभु की शरणागति ग्रहण करनी चाहिए । धर्मों और कर्मों का आश्रय लेने पर हमें बार-बार जन्म मृत्यु को प्राप्त होना पड़ता है । इसलिए हमें अपने धर्म और कर्म का भार प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए ।

इस श्‍लोक में प्रभु बताते हैं कि संपूर्ण साधनों का सार और शिरोमणि साधन प्रभु की अनन्यता से शरण ग्रहण करना ही है । प्रभु की दुस्‍तर माया से सुगमता से तरने का एकमात्र उपाय प्रभु की भक्ति एवं उसके अंतर्गत प्रभु की अनन्य शरणागति ही है । अनन्य भक्ति से ही प्रभु को जाना, देखा और प्राप्त किया जा सकता है । प्रभु कहते हैं कि मेरी अनन्य शरणागति लेने वाले का मैं तत्काल ही उद्धार करता हूँ । इस प्रकार अनन्य भक्ति और अनन्य शरणागति की महिमा बताकर प्रभु ने मानो पूरी श्रीमद् भगवद् गीताजी का सार ही बता दिया है ।

प्रभु आगे कहते हैं कि मेरी शरण में आने पर मैं तुम्हें संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा । शरणागत की कमी उसकी कमी नहीं रहती क्‍योंकि उसके सुधार का कार्य प्रभु ले लेते हैं । शरणागत का तो एक ही कार्य होता है निर्भय, निःशोक, निश्चिंत और निःशंक होकर प्रभु की शरण में रहना । प्रभु की शरण लेकर फिर चिंता करना यह हमारा प्रभु के प्रति अपराध जैसा है क्योंकि इससे शरणागति को हम कलंकित करते हैं । इसलिए प्रभु की शरण लेकर प्रभु का पूरा-पूरा भरोसा और विश्वास जीवन में रखना चाहिए । शरणागत होने पर उस भक्‍त को लोक परलोक में दुर्गति की तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए ।

शरणागत भक्त के जीवन में एकमात्र प्रभु की कृपा ही कृपा का प्रभाव होता रहता है । उसे सर्वत्र प्रभु की परिपूर्ण कृपा ही मिलती है । शरणागत भक्‍त अपनी मन, बुद्धि, इंद्रियां और शरीर सब कुछ प्रभु को अर्पण कर देता है । फिर उसका अपना कुछ भी नहीं बचता । वह प्रभु से कह देता है कि सब कुछ अब आपके हाथ में है, अब आप जाने । तब प्रभु कहते हैं कि तू चिंता मत कर, मैं तुम्हें सभी पापों से छुड़ा दूँगा । हम प्रभु की शरणागति भी लें और फिर चिंता भी करें, यह दोनों बातें विरोधाभासी हैं क्योंकि शरण हो गए तो फिर किसी भी चीज की चिंता कैसी ।

हमें यह मानना चाहिए कि हम आदिकाल से प्रभु के थे, प्रभु के हैं और सदा प्रभु के ही रहने वाले हैं । यह हमारी मूर्खता है कि हम अपने को प्रभु से अलग और विमुख मान लेते हैं क्योंकि प्रभु का श्रीवचन है कि जीव मेरा ही अंश है । इसलिए जो जीव हृदय से प्रभु की शरणागति को स्वीकार कर लेता है उसका सारे भय, शोक और चिंता आदि दोष मिट जाते हैं । मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं, शरणागति पर यह भावना आते ही हमारे भीतर का भाव जागृत हो जाता है कि मेरे लिए प्रभु जैसा ठीक समझें वैसा करें और मैं निःसंकोच उसे स्वीकार करूँगा ।

शरणागत भक्‍त को अपने लिए कभी भी किंचितमात्र भी कुछ करना शेष नहीं बचता क्योंकि सब कुछ प्रभु स्वतः ही जरूरत से पहले करते रहते हैं । प्रभु ने आज तक अपनी तरफ से किसी भी जीव का त्याग नहीं किया है और न कभी त्याग कर ही सकते हैं । प्रभु की स्‍वाभाविक आत्‍मीयता, कृपालुता, दयालुता, प्रियता, हितैषिता और उदारता सबके लिए सभी समय उपलब्ध रहती है ।

जैसे एक मछुआरा मछली पकड़ने के लिए नदी में जाल डालता है और जल के अंदर वाली मछली पकड़ में आ जाती है पर जो मछली उस मछुआरे के पैरों के पास पहुँच जाती है वह नहीं पकड़ी जाती । इसी प्रकार जब हम प्रभु के श्रीकमलचरणों के पास शरणागति लेकर पहुँच जाते हैं तो माया, संसार, ममता, दोष आदि हमें नहीं पकड़ पाते ।

हमारा संसार से संबंध माना हुआ है पर प्रभु के साथ हमारा संबंध वास्तविक है । संसार का संबंध हमें दुःख कलेश देता है और पराधीन बनाता है । पर प्रभु से संबंध को प्रबल करने पर प्रभु हमें यहाँ तक कि अपना मुकुटमणि बना लेते हैं और अपना मालिक भी बना लेते हैं । यह प्रभु की विलक्षण उदारता और आत्‍मीयता है । प्रभु के कई प्रेमी भक्त अंत में प्रभु में ही सशरीर समा गए, अंत में उनकी मृत शरीर भी नहीं मिला । इसलिए जीवन में हमें संसार से विमुख होकर प्रभु के सन्मुख होना चाहिए और अपने शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि और प्राणों को प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए ।

यह स्‍पष्‍ट सिद्धांत मानना चाहिए कि प्रभु केवल और केवल भक्ति और शरणागति से ही संतुष्ट होते हैं । व्‍याध का कौन-सा श्रेष्‍ठ आचरण था ? ध्रुवजी की कौन-सी बड़ी उम्र थी ? गजेंद्रजी के पास कौन-सी विद्या थी ? विदुरजी की कौन-सी ऊँ‍‍ची जाति थी ? कुब्‍जा का कौन-सा सुन्‍दर रूप था ? सुदामाजी के पास कौन-सा धन था ? पर इन सबके पास भक्ति थी और शरणागति का भाव था इसलिए प्रभु की प्राप्ति इन सभी को हो गई ।

केवल एक प्रभु की शरण होने का तात्पर्य यह है कि अनन्य भाव से यह मानना कि एकमात्र और केवल प्रभु ही मेरे हैं और मैं केवल और एकमात्र प्रभु का ही हूँ । शरणागत हुआ प्रेमी भक्त प्रभु को अपने प्रेम से बांध लेता है और प्रभु सहर्ष प्रेम बंधन में बंध जाते हैं । मुक्ति देने में तो प्रभु इससे भी ज्यादा उदार हैं । पूतना प्रभु के श्रीमुख से जहर देती है तो प्रभु उसे भी मुक्ति दे देते हैं ।

मैं प्रभु का अनन्‍य शरणागत भक्त हूँ इससे बड़ा स्वाभिमान और जीवन में कुछ भी नहीं हो सकता । वास्तव में पूर्ण शरणागति भी प्रभु ही प्रदान करते हैं । जैसे एक छोटा बालक अपना हाथ ऊँ‍चा करता है तो उसकी माँ उसे उठा लेती है ऐसे ही भक्‍त जब शरणागति की तैयारी जीवन में कर लेता है और प्रभु को पुकारता है तो प्रभु उसको पूर्ण शरणागति दे देते हैं । वास्तव में केवल पापों से मुक्ति ही एकमात्र शरणागति का फल नहीं है, शरणागति में जब जीव प्रभु से अभिन्‍न हो जाता है तो वह अनंत परमानंद के रस का प्राप्त करता है । प्रभु शरणागत के वश में हो जाते हैं और उसके ऋणी अपने आपको मानने लगते हैं ।

यह श्लोक इसलिए सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रभु यहाँ पर कहते हैं कि मेरे द्वारा अब तक श्रीमद् भगवद् गीताजी में बताई सभी विधियों का परित्याग करके अब केवल मेरी शरण में आ जाओ । इस शरणागति के कारण प्रभु आश्वस्त करते हैं कि हम सभी पापों से बच जाएंगे क्योंकि यहाँ पर प्रभु स्वयं उस शरणागत जीव की रक्षा का वचन देते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि एक प्रभु की शरण चले जाने से हम अन्य साधनों को करके समय गँवाने से बच जाएंगे । इस प्रकार तुरंत हमारी आध्यात्मिक उन्नति हो जाएगी और हम समस्त पापों से मुक्त हो जाएंगे । अनन्य भाव से प्रभु की भक्ति और शरणागति श्रीमद् भगवद् गीताजी का गुह्यतम ज्ञान है और संपूर्ण श्रीमद् भगवद् गीताजी का सार है । शरणागति होने पर प्रभु के शब्द, मत डर, मत झिझक, मत चिंता कर, कितने आश्वासन से भरे हुए हैं ।

श्रीमद् भगवद् गीताजी के संपूर्ण अर्थ का तात्पर्य रूप में संक्षेप वाला यह अद्वितीय श्‍लोक है । जैसे मंदिर के शिखर पर कलश होता है इसी प्रकार यह श्लोक श्रीमद् भगवद् गीताजी का कलश रूप है । जीवन में दो मंत्र, प्रभु की निष्काम भक्ति और प्रभु की पूर्ण शरणागति को स्वीकार कर लें तो फिर हमारा परम उद्धार और प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए वास सुनिश्चित होता है ।

प्रकाशन तिथि : 18 जनवरी 2019
104 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 68
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझमें परा भक्ति करके जो इस परम गोपनीय संवाद को मेरे भक्तों को कहेगा वह मुझे ही प्राप्त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु के और श्रीग्रंथों के वचनों को जन-जन तक पहुँचाने वाला और उनका प्रचार करके सबका कल्याण करने वाला प्रभु को अति प्रिय होता है । सभी युगों में संतों और भक्तों ने प्रभु के श्रीवचनों और श्रीग्रंथों में वर्णित बातें को जनसाधारण तक पहुँचाया है । जो प्रभु की भक्ति, प्रेम और शरणागति की बात सब तक पहुँचाता है, जिससे जीव प्रभु से जुड़ जाए और उनके दुःख, संताप आदि दूर हो जाए और उनका मंगल और कल्याण हो, वह महात्मा प्रभु को अति प्रिय होता है ।

प्रभु के श्रीवचनों को और श्रीग्रंथों के सार को जीव तक पहुँचाने पर जीव की प्रभु के लिए पूज्‍यबुद्धि और आदरबुद्धि निर्माण हो जाती है और उसका प्रभु के लिए श्रद्धा और विश्वास जग जाता है । सच्चे संत और महात्मा इसी उद्देश्य को लेकर और सबमें भक्ति की जागृति हो इसी लक्ष्य को लेकर प्रभु के श्रीवचनों का और श्रीग्रंथों का प्रचार करते हैं । ऐसा करते हुए वे प्रभु को अति प्रिय हो जाते हैं और बिना किसी अवरोध के प्रभु को प्राप्त होते हैं ।

भक्ति का प्रचार प्रभु का सबसे प्रिय कार्य है क्योंकि इसमें ही जीव का सर्वाधिक कल्याण छुपा हुआ है । करुणामय प्रभु सदैव जीव का हित और कल्याण ही चाहते हैं । प्रभु कहते हैं कि प्रभु की भक्ति, प्रेम और शरणागति का प्रचार करने वाला उन्हें अत्यंत प्रिय है क्योंकि ऐसा करने से बड़ा और प्रिय कार्य प्रभु की दृष्टि में अन्‍य कुछ भी नहीं है । हमें कभी भी मान, बड़ाई, आदर सत्कार आदि पाने की कामना से प्रचार नहीं करना चाहिए, यह प्रभु का अत्‍यन्‍त प्रिय कार्य है यह मानकर निस्वार्थ भावना से प्रचार करना चाहिए ।

प्रभु भक्ति, प्रभु प्रेम करने वाला और प्रभु शरणागति लेने वाला प्रभु को प्रिय नहीं, प्रियतर होता है । इसलिए प्रभु के श्रीवचनों और श्रीग्रंथों के सार को सभी धर्मों, देश, वर्ण, आश्रम, सम्‍प्रदाय में किसी भी शैली, उपाय, सिद्धांत और साधन से पहुँचाने की चेष्‍टा करने वाला और इसमें अपना कोई स्वार्थ न रखने वाला प्रभु का प्रिय बन जाता है । ऐसा अपना कर्तव्य मानकर लोकहितार्थ, निष्कामभावपूर्वक होना चाहिए । ऐसा होने पर जनमानस को प्रभु की तरफ बढ़ने की युक्तियां मिलेगी, उनकी उलझन सुलझेगी और उनके जीवन की बाधाएं दूर होगी और प्रभु प्राप्ति का लक्ष्य उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त होगा । ऐसा प्रयत्न करने वाला प्रभु को सबसे अधिक प्यारा होगा, प्रभु उससे बड़े राजी और प्रसन्न होंगे ।

प्रकाशन तिथि : 20 जनवरी 2019
105 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 70
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करेगा उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाऊँगा, ऐसा मेरा मत है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

श्रीमद् भगवद् गीताजी में जो धर्म संवाद हुआ है वह विलक्षण, दिव्य और अलौकिक है । प्रभु ने श्री अर्जुनजी को निमित्त बनाकर जनकल्याणार्थ यह गुह्य उपदेश दिया है । प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी श्रीमद् भगवद् गीताजी हमें राह दिखाकर हमारा मार्गदर्शन करती हैं । कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, प्राणायाम आदि एवं सबसे विलक्षण भक्तियोग एवं शरणागति का इस श्रीग्रंथ में वर्णन हुआ है ।

यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञानयज्ञ को माना गया है । ज्ञानयज्ञ प्रभु को अति प्रिय है । प्रभु कहते हैं कि जो श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु के संवाद का अध्ययन अथवा पाठ करेगा उसके द्वारा प्रभु पूजित होंगे । जब कोई साधक श्रीमद् भगवद् गीताजी का अध्ययन या पाठ करता है तो प्रभु कहते हैं कि मुझे मेरे उपदेशों की मीठी-मीठी स्मृति याद आ जाती है और इससे प्रभु बड़े प्रसन्न होते हैं । प्रभु साफ तौर पर कहते हैं कि श्रीमद् भगवद् गीताजी का जब कोई पाठ करता है तो मैं उसे सुनता हूँ । उसे प्रभु अपनी पूजा मानकर पूजित हो जाते हैं और उसे ज्ञानयज्ञ का फल प्रदान करते हैं ।

जिस घर में श्रीमद् भगवद् गीताजी का अध्ययन होता है या पाठ होता है या केवल श्रीमद् भगवद् गीताजी को विराजमान किया गया होता है वहाँ साक्षात प्रभु निवास करते हैं । प्रभु के साथ उस घर में प्रयागराज आदि तीर्थ, देवता, ऋषि, योगी आदि भी निवास करते हैं । श्रीमद् भगवद् गीताजी का इतना बड़ा महात्म्य है कि जिस घर में उन्हें विराजमान किया हुआ होता है वहाँ मंगल-ही-मंगल होता है और वहाँ के निवासियों का कल्याण-ही-कल्याण होता है । फिर जरा सोचिए अगर श्रीमद् भगवद् गीताजी के उपदेशानुसार अगर कोई आचरण करने लग जाए तो उसके क्या कहने ।

पुरातन भारतीय परंपरा थी कि सभी वैष्णवों के घरों में श्रीग्रंथ विराजित रहते थे । इससे वह घर, घर नहीं रहकर मंदिर बन जाता था । इसलिए सदैव अपने घरों में बड़े आदर और सम्मान के साथ श्रीग्रंथों को विराजित करके रखना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 22 जनवरी 2019
106 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 71
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो श्रद्धावान मनुष्य इस गीता ग्रंथ को सुन भी लेगा वह भी शरीर छूटने पर शुभ लोक को प्राप्त हो जाएगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

श्रीमद् भगवद् गीताजी का महात्म्य यहाँ पर प्रभु स्वयं अपने श्रीवचनों में बताते हैं । श्रीमद् भगवद् गीताजी की बातों को जो मात्र सुन भी लेता है उसका प्रत्यक्ष कल्याण सुनिश्चित हो जाता है । प्रभु यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो श्रीमद् भगवद् गीताजी को श्रद्धा से और दोषदृष्टि से रहित होकर सुन भी ले तो भी वह जीव शरीर छूटने पर संपूर्ण पापों से मुक्त होकर शुभ लोकों को प्राप्त होता है ।

केवल सुनने मात्र से इतना बड़ा लाभ है तो जो इस महान श्रीग्रंथ का अध्ययन करता है और सबके कल्याण के लिए इसका प्रचार करता है उसके लिए तो कहना ही क्या है । प्रभु की दिव्य वाणी और श्रीवचनों में किसी प्रकार का लेशमात्र भी संशय करने की कोई संभावना ही किसी के लिए नहीं बचती । श्रद्धा और भक्ति से श्रीमद् भगवद् गीताजी के भावों को समझकर उसका अध्ययन और पाठ करने वाले की मुक्ति में कोई संदेह ही नहीं रहता ।

प्रभु की घोषणा है कि जो पुण्यकर्मा भक्त श्रद्धा और भक्ति से युक्त होकर श्रीमद् भगवद् गीताजी का अध्ययन करता है, श्रवण करता है, पाठ करता है वह श्रीबैकुंठ, श्रीसाकेत, श्रीगोलोक, श्रीकैलाश जैसे दिव्य-दिव्य लोकों की प्राप्ति करता है । श्रीमद् भगवद् गीताजी के अध्ययन और श्रवण की तो बात ही क्या है, केवल इस श्रीग्रंथ को घर में आदर के साथ विराजमान करके रखने मात्र का भी बड़ा भारी महात्म्य है । श्रीमद् भगवद् गीताजी प्रभु का साक्षात श्रीवचन होने के कारण दिव्यतम हैं । जो श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्रद्धापूर्वक विश्वास करेगा उसका जीवनकाल में कल्याण और मंगल होगा और शरीर छूटने पर वह दिव्‍य गति को प्राप्त होगा ।

इसलिए श्रीमद् भगवद् गीताजी के लिए अटूट श्रद्धा और परम आदर का भाव हमारे हृदय में होना चाहिए और अपने घर में और अपने हृदय में इनको आदरपूर्वक स्थान देना चाहिए क्‍योंकि प्रभु का यह संवाद रोमांचित करने वाला, चित्‍त को प्रसन्‍न करने वाला और आनंदित करने वाला है ।

प्रकाशन तिथि : 24 जनवरी 2019
107 श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार)
अ 18
श्लो 78
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं वहीं श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री संजयजी ने धृतराष्ट्र को कहे ।

यह श्रीमद् भगवद् गीताजी का अंतिम श्लोक है और एक बड़े शाश्‍वत सिद्धांत का प्रतिपादन इसमें मिलता है । धृतराष्ट्र ने श्रीमद् भगवद् गीताजी के पहले अध्याय के आरंभ में युद्ध के बारे में पूछा था । उसका उत्तर देते हुए यहाँ श्री संजयजी ने युद्ध से पहले मानो युद्ध का निर्णय ही बता दिया । युद्ध का निर्णय उन्होंने कैसे पहचाना, यही गौर करने योग्य है । उन्होंने एक शाश्‍वत सिद्धांत को पकड़ लिया कि जिस पक्ष में प्रभु होंगे उसी पक्ष की विजय होगी ।

यह बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है और सदैव याद रखने योग्य है । हमें केवल अपनी भक्ति और शरणागति से प्रभु को अपने पक्ष में करना है और साथ ही धर्मयुक्‍त आचरण करना है जिससे प्रभु हमारे पक्ष में रहे । फिर संसार की बात तो छोड़ें, चाहे पूरा ब्रह्मांड भी हमारे विरुद्ध हो जाए तो भी विजय हमारी ही होगी । इसलिए जीवन में विजय चाहिए तो हमें प्रभु को चुनना पड़ेगा जैसे श्री अर्जुनजी ने बिना शस्त्र धारण करने वाले प्रभु को चुना जबकि दुर्योधन ने प्रभु की जगह शस्त्रों से सुसज्जित प्रभु की श्रीनारायणी सेना को चुना ।

देखा जाए तो युद्ध का निर्णय उसी दिन हो गया था जबकि श्री अर्जुनजी ने शस्त्रों से सुसज्जित श्रीनारायणी सेना को छोड़कर युद्ध न करने की और युद्ध में शस्त्र न उठाने की पूर्व घोषणा करने वाले प्रभु को चुन लिया । गणित की दृष्टि से दुर्योधन ने सही चुनाव किया था और इतनी विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित श्रीनारायणी सेना ले ली । पर शरणागति की दृष्टि से श्री अर्जुनजी का चुनाव सही और श्रेष्‍ठ था । यह इस बात को सिद्ध करता है कि दुनिया में कभी भी हमें पूरे ब्रह्मांड को चुनने का या पाने का मौका आए तो भी हमें उसे ठोकर मारकर प्रभु को ही चुनना चाहिए ।

यह शाश्‍वत सिद्धांत है जिस पक्ष में प्रभु रहेंगे उसी पक्ष में विजय, श्री, प्रभु की विभूतियां और धर्म नीति रहेगी । इसलिए जीवन में प्रभु को अपना बनाकर रखें और स्वयं प्रभु के बनकर रहे ।


आज 26 जनवरी 2019 के दिन मैं बड़ा भावुक हो रहा हूँ क्योंकि आज मेरी माता श्रीमद् भगवद् गीताजी का वेबसाईट पर विश्राम हो रहा है । 03 जनवरी 2018 से शुरू इस यात्रा में मैंने साक्षात प्रभु कृपा का सदैव अनुभव किया है । प्रभु कृपा से ही इस श्रीग्रंथ को पढ़ने की, लिखने की प्रेरणा मुझे मिली है और मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मात्र और मात्र प्रभु कृपा के बल पर ही ऐसा करना संभव हो पाया है । प्रभु के बारे में लिखने का सौभाग्‍य प्रभु किसी को भी दे सकते थे पर प्रभु ने अति कृपा करके यह मुझे दिया इसलिए मैं कृतार्थ हूँ ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी प्रभु का साक्षात श्रीवचन है और प्रभु ने सभी प्रश्‍नों का समाधान इस श्रीग्रंथ में किया है । इसलिए श्रीमद् भगवद् गीताजी मेरी परम माता हैं । मैं रोजाना श्रीमद् भगवद् गीताजी के श्रीग्रंथ को अपने मस्तक पर धारण करके और साष्टांग प्रणाम करके इनका परायण करता हूँ ।
प्रथम पूज्‍य प्रभु श्री गणेशजी का मैं सदैव ऋणी हूँ जिनके श्रीकरकमलों से श्री महाभारतजी का लेखन हुआ जिसके अन्‍तर्गत श्रीमद् भगवद् गीताजी आती हैं । प्रभु की कृपा के साथ-साथ तीन महात्माओं के आशीर्वाद का मैंने साक्षात अनुभव किया है । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी की प्रेरणा से श्री महाभारतजी का लेखन हुआ इसलिए उनका आशीर्वाद मेरे ऊपर सदा रहा है, ऐसा मैंने अनुभव किया है । प्रभु श्री वेदव्यासजी ने श्री महाभारतजी और उनके अन्‍तर्गत श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु के श्रीवचनों का संकलन किया इसलिए उनके आशीर्वाद को मैंने अनुभव सदैव किया है । प्रभु के प्रिय श्री अर्जुनजी ने निमित्‍त बनकर श्रीमद् भगवद् गीताजी का उपदेश प्रभु से कहलवाकर सबको कृतार्थ किया इसलिए उनके आशीर्वाद का भी मैंने अनुभव किया है ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी भक्ति और शरणागति का प्रतिपादन करने वाला श्रीग्रंथ है इसलिए मुझे अति-अति प्रिय है । मेरी पक्की धारणा है कि भक्ति और भक्ति के अन्‍तर्गत प्रभु की शरणागति से बड़ा प्राप्त करने योग्य इस मानव जीवन में अन्य कुछ भी नहीं है ।
जो कुछ भी लेखन हुआ है वह प्रभु की कृपा के बल पर हुआ है और उसे मैं प्रभु के श्रीकमलचरणों में सादर समर्पित करता हूँ । श्रीमद् भगवद् गीताजी में मेरी अगाध श्रद्धा है और यह मेरा परम धन है ।
प्रभु की भक्ति और प्रभु की शरणागति करवाने में श्रीमद् भगवद् गीताजी का ही योगदान मेरे जीवन में रहा है । इसलिए इस श्रीग्रंथ को मैं नमन करता हूँ और इन्हें सदैव अपने मस्तक पर धारण करके रख पांऊ, ऐसी प्रभु से प्रार्थना करता हूँ ।
श्रीमद् भगवद् गीता माता से यही प्रार्थना है कि हम उनकी छत्रछाया में सदैव रहें और उनकी कृपा सदैव हम पर बनी रहे ।
मेरा प्रयास मेरे प्रभु को प्रिय लगे इसी अभिलाषा के साथ में उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में पुनः सादर समर्पित करता हूँ ।
प्रभु का,
चन्‍द्रशेखर कर्वा


प्रकाशन तिथि : 26 जनवरी 2019
. . .
.
.