क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
85 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भक्ति योग) |
अ 12
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझ भगवान में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ । इस प्रकार तुम निःसंदेह मुझमें सदैव वास करोगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु को ही परम श्रेष्ठ और परम प्राणप्रिय मानकर हमें अपनी बुद्धि और मन को प्रभु में लगाना चाहिए । मन और बुद्धि प्रभु में लगने का तात्पर्य यह है कि उन्हें संसार से हटाकर दृढ़ता से प्रभु में लगाए और यह जीवन में निश्चय कर ले कि मेरे लिए सर्वोपरि, परम श्रेष्ठ और परम प्राणप्रिय केवल और केवल प्रभु ही हैं । ऐसा दृढ़ निश्चय होते ही संसार का महत्व और संसार का चिंतन समाप्त हो जाएगा और प्रभु के साथ हमारा संबंध जुड़ जाएगा ।
संसार के विषयों में मन और बुद्धि लगाने से प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती । मन और बुद्धि को प्रभु में लगाकर प्रभु प्राप्ति का निश्चय जीवन में कर लेने से हमारा मानव जीवन सफल हो जाता है । जीवन के ऐसे निश्चय को सफल होने की शक्ति भी प्रभु ही प्रदान करते हैं । इस निश्चय मात्र का प्रभाव इतना है कि यह प्रभु को हमारा बना देता है । प्रभु इस श्लोक में श्री अर्जुनजी को स्पष्ट कहते हैं कि प्रभु में मन और बुद्धि लगाने वाला जीव प्रभु के हृदय में निवास करेगा, इसमें कोई संशय नहीं है ।
जीव सोचता है कि अच्छे कर्म, अच्छा आचरण करने पर स्वतः ही प्रभु प्राप्ति हो जाएगी पर प्रभु कहते हैं कि जब तक जीव अपने मन और बुद्धि को प्रभु में नहीं लगाता तब तक प्रभु प्राप्ति में संशय है । पर एक बार जो जीव अपने मन और बुद्धि को प्रभु में लगा देता है, उसको निश्चित रूप से प्रभु प्राप्ति होती है, इसमें कोई संशय नहीं है । जिस समय हमारा मन और बुद्धि एकमात्र प्रभु में सर्वथा लग जाती है उसी क्षण प्रभु अपने श्रीकमलचरणों में हमें विश्राम दे देते हैं ।
हमारा मन और बुद्धि प्रभु की संपत्ति है क्योंकि हम प्रभु के ही अंश हैं पर हमने अपने मन और बुद्धि को गलती से प्रभु से न जोड़कर संसार से जोड़ रखा है । जब संसार से हम अपने मन और बुद्धि का संबंध तोड़ लेते हैं तो उनका स्वतः ही प्रभु के साथ नित्य संबंध जुड़ जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 13 दिसम्बर 2018 |
86 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भक्ति योग) |
अ 12
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझमें स्थित नहीं कर सकते तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ने इस श्लोक में अपने मन और बुद्धि को प्रभु में स्थिर करने के लिए भक्ति का अभ्यास बताया है । इस श्लोक में प्रभु ने भक्ति का प्रतिपादन किया है कि अपने मन और बुद्धि को प्रभु में स्थिर करने के लिए यही सबसे उपयुक्त साधन है । जब हम जीवन में भक्ति का अभ्यास करते हैं तब हमारी सभी इंद्रियां प्रभु की सेवा में लग जाती है ।
भक्ति में हम नेत्रों से प्रभु के श्रीविग्रह के दर्शन करते हैं । भक्ति में हम अपनी जिह्वा से प्रभु के नाम का जप करते हैं । भक्ति में हम कानों से प्रभु की कथा का श्रवण करते हैं । भक्ति में हम अपने हाथों से प्रभु की सेवा करते हैं । भक्ति में हम अपने चरणों से प्रभु के तीर्थों और मंदिर में जाने का काम करते हैं । इस तरह शरीर का हर अंग प्रभु सेवा से जुड़ जाता है और हमारी समस्त इंद्रियां भी इस तरह प्रभु से जुड़ जाती है ।
जब हमारी इंद्रियां प्रभु से जुड़ती है तो उनका संसार का आकर्षण स्वतः ही नष्ट हो जाता है । जब हमारी इंद्रियां प्रभु से जुड़ती हैं तो हमारा मन और बुद्धि भी प्रभु में केंद्रित हो जाते हैं । भक्ति के अलावा कोई ऐसा साधन नहीं जो हमें संसार से हटाकर इतनी सुगमता से प्रभु से जोड़ दे । इसलिए प्रभु ने इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा है कि अगर कोई जीव अपने चित्त को अविचल रूप से प्रभु में स्थिर नहीं कर पाए तो उसे बिना विलंब भक्तियोग को स्वीकार करना चाहिए ।
भक्ति मार्ग पर जब कोई साधक चलता है तो प्रभु उसे पथभ्रष्ट नहीं होने देते और अपने तक आने देते हैं । भक्ति प्रभु का सबसे प्रिय मार्ग है इसलिए प्रभु ने यहाँ पर केवल भक्ति का ही प्रतिपादन किया है । जीव को प्रभु प्राप्ति के लिए निःसंकोच भक्ति मार्ग पर ही चलना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 15 दिसम्बर 2018 |
87 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भक्ति योग) |
अ 12
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो इस भक्ति के अमर पद का अनुसरण करते हैं और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाकर श्रद्धासहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ने इस बारहवें अध्याय के भक्ति योग के प्रकरण में तेरहवें से उन्नीसवें श्लोक तक प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से चेष्टा करने वाले भक्तों के लक्षण कहे हैं । प्रभु का मत है कि परमार्थ के विषय में जिसकी बुद्धि स्थिर है ऐसे भक्तजन प्रभु को अत्यंत प्रिय हैं । प्रभु ने ऐसे भक्तों को अपना अत्यधिक प्रिय बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी । संत श्री ज्ञानेश्वरजी के अनुसार प्रभु ऐसे भक्तों का ध्यान करते हैं, ऐसे भक्तों की पूजा ही प्रभु की देव पूजा होती है और प्रभु ऐसे भक्तों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी उत्तम या श्रेष्ठ नहीं मानते ।
भक्ति में भक्त पर प्रसन्न होकर प्रभु उसे अपना प्रेम प्रदान करते हैं । भक्त उसे प्राप्त प्रेम को वापस प्रभु से और ज्यादा प्रीति करने में लगा देता है । प्रभु उस भक्त की इस क्रिया से आनंदित होते हैं और पुनः उसे और ज्यादा प्रेम प्रदान करते हैं । भक्त पुनः उसे प्रभु से और भी अधिक प्रीति करने में लगा देता है । इस प्रकार भक्त और प्रभु के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम का आदान-प्रदान होता चला जाता है ।
सिद्ध भक्तों के बहुत सारे लक्षण प्रभु ने इस अध्याय में बताए हैं । सारांश के रूप में हमें समझना चाहिए कि भक्त का उद्देश्य किंचित मात्र भी धन, मान, बड़ाई, आदर, सत्कार, संग्रह और सुखभोग आदि का न होकर और एकमात्र उद्देश्य प्रभु प्राप्ति का ही होना चाहिए । भक्त को ध्यान रखना चाहिए कि किसी कारणवश आंशिक रूप से कोई दोषमय वृत्ति उसके जीवन में उत्पन्न हो जाए तो उसे तत्परता से जीवन से हटाने की चेष्टा करनी चाहिए । चेष्टा करने पर भी न हटे तो व्याकुलतापूर्वक प्रभु से उसे हटाने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए ।
भक्ति का पथ सही मायने में अमर पथ है और जो श्रद्धापूर्वक इसका अनुसरण करते हैं वे ही प्रभु को अत्यधिक प्रिय होते हैं । इस श्लोक में भक्त को अपना सबसे प्रिय बताकर प्रभु ने सभी साधनों में भक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
भक्ति योग के इस अध्याय का उद्देश्य यह बताना है कि जीवन के सारे कर्म प्रभु के परमधाम वापस जाने के उद्देश्य से किए जाए क्योंकि यही जीवन की चरम उपलब्धि भी है । जीवन की सभी क्रियाएं प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करनी चाहिए । भक्ति ही एकमात्र जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिए । भक्ति करने वाले को भीतर से संसार का त्याग करना पड़ता है । भीतर का त्याग ही असली त्याग है । भीतर का त्याग बाहर के त्याग से बहुत बड़ा है ।
सत्संग, कथा, भक्त चरित्र सुनने से अगर किसी को वैराग्य हो जाता है और वह प्रभु को पाने के लिए आवश्यक कर्तव्य कर्मों को भी छोड़ देता है और केवल भगवान की भक्ति में लग जाता है तो उसका त्याग सात्विक है क्योंकि प्रभु को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है । अतः उस ध्येय की सिद्धि के लिए कर्तव्य कर्म का त्याग करना वास्तव में कर्तव्य का त्याग नहीं है प्रत्युत असली कर्तव्य को करना है । मानव जन्म प्राप्त कर जीव का असली कर्तव्य कर्म भगवत् प्राप्ति के अलावा कुछ भी नहीं है ।
देवतागण भी निरंतर यही कहते हैं कि जिन्होंने भारतवर्ष में जन्म लिया है वह हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक बड़भागी हैं क्योंकि भारतवर्ष प्रभु की भक्ति करने योग्य पुण्य भूमि है जहाँ प्रभु प्रसन्न होते हैं और अपना सानिध्य प्रदान करते हैं । भारतवर्ष में जन्म परम सौभाग्य से ही मिलता है क्योंकि यह भक्ति भूमि है और यहाँ भक्ति का साधन बहुत सुलभता से किया जा सकता है । इसलिए मनुष्य योनि पाकर और भारतवर्ष में जन्म पाकर जीवन में भक्ति ही करनी चाहिए तभी जीवन की पूर्ण धन्यता है ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 17 दिसम्बर 2018 |
88 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रकृति, पुरुष और चेतना) |
अ 13
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनके हाथ, पांव, आँखें, सिर, मुँह तथा कान सर्वत्र हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु सर्वत्र उपस्थित हैं इस तथ्य का यहाँ प्रतिपादन किया गया है । जहाँ-जहाँ हम भक्ति के द्वारा प्रभु को कुछ भी अर्पण करना चाहते हैं, उसे ग्रहण करने के लिए उसी जगह प्रभु के श्रीहाथ मौजूद रहते हैं । भक्त बाहर से कुछ अर्पण करना चाहे अथवा मन से, पूर्व दिशा से अर्पण करना चाहे या पश्चिम से, उत्तर दिशा से अर्पण करना चाहे या दक्षिण से, उसे ग्रहण करने के लिए प्रभु के श्रीहाथ सर्वत्र मौजूद रहते हैं ।
इस तथ्य को दूसरी तरह से भी समझना चाहिए । भक्त जल में, स्थल में, अग्नि में या जहाँ कहीं भी जिस किसी भी जगह अगर संकट में फंसता है और प्रभु को पुकारता है तो उसकी रक्षा करने के लिए प्रभु के श्रीहाथ सदैव उसी जगह मौजूद रहते हैं । प्रभु को उस भक्त की रक्षा करने के लिए कहीं से आना नहीं पड़ता क्योंकि प्रभु सर्वत्र एक ही समय मौजूद हैं ।
इसी तरह भक्त जहाँ भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रणाम करना चाहता है प्रभु के श्रीकमलचरण उसी जगह मौजूद मिलेंगे । भाव के अनुसार भक्त जहाँ भी प्रभु के श्रीकमलचरणों की भावना करता है वहाँ ही प्रभु के श्रीकमलचरण मौजूद रहते हैं । इसी तरह हमें यह समझना चाहिए कि जहाँ हम जो कुछ भी कर रहे हैं प्रभु के श्रीनेत्र वहाँ मौजूद हैं और हमें देख रहे हैं । प्रभु की दृष्टि से कभी भी कोई जीव किसी भी परिस्थिति में ओझल नहीं हो सकता । हमारा जहाँ भी प्रभु को भोग लगाने की इच्छा हो प्रभु के श्रीमुँह को हम वही पाएंगे । भक्त द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण पदार्थ को प्रभु वहीं आरोग लेते हैं । इसी तरह भक्त जहाँ-जहाँ जोर से बोल कर या धीरे से बोल कर प्रार्थना करता है वहीं प्रभु के श्रीकर्ण उसे सुन लेते हैं ।
प्रभु के सब जगह हाथ, पैर, नेत्र, सिर, मुँह तथा कान होने का तात्पर्य यह है कि प्रभु किसी भी प्राणी से दूर नहीं हैं । प्रभु हर देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में परिपूर्ण रूप से विद्यमान रहते हैं ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
भक्ति के द्वारा ही प्रभु को समझा जा सकता है इसलिए अगर जीव भक्ति करके प्रभु की शरण में चला जाता है तो प्रभु उसके अज्ञान को भी दूर कर देते हैं और अपनी माया को भी उससे दूर कर देते हैं । इसलिए प्रभु की भक्ति ही जीव का सर्वोच्च धर्म है । मनुष्य जैसा अमूल्य अवसर पाकर भी जो भक्ति के द्वारा अपना उद्धार नहीं करता वह मानो अपनी हत्या ही कर लेता है । भक्ति नहीं करके प्रभु से विमुख होने के कारण ही जीव को संसार में बार-बार जन्म लेना पड़ता है ।
जीव को इसलिए प्रभु की तरफ अपनी वृत्ति को लगाना चाहिए और संसार की तरफ से अपनी वृत्ति को हटाना चाहिए । प्रभु से सच्चा प्रेम होगा तो संसार से स्वतः ही वैराग्य हो जाएगा । मनुष्य जीवन का उद्देश्य भोग भोगना नहीं अपितु प्रभु की प्राप्ति करना है । इसलिए जीवन में प्रभु ही हमारे एकमात्र लक्ष्य होने चाहिए । जो प्रभु की भक्ति में लग जाता है उसके पुराने संचित पापों का स्वतः ही अंत हो जाता है । इसलिए प्रभु के सम्मुख होना सबसे बड़ा पुण्य है और प्रभु से विमुख होना सबसे बड़ा पाप है ।
प्रभु के लिए सदैव ही एकनिष्ठा का भाव हमारे हृदय में जागृत करके रखना चाहिए । हमें यह अभिमान नहीं करना चाहिए कि मैंने ऐसा कर लिया जिससे ऐसा हो गया । हमें सदैव यह सोचना चाहिए कि प्रभु के आश्रय और कृपा से ही ऐसा हुआ है । वैसे तो प्रभु की माया से तरना बड़ा दुष्कर है पर जो प्रभु की शरण में चले जाते हैं वे माया से तर जाते हैं । भक्ति के द्वारा अपनी इंद्रियों को प्रिय लगने वाले विषयों को हमें बाहर निकाल फेंकना चाहिए । हमें सांसारिक पदार्थों से सर्वथा विमुख होकर केवल प्रभु के परायण होना चाहिए ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 19 दिसम्बर 2018 |
89 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रकृति के तीन गुण) |
अ 14
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
श्री अर्जुनजी के पूछने पर प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी के चौदहवें अध्याय में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के बारे में विस्तार से बताया । फिर श्री अर्जुनजी के पूछने पर प्रभु ने इन तीनों गुणों से अतीत हुए मनुष्य के लक्षण बताए जो गुणातीत कहलाते हैं । पर फिर प्रभु ने जो कहा वह सबसे महत्वपूर्ण है । प्रभु कहते हैं कि जो जीव और कुछ भी नहीं करता, केवल भक्ति के द्वारा प्रभु का सेवन करता है वह तीनों गुणों को लांघ जाता है और प्रभु प्राप्ति का पात्र बन जाता है ।
प्रभु की भक्ति अतीव सरल है और प्रभु की भक्ति करने वाला भी अतीव सरलता से तीनों गुणों को लांघकर प्रभु प्राप्ति कर लेता है । प्रभु ने गुणातीत होने का भक्ति को सबसे उत्तम उपाय बताया है । जब हम दूसरे किसी भी योग का सहारा नहीं लेते और भक्तियोग के अंतर्गत केवल प्रभु का सहारा और आश्रय लेते हैं और प्रभु से ही आशा रखते हैं और प्रभु का ही विश्वास रखते हैं तो हमें गुणातीत होने के लिए गुणों का अतिक्रमण नहीं करना पड़ता । प्रभु की कृपा के द्वारा स्वतः ही जीवन में गुणों का अतिक्रमण हो जाता है ।
प्रभु की कृपा से तब जीव गुणों का अतिक्रमण करके प्रभु प्राप्ति का पात्र बन जाता है । दूसरे अर्थ में प्रभु ने यहाँ भक्ति को प्रभु प्राप्ति का सबसे सरल और सफल उपाय बताया है । प्रभु यहाँ पर जोर देकर कहते हैं कि जो भक्तियोग से प्रभु का सेवन करता है उसे प्रभु प्राप्ति का पात्र बनने के लिए दूसरा कोई भी साधन नहीं करना पड़ता प्रत्युत वह स्वतः ही अपने आप प्रभु प्राप्ति का पात्र हो जाता है । भक्ति का ऐसा साधन करने वाले जीव के लिए प्रभु प्राप्ति स्वत: सिद्ध है ।
प्रभु प्राप्ति का अधिकारी भक्ति हमें स्वतः ही बना देती है । इसलिए जीव को मनुष्य जन्म लेने पर जीवन में भक्ति का ही आश्रय लेना चाहिए । भक्ति से श्रेष्ठ और भक्ति से सरल प्रभु प्राप्ति का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
प्रभु अपने भक्तों को इतना मान देते हैं कि प्रभु कहते हैं कि मैं तो मेरे भक्तों का दास हूँ और भक्त मेरे मुकुटमणि हैं । परम स्वतंत्र प्रभु आगे कहते हैं कि मैं स्वतंत्र नहीं हूँ और अपने भक्तों के पराधीन हूँ । मेरे भक्तजन मुझे अत्यंत प्यारे हैं । प्रभु कहते हैं कि मेरे भक्तों का मेरे हृदय पर पूर्ण अधिकार है । प्रभु अखिल ब्रह्मांड के नायक हैं फिर भी अपने भक्तों के वश में हो जाते हैं, यह प्रभु की कितनी बड़ी और विलक्षण करुणा है ।
इसलिए जीवन में प्रभु का जितना-जितना विश्वास होता चला जाता है और प्रभु पर हम जितने-जितने आश्रित होते चले जाते हैं उतना-उतना ही हम जीवन में अभय होते चले जाते हैं और हमारा उद्धार होता चला जाता है । इस संसार में मानव जन्म हमें प्रभु प्राप्ति के लिए ही मिला है । जैसे स्वप्न में जल पीने से प्यास नहीं मिटती वैसे ही संसार में आकर जीवन में संग्रह करने और भोग भोगने से हमें कभी शांति नहीं मिल सकती । संसार से संबंध जोड़कर मनुष्य चाहता तो सुख है पर अंत में पाता दुःख-ही-दुःख है ।
इसलिए संसार से विमुख हो जाना ही असली त्याग है । भीतर की कामना का सर्वथा त्याग होने पर तत्काल शांति की प्राप्ति होती है । संसार से विमुख होकर और अपनी कामना का त्याग करने पर हमारे हृदय में प्रभु के लिए प्रेम की जागृति हो जाती है । जीवन में प्रभु से इतना प्रेम हो जाना चाहिए कि प्रभु हमें अपने प्राणों से भी प्यारे लगने लगे । भक्तों को प्रभु उनके प्राणों से भी कोटि-कोटि गुना अधिक प्यारे लगते हैं । इसलिए प्रभु अपने भक्तों के प्राणनाथ, प्राणेश्वर और प्राणप्रिय होते हैं ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 21 दिसम्बर 2018 |
90 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(पुरुषोत्तम योग) |
अ 15
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु का अंश होने के कारण जीव का एकमात्र वास्तविक संबंध केवल और केवल प्रभु के साथ ही है । यह नियम है कि जहाँ से बंधन होता है वहीं से छुटकारा भी लेना होता है । मनुष्य योनि में ही जीव बंधता है अतः मनुष्य योनि से ही वह मुक्त भी हो सकता है । संसार से संबंध बना रहने से प्रभु के साथ अपने संबंध में ढिलाई आती है और जप, कीर्तन, स्वाध्याय आदि सब कुछ करने पर भी कोई विशेष लाभ नहीं होता । इसलिए प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में यहाँ पर स्पष्ट कहा है कि साधक को पहले संसार से संबंध विच्छेद करने को जीवन में प्राथमिकता देनी चाहिए ।
मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही एकमात्र मेरे हैं, इस वास्तविकता पर दृढ़ता के साथ जीवन में डटे रहना चाहिए । जीव प्रभु का अंश है पर संसार से संबंध मान लेने के कारण वह अपने अंशी यानी प्रभु के साथ अपने नित्य संबंध को भूल गया है । जो साधक जग जाता है उसका फिर संसार के साथ कभी संबंध होता नहीं और प्रभु से उसका संबंध कभी छूटता नहीं । वास्तव में संसार से संबंध विच्छेद होने पर ही प्रभु की अनुभूति हो सकती है ।
प्रभु के सिवाय अन्य कोई भी संबंध या आश्रय जीवन में टिकने वाला नहीं है । यह भाव जीवन में होना चाहिए कि मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु के लिए ही हूँ । लंबे रास्ते का तो अंत आ सकता है पर गोल रास्ते का अंत कैसे आएगा । संसार से संबंध रखना और कोल्हू के बैल की तरह जन्म लेने के बाद मरना और मरने के बाद फिर जन्म लेना, यह गोल रास्ता है और इसका कहीं भी कोई अंत नहीं है ।
इसलिए प्रभु ने इस श्लोक में संसार को एक वृक्ष की संज्ञा दी है और कहा है कि विरक्ति के शस्त्र से इसे काट गिराया जाए यानी इस संसार से अपना संबंध विच्छेद किया जाए । ऐसा होने पर ही प्रभु से हमारा जो नित्य संबंध है उसका हमें भान होगा और प्रभु प्राप्ति के लिए हमारे जीवन में प्रयास होगा ।
प्रकाशन तिथि : 23 दिसम्बर 2018 |
91 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(पुरुषोत्तम योग) |
अ 15
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं वे इस भौतिक जगत में फिर से लौट कर नहीं आते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो मान और मोह से रहित हो जाते हैं और कामनाओं से निवृत्त हो जाते हैं एवं सुख-दुःख के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं, वे साधक जिन्हें प्रभु भक्त कहते हैं, प्रभु को प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारा अपनापन केवल प्रभु से ही होना चाहिए । प्रभु में आकर्षण होना प्रेम है जबकि संसार में आकर्षण होना आसक्ति है । प्रभु के परायण होने के कारण भक्त की संसारी भोगों में आसक्ति नहीं रहती ।
जीवन में कामनाओं के रहते प्रभु कभी भी नहीं मिल सकते । इसलिए जीवन में कामनाओं से निवृत्त होनी चाहिए और उनकी पूर्ति की चेष्टा नहीं करनी चाहिए । भक्त सुख-दुःख, हर्ष-शोक, राग-द्वेष से रहित हो अनुकूल और प्रतिकूल जो भी परिस्थिति आती है उसे प्रभु का दिया प्रसाद मानते हैं । उनकी दृष्टि से उन्हें केवल भगवत् कृपा ही दिखती है और जो कुछ उनके जीवन में होता है उसे वे अपने प्यारे प्रभु का मंगलमय विधान मानते हैं । इसलिए भक्त सदैव प्रभु के विधान में परम प्रसन्न रहते हैं ।
हम प्रभु के अंश हैं इसलिए प्रभु का जो धाम है वही हमारा असली घर है । हमें मनुष्य जीवन में भक्ति करके ऐसा प्रयास करना चाहिए कि हमें अपने असली घर यानी प्रभु के धाम की प्राप्ति हो जाए जहाँ से फिर हमें संसार में लौटकर नहीं आना पड़े । जब तक हम हमारे घर यानी प्रभु के धाम नहीं पहुँचेंगे तब तक मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में घूमते ही रहेंगे । विभिन्न योनियों में घूमना, भटकना तभी बंद होगा जब हम अपने असली घर यानी प्रभु के धाम पहुँच जाएंगे । केवल भक्ति मार्ग के द्वारा ही प्रभु के धाम की प्राप्ति बताई गई है । यह भक्ति की विशेषता है कि हम केवल और केवल भक्ति से ही प्रभु के धाम पहुँच सकते हैं ।
इसलिए जीवन में भक्ति का अवलंबन लेकर और संसार को भूलकर प्रभु धाम की प्राप्ति का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 दिसम्बर 2018 |
92 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(पुरुषोत्तम योग) |
अ 15
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
करुणामय प्रभु इस श्लोक में स्पष्ट कहते हैं कि संसार का हर जीव प्रभु का ही सनातन अंश है । यहाँ प्रभु यह वास्तविकता प्रकट करते हैं कि जीव केवल और केवल प्रभु का ही अंश है । जीव संसार का नहीं बल्कि प्रभु का ही है । जैसे एक सिंह का बच्चा भेड़ों में मिलकर अपने आप को भेड़ मानने लगता है वैसे ही हम संसार से मिलकर अपने आपको संसार का मानने लग जाते हैं । जैसे सिंह का बच्चा भेड़ों के साथ मिलकर भी भेड़ नहीं हो जाता वैसे ही जीव संसार के साथ मिलकर भी संसार का नहीं हो सकता ।
जैसे सिंह के बच्चे को कोई दूसरा सिंह आकर बोध कराता है कि वह आकृति, स्वभाव, जाति और गर्जना से वह सिंह है वैसे ही प्रभु हमें बोध कराते हैं कि जीव प्रभु का ही अंश है । संसार के साथ जीव का स्थाई संबंध कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । जीव को चाहिए कि नाटक के स्वांग के तरह अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करे पर वह केवल प्रभु का ही है, इस वास्तविकता को सदा ध्यान रखे । हमें अपने मन और बुद्धि को सदा प्रभु में लगाकर रखना चाहिए पर हमारा दुर्भाग्य है कि हम उसे संसार में लगाकर रखते हैं ।
जैसे नाटक का किरदार संसार के सामने नाटक की सभी क्रियाएं करता है पर वह सब बाहरी होती है । भीतर से उसे पता होता है कि वह सब स्वांग है और वास्तव में वह जो कर रहा है वह सत्य नहीं है । ऐसे ही भक्त को नाटक के स्वांग की तरह संसाररूपी नाट्यशाला में अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए पर भीतर से यह भाव दृढ़ और जागृत रखना चाहिए कि वह केवल प्रभु का ही है । जीव सनातन रूप से प्रभु का है क्योंकि प्रभु ने कभी भी जीव का त्याग नहीं किया और न ही कभी जीव से विमुख हुए हैं ।
जिस प्रकार सोने के गहने में सोना रहता है वैसे ही जीव में प्रभु का अंश रहता ही है । प्रभु इतने उदार, दयालु और कृपालु हैं कि जीव भूल से भी अपने अंशी प्रभु से विमुख हो जाए तो भी प्रभु जीव से कभी विमुख नहीं होते । इसलिए जीव जिनका अंश है उन सर्वोपरि प्रभु को प्राप्त करने में ही उसके जीवन का सबसे बड़ा लाभ है ।
प्रकाशन तिथि : 27 दिसम्बर 2018 |
93 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(पुरुषोत्तम योग) |
अ 15
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं ही संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ, संपूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ने यहाँ पर मुख्य रूप से दो बातें कही हैं । प्रभु सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं । यद्यपि प्रभु हमारे शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि आदि सभी स्थानों पर हैं तथापि प्रभु ने यहाँ कहा है कि वे हमारे हृदय में विशेष रूप से विद्यमान हैं । इससे स्पष्ट है कि प्रभु ही हमारे प्रत्येक के अत्यंत नजदीक हृदय में वास करते हैं । इसलिए हमें प्रभु प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा, लगन और व्याकुलता रखनी चाहिए क्योंकि प्रभु हमारे सबसे समीप हृदय में स्थित हैं ।
प्रभु के अंश होते हुए भी और प्रभु हमारे सबसे समीप होते हुए भी जीव प्रभु को भूल जाता है और प्रभु से विमुख हो जाता है और अपना संबंध संसार से मानने लगता है । प्रभु का इस श्लोक में यह कथन प्रभु का वास्तविक ज्ञान करवाने और उनकी प्राप्ति जीवन में कराने के लिए है ।
दूसरी बात जो प्रभु ने कही है वह यह कि एकमात्र जानने योग्य प्रभु ही हैं । प्रभु को जान लेने के बाद फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता । प्रभु को जाने बिना अन्य जीवन में जो कुछ भी जाना तो वह व्यर्थ का परिश्रम है । यहाँ तक कहा गया है कि श्रीवेदों को पढ़कर भी जो उनके द्वारा जानने योग्य प्रभु को नहीं जान पाया, वह मूढ़ केवल श्रीवेदों का बोझ ढोने वाला ही माना जाएगा । यह सिद्धांत है कि संपूर्ण श्रीवेदों, श्रीग्रंथों और शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य केवल प्रभु ही हैं । सभी का एकमात्र यही उद्देश्य है कि जीव की पहचान प्रभु के साथ हो जाए और जीव अपना संबंध प्रभु से जोड़ ले ।
हमें जीवन में प्रभु के लिए जिज्ञासु बनना चाहिए । प्रभु के सिवाय दूसरा कोई तत्व ब्रह्मांड में है ही नहीं और हो सकता भी नहीं । प्रभु सभी जीवों में स्थित हैं और संसार में एकमात्र जानने योग्य हैं ।
प्रकाशन तिथि : 29 दिसम्बर 2018 |
94 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(पुरुषोत्तम योग) |
अ 15
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ही वास्तव में तीनों लोकों के संपूर्ण प्राणियों का भरण पोषण करते हैं । जब तक जीव प्रभु से अपने नित्य शाश्वत संबंध को नहीं पहचान पाता तब तक जीव को इस तथ्य का आभास नहीं होता । जीवात्मा संसार से अपना संबंध मान लेने की भूल करता है और इस कारण अपने भरण पोषण का भार अपने स्वयं के ऊपर मानता है । पर प्रभु का शरणागत भक्त ही केवल इस बात को ठीक तरह से समझ पाता है कि एकमात्र प्रभु ही सभी का पालन पोषण कर रहे हैं ।
जैसे सांसारिक माता पिता एक नवजात शिशु के लिए सब कुछ करते हैं पर उस नवजात शिशु को ज्ञान नहीं होता कि उसका पालन-पोषण कौन, कैसे और किस लिए कर रहा है । वैसे ही जो भक्ति से प्रभु से जुड़े हुए नहीं हैं उनको ज्ञात नहीं होता कि वास्तविकता में उनका पालन पोषण कौन कर रहा है । प्रभु सभी के परमपिता हैं और भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक सभी का समान रूप से पालन पोषण करते हैं ।
जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी सबको समान रूप से प्रकाश देते हैं वैसे ही प्रभु सभी का पालन पोषण समान रूप से करते हैं । तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं जो यह कह सके कि मेरे पालन पोषण का दायित्व मेरे ऊपर है । जो ऐसा मानता है वह अज्ञानी और मूढ़ है । एक चींटी का भी पालन पोषण प्रभु करते हैं और एक नास्तिक का भी पालन पोषण प्रभु ही करते हैं । दोनों सुबह खाली पेट उठते हैं पर दोनों की व्यवस्था प्रभु करते हैं और रात्रि में दोनों पेट भर कर सोते हैं । एक नवजात शिशु जिसको अपना कुछ भी ज्ञान नहीं होता उसका भी पालन पोषण उसके सांसारिक माता पिता के मन में ममता भरकर और उनको माध्यम बनाकर प्रभु ही करते हैं ।
प्रभु हमारा युगों-युगों से हर योनि में पालन पोषण करते आ रहे हैं । प्रभु के इस उपकार को ऋण के रूप में जीव को सदा याद रखना चाहिए जिससे हम कभी भी उऋण नहीं हो सकते ।
प्रकाशन तिथि : 31 दिसम्बर 2018 |
95 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(पुरुषोत्तम योग) |
अ 15
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मोहरहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु सभी लोकों में और श्रीवेदों में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हैं । प्रभु से बढ़कर त्रिलोकी में कोई नहीं है अतएव प्रभु ही पुरुषोत्तम हैं । प्रभु के पुरुषोत्तम स्वरूप का ही श्रीवेदों में वर्णन हुआ है । प्रभु परम आत्मा, परम पुरुष और पुरुषोत्तम कहलाते हैं । परमात्मा शब्द से ही पुरुषोत्तम होने की सूचना होती है । इतना ही समझ लेना चाहिए कि प्रभु एकमात्र और अद्वितीय हैं इसलिए सभी लोकों और श्रीवेदों में पुरुषोत्तम कहलाते हैं ।
जब हम पुरुषोत्तम प्रभु को सच्चे रूप में जानने लगते हैं तो हमें संसार से अपनी भिन्नता का अनुभव हो जाता है और संसार से हमारे माने हुए संबंध का विच्छेद हो जाता है । फिर हमें प्रभु के साथ अपने वास्तविक संबंध का अनुभव होता है । संसार से अपना संबंध मानना व्यभिचार दोष है । जिसकी मूढ़ता सर्वथा नष्ट हो गई है वही मनुष्य पुरुषोत्तम प्रभु के सन्मुख होकर प्रभु को सर्वोपरि मान प्रभु की भक्ति करता है ।
संसार के साथ थोड़ा-सा भी खिंचाव जीवन में नहीं रहना चाहिए और दृढ़ता के साथ हमें अपना एकमात्र संबंध प्रभु से ही मानना चाहिए । जिसका एकमात्र संबंध केवल प्रभु के साथ ही रहता है वह सब प्रकार से स्वतः ही जीवन में प्रभु की ही भक्ति करता है । ऐसा जीव संसार से अपने चित्त को हटाकर उसे प्रभु में केंद्रित कर देता है । फिर वह जीव अपनी बुद्धि, वृत्ति और क्रिया से प्रभु की भक्ति में लग जाता है । उस भक्त की फिर सभी क्रियाएं प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही होती है । यह सिद्धांत है कि अगर हमने जीवन में प्रभु को सर्वोपरि मान लिया तो उसके बाद हम प्रभु की भक्ति में ही अपना जीवन अर्पण करेंगे ।
शास्त्रों ने स्पष्ट कहा है कि जो प्रभु को अपने जीवन में नहीं जान पाता वह मूढ़ है और जो प्रभु को जान लेता है वही मनुष्य कहलाने योग्य है । प्रभु को जानने वाला मनुष्य सब प्रकार से प्रभु की भक्ति में ही लगा रहता है क्योंकि उसकी दृष्टि में उसके लिए प्रभु ही सब कुछ होते हैं ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
भक्ति में प्रभु के साथ संबंध जोड़ना मुख्य बात है । इसलिए भक्त को जप, ध्यान, कीर्तन आदि को कर्तव्य समझ कर नहीं अपितु प्रभु यानी अपने प्रियतम का काम समझकर उनकी प्रसन्नता के लिए करना चाहिए । इससे भक्त के हृदय में प्रभु के लिए प्रेम का उदय होना चाहिए । भक्त को प्रभु की प्रत्येक वस्तु यानी प्रभु के नाम, रूप, गुण, लीला आदि प्रिय लगनी चाहिए । जो मनुष्य प्रभु की आज्ञा के अनुसार प्रभु की प्रसन्नता के लिए और प्रभु को सर्वथा समर्पित करके भक्ति करता है उस भक्त के प्रभु भी भक्त बन जाते हैं ।
स्त्री, पुत्र, परिवार, भोजन और धन-संपत्ति में तो संतोष करना चाहिए पर स्वाध्याय, पाठ-पूजा, नाम-जप, सत्संग, कीर्तन और भक्ति के अन्य साधन में कभी भी संतोष नहीं करना चाहिए । पर हम जीव इसका ठीक उल्टा करते हैं । हम भक्ति में तो आसानी से संतोष कर लेते हैं और संसार के लिए हमारे मन में संतोष नहीं होता । जब कोई भक्त भगवत् संबंधी कर्म जैसे जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि करता है और उसमें संतोष नहीं करता तो उसका वह कर्म भक्तियोग बन जाता है ।
जिनका उद्देश्य केवल प्रभु हैं और संसार के भोग संग्रह नहीं है, उनके लिए सत्संग, स्वाध्याय, जप, ध्यान, कथा, कीर्तन आदि भगवत् संबंधी कार्य ही जीवन के मुख्य उद्देश्य बन जाते हैं । जीव यह सब करके प्रभु की प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है । प्रभु का अंश होने के कारण सभी जीव प्रभु की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं । किसी भी जाति अथवा संप्रदाय आदि का कोई भी जीव क्यों न हो सभी प्रभु की भक्ति के अधिकारी हैं क्योंकि सभी प्रभु के अपने हैं ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 02 जनवरी 2019 |
96 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(उपसंहार) |
अ 18
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पराभक्ति से मुझे जान लेता है और फिर मेरे तत्व को जानकर तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
जब भक्ति के कारण प्रभु में हमारा आकर्षण और अनुराग हो जाता है तो हम प्रभु को समर्पित हो जाते हैं । इस तरह हमारी भक्ति हमें प्रभु का वास्तविक बोध करवा देती है । भक्ति से हमारा मन प्रभु में आसक्त हो जाता है और भक्ति अनन्य भाव से दृढ़तापूर्वक प्रभु से हमारा संबंध जोड़ देती है । भक्ति के कारण प्रभु ही हमारे परम आश्रय बन जाते हैं ।
प्रभु अनेक रूपों में, अनेक आकृतियों में अपनी शक्तियों को साथ लेकर बार-बार प्रकट होते हैं । एक ही प्रभु को सभी संप्रदायों के लोग अपनी-अपनी भावना के अनुसार मानते हैं । एक ही प्रभु सभी जीवों के लिए अलग-अलग इष्ट रूप में रहते हैं । वास्तव में प्रभु तो एक ही हैं । भक्ति के कारण केवल भक्त ही इस तत्व को समझता है और मानता है । प्रभु कहते हैं कि ऐसा समझने और मानने वाला तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है अर्थात जो भिन्नता का भाव होता है वह सर्वथा के लिए मिट जाता है ।
जो भक्ति के कारण प्रभु के तत्व को जान लेता है उसी का मनुष्य जन्म सार्थक है और पूर्ण है । ऐसे भक्त के आकर्षण के केंद्र प्रभु बन जाते हैं । उसका फिर संसार से आकर्षण खत्म हो जाता है और ऐसा होने पर उसकी वासना, कामना, आशा और तृष्णा सब नष्ट हो जाती है । ऐसा होने पर उसका मन प्रभु में आसक्त हो जाता है और भक्ति के कारण प्रभु के साथ उसकी वास्तविक प्रीति हो जाती है । अनन्य भक्ति से भक्त प्रभु में प्रविष्ट हो जाता है और प्रभु के दर्शन भी कर लेता है । जब प्रभु भक्ति और प्रभु प्रेम में सर्वथा पूर्णता हो जाती है तो उस जीव के लिए फिर कुछ करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता ।
इसलिए आरम्भ से ही भक्ति मार्ग पर चलना चाहिए जिससे प्रभु के तत्व को जानकर प्रभु में प्रविष्ट हो जाने का मार्ग जीवन में खुल जाए और प्रभु के दर्शन भी जीवन में हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 04 जनवरी 2019 |