क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
73 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप ! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, मुख, पेट, आँखें देख रहा हूँ जो सर्वत्र फैले हुए हैं और जिनका अंत नहीं है । आपमें न अंत दिखता है, न मध्य और न आदि ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु के विराट रूप की स्तुति करते हुए कहे ।
इस श्लोक में प्रभु के विराट रूप की अनन्तता का वर्णन श्री अर्जुनजी ने किया है । प्रभु का एक-एक श्रीअंग अनन्तता से भरा हुआ है । श्री अर्जुनजी कहते हैं कि वे प्रभु के हाथों की तरफ देखते हैं तो विश्वरूप में प्रभु के हाथ अनंत दिखते हैं । प्रभु के मुख की तरफ देखते हैं तो विश्वरूप में प्रभु के मुख भी अनंत दिखते हैं । प्रभु के नेत्रों की तरफ देखते हैं तो विश्वरूप में प्रभु के नेत्र भी अनंत दिखते हैं । इस तरह प्रभु के शरीर के किसी अंग का कोई अंत नहीं दिखता, सब कुछ और सब-के-सब अनंत दिखते हैं ।
प्रभु चारों तरफ से अनंत ही अनंत दिखाई देते हैं । प्रभु का न तो कहीं आरंभ दिखता है, न मध्य दिखता है और न ही कहीं अंत दिखता है । प्रभु के विराट रूप को देखने पर श्री अर्जुनजी की सबसे पहली दृष्टि उस रूप की सीमा पर गई पर उन्हें उस विराट विश्वरूप के आरंभ, मध्य और अंत का पता ही नहीं लगा । श्री अर्जुनजी को तब ज्ञात हुआ कि प्रभु के रूप में आरंभ, मध्य और अंत यह तीनों है ही नहीं ।
श्री अर्जुनजी ने देखा कि प्रभु के विश्वरूप में सब कुछ व्याप्त है । चराचर जगत का सारा विस्तार प्रभु के एक अंश में समाया हुआ है । प्रभु से भिन्न कुछ भी नहीं है क्योंकि सब कुछ प्रभु में ही समाहित है । प्रभु अपरिमित हैं और प्रभु का विराट विश्वरूप भी अपरिमित है । श्री अर्जुनजी प्रभु से स्तुति में कहते हैं कि उन्होंने सब जगह विराट विश्वरूप का निरीक्षण करके देख लिया प्रभु का आरंभ, मध्य और अंत का कहीं भी पता तक नहीं चला ।
प्रभु सदा सर्वदा व्यापक हैं पर भक्तों पर प्रेम अनुग्रह करने के लिए सुंदर कोमल एकदेशीय रूप धारण कर लेते हैं । यह प्रभु का जीव पर कितना बड़ा अनुग्रह है कि इतने व्यापक होने पर भी प्रभु जीव के लिए कोमल रूप में उपलब्ध रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 19 नवम्बर 2018 |
74 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप ही इस संपूर्ण विश्व के परम आश्रय हैं, आप ही सनातन धर्म के रक्षक हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु के विश्वरूप को देखने के बाद स्तुति करते हुए कहे ।
प्रभु ही समस्त चराचर जगत के परम आधार हैं । प्रभु ही ब्रह्मांड के परम आश्रय हैं । देखने, सुनने और समझने में जो संसार आता है उस संसार के परम आश्रय और आधार प्रभु ही हैं । जब महाप्रलय होता है तो संपूर्ण ब्रह्मांड प्रभु में ही लीन हो जाता है और फिर नया ब्रह्मांड प्रभु से ही प्रकट होता है । इस तरह प्रभु ही एकमात्र इस संपूर्ण ब्रह्मांड के नियंता हैं ।
इस तथ्य को समझना जरूरी है कि संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी प्रभु हैं । प्रभु की शक्ति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड का नियंत्रण होता है । ब्रह्मांड की रचना प्रभु द्वारा होती है, ब्रह्मांड का संचालन प्रभु के द्वारा होता है और अंत में ब्रह्मांड का लय प्रभु में होता है । ऐसा एक ब्रह्मांड नहीं, कोटि-कोटि ब्रह्मांड हैं जो प्रभु के एक-एक रोमावली में समाए हुए हैं । इस तथ्य को समझने से प्रभु के ऐश्वर्य का एवं प्रभु की व्यापकता का किंचित मात्रा में हमें पता चलता है ।
दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि प्रभु ही धर्म के एकमात्र रक्षक हैं । श्रीमद् भगवद् गीताजी इस बात को स्पष्ट करती है कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब प्रभु अवतार ग्रहण करके अधर्म का नाश करते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं । सिद्धांत यह है कि धर्म केवल और केवल प्रभु पर ही आश्रित है और प्रभु के कारण ही टिका हुआ है । इसलिए धर्म सदा स्थित रहेगा इसका आश्वासन हमें मिलता है क्योंकि प्रभु इसके रक्षक हैं । प्रभु का आश्रय पाने के कारण धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि सात्विक और श्रेष्ठ को ही प्रभु आश्रय देते हैं । इसलिए हमें भी अपने जीवन में धर्म पथ पर ही चलना चाहिए ।
प्रभु को सदैव संपूर्ण जगत के परम आश्रय एवं धर्म के रक्षक एवं पालक के रूप में देखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 21 नवम्बर 2018 |
75 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देवताओं के समूह हाथ जोड़कर आपके नाम और गुणों का कीर्तन कर रहें हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु से कहे ।
श्री अर्जुनजी ने जब प्रभु का विराट विश्वरूप प्रभु की कृपा से देखा तो उस रूप में उन्होंने सभी के दर्शन किए । उन्होंने स्वर्ग के सभी देवतागण को, महर्षि और सिद्धों के समुदाय को प्रभु में स्थित देखा । श्री अर्जुनजी ने ग्यारह रुद्रजी, बारह आदित्यजी, आठ वसुजी, बारह साध्यगणजी, दस विश्वेदेवजी, दो अश्वनी कुमारजी, उनचास मरुदगणजी, सात पितृगणजी और गंधर्वजी, यक्षजी और असुर के समुदाय को देखा ।
सभी प्रभु के विराट विश्वरूप को भयभीत और चकित होकर देख रहे थे । सभी हाथ जोड़कर प्रभु के नामों और गुणों का कीर्तन कर रहे थे । सभी उत्तमोत्तम स्तोत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति कर रहे थे । जय-जय शब्द का जयघोष की गूंज सर्वत्र फैल रही थी । सभी अपने हाथों को बड़े सुंदर तरीके से जोड़कर प्रभु को प्रणाम कर रहे थे ।
इस श्लोक से पता चलता है कि सभी प्रभु में स्थित हैं और प्रभु द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं । प्रभु के बिना किसी का भी कोई अस्तित्व नहीं है । सभी प्रभु के विराट विश्वरूप के अंग हैं । दूसरा, प्रभु का विश्वरूप इतना विराट है कि उसे देखने की क्षमता किसी में भी नहीं है और उस विश्वरूप को देखकर सभी भयभीत और आश्चर्य से चकित होते हैं । तीसरी बात, इस जगत में एकमात्र स्तुतियोग्य प्रभु ही हैं इसलिए सभी हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक प्रभु की दिव्य स्तुति करके प्रभु को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं ।
प्रभु के विराट विश्वरूप के बारे में सुन और पढ़कर हमें प्रभु की विराटता और ऐश्वर्य के दर्शन होने चाहिए । साथ ही हमें यह प्रतीति होनी चाहिए कि इतने विराट और ऐश्वर्य संपन्न प्रभु भी भक्ति और प्रेम के कारण सर्वसाधारण की पहुँच में हैं और सभी को उपलब्ध हैं ।
प्रकाशन तिथि : 23 नवम्बर 2018 |
76 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम केवल निमित्त मात्र बन जाओ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
यह श्लोक मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि इस श्लोक का स्मरण रखने से जीवन भर हमारे भीतर अभिमान नहीं पनपेगा । जीव अपनी योग्यता, बल, बुद्धि और परिश्रम का अहंकार कर बैठता है और जो कुछ भी जीवन में अर्जित करता है उसे अपना पुरुषार्थ मान बैठता है । पर इस श्लोक में प्रभु बताते हैं कि जीव तो मात्र निमित्त है और सब कुछ करने वाले प्रभु ही हैं । प्रभु करते हैं और उसका श्रेय जीव को देते हैं ।
यहाँ के प्रसंग में अपने विराट विश्वरूप में प्रभु ने दिखाया कि प्रभु ने सभी का युद्ध में संहार किया और युद्ध जीतने का श्रेय पांडवों को दिलाया । संसार ने यह कहा कि पांडवों ने महाभारत का युद्ध कौरवों से जीता पर वास्तव में सब कुछ प्रभु ने ही किया । यह सिद्धांत है कि सब कुछ प्रभु ही करते हैं पर प्रभु किसी का भी श्रेय कभी नहीं लेते । जिसकी विवेक की आँखें खुली होती है वह हर कार्य के पीछे प्रभु के अदृश्य हाथ को देख लेता है ।
जीव को इस श्लोक को ध्यान में रखकर कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए कि यह सब कुछ उसने किया है । सच तो यह है कि सब कुछ पहले ही प्रभु द्वारा किया जा चुका है । इसलिए जो कुछ भी हुआ है उसमें हमें केवल और केवल प्रभु की कृपा को ही कारण मानना चाहिए । पूरे ब्रह्मांड में सब कुछ करने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । जो मनुष्य इस श्लोक का पूर्ण अर्थ समझ जाता है उसका कर्तापन का भाव सदैव के लिए नष्ट हो जाता है क्योंकि उसे ज्ञान हो जाता है कि वह तो मात्र निमित्त है पर असल रूप में करने वाले तो केवल प्रभु ही हैं ।
हमें अपने जीवन में कर्तापन का अहंकार कभी भी नहीं आने देना चाहिए और सब कुछ प्रभु ही करते हैं इस सिद्धांत पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 नवम्बर 2018 |
77 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आपको आगे से नमस्कार हो, पीछे से नमस्कार हो, आपको दसों दिशाओं से नमस्कार हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु से कहे ।
श्री अर्जुनजी कहते हैं कि प्रभु के नाम, गुण और श्रीलीला कीर्तन योग्य हैं । यह भयभीत को भय मुक्त करने का अचूक साधन है । श्री अर्जुनजी प्रभु से कहते हैं कि प्रभु गुरुओं के भी गुरु यानी सभी के आदिगुरु हैं । प्रभु अनंत हैं यानी सब तरफ से सीमारहित, अपार और अगाध हैं । प्रभु देवेश हैं यानी देवतागण के मालिक, नियंता और शासक हैं । प्रभु जगन्निवास हैं यानी अनंत सृष्टि प्रभु के एक अंश में निवास करती है । प्रभु आदिदेव हैं यानी देवताओं के भी देव हैं । प्रभु पुराणपुरुष हैं यानी जिनकी महिमा का वर्णन पुराणों में है वे प्रभु ही हैं ।
श्री अर्जुनजी कहते हैं कि जानने योग्य और सबको जनाने वाले प्रभु ही हैं । सबके परमधाम प्रभु ही हैं क्योंकि प्रभु को पाने के बाद फिर संसार में लौटकर वापस नहीं आना पड़ता । श्री अर्जुनजी सभी प्रमुख देवतागणों का नाम लेते हैं और कहते हैं कि इन सबके परमपिता प्रभु ही हैं । श्री अर्जुनजी ने प्रभु के विराट विश्वरूप में सब कुछ देख लिया और वे इससे इतने अभिभूत हैं कि प्रभु का वर्णन करने के लिए उन्हें शब्द ही नहीं मिल रहे और वे अपने आपको इसके लिए सर्वथा असक्षम पा रहे हैं ।
फिर जो श्री अर्जुनजी करते हैं वह मुझे अति-अति प्रिय है । श्री अर्जुनजी प्रभु से कहते हैं कि वे कहाँ तक प्रभु की स्तुति करें, कहाँ तक प्रभु की महिमा गाए । वे हारकर कहते हैं कि वे तो हजारों-हजारों बार केवल प्रभु को प्रणाम ही कर सकते हैं । वे प्रभु को आगे से, प्रभु को पीछे से, प्रभु को ऊपर से, प्रभु को नीचे से, प्रभु को दाएं से, प्रभु को बाएं से और प्रभु को सभी ओर से यानी दसों दिशाओं से प्रणाम करते हैं ।
जीव को भी प्रभु को निरंतर प्रणाम करते रहना चाहिए । प्रभु को प्रणाम करने में जीव का निश्चित कल्याण छिपा हुआ होता है ।
प्रकाशन तिथि : 27 नवम्बर 2018 |
78 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे अनंत प्रभावशाली भगवन ! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु की स्तुति करते हुए कहे ।
श्री अर्जुनजी को प्रभु के विराट विश्वरूप को देखकर और उसमें समाहित सब कुछ देखकर प्रभु के प्रभाव और ऐश्वर्य को समझने में देर न लगी । इसलिए वे प्रभु को अत्यंत प्रभावशाली भगवान कहकर संबोधित करते हैं । श्री अर्जुनजी प्रभु से कहते हैं कि पूरी त्रिलोकी में प्रभु के समान अन्य कोई भी नहीं है । पूरी त्रिलोकी में प्रभु के समान कोई हो ही नहीं सकता और कोई है ही नहीं । प्रभु का प्रभाव अतुलनीय है जिसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती ।
न कोई प्रभु के तुल्य हो सकता है और न ही कोई प्रभु के समान हो सकता है । सिद्धांत यह है कि प्रभु से बढ़कर कोई है ही नहीं, जो भी हैं वे सब प्रभु के अंश हैं और प्रभु से कम हैं । परम पुरुष प्रभु का ज्ञान, शक्ति, कर्म, प्रभाव और ऐश्वर्य सब कुछ दिव्य है । प्रभु ही एकमात्र ईश्वर हैं, शेष सभी उनके दास हैं । सभी को प्रभु के आदेशों का पालन करना होता है । सभी को प्रभु की अध्यक्षता स्वीकारनी पड़ती है और प्रभु के निर्देशों के अनुसार कार्य करना होता है । प्रभु ही समस्त कारणों के कारण है ।
प्रभु की बराबरी का कोई है इस बात की कल्पना करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसा कतई संभव है ही नहीं । प्रभु के जैसा कोई हो सकता है यह कहना वास्तव में अनुपयुक्त ही नहीं अपितु लज्जाप्रद है क्योंकि यह हमारे अविवेक को दर्शाता है । श्री अर्जुनजी कहते हैं कि संपूर्ण त्रिलोकी में प्रभु एकमात्र हैं और प्रभु के समान अन्य दूसरा कोई भी नहीं है । वे कहते हैं कि प्रभु की अगाध महिमा का वर्णन कर पाना उनके लिए कतई संभव नहीं है और ऐसा करने का किंचित प्रयास करने पर भी उनकी बुद्धि कुंठित हो रही है । प्रभु अतुल्य हैं, अपार हैं, अगाध हैं और अनंत हैं । जीवन में इस तथ्य को अपने हृदय में स्थापित कर लेना चाहिए कि प्रभु के अलावा किसी का भी कोई अस्तित्व है ही नहीं ।
इसलिए जीवन में एकमात्र प्रधानता प्रभु की ही होनी चाहिए । प्रभु ही हमारे जीवन में एकमात्र सर्वोपरि होने चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 29 नवम्बर 2018 |
79 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए स्तुतियोग्य आप ईश्वर को मैं शरीर से लंबा पड़कर प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु की स्तुति करते हुए कहे ।
श्री अर्जुनजी यहाँ प्रभु के लिए जो भाव प्रस्तुत करते हैं वह बहुत हृदयस्पर्शी है । श्री अर्जुनजी कहते हैं कि वे प्रभु की दिव्यता की स्तुति करने का बल और सामर्थ्य ही नहीं रखते । प्रभु अनंत ब्रह्मांडों के ईश्वर हैं इसलिए सबके लिए स्तुति करने योग्य एकमात्र प्रभु ही हैं । प्रभु का प्रभाव, गुण, महत्व और ऐश्वर्य आदि सभी अनंत हैं इसलिए सभी ऋषि, महर्षि, देवतागण और महापुरुष प्रभु की नित्य स्तुति करते रहते हैं । ऐसा करने पर भी वे प्रभु की महिमा और दिव्यता का पार नहीं पा सकते । शास्त्र भी प्रभु की स्तुति करते करते नेति-नेति कह कर शांत हो जाते हैं ।
श्री अर्जुनजी कहते हैं कि ऐसी स्तुति करने योग्य प्रभु की जब कोई भी स्तुति करने में असक्षम है तो वे प्रभु की कैसे स्तुति कर सकते हैं । श्री अर्जुनजी कहते हैं कि प्रभु की स्तुति करने का उनमें लेशमात्र भी कतई सामर्थ्य नहीं है । इसलिए श्री अर्जुनजी कहते हैं कि वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में लंबा लेटकर प्रभु को दंडवत प्रणाम कर रहे हैं जिससे प्रभु उन पर प्रसन्न हों । प्रत्येक जीव और सभी के लिए एकमात्र पूजनीय प्रभु ही हैं । इसलिए डंडे की तरह भूमि पर लंबा गिरकर श्री अर्जुनजी ने प्रभु को दंडवत प्रणाम किया है और इस प्रकार प्रभु से कृपा की याचना की है ।
इस श्लोक से यह समझना चाहिए कि प्रभु की स्तुति करना और भूमि में लेटकर प्रभु को दंडवत प्रणाम करना हमारे जीवन की दिनचर्या बन जानी चाहिए । प्रभु को प्रसन्न करने का यह एक सटीक तरीका है । स्तुति करके हम प्रभु के प्रभाव, स्वभाव और ऐश्वर्य को प्रभु को सुनाते हैं और प्रभु की कृपा और दया जीवन में प्राप्त करते हैं । भूमि पर दंडवत लेटकर प्रणाम करने से हम अपने अहंकार का विसर्जन करते हैं और प्रभु की शरण में आ जाते हैं ।
प्रभु को स्तुति और प्रणाम बहुत प्रिय हैं और नित्य ऐसा करने वाले भक्त के वश में प्रभु हो जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 01 दिसम्बर 2018 |
80 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा ही इस रूप में देखा जा सकता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि न वेदों के पाठ से, न यज्ञों के अनुष्ठान से, न शास्त्रों के अध्ययन से, न दान पुण्य से, न उग्र तपस्या से ही कोई प्रभु के विराट विश्वरूप को कभी देख सकता है । ऐसा हो पाना केवल और केवल प्रभु की कृपा से ही एकमात्र संभव है । वही मनुष्य श्रेष्ठ होता है जिसे प्रभु को देखने की और प्रभु को जानने की वास्तविक इच्छा होती है । पर यह हमारे किसी भी प्रकार के पुरुषार्थ से कतई संभव नहीं है ।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि प्रभु जिसके समक्ष प्रकट होना चाहते हैं या जिसको अपना ज्ञान देकर जानने देना चाहते हैं वही जीव ऐसा कर पाता है । यह मात्र और मात्र प्रभु कृपा के कारण ही होता है । प्रभु की कृपा के बिना न तो कोई किसी भी साधन के बल पर प्रभु के दर्शन कर सकता है और न ही कोई प्रभु को जान सकता है । इसलिए जीवन में प्रभु की कृपा प्राप्त करने का और प्रभु के कृपापात्र बनकर रहने का प्रयास करना चाहिए ।
हम जितनी कृपा प्रभु की अपने ऊपर मानते हैं उससे कई गुना अधिक प्रभु की कृपा हम पर होती है । प्रभु की जीव पर कृपा अपार और असीम है पर उसको मानने का सामर्थ्य जीव के पास सीमित है । यह बात सिद्धांत के रूप में हृदय में बैठा लेनी चाहिए कि हम प्रभु साक्षात्कार और प्रभु दर्शन जीवन में किसी पुरुषार्थ के कारण नहीं अपितु प्रभु की अहेतु की कृपा के कारण ही कर सकते हैं । प्रभु को जानने का प्रयास किसी पुरुषार्थ के बल पर कभी भी सफल नहीं हो सकता । प्रभु जिस जीव पर अहेतु की कृपा करेंगे वही प्रभु के प्रभाव, स्वभाव, ऐश्वर्य और सामर्थ्य को जान पाएगा ।
इसलिए जीवन में सदैव प्रभु की कृपा अर्जित करने का और प्रभु के कृपापात्र बनकर रहने का प्रयास करना चाहिए । प्रभु की कृपा प्राप्त करवाने का सबसे श्रेष्ठतम साधन प्रभु की भक्ति है ।
प्रकाशन तिथि : 03 दिसम्बर 2018 |
81 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु को न वेदाध्ययन, न कठिन तपस्या, न दान, न पूजा से ही पाया जा सकता है । प्रभु को केवल अनन्य भक्ति से ही समझा और पाया जा सकता है । प्रभु स्पष्टता से कहते हैं कि अनन्य भक्ति के बिना प्रभु के दर्शन संभव नहीं हैं । प्रभु के दर्शन की नित्य लालसा रखना अनन्य भक्ति का एक अंग है । जब हम ऐसी लालसा रखते हैं तो प्रभु की कृपा होती है और प्रभु के दर्शन प्रभु की कृपा से ही होते हैं, जीव की किसी योग्यता या पुरुषार्थ से नहीं होते ।
अनन्य भक्त पर प्रभु की कृपा सदैव उमड़ती है । अनन्य भक्ति का अर्थ है कि केवल एक प्रभु का ही आसरा, सहारा, आशा और विश्वास होना । अनन्य भक्तों के लिए प्रभु सदैव सुलभ रहते हैं । हमारी किसी भी योग्यता और पुरुषार्थ से प्रभु मिल जाएंगे, यह सोचना भी गलत है । कितनी भी महान साधना या क्रिया क्यों न की जाए, कितनी भी योग्यता से उसे संपन्न क्यों न किया जाए, उसके द्वारा प्रभु को नहीं पाया जा सकता । वे सब-के-सब मिलकर भी भगवत् प्राप्ति के अधिकारी नहीं बन सकते ।
प्रभु पर किसी भी प्रकार के साधनों के बल पर अधिकार नहीं जमाया जा सकता । तात्पर्य है कि प्रभु की प्राप्ति केवल और केवल प्रभु की कृपा से ही संभव होती है । यह कृपा तब होती है जब जीव अपने सामर्थ्य, समय, समझ और सामग्री के द्वारा प्रभु की अनन्य भक्ति करके अपने आपको सर्वथा प्रभु को अर्पण कर देता है । ऐसा करके वह अपने बल, योग्यता और पुरुषार्थ का किंचित अभिमान नहीं करता और प्रभु की कृपा पाने के लिए अनन्य भाव से प्रभु की भक्ति करके प्रभु को पुकारता है । प्रभु को केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही प्रभु की कृपा से प्राप्त किया जा सकता है ।
जीवन में एकमात्र अनन्य भक्ति के द्वारा प्रभु का ही आसरा हो और प्रभु के अलावा किसी योग्यता, बल, सामर्थ्य, बुद्धि और पुरुषार्थ का तनिक भी आश्रय न हो तभी प्रभु की कृपा जीव पर होती है ।
प्रकाशन तिथि : 05 दिसम्बर 2018 |
82 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मेरे लिए ही कर्म करने वाला, मेरे ही परायण, मेरा ही प्रेमी भक्त है वह मुझे प्राप्त होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
इस श्लोक में प्रभु के साथ घनिष्ठ संबंध और संसार से वैराग्य जैसी महत्वपूर्ण बात प्रभु ने कही है । प्रभु कहते हैं कि भगवत् संबंधी कर्म जैसे जप, कीर्तन, ध्यान, सत्संग, श्रीग्रंथों का स्वाध्याय यह सब किसी सकाम इच्छा की पूर्ति के लिए नहीं अपितु केवल प्रभु के लिए अर्थात प्रभु की प्रसन्नता के लिए करने चाहिए । हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि सब कर्म जीवन में केवल और केवल प्रभु के लिए ही हो । तात्पर्य यह है कि शरीर, इंद्रियां, मन और बुद्धि से जो कुछ भी कर्म हो वह प्रभु के लिए ही हो ।
जीव को सभी शक्ति और योग्यता प्रभु की प्रदान की हुई है । जीव प्रभु का ही अंश है इसलिए उसे प्रभु की प्रसन्नता के लिए और प्रभु के लिए ही कर्म करने चाहिए । प्रभु आगे कहते हैं कि जीव को प्रभु के परायण होकर यानी प्रभु के परम आश्रय में ही रहना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि जीव को अपना अटल संबंध केवल प्रभु के साथ ही जोड़ना चाहिए । जीव किसी का नहीं केवल प्रभु का ही है, ऐसा दृढ़ भाव जीवन में होने पर जीव का प्रभु से अतिशय प्रेम हो जाता है ।
जब जीव केवल प्रभु के लिए ही कर्म करता है, प्रभु के परायण होकर और केवल प्रभु का ही बनकर रहता है तो उसकी संसार की आसक्ति, ममता और कामना खत्म हो जाती है । संसार से संबंध विच्छेद जब हो जाता है तो प्रभु से अनन्य प्रेम और प्रभु की अनन्य भक्ति जागृत हो जाती है । ऐसा होने पर उस जीव को प्रभु की प्राप्ति हो जाती है । प्रभु का श्रीवचन है कि प्रभु का अनन्य भक्त प्रभु को प्राप्त करता है । ऐसा होने पर मनुष्य जन्म जिस उद्देश्य से हुआ है वह उद्देश्य सर्वथा और पूर्ण रूप से पूरा हो जाता है ।
इसलिए जीव को मनुष्य जन्म लेकर प्रभु से अनन्य प्रेम और प्रभु की अनन्य भक्ति ही करनी चाहिए तभी उसका मानव जीवन सफल माना जाएगा ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
हमारे जीवन के एकमात्र उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति को हमें जीवन में ठीक-ठीक पहचान लेना चाहिए और इसके लिए भक्ति मार्ग पर चलना चाहिए । भक्ति मार्ग में चले साधक का रक्षण करने के लिए प्रभु सदैव तैयार रहते हैं । प्रभु के लिए परिपूर्ण प्रेम से भर जाना इसी का नाम भक्ति है । प्रभु कहते हैं कि भक्त मुझे मेरे प्राणों की अपेक्षा भी अधिक अच्छे और प्रिय लगते हैं । यह प्रभु की अपने भक्त के लिए कितनी बड़ी घोषणा है ।
जब भक्त प्रभु के बिना नहीं रह सकता तो प्रभु भी उस भक्त के बिना नहीं रह सकते और जब प्रभु अपने भक्त का वियोग नहीं सह पाते तो प्रभु उस भक्त को मिल जाते हैं और उसके सामने अप्रकट से प्रकट हो जाते हैं । सच्चा भक्त सदैव प्रभु की शरण में रहता है और प्रभु की शरण में रहने की इस क्रिया को भी भक्ति माना गया है । भक्त सदैव यह मानता है कि प्रभु का उसके लिए विधान सदा ही मंगलमय ही होता है । प्रभु मंगल के धाम हैं और अपने भक्त का मंगल करना प्रभु की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है ।
संसार के साथ हमारा कभी भी संयोग था नहीं, है नहीं, रहेगा नहीं और कभी रह सकता भी नहीं । इसलिए भक्ति में सनातन संबंध वाले प्रभु के लिए ही अत्यधिक प्रियता रहती है और रहनी भी चाहिए तभी भक्ति सफल मानी जाएगी । वास्तव में जीव का प्रभु के प्रति स्वाभाविक प्रेम है पर जब तक वह संसार से अपनी भूल के कारण अपनापन का संबंध माने रखता है तब तक उसके भीतर प्रभु के लिए प्रेम परिपूर्ण रूप से प्रकट नहीं होता । इसलिए हमारी संपूर्ण क्रिया प्रभु की प्रियता के लिए ही होनी चाहिए ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 07 दिसम्बर 2018 |
83 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भक्ति योग) |
अ 12
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझमें मन लगाकर नित्य निरंतर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु में मन लगाकर श्रद्धायुक्त होकर प्रभु की सगुण साकार भक्ति करने वाले को यहाँ पर प्रभु ने श्रेष्ठ घोषित किया है । प्रभु के मत से प्रभु की भक्ति करने वाला साधक श्रेष्ठतम है । प्रभु में हमारा मन लगे इस पर प्रभु ने जोर दिया है । मन वहीं लगता है जहाँ प्रेम होता है । तात्पर्य है कि प्रभु से इतना प्रेम हो कि हमारा मन प्रभु में लग जाए । अपने मन और बुद्धि को सदैव प्रभु में तल्लीन रखना चाहिए ।
प्रभु कहते हैं कि परम श्रद्धा रखकर हमें प्रभु की उपासना करनी चाहिए । अपने आपको प्रभु को अर्पित कर नाम, जप, चिंतन, ध्यान, सेवा और पूजा आदि सभी शास्त्रविहित क्रिया प्रभु की प्रसन्नता के लिए होनी चाहिए । प्रभु चाहते हैं कि जीव प्रभु के साथ अपने वास्तविक संबंध को पहचान ले । जो ऐसा कर पाता है वह किसी भी अवस्था में प्रभु को नहीं भूलता । ऐसे भक्त को हर अवस्था में प्रभु का स्मरण और चिंतन स्वतः ही होता रहता है ।
जीव का उद्देश्य सांसारिक भोगों को भोगना और संग्रह करके उसमें सुख लेने का नहीं होना चाहिए । इसलिए जीव को चाहिए कि सांसारिक भोग और संग्रह से विमुख हो अपने आपको केवल प्रभु का ही माने और जीवन में प्रभु के सन्मुख होने का ही प्रयत्न करे । हमें अपने मन और बुद्धि को प्रभु में लगाना चाहिए । जहाँ प्रेम होता है वहीं मन लगता है और जहाँ श्रद्धा होती है वहीं बुद्धि लगती है । इसलिए प्रभु जोर देकर कहते हैं कि हमें प्रेम और श्रद्धा प्रभु में रखनी चाहिए जिससे हमारा मन और हमारी बुद्धि प्रभु में लगे । ऐसा कर पाने वाले भक्त को प्रभु अपने मत से वास्तव में सबसे सर्वोत्तम मानते हैं ।
इस श्लोक का तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग या अन्य किसी भी मार्ग से चले वास्तव में श्रेष्ठ वही है जो प्रभु की सगुण साकार भक्ति करता है । भक्तिहीन योग केवल कष्ट और दुःख का कारण बनते हैं और हमें प्रभु तक पहुँचाने में असमर्थ होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 09 दिसम्बर 2018 |
84 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भक्ति योग) |
अ 12
श्लो 06 - 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो अपने सारे कार्यों को मुझे अर्पित करके अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हैं और अपने चित्त को मुझमें स्थिर करके निरंतर मेरा ध्यान करते हैं, उनको मैं जन्म मृत्यु के सागर से शीघ्र उद्धार कर देता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
जीव जब स्वयं को प्रभु को अर्पित कर देता है तो उसके संपूर्ण कर्म भी भगवदर्पित हो जाते हैं । ऐसा जीव प्रभु प्राप्ति के लिए कर्म करता है और उसके कर्म का हेतु एकमात्र प्रभु की प्रसन्नता होती है । भक्त अपने कर्म के लिए फलेच्छा नहीं रखता और न ही कर्ता का अभिमान रखता है । प्रभु को अर्पण करने के कारण भक्त कर्म से असंग और निर्लिप्त होने का अनुभव करता है और इस तरह वह कर्म के कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है ।
भक्त केवल प्रभु से ही अपना एकमात्र संबंध मानता है । ऐसे भक्त का लक्ष्य, उद्देश्य और ध्येय प्रभु बन जाते हैं और वे अनन्य होकर प्रेमपूर्वक प्रभु में अपना चित्त लगा देते हैं । ऐसे भक्त का उद्धार हो जाता है और प्रभु उन्हें भवसागर से तुरंत पार कर देते हैं । केवल प्रभु की भक्ति से ही उद्धार संभव है इसलिए जीव को चाहिए कि पूर्ण रूप से वह प्रभु का भक्त बने । सच्चा भक्त प्रभु को प्रसन्न करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता । भक्त के जीवन का एकमात्र उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता होती है । ऐसे भक्तों के लिए प्रभु यहाँ पर वचन देते हैं कि ऐसे शुद्ध भक्तों का प्रभु तुरंत ही उद्धार कर देते हैं और उन्हें भवसागर से पार कर देते हैं ।
प्रभु अपने भक्त को कभी भवसागर में डूबने नहीं देते और प्रत्यक्ष आकर उसे भवसागर से निकाल लेते हैं । इसलिए जीवन की सर्वोच्च सिद्धि भक्ति ही है । इसलिए जीवन में अपना संपूर्ण कर्म प्रभु को अर्पण करके और प्रभु के परायण होकर प्रभु की भक्ति के रूप में करना चाहिए । अपना चित्त भक्ति करते हुए प्रभु में स्थित करना चाहिए और जीवन में निरंतर प्रभु का ही स्मरण, ध्यान और चिंतन होना चाहिए । ऐसा करने वाले भक्त को प्रभु आश्वासन देते हैं कि उसे भवसागर से भयभीत होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उसके उद्धार की जिम्मेदारी प्रभु स्वयं वहन करते हैं । ऐसे भक्तों को अपने उद्धार के लिए अलग से कोई भी प्रयास नहीं करना पड़ता ।
भक्त का उद्धार प्रभु की सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है और प्रभु ने सर्वदा अपने भक्तों का पूर्व में उद्धार किया है और सर्वदा ऐसा करने के लिए कटिबद्ध हैं । इसलिए सभी जीवों को भक्ति मार्ग का ही आश्रय लेना चाहिए, यही प्रभु का गूढ़ उपदेश है ।
प्रकाशन तिथि : 11 दिसम्बर 2018 |