क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
61 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य मुझे संपूर्ण लोकों के महान ईश्वर के रूप में संदेहरहित होकर स्वीकार कर लेता है वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु संपूर्ण लोकों के महान ईश्वर हैं । स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल एवं अन्य सभी लोकों की जो सृष्टि है और उसमें जितने भी विभिन्न-विभिन्न प्रकार के प्राणी हैं उन सबके ईश्वर प्रभु हैं । जो दृढ़ता से इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है और प्रभु को ही अपना सब कुछ मान लेता है उस जीव का एकमात्र प्रभु के साथ ही अपनापन हो जाता है । ऐसा होते ही वह अपने संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है । उसके संचित और संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं ।
यह सिद्धांत है कि जो प्रभु को अपना सब कुछ मान लेता है और प्रभु के शरणागत हो जाता है वह पाप मुक्त हो जाता है । अपने किसी भी शरणागत को पाप मुक्त करते हुए प्रभु को देर नहीं लगती । हमें प्रभु को संपूर्ण सृष्टि के स्वामी और अपने इंद्रियां, मन और बुद्धि के भी स्वामी के रूप में स्वीकार करना चाहिए । ऐसा करते हैं तो स्वामी का दायित्व हो जाता है कि वे अपने आश्रित का हित करें और प्रभु ऐसा तत्काल करते हैं ।
जो प्रभु का हो जाता है और जिसे प्रभु अपना लेते हैं उसमें पाप फिर बच ही नहीं सकता । संसार का संग रखते हुए जीव कभी भी पापों से मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि संसार ही पापों का मूल कारण है । प्रभु का संग करते ही जीव पर प्रभु की कृपा दृष्टि पड़ती है और वह अपने संचित पापों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । प्रभु को केवल भक्ति के द्वारा ही जाना जा सकता है और भक्ति के द्वारा ही प्रभु से अपनापन का रिश्ता बनाया जा सकता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु को जगत के रचनाकार, कर्ता और नियंता के रूप में देखे । जब हम प्रभु को जगत के स्वामी और अपने स्वामी के रूप में देखते हैं और स्वीकारते हैं तो हमारा उद्धार स्वतः ही होना प्रारंभ हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 26 अक्टूबर 2018 |
62 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मेरे इस ऐश्वर्य और योग से पूर्णतया आश्वस्त हैं, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
जो प्रभु की विभूतियों को जान लेता है और प्रभु के ऐश्वर्य का दर्शन और अनुभव उनमें कर लेता है और जो प्रभु की अलौकिक विलक्षण शक्ति और अनन्त सामर्थ्य को जान लेता है वह जीव प्रभु की भक्ति में लग जाता है । ऐसे जीव की प्रभु में दृढ़ भक्ति हो जाती है जिसका तात्पर्य है कि प्रभु के सिवाय कहीं भी किंचितमात्र भी उसकी महत्वबुद्धि नहीं रहती । उस जीव को फिर प्रभु के अलावा किसी का भी आकर्षण जीवन में नहीं रहता ।
यह सिद्धांत है कि जब कोई जीव प्रभु के ऐश्वर्य को जान लेता है तो वह प्रभु की भक्ति में लग जाता है । प्रभु के ऐश्वर्य को समझ लेने के बाद प्रभु के शरणागत होकर प्रभु की भक्ति करने के अलावा जीव के जीवन में अन्य कोई उद्देश्य ही नहीं रह जाता । जब जीव समझ लेता है कि प्रभु के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ब्रह्मांड में है ही नहीं और जो भी अलौकिक हमें दिखता है वह सब प्रभु का ही स्वरूप है तो जीव प्रभु को अपना सब कुछ स्वीकार कर लेता है और प्रभु की भक्ति में लग जाता है ।
प्रभु की विलक्षण शक्ति, प्रभु का अनन्त सामर्थ्य जानने के बाद जीव आश्वस्त हो जाता है कि संसार की सभी शक्तियों का उद्गम प्रभु से ही है और प्रभु के सामर्थ्य से ही सृष्टि नियंत्रित है । फिर उस जीव की दृष्टि प्रभु के अलावा कहीं जाती ही नहीं । उसकी प्रभु के सिवाय किसी में भी रुचि नहीं रहती । वह अनन्यता से प्रभु की भक्ति में लग जाता है और प्रभु की शरणागति ग्रहण कर लेता है । ऐसा करके वह अपने आपको धन्य करता है क्योंकि मानव जीवन की प्राप्ति इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए हुई है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु को जानने का प्रयास करे और प्रभु से अपना भक्तिमय रिश्ता बनाए । जो प्रभु को जान लेता है उसका मन संसार से हटकर प्रभु में केंद्रित हो जाता है और प्रभु की भक्ति उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन जाती है ।
प्रकाशन तिथि : 28 अक्टूबर 2018 |
63 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझमें ही श्रद्धा प्रेम रखते हुए बुद्धिमान भक्त मेरा ही भजन करते हैं और सब प्रकार से मेरी ही शरण होते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
जो प्रभु में श्रद्धा रखते हैं और प्रभु से प्रेम करते हैं प्रभु ने उन्हें बुद्धिमान की संज्ञा दी है । संसार उसे बुद्धिमान मानता है जो धन कमाता है, कीर्ति कमाता है पर प्रभु उसे बुद्धिमान मानते हैं जो प्रभु में पूर्ण श्रद्धा रखता है, प्रभु से निश्चल प्रेम करता है और प्रभु की अनन्य भक्ति करता है । मानव जीवन हमें प्रभु की भक्ति करने के लिए ही मिला है जिससे हम मानव जीवन में प्रभु प्राप्ति कर सदैव के लिए संसार के आवागमन से मुक्त हो जाए ।
सच्चा बुद्धिमान वही है जो इस मानव जीवन के उद्देश्य पूर्ति के लिए ही अपने जीवन का उपयोग करता है । प्रभु ही सबके मूल हैं और प्रभु की भक्ति का आश्रय लेकर प्रभु में श्रद्धा और प्रेम रखना यही बुद्धिमानी है । दूसरी बात जो इस श्लोक में प्रभु कहते हैं वह यह कि प्रभु के ऐसे बुद्धिमान भक्त प्रभु का नित्य भजन किया करते हैं । भजन का अर्थ है प्रभु के नाम का जप-कीर्तन करना, प्रभु के स्वरूप का चिंतन और ध्यान करना, प्रभु की कथा सुननी और श्रीग्रंथ जैसे श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी, श्री रामचरितमानसजी एवं अन्यों का पठन-पाठन करना ।
तीसरी बात जो इस श्लोक में प्रभु कहते हैं वह यह कि प्रभु के बुद्धिमान भक्त सदैव प्रभु की शरण में रहते हैं । प्रभु की शरणागति सदैव ग्रहण करके रखनी चाहिए । प्रभु की शरणागति का बहुत बड़ा महत्व है क्योंकि शरणागत भक्त का पूरा दायित्व प्रभु संभालते हैं और वह शरणागत भक्त निर्भय और निश्चिंत होकर अपना जीवन जी सकता है । जीवन की सबसे बड़ी सफलता यही है कि जीवन में प्रभु की पूर्ण शरणागति हो ।
इसलिए जीव को प्रभु में पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए, प्रभु से निश्चल प्रेम करना चाहिए, प्रभु की अनन्य भक्ति करनी चाहिए और प्रभु की संपूर्ण शरणागति ग्रहण करके रखनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 30 अक्टूबर 2018 |
64 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझमें चित्त वाले मुझमें प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन आपस में मेरे गुण प्रभाव को जानते हुए और उसका कथन करते हुए नित्य निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मुझसे ही प्रेम करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
हमें अपना चित्त प्रभु में लगाना चाहिए । सिद्धांत यह है कि जहाँ प्रियता, अपनापन और आत्मीयता होगी हमारा चित्त वही लगेगा । इसलिए प्रियता, अपनापन और आत्मीयता प्रभु के लिए ही होना चाहिए । हमारे मन में यही भाव स्थिर होना चाहिए कि मैं केवल प्रभु का हूँ और केवल और केवल प्रभु ही मेरे हैं । दूसरी बात जो प्रभु कहते हैं कि अपने प्राणों को प्रभु को अर्पण कर देना चाहिए । हमारा जीना और हमारी संपूर्ण जीवन की चेष्टाएं प्रभु के लिए हों । जितनी भी क्रियाएं हम करें वह सब प्रभु के लिए हों ।
प्रभु आगे कहते हैं कि ऐसे भक्त जो अपना चित्त प्रभु में स्थाई रूप से लगाए रखते हैं और अपने प्राणों को प्रभु को अर्पण करके रखते हैं वे ही प्रभु के सद्गुण और प्रभाव को जान पाते हैं । प्रभु अपने रहस्यों को केवल अपने भक्तों के समक्ष प्रकट करते हैं । प्रभु को केवल प्रभु के भक्त ही जान पाते हैं । प्रभु कहते हैं कि ऐसे भगवत् रुचि वाले भक्त जब मिलते हैं तो वे आपस में प्रभु की ही चर्चा करते हैं । वे आपस में प्रभु के रहस्य, सद्गुण, प्रभाव, स्वभाव के बारे में ही चर्चा करते हैं और उनका आपस में एक विलक्षण सत्संग होता है ।
एक तथ्य यहाँ समझने योग्य है कि क्या हमारा संपर्क संसारी लोगों से है जिनके साथ हम संसार की चर्चा में रस लेते हैं या हमारा संपर्क भक्त के संग है जिसके साथ हम केवल भगवत् चर्चा करके संतुष्ट और आनंदित होते हैं । हमें अपना जीवन प्रभु की चर्चा सुनने में और प्रभु की चर्चा करने में ही व्यतीत करना चाहिए तभी हमारा प्रभु के लिए अविचल भक्ति और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम बढ़ पाएगा ।
संसार में रहकर भी हम अपना चित्त प्रभु में लगा पाएँ, प्रभु की भक्ति कर पाएँ और प्रभु से प्रेम कर पाएँ तभी हमें जीवन में परमानंद और संतुष्टि मिलेगी अन्यथा नहीं ।
प्रकाशन तिथि : 01 नवम्बर 2018 |
65 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रेमपूर्वक मेरी सेवा और मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं बुद्धियोग देता हूँ जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भक्तों का एक ही काम होता है कि अपना चित्त प्रभु में सदैव लगाए रखना । इसके सिवाय उनका कोई काम नहीं होता । इसलिए सारा का सारा काम और सारी जिम्मेदारी उन भक्तों के लिए प्रभु उठाते हैं । इसलिए प्रभु अपना ज्ञान, अपना प्रभाव, अपने सद्गुण, अपनी श्रीलीला और अपना रहस्य उन भक्तों के समक्ष प्रकट करते हैं जिससे वह भक्त प्रभु को जान पाएँ । क्योंकि भक्त केवल प्रभु को ही अपना मानता है और प्रभु के लिए अपना जीवन अर्पण कर देता है इसलिए प्रभु उसकी बुद्धि को जागृत करते हैं जिससे वह प्रभु को जान सके । प्रभु उसकी बुद्धि को कहीं भटकने नहीं देते और संसार में उलझने नहीं देते ।
भक्त में कोई कमी न रहे और भक्त में पूर्णता आ जाए इसकी जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं । इसलिए प्रभु स्पष्ट कहते हैं कि जो प्रेमपूर्वक प्रभु की सेवा करता है और प्रभु की भक्ति करता है प्रभु उस भक्त की बुद्धि जागृत करके अपना परिचय उसे करवा देते हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभु को वही जान पाता है जिसे प्रभु जनवाना चाहे । प्रभु चाहेंगे तभी कोई प्रभु को जान पाएगा अन्यथा प्रभु को जानना किसी के लिए भी संभव नहीं है ।
प्रभु अपने भक्त के समक्ष ही अपने को प्रकट करते हैं और भक्त को ही अपनी अनुभूति देते हैं । प्रभु को जानकर और प्रभु की अनुभूति प्राप्त कर वह भक्त अपने भक्ति मार्ग में और दृढ़ता पूर्वक चलता जाता है और अंत में प्रभु की प्राप्ति करके अपने मनुष्य जीवन के एकमात्र उद्देश्य की पूर्ति कर लेता है । यहाँ सिद्धांत के रूप में एक बात स्वीकार करनी चाहिए कि हमारा कार्य है प्रभु की सेवा करना, प्रभु से प्रेम करना और प्रभु की भक्ति करना । इसके आगे का कार्य प्रभु का है कि प्रभु अपने रहस्यों को जीव के समक्ष प्रकट करते हैं और अपनी प्राप्ति के अंजाम तक जीव को पहुँचा देते हैं ।
इसलिए जीवन में प्रभु की सेवा और प्रभु की भक्ति निरंतर करते रहना चाहिए जिससे एक-न-एक दिन प्रभु अपने द्वार हमारे लिए खोल दें और हमें प्रभु प्राप्त हो जाएँ ।
प्रकाशन तिथि : 03 नवम्बर 2018 |
66 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं उन पर विशेष कृपा करने हेतु उनके हृदय में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भक्तों को आत्मज्ञान के लिए अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता । प्रभु अपने भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं और उनके हृदय में ज्ञान जागृत करके उनके भीतर के अंधकार को दूर कर देते हैं । भक्तों को ज्ञान अर्जित नहीं करना पड़ता । भक्ति स्वतः ही ज्ञान का संचार भक्त के भीतर कर देती है । प्रभु अपने भक्तों में किसी प्रकार की किंचितमात्र भी कमी नहीं रहने देते । प्रभु कृपा करके अपने भक्तों के अज्ञानजन्य अंधकार को सदैव के लिए दूर कर देते हैं ।
ज्ञानयोग लौकिक साधन है और भक्ति अलौकिक साधन है । अलौकिक में तो लौकिक अपने आप ही आ जाता है पर लौकिक में अलौकिक नहीं आता । ज्ञानी तो भक्ति से रहित हो सकता है पर भक्त कभी भी ज्ञान से रहित नहीं होता । उदाहरण स्वरूप देखें तो श्रीगोपीजन ने अपने जीवन में कभी ज्ञान का संग नहीं किया पर फिर भी उनमें भक्ति के कारण विलक्षण ज्ञान का संचार प्रभु कृपा से स्वतः ही हो गया था । जब श्री उद्धवजी जैसे ज्ञानी उन्हें ज्ञान का उपदेश देने गए तो उन्होंने ऐसा करने में अपने आपको असमर्थ पाया ।
भक्त में ज्ञान का संचार प्रभु करते हैं । इसलिए भक्त ज्ञानी तो होता ही है । सबसे बड़ा ज्ञान प्रभु को जानने का, प्रभु को पहचानने का ज्ञान है । जब हम प्रभु को जान लेते हैं, पहचान लेते हैं तो फिर जगत में कुछ भी जानने योग्य बचता ही नहीं है । इसलिए भक्त का ज्ञान सबसे बड़ा ज्ञान होता है । ज्ञानी भी प्रभु को जानने का प्रयास करता है पर वह इस उपक्रम में सफल हो पाता है या नहीं इसमें शंका है । पर भक्त प्रभु कृपा से प्रभु को जानने में निश्चित सफल होता है ।
प्रभु अपने को सिर्फ अपने भक्त के समक्ष ही प्रकट करते हैं । इसलिए यह सिद्धांत है कि प्रभु का सच्चा ज्ञान केवल भक्त को ही होता है ।
प्रकाशन तिथि : 05 नवम्बर 2018 |
67 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्मांड के प्रभु । आप स्वयं ही अपने आपसे अपने आपको जानते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु को कहे ।
भक्तों पर कृपा करने का स्वभाव देखकर श्री अर्जुनजी का प्रभु के लिए विशेष भाव जागृत हो गया और उन्होंने भाव विभोर होकर प्रभु के लिए एक के बाद एक अनेक संबोधनों का प्रयोग किया । इस श्लोक में श्री अर्जुनजी ने अनेक संबोधनों का प्रयोग प्रभु के लिए किया और इसके पूर्व के श्लोक में भी श्री अर्जुनजी ने प्रभु के लिए कुछ संबोधनों का प्रयोग किया जो की बहुत हृदयस्पर्शी हैं । प्रभु परम ब्रह्म हैं । प्रभु परमधाम हैं । प्रभु महान पवित्र हैं । प्रभु शाश्वत हैं । प्रभु दिव्य पुरुष हैं । प्रभु आदिदेव हैं । प्रभु अजन्मा हैं । प्रभु सर्वव्यापक हैं यानी सभी जगह प्रभु उपस्थित हैं ।
प्रभु परम पुरुष हैं । संपूर्ण प्राणियों को संकल्प मात्र से उत्पन्न करने वाले प्रभु हैं इसलिए प्रभु सबके उद्गम हैं । प्रभु समस्त प्राणियों और देवताओं के मालिक होने के कारण सबके स्वामी हैं । प्रभु देवों के भी देव हैं । प्रभु ब्रह्मांड की उत्पत्ति, संचालन और लय करने वाले ब्रह्मांड के नायक हैं । प्रभु संपूर्ण ब्रह्मांड का पालन पोषण करने वाले होने के कारण जगतपति कहलाते हैं । संपूर्ण पुरुषों में सर्वोत्तम होने के कारण श्री वेदजी ने समस्त लोकों में प्रभु को पुरुषोत्तम कहा है ।
संबोधन के बाद दूसरी बात जो श्री अर्जुनजी कहते हैं वह यह कि प्रभु स्वयं ही अपने आपसे अपने आपको जानते हैं । इसका तात्पर्य है कि जानने वाले भी प्रभु ही हैं और जानने योग्य स्वयं को बनाने वाले भी प्रभु ही हैं । प्रभु के सिवाय जानने की चेष्टा करने पर भी कोई प्रभु को कभी नहीं जान सकता । एकमात्र प्रभु ही प्रभु के ज्ञाता हैं । मनुष्य एवं चराचर का कोई भी प्राणी यहाँ तक की देवतागण भी प्रभु को नहीं जानते । प्रभु इतने विराट और असीम हैं कि प्रभु को जानना किसी के लिए भी संभव नहीं है । प्रभु की सर्वशक्ति और प्रभु के सर्वसामर्थ्य को प्रभु स्वयं ही जान सकते हैं ।
श्री अर्जुनजी प्रभु के बड़े भक्त हैं और उनके द्वारा यहाँ पर किया गया प्रभु को जो संबोधन है वह बहुत हृदयस्पर्शी और मार्मिक है ।
प्रकाशन तिथि : 07 नवम्बर 2018 |
68 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
क्योंकि हे अर्जुन, मेरा ऐश्वर्य असीम है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु का ऐश्वर्य अनन्त है, असीम है और अपार है । प्रभु की महानता और उनके ऐश्वर्य को समझ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है । जीव की इंद्रियां सीमित है और प्रभु के ऐश्वर्य की कोई सीमा नहीं है । इसलिए जीव की सीमित इंद्रियों से प्रभु के ऐश्वर्य को समझना असंभव है । इस दसवें अध्याय में श्री अर्जुनजी ने प्रभु की विभिन्न विभूतियों के बारे में जानने की इच्छा जाहिर की है । इस श्लोक में विभूति शब्द प्रभु के उन ऐश्वर्यों का सूचक है जिनके द्वारा प्रभु सम्पूर्ण ब्रह्मांड का नियंत्रण करते हैं ।
प्रभु जानते हैं कि कोई भी जीव प्रभु के पूर्ण ऐश्वर्य के विस्तार को समझ ही नहीं सकता । इसलिए प्रभु ने श्री अर्जुनजी के निवेदन पर सिर्फ अपने कुछ प्रमुख ऐश्वर्यों के स्वरूप का ही वर्णन किया है । जब श्री अर्जुनजी ने प्रभु से कहा कि अपनी विभूति
पूरी तरह से विस्तार के साथ वर्णन करें तो प्रभु ने तुरंत कहा कि मैं केवल अपनी विभूतियों को अति संक्षेप में कहूँगा । इसका कारण यह है कि प्रभु को पता है कि प्रभु की विभूतियों का कोई अंत नहीं है इसलिए उसका पूरा वर्णन कर पाना प्रभु के लिए भी संभव ही नहीं है ।
प्रभु की विभूतियाँ अनंत हैं । इसलिए प्रभु की विभूतियों के विस्तार को न तो कोई कह सकता है और न ही कोई सुन सकता है । जो चीज कोई पूरी तरह से सुन भी ले और कोई पूरी तरह से कह दे वह अनन्त नहीं कही जा सकती । प्रभु का ऐश्वर्य अनन्त है इसलिए प्रभु कहते हैं कि मैं उन्हें अति संक्षेप में ही कहूँगा । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब प्रभु ही अपने ऐश्वर्य के बारे में अपने द्वारा पूर्ण वर्णन की बात सोच ही नहीं सकते तो किसी भी श्रीग्रंथ, शास्त्र, ऋषि, संत में सामर्थ्य नहीं कि वे ऐसा कर पाएं ।
प्रभु के ऐश्वर्य का इतना विराट विस्तार है और वह इतनी असीम है कि हमारे लिए उसके एक अंश की भी कल्पना कर पाना कतई संभव नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 09 नवम्बर 2018 |
69 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे अर्जुन ! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अंत में प्रभु ही हैं । इसका तात्पर्य यह है कि एक प्रभु के अलावा और कुछ है ही नहीं । इसका अर्थ है कि हमें जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब कुछ प्रभु ही हैं । यह श्लोक इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें प्रभु ने अपना स्थाई पता जीव के हृदय का दिया है । प्रभु हर जीव के हृदय में स्थित हैं । जीव तब तक ही क्रियाशील है जब तक प्रभु का वास उसके हृदय में है ।
इस श्लोक का सही अर्थ समझने से एक अदभुत भाईचारे की भावना सभी प्राणियों के लिए हमारे हृदय में जागृत होती है और सभी योनि, धर्म, संप्रदाय और पंथ के मतभेद समाप्त हो जाते हैं । जब हम अपने भीतर स्थित प्रभु को सामने वाले जीव के हृदय में भी स्थित है ऐसा मानने लगते हैं तो आपस के सभी द्वेष, ईर्ष्या और संघर्ष खत्म हो जाते हैं । प्रभु समान रूप से सभी जीवों के हृदय में स्थित हैं, ऐसा उपदेश सभी धर्मों के श्रीग्रंथों में मिलता है ।
यहाँ पर श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने स्वयं अपने श्रीवचन में यह बात घोषणा के रूप में कही है कि प्रभु का एक वास समस्त जीवों के हृदय में है । इस तरह प्रभु का वास अपने परम धाम में भी है और फिर भी वे हमसे दूर नहीं हैं क्योंकि उनका एक निवास हमारे हृदय में भी है इसलिए वे हमारे सबसे समीप हैं । इस तथ्य के मद्देनजर हमें अपना सबसे सच्चा और सबसे प्रिय रिश्ता भक्ति के द्वारा प्रभु से ही जोड़ना चाहिए । प्रभु हमारे सबसे समीप हैं इसलिए हमारा सबसे समीप का रिश्ता केवल और केवल प्रभु से ही होना चाहिए । पर हम अपने प्रभु के साथ इस सबसे समीप के रिश्ते को नहीं समझ पाने की भूल कर बैठते हैं ।
इस श्लोक से दो बातें समझनी चाहिए कि प्रभु सबमें स्थित हैं इसलिए सबके साथ भाईचारा रखना चाहिए और प्रभु हमारे में स्थित हैं इसलिए हमारा सबसे निकट का संबंध प्रभु से ही होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 11 नवम्बर 2018 |
70 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(प्रभु का ऐश्वर्य) |
अ 10
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है । मैंने जो विभूतियां कही है वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का केवल संक्षेप में संकेत मात्र है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु दसवें अध्याय के बीसवें श्लोक से उनतालीसवें श्लोक तक अपनी कुल बयासी विभूतियों का वर्णन करते हैं । प्रभु की विभिन्न विभूतियों में एक-एक विभूति का नाममात्र भी गिनाया जाए तो भी हजारों जन्म व्यतीत होने पर भी किंचित विभूतियों का वर्णन कर पाना भी संभव नहीं होगा । पर श्री अर्जुनजी के एक प्रश्न, कि मैं प्रभु का चिंतन कहाँ-कहाँ करूं, के उत्तर में प्रभु ने बड़े ही संक्षेप में अपने कुछ अति विशेष विभूतियों को बताया है और प्रभु का चिंतन उनमें करने की बात बताई है । प्रभु द्वारा श्रीमद् भगवद् गीताजी में बताई विभूतियों की ओर ध्यान जाते ही स्वतः ही प्रभु का चिंतन होना चाहिए ।
सभी प्रभु की विभूतियों में सभी विशेषताएं प्रभु की है और प्रभु से ही आई हैं । इसलिए प्रभु की हर विभूति का स्मरण होते ही हमारी दृष्टि प्रभु की तरफ जानी चाहिए । यह दसवां अध्याय मुख्यतः भक्ति का प्रकरण है क्योंकि अपनी विभूतियों को संक्षिप्त में बताने के बाद उनतालीसवें श्लोक में समस्त विभूतियों का सार बताते हुए प्रभु ने कहा है कि सबका बीज अर्थात कारण प्रभु हैं । इसका मूल तत्व यह है कि हमारी इंद्रियां, मन, बुद्धि जहाँ-जहाँ भी जाए उन सबमें प्रभु के स्वरूप का ही दर्शन करे । क्योंकि प्रभु ने कहा है कि मेरे सिवाय कुछ नहीं है अर्थात सब कुछ प्रभु ही हैं । इस अध्याय का सार यही है कि किसी भी वस्तु, घटना, परिस्थिति में प्रभु का ही चिंतन होना चाहिए ।
प्रभु का अपनी विभूति कहने का तात्पर्य जीव के उद्धार के लिए अपना चिंतन कराने का है क्योंकि सब रूप में एक प्रभु ही हैं । प्रभु की दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है क्योंकि प्रभु अनंत है इसलिए उनकी विभूति, गुण, श्रीलीला आदि भी अनन्त हैं । प्रभु की विभूति के विस्तार का भी इसलिए कोई अंत नहीं है । हम संसार में परमाणुओं की संख्या फिर भी असंभव लगने पर भी गिन सकते हैं पर करोड़ों ब्रह्मांड को रचने करने वाले प्रभु की विभूतियों को कभी भी नहीं गिना जा सकता । प्रभु अनन्त, असीम और अगाध हैं । प्रभु का अपनी विभूतियों को बताना वास्तव में बहुत ही संक्षेप में और नाममात्र का है क्योंकि प्रभु की विभूतियों का अंत है ही नहीं ।
सभी विभूतियों का तात्पर्य यही है कि एक प्रभु के सिवाय कुछ भी नहीं है और सब रूपों में एक प्रभु ही हैं । प्रभु की विभूतियों को और प्रभु के ऐश्वर्य को जानकर हमें प्रभु के शरणागत होकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए । संसार में जहाँ-जहाँ भी हमें कोई विशेषता दिखती है उसको प्रभु की विशेषता मानते हुए उसमें प्रभु के रूप का दर्शन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि उस वस्तु, व्यक्ति जिसमें हमें विशेषता दिखी है तो उसके प्रति हमारा आकर्षण न होकर वह आकर्षण प्रभु के लिए होना चाहिए, यही इस दसवें अध्याय का ध्येय है ।
संसार में किसी भी सजीव और निर्जीव वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, गुण, भाव, क्रिया में कुछ भी ऐश्वर्य दिखे, शोभा दिखे, सौंदर्य दिखे, बलवत्ता दिखे, कुछ भी विशेषता, विलक्षणता दिखे, योग्यता दिखे उन सबको प्रभु से जोड़कर ही देखना चाहिए । जहाँ-जहाँ विशेषता दिखे वहाँ-वहाँ प्रभु का ही चिंतन होना चाहिए । वहाँ अगर हमें प्रभु को छोड़कर कुछ भी दिखता है तो वह हमारे पतन का कारण बनता है क्योंकि ऐसा होने पर प्रभु के लिए हमारे अनन्य भाव के व्रत का भंग हो जाता है । सभी के आधार प्रभु है इसलिए एक प्रभु की झलक ही हमें सर्वत्र दिखनी चाहिए ।
सब तरफ दिखने वाली विशेषता को हमें प्रभु की ही माननी चाहिए । जहाँ-जहाँ जिस किसी में जहाँ कहीं भी विशेषता दिखे वह हमें प्रभु की ही दिखनी चाहिए । इस तथ्य को समझाने के लिए प्रभु ने अनेक तरह की अपनी विभूतियां बहुत ही संक्षिप्त रूप में बताई है । प्रभु की विभूतियों को समझने का फल यह होता है कि प्रभु में हमारी भक्ति दृढ़ हो जाती है । सब विभूतियों में प्रभु ही हैं, प्रभु के इस कथन का तात्पर्य अपनी तरफ दृष्टि करवाने में है क्योंकि सब कुछ प्रभु ही तो हैं ।
संसार में विशेषता, विलक्षणता वास्तव में प्रभु से ही आती है । अंश में वही चीज आती है जो अंशी में हो । इसलिए हमें जो विशेषता, सुंदरता, सामर्थ्य और विलक्षणता संसार में दिखती है वह सब कुछ प्रभु की है और संसार में ऐसा देखने पर हमें प्रभु के दर्शन सर्वत्र होने लग जाते हैं । जहाँ कहीं जो कुछ भी विशेषता दिखती है वह सब प्रभु की ही है ऐसा मानने से प्रभु के साथ योग यानी संबंध का अनुभव हो जाता है । इसलिए इस दसवें अध्याय को विभूतियोग कहा गया है । प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं यही इस अध्याय का संदेश है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
प्रभु संपूर्ण शक्तियों, कलाओं, विद्याओं आदि के विलक्षण भंडार हैं । मनुष्य की बड़ी भूल होती है कि मिली हुई वस्तु को अपनी मान लेता है और जहाँ से मिली है उन देने वाले प्रभु की तरफ उसकी दृष्टि ही नहीं जाती । मनुष्य मिली हुई वस्तु जैसे बुद्धि, आरोग्य, संपत्ति, कीर्ति को तो देखता है पर देने वाले प्रभु को नहीं देख पाता । मनुष्य संसार के कार्य को तो देखता है पर जिनकी शक्ति से वह कार्य हुआ है उनको देखना भूल जाता है ।
प्रभु की संपूर्ण क्रिया में उनकी अनुपम कृपा भरी हुई रहती है पर मनुष्य का दुर्भाग्य है कि वह उसे पहचान नहीं पाता । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में जो श्रीवचन कहे हैं वह केवल जीव पर कृपा करने के लिए कहे हैं । केवल प्रभु की कृपा के अलावा प्रभु का अन्य कोई हेतु नहीं है । प्रभु की कृपा पाने के लिए श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु स्पष्ट कहते हैं कि जीव को केवल प्रभु की भक्ति करने की आवश्यकता है ।
प्रभु की उदारता स्वतंत्र है यानी याचक की इच्छा पर अवलंबित नहीं है । ऐसा नहीं है कि याचक प्रभु की उदारता चाहेगा तभी प्रभु उदार होंगे, प्रभु तो स्वभाव से ही परम उदार हैं । इसलिए सब कुछ प्रभु की इच्छा पर छोड़ने से साधक को जितना लाभ होता है वह अपनी इच्छा प्रभु के सामने रखने पर नहीं होता । प्रभु अत्यधिक कृपालु और दयालु हैं । प्रभु की कृपालुता और दयालुता की महिमा को सर्वथा कोई जान ही नहीं सकता क्योंकि वे असीम और अनंत हैं ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 13 नवम्बर 2018 |
71 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 10-11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे । प्रभु अनेक दैवीय हथियार उठाए हुए थे । सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम और सर्वत्र व्याप्त था ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यहाँ पर प्रभु के विराट विश्वरूप का प्रारंभिक वर्णन है ।
प्रभु के विराट विश्वरूप में अनेक मुख थे, अनेक प्रकार के दिव्य अलंकार थे और वह विश्वरूप अनेक प्रकार के दिव्य आयुधों यानी अस्त्रों-शस्त्रों से युक्त दिखाई पड़ता था । श्री अर्जुनजी ने प्रभु के अनेकों मुख देखे । कुछ प्रलयाग्नि से युक्त भयंकर थे, कुछ सौन्दर्य से मन को हरण करने वाले सौम्य थे । आश्चर्यचकित होकर देखते हुए श्री अर्जुनजी को विश्वरूप के अनेक प्रकार के दर्शन होने लगे ।
विराट रूप में प्रभु के अनेक रूप, अनेक आकृतियां दिखी । अपार विश्वरूप में श्री अर्जुनजी ने वह सब कुछ देखा जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे । प्रभु अपने शरीर के सभी श्रीअंगों में दिव्य अलंकारों से युक्त थे । प्रभु दिव्य सुगंधयुक्त लेप से युक्त थे जिसकी दिव्य सुवास सभी दिशाओं में फैल रही थी । एक-एक शृंगार की शोभा को देखते हुए श्री अर्जुनजी बिलकुल चकित रह गए । श्री अर्जुनजी ने दृष्टि से बाहर देखा तो सब कुछ विश्वरूपमय दिखा, फिर उन्होंने आँखें बंद कर ली तो भी भीतर वैसा ही विश्वरूप दिखा ।
इस श्लोक में अनेक शब्द का प्रयोग बारंबार हुआ है जो यह बताता है कि श्री अर्जुनजी जिस विश्वरूप को प्रभु द्वारा प्रदान दिव्य नेत्रों से देख रहे थे उसमें प्रभु के मुख, नेत्र, हाथ आदि श्रीअंगों की कोई सीमा नहीं थी । प्रभु ने दिखाया कि वे कोटि-कोटि ब्रह्मांडों में एक साथ व्याप्त हैं पर श्री अर्जुनजी ने प्रभु की कृपा से एक ही स्थान पर सब का दर्शन कर लिया । प्रभु का दिव्य और विराट विश्वरूप इतना आर्श्चयमय और विराट था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । प्रभु का विराट विश्वस्वरूप असीम तेजयुक्त था और सर्वत्र व्याप्त था ।
प्रभु का ऐश्वर्य इतना असीम है जिसकी कल्पना करने भर की भी क्षमता जीव में नहीं है फिर भी प्रभु इतने दयालु हैं कि प्रभु इतने ऐश्वर्य संपन्न होने पर भी सबके लिए सभी समय उपलब्ध हैं ।
प्रकाशन तिथि : 15 नवम्बर 2018 |
72 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(विराट रूप) |
अ 11
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रभु को प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करने लगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वर्णन प्रभु के विराट विश्वरूप के दर्शन के समय का है ।
प्रभु का विराट विश्वरूप इतना तेजमय था मानो कोटि-कोटि प्रभु श्री सूर्यनारायणजी का तेज एक जगह एकत्रित हो गया हो फिर भी उनकी उपमा नहीं दी जा सकती । कोटि-कोटि प्रभु श्री सूर्यनारायणजी का तेज भी प्रभु के तेज की बराबरी इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि प्रभु श्री सूर्यनारायणजी में जो तेज है वह भी प्रभु से ही आया है । श्री अर्जुनजी ने विश्वरूप में प्रभु के अंदर एक ही स्थान पर अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न जगतों को देखा । श्री अर्जुनजी को अत्यंत आश्चर्य हुआ तथा प्रभु का किंचित ऐश्वर्य को देखकर उनका शरीर एक भक्त की तरह सर्वत्र आनंद से रोमांचित हो गया । श्री अर्जुनजी का मस्तक अपने स्वामी का विराट विश्वरूप देखकर नत हो गया और वे नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़कर खड़े हो गये ।
श्री अर्जुनजी के हृदय में रोमांच के कारण आनंद की लहरिया वेग से उठने लगी और उनके मस्तक से पैरों तक सारा शरीर रोमांचित होकर कांपने लगा । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने प्रभु के विराट विश्वरूप में संपूर्ण चराचर जगत को उसके संपूर्ण विभागों के सहित एक ही जगह पर प्रत्यक्ष देखा । उन्होंने देखा कि प्रभु के एक अंश में संपूर्ण विस्तृत संसार समाहित है । जगत भले ही अनंत हो पर प्रभु के एक अंग में ही स्थित है ।
प्रभु का विराट विश्वरूप श्री अर्जुनजी की कल्पना से भी बाहर था इसलिए प्रभु का वह स्वरूप देखकर उन्हें बड़ा भारी आश्चर्य हुआ । प्रभु ने कृपा करके श्री अर्जुनजी को आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश किया और अब उससे भी बड़ी कृपा करके अपना विलक्षण विश्वरूप दिखाया और इस कृपा को पाकर श्री अर्जुनजी रोमांचित हो उठे । श्री अर्जुनजी ने एक भक्त की तरह अपने आपको प्रभु को अर्पित किया और हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए प्रभु की स्तुति करने लगे ।
प्रभु इतने विराट और ऐश्वर्यवान हैं फिर भी हमारे लिए लघुरूप में उपलब्ध हैं इसलिए लघुरूप में भी प्रभु के दर्शन करते वक्त हमें प्रभु के विराट और ऐश्वर्ययुक्त स्वरूप को कभी नहीं भूलना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 17 नवम्बर 2018 |