क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
49 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, शरणस्थली तथा अत्यंत प्रिय मित्र हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु ही जीव के लक्ष्य हैं । लक्ष्य वह होता है जहाँ हमें पहुँचना होता है । शास्त्र कहते हैं कि मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति ही है । इसलिए प्रभु ही हमारे परम लक्ष्य हुए । अगर जीवन में हम प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर नहीं चल रहे हैं तो निश्चित ही पथभ्रष्ट हो रहे हैं क्योंकि हमारा परम गंतव्य प्रभु ही हैं । प्रभु कहते हैं कि प्रभु हमारे स्वामी और पिता हैं । क्योंकि प्रभु ही हमारे और जगत की उत्पत्ति के कारण हैं इसलिए प्रभु ही हमारे परमपिता और स्वामी हैं ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु ही हमारे हर कार्य या कर्म के साक्षी हैं । प्रभु अंतरात्मा में स्थित हैं इसलिए हम कुछ भी प्रभु से छिपाकर नहीं कर सकते । हमारे मन में कोई भावना जिसे हमने अभी तक किसी के सामने भी व्यक्त नहीं की है उसे भी प्रभु जानते हैं । प्रभु कहते हैं कि प्रभु जीव को शरण देने वाले हैं । हर जीव प्रभु की शरण में जा सकता है और प्रभु उसे स्वीकार करते हैं । शास्त्रों में प्रभु की शरणागति ग्रहण करने का बहुत बड़ा लाभ बताया गया है और शास्त्रों का आदेश है कि जीव को सदैव प्रभु की शरण ग्रहण करके ही रखनी चाहिए ।
प्रभु आगे श्लोक में कहते हैं कि प्रभु हमारे अत्यंत प्रिय मित्र हैं । प्रभु से बढ़कर जीव का कोई मित्र नहीं हो सकता । सच्चा मित्र सदैव हमारा शुभचिंतक होता है और हमारा हित करना उस मित्र का प्रधान लक्ष्य होता है । प्रभु से बड़ा हमारा शुभचिंतक और कोई नहीं हो सकता । प्रभु से बड़ा हित करने वाला हमारा अन्य कोई हो ही नहीं सकता । इसलिए प्रभु ही हमारे सबसे बड़े मित्र हैं । संसार की मित्रता स्वार्थ पर टिकी होती है पर प्रभु की मित्रता में प्रभु का कोई स्वार्थ नहीं होता । प्रभु एकपक्षीय मित्रता निभाते हैं ।
इसलिए जीवन में प्रभु को ही अपना सब कुछ मानना चाहिए और प्रभु के साथ इसी संबंध का नाम भक्ति है । जब हम प्रभु को अपना सब कुछ मानने लगते हैं तो प्रभु भी हमारे सब कुछ बन जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 02 अक्टूबर 2018 |
50 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सकाम धर्म का आश्रय लिए हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि जो सकाम कर्म करते हैं और भोगों की कामना रखते हैं उनको भोगों की प्राप्ति तो होती है पर उनका संसार में आवागमन समाप्त नहीं होता । वे मुक्त होकर प्रभु के धाम नहीं पहुँच पाते । ज्यादा-से-ज्यादा अपने सकाम कर्मों के पुण्य के कारण वे स्वर्ग जाते हैं पर उनके पुण्यों को भोगने के बाद और उनके पुण्य भोगकर समाप्त होने पर उन्हें पुनः मृत्युलोक में लौटकर आना होता है । जीव इस तरह बार-बार सकाम कर्म करके स्वर्ग जाता है और फिर लौटकर मृत्युलोक में आता है । उसका मृत्युलोक में आने-जाने का चक्कर चलता ही रहता है और वह इस चक्कर से कभी छूट नहीं पाता ।
यहाँ पर प्रभु का संकेत है कि जो जीव सकाम कर्म और भोगों के पीछे नहीं पड़ता और निष्काम होकर प्रभु की भक्ति करता है वह इस संसार के आवागमन से मुक्त होकर सदैव के लिए प्रभु के पास पहुँच जाता है । एक बार जो प्रभु के पास भक्ति के बल पर पहुँच गया उसे फिर स्थाई रूप से प्रभु का धाम प्राप्त हो जाता है । उस जीव को फिर कभी संसार में लौटना नहीं पड़ता ।
भक्ति का ही सामर्थ्य है कि वह जीव को चौरासी लाख योनियों के चक्रव्यूह से सदैव के लिए मुक्त करवा सकती है । अन्यथा अपने पुण्यों को स्वर्ग में और पापों को नर्क में भोगने के बाद जीव को अपने पिछले कर्म अनुसार जलचर, नभचर, थलचर या वनस्पति के रूप में जन्म लेकर मृत्युलोक में आते ही रहना पड़ता है । भक्ति करके प्रभु की प्राप्ति करने के अलावा संसार में आवागमन से मुक्ति का अन्य कोई भी साधन नहीं है ।
इसलिए जीवन में सकामता का त्याग कर और भोगों को भोगने की कामना से रहित हो प्रभु की निष्काम भक्ति करनी चाहिए । ऐसा करके जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है और सदैव के लिए संसार में आने-जाने के चक्र से छूट जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 04 अक्टूबर 2018 |
51 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो अनन्य भक्त मेरा चिंतन करते हुए भली-भांति मेरी उपासना करते हैं उन भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु इस श्लोक में एक बहुत बड़ा आश्वासन अपने भक्तों को देते हैं । प्रभु कहते हैं कि जो भक्त प्रभु का चिंतन करते हैं उनकी चिंता करने का पूरा भार प्रभु उठाते हैं । जो अनन्यता से प्रभु की भक्ति करता है उस भक्त की पूरी जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं । उस भक्त के पूरे दायित्व का वहन प्रभु करते हैं । इसलिए यह देखा गया है कि सच्ची भक्ति करने वाला भक्त सदैव निर्भय और निश्चिंत रहता है ।
या तो हम अपनी चिंता स्वयं करें या फिर अपनी चिंता का दायित्व प्रभु को सौंप दें, यह हमारे ऊपर है । प्रभु का श्रीमद् भगवद् गीतामाँ में अपने भक्तों के लिए श्रीवचन है कि उनकी योगक्षेम का वहन प्रभु स्वयं करते हैं । यह एक बहुत बड़ा आश्वासन है कि नित्य निरंतर प्रभु की भक्ति में लगे हुए भक्तों के योगक्षेम का वहन प्रभु स्वयं करते हैं और ऐसे भक्तों को अपनी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
ऐसे भक्तों को जब जो चाहिए उस वस्तु की प्राप्ति प्रभु करवाते हैं और उनके पास जो कुछ भी है उसकी रक्षा प्रभु स्वयं करते हैं । जिस चीज से भक्त की भक्ति बढ़े और उसका कल्याण हो उस भक्त के हित की ऐसी व्यवस्था प्रभु करते हैं । जिस चीज से भक्त की भक्ति में विघ्न आए और उसका हित और कल्याण न हो प्रभु उसको भक्त के जीवन से हटा देते हैं । सच्चे भक्तों को अपने जीवन में भक्ति के कारण यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो परिस्थिति उसके जीवन में आती है वह प्रभु की भेजी हुई है और उसी में ही उसका हित है । फिर वह अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों परिस्थितियों में परम प्रसन्न रहता है ।
हमारा अपना प्रयास जीवन में प्रभु की अनन्यता से भक्ति करने का और सर्वदा प्रभु का चिंतन करने का होना चाहिए । अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो प्रभु स्वयं हमारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 06 अक्टूबर 2018 |
52 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे भी अविधि पूर्वक मेरा ही योजन करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो अन्य किसी का भी पूजन करते हैं वह पूजा भी प्रभु को ही प्राप्त होती है । इसका सीधा तात्पर्य यह है कि प्रभु का पूजन करने से सबका स्वतः ही पूजन हो जाता है । जैसे वृक्ष की जड़ में जल देने से उस वृक्ष की टहनियों, शाखाओं और पत्तों तक जल स्वतः ही पहुँच जाता है वैसे ही प्रभु का पूजन करने से सभी का स्वतः पूजन हो जाता है ।
दूसरे संदर्भ में भी यह तथ्य श्रीमद् भगवद् गीतामाँ में देखने को मिलती है । जब प्रभु ने श्री अर्जुनजी को अपना विराट विश्वरूप दिखाया तो प्रभु के श्रीअंगों में सभी देवताओं और सभी लोकों के दर्शन हुए । विश्वरूप में यह बात देखने को मिलती है कि सब कुछ प्रभु में ही समाया हुआ है और सब कुछ प्रभु का ही अंश है । प्रभु से भिन्न कुछ भी नहीं है । प्रभु से भिन्न किसी का भी अलग से कोई अस्तित्व नहीं है ।
इसलिए अकेले प्रभु की पूजा से सबकी तृप्ति स्वतः ही हो जाती है । जब किसी भी देवता का किया पूजन प्रभु को प्राप्त होता है तो प्रभु का किया हुआ पूजन भी सभी देवताओं को स्वतः ही प्राप्त हो जाता है । इसलिए यह सिद्धांत है कि प्रभु के पूजन से सभी देवता, लोकपाल, ऋषिगण, पितरगण तृप्त हो जाते हैं । जगत में एकमात्र प्रभु ही हैं और अन्य सब कुछ प्रभु में ही समाए हुए हैं । इसलिए अगर प्रभु की पूजा की जाए तो प्रभु में समाए होने के कारण सबकी पूजा स्वतः ही हो जाती है ।
यह कितना सुलभ तरीका है कि प्रभु को तृप्त करते ही सभी तृप्त हो जाते हैं । प्रभु की पूजा होते ही सभी की पूजा हो जाती है । प्रभु की सेवा होते ही सभी की सेवा हो जाती है । इसलिए जीवन में प्रभु को ही प्रधान मानते हुए प्रभु की ही प्रधानता से पूजा करनी चाहिए जिससे सभी की स्वतः ही तृप्ति हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 08 अक्टूबर 2018 |
53 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भक्त के द्वारा प्रेमपूर्वक दिए हुए उपहार को मैं स्वीकार कर लेता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
इस श्लोक में बताया गया है कि प्रभु को अर्पण पदार्थ की मुख्यता नहीं है बल्कि भक्त के भाव की मुख्यता है क्योंकि प्रभु भाव के भूखे हैं, पदार्थ के नहीं । उदाहरण के तौर पर देखें तो जब भक्त में प्रभु को खिलाने का भाव आता है तो प्रभु को भी भूख लग जाती है । प्रभु प्रेमपूर्वक अर्पित केवल श्री तुलसीदल से प्रसन्न हो जाते हैं । प्रभु श्री महादेवजी तो मात्र जल की धारा से ही प्रसन्न हो जाते हैं ।
भगवती शबरीजी ने प्रभु श्री रामजी को जूठे बेर खिलाए और प्रभु ने उसे सहर्ष स्वीकार किया । प्रेमपूर्वक और भाव से अर्पण किए हुए जूठे बेर को प्रभु कभी नहीं भूले और उनकी मिठास की चर्चा प्रभु ने सबके सामने निरंतर करी । यहाँ तक कि भगवती सीता माता भी जब प्रभु को भोजन कराती थी तो प्रभु कहते थे कि भोजन बहुत स्वादिष्ट बना है पर मेरे शबरी के बेर की मिठास कुछ और ही थी । प्रभु अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किए बेर की बड़ाई जगजननी के सामने करने से भी नहीं चूकते ।
जब भक्त का प्रभु को अर्पण करने का भाव बहुत अधिक बढ़ जाता है तो प्रभु भी भक्त के प्रेम के भाव में लीन होकर अपने आपको भूल जाते हैं । प्रेम की अधिकता में भक्त को इसका ख्याल नहीं रहता कि मैं प्रभु को क्या अर्पण कर रहा हूँ और प्रभु भी यह ख्याल नहीं रखते कि मैं क्या ग्रहण कर रहा हूँ । प्रेमपूर्वक अर्पण उपहार को प्रभु भाव विभोर होकर स्वीकार करते हैं । प्रभु के लिए पदार्थ का कभी महत्व नहीं रहता, प्रभु सदैव उसके पीछे छिपे भाव को तलाशते हैं ।
इसलिए जीवन में प्रभु को कुछ भी अर्पण करें, चाहे वह भोग की सामग्री हो या फिर हमारे कर्म हो, उसे भावपूर्वक और प्रेम से प्रभु को अर्पण करना चाहिए तभी प्रभु सहर्ष उसे तत्काल स्वीकार कर लेते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 10 अक्टूबर 2018 |
54 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार मुझे अर्पण करने से कर्मबंधन से सर्वदा मुक्त होकर मुझे प्राप्त हो जाएगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर एक विलक्षण बात बताते हैं कि कोई भी पदार्थ, कोई भी क्रिया, कोई भी उद्यम हमें प्रभु को अर्पण करना चाहिए तभी हम उसके कर्मबंधन से सदैव के लिए मुक्त हो सकते हैं । अगर हम ऐसा नहीं करते तो वह हमें कर्मबंधन में बांधेगा और उस कर्म को भोगने के लिए हमें जन्म लेते रहने पड़ेंगे । इसलिए कोई भी लौकिक, पारमार्थिक या स्वाभाविक क्रिया जो भी हम करे उसे प्रभु को अर्पण करना चाहिए ।
प्रभु कहते हैं कि सब पदार्थ और क्रियाएँ प्रभु को अर्पण करने से, यहाँ तक कि स्वयं जीव भी अपने आपको प्रभु को अर्पण करने से वह जीव अनंत जन्मों के शुभ अशुभ फलों से मुक्त हो जाता है । यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि अशुभ कर्म भी बंधनकारक हैं और शुभ कर्म भी बंधनकारक हैं । फर्क इतना है कि एक बेड़ी लोहे की है और दूसरी बेड़ी सोने की है पर बंधन दोनों से ही होता है । इस बंधन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है कि उस कर्म को ही प्रभु को अर्पण कर दिया जाए ।
जो व्यक्ति अपने जीवन में नियम बना लेता है कि कुछ भी करे प्रभु को अर्पण करके ही करेगा तो वह सदैव कर्म के बंधन से मुक्त रहता है । फिर उसके कर्म कभी उसे बांध नहीं सकते और वह कर्मबंधन से मुक्त हो जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है । प्रभु कहते हैं कि जो जीव अपने समस्त कर्म प्रभु को अर्पण करके जीवन में चलता है वह सदैव जीवनकाल में ही मुक्त रहता है और मुक्त होने के कारण वह जीवन के अंत में प्रभु की प्राप्ति कर लेता है । इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं कि जो जीव अपने जीवन काल में सब कर्म प्रभु को अर्पण करके चलता है उसे वापस जन्म नहीं लेना पड़ता ।
इसलिए जीव को नियमपूर्वक अपने हर कर्म और क्रिया को प्रभु को अर्पण करके चलना चाहिए जिससे उसे अंत में कोई भी कर्म बांध नहीं सके और वह मुक्त होकर प्रभु की प्राप्ति कर सके ।
प्रकाशन तिथि : 12 अक्टूबर 2018 |
55 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं वह मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो भक्तिपूर्वक प्रभु का भजन करते हैं और संसार में आसक्ति नहीं रखते, जो केवल प्रभु के परायण रहते हैं, प्रभु की प्रसन्नता के लिए कर्म करते हैं वे प्रभु के होते हैं और प्रभु उनके होते हैं । जो जीव अपने शरीर, इंद्रियां, मन और वाणी को प्रभु को समर्पित कर देता है वह प्रभु का हो जाता है और प्रभु उसके हो जाते हैं । प्रभु के कहने का तात्पर्य यह है कि जो प्रभु के परायण हो जाता है, प्रभु का भजन करता है और प्रभु की शरण में आ जाता है प्रभु उस जीव से विशेष प्रेम करते हैं ।
प्रभु सभी प्राणियों में समान रूप से व्याप्त है परंतु जो प्राणी भक्ति से और प्रेम से प्रभु के सन्मुख आ जाता है वह प्रभु की कृपा विशेषता से पाता है । सिद्धांत यह है कि हमारी प्रभु में जितनी प्रियता होती है प्रभु की भी उतनी ही अधिक प्रियता हमसे होती है । जो अपने आपको प्रभु को अर्पण कर देता है प्रभु भी अपने आपको उसे प्रदान कर देते हैं । भक्तों के भाव के अनुसार प्रभु की विशेष कृपा और प्रियता उन भक्तों पर होती है ।
प्रभु की दृष्टि में जो वास्तव में प्रभु के हो जाते हैं, प्रभु भी उनके हो जाते हैं । जो भक्तिपूर्वक प्रभु का भजन करते हैं चाहे वे किसी भी देश, काल, वर्ण, संप्रदाय, आश्रम या जाति के क्यों न हो वे प्रभु के बन जाते हैं और प्रभु उनके हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जीव का कार्य केवल भक्तिपूर्वक प्रभु का भजन करते हुए प्रभु के सन्मुख होना है । फिर प्रभु ऐसा होने पर उसका विशेष ध्यान रखते हैं । प्रभु को शास्त्रों में भक्तों का विशेष पक्ष लेने वाला कहा गया है । प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि भक्ति के कारण अपने भक्तों के भी भक्त बन जाते हैं ।
इसलिए जीवन में भक्ति करके प्रभु का बनकर रहना ही श्रेष्ठ है । जो प्रेमपूर्वक प्रभु की भक्ति करते हैं उनका वास प्रभु में होता है और प्रभु का वास उनमें होता है । इसलिए जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य प्रेमपूर्वक प्रभु की भक्ति करना ही होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 14 अक्टूबर 2018 |
56 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अगर कोई दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु यहाँ कहते हैं कि दुराचारी से भी दुराचारी अगर भक्ति करने लगता है तो वह संत बन जाता है । प्रभु के सानिध्य में आने का यह कितना बड़ा प्रभाव है कि दुराचारी से दुराचारी भी संत बन जाता है । प्रभु की भक्ति ही ऐसा परिवर्तन करती है । ऐसे कई संत और भक्त हुए हैं जो पूर्व में संत या भक्त नहीं थे पर भक्ति के कारण उनके जीवन में भाव बदल गया और वे प्रभु के बहुत प्रसिद्ध भक्त हुए । ऐसी कई कथाएं श्रीपुराणों में एवं श्रीभक्तमाल आदि श्रीग्रंथों में मिलती हैं ।
भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है कि चोर, डाकू, लुटेरे और हत्या करने वाले भी पूर्णरूप से बदलकर प्रभु के श्रेष्ठ भक्त हुए । जब प्रभु ने अपने श्रीवचनों में इस तथ्य का उपरोक्त श्लोक में प्रतिपादन किया है तो फिर इसमें शंका की कोई गुंजाइश बचती ही नहीं । प्रभु के प्रतिपादन के बाद यह सिद्धांत रूप में स्वीकारना चाहिए कि प्रभु की अनन्य भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है कि दुराचारी से दुराचारी भी भक्ति करके परिवर्तित हो जाता है और दुराचारी से संत बन जाता है ।
भक्ति की दृष्टि से देखें तो संपूर्ण दुर्गुण और दुराचार प्रभु से विमुख होने पर ही किसी के जीवन में टिके रहते हैं । जब जीव अनन्य भाव से भक्तियुक्त होकर प्रभु के सन्मुख हो जाता है तब उसके सभी दुर्गुण और दुराचार स्वतः ही मिट जाते हैं । प्रभु कितने उदार हैं यह यहाँ इस श्लोक में देखने को मिलता है । प्रभु कहते हैं कि जो दुराचारी है पर भक्ति करके मेरा भजन करने लग गया उसे भी साधु समझना चाहिए कारण कि उसने भक्ति करके सन्मार्ग पर चलने का उत्तम निश्चय जो कर लिया है । अगर उस जीव का आचरण देखें तो वह पापों के कारण निम्न कोटि का है पर उसने अपनी शेष आयु भक्ति के मार्ग पर समर्पित कर दी इसलिए प्रभु उसे साधु मानते हैं ।
भक्ति में इतना बल है कि भक्ति करने वाले का संपूर्ण पाप प्रभु नष्ट कर देते हैं और उसकी पाप करने की प्रवृत्ति को भी प्रभु नष्ट कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 16 अक्टूबर 2018 |
57 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
यह मेरा एक प्रिय श्लोक है क्योंकि प्रभु यहाँ पर श्री अर्जुनजी के माध्यम से घोषणा करवाते हैं कि प्रभु के भक्त का कभी पतन या विनाश नहीं हो सकता । तात्पर्य है कि जो भक्ति करके प्रभु के सम्मुख हो गया उसके विनाश या पतन की किंचित मात्र भी संभावना नहीं होती क्योंकि उसकी रक्षा स्वयं प्रभु करते हैं । सिद्धांत यह है कि भक्त का पतन इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि वह भगवद निष्ठ होता है और उसे प्रभु का बल मिला हुआ होता है जो उसे पतनोन्मुख होने से रोक देता है ।
जीव का पतन तभी हो सकता है जब वह प्रभु का आश्रय छोड़ देता है । पर भक्त कभी भी प्रभु के आश्रय का त्याग जीवन में नहीं करता इसलिए उसका पतन और विनाश कदापि नहीं हो सकता । प्रभु का स्वभाव है कि वे अपने आश्रित भक्त का पूरा दायित्व उठाते हैं और उसकी पूरी संभाल करते हैं । प्रभु अपने भक्तों का कभी भी अमंगल या अशुभ नहीं होने देते । इतिहास में प्रभु के किसी भी भक्त का पतन या विनाश हुआ हो ऐसा दृष्टान्त कहीं नहीं मिलेगा ।
यह कितना बड़ा आश्वासन है जो प्रभु अपनी प्रिय भक्तों के लिए घोषणा के रूप में श्री अर्जुनजी के द्वारा कहलवाते हैं ? जीव की इंद्रियां इतनी चंचल है कि गलत विषयों का सेवन करवा कर जीव का पतन और विनाश करवा देती है । पर जब हम भक्ति के द्वारा अपनी सभी इंद्रियों को प्रभु से जोड़ देते हैं उनकी चंचलता शांत हो जाती है और वे हमें गलत दिशा में नहीं ले जाती । भक्ति हमारी इंद्रियों को प्रभु से जोड़कर सात्विक कर देती है और प्रभु का आश्रय पाने से फिर हमारी इंद्रियां कभी पतन मुखी नहीं होती ।
इसलिए जिस भी जीव को अपने जीवन में अपना उत्थान करना है और अपने पतन को रोकना है उसे प्रभु की भक्ति में अपना जीवन लगा देना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 18 अक्टूबर 2018 |
58 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो भी पाप योनि वाले हो वे भी सर्वथा मेरी शरण होकर निःसंदेह परम गति को प्राप्त हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
पाप योनि वाले जीव के लिए भी प्रभु ने यहाँ एक बहुत बड़ा आश्वासन दिया है । पाप योनि में पड़ा जीव सर्वथा अपने सब तरफ अंधकार ही अंधकार पाता है । पर प्रभु का यह आश्वासन उसे ज्योति की किरण के रूप में दिखाई देती है जिससे उसके जीवन का अंधकार तत्काल नष्ट हो जाता है । प्रभु के श्रीवचनों में यहाँ प्रभु की शरणागति के महत्व का प्रतिपादन होता है । प्रभु की शरणागति ग्रहण करने का कितना बड़ा महत्व है वह यहाँ पर देखने को मिलता है ?
जीवन में प्रभु की शरणागति ग्रहण करने पर जीव पाप योनि से भी मुक्त हो परम गति को प्राप्त करता है । प्रभु शरणागति के अधिकारी पाप योनि वाले जीव भी हैं । जो प्रभु की शरणागति लेकर प्रभु के सन्मुख हो जाता है वह परम पवित्र हो जाता है और उसका उद्धार हो जाता है । जब पाप योनि में पड़ा जीव आर्त होकर प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है और प्रभु को पुकारता है तो उस पुकार से करुणामय प्रभु का हृदय द्रवित हो उठता है और प्रभु उसे अपना लेते हैं ।
जीव को जैसे ही प्रभु स्वीकार करते हैं उसके पाप भस्म हो जाते हैं और उसका कल्याण सुनिश्चित हो जाता है ।
पापी-से-पापी जीव भी जब प्रभु की शरण में आ जाता है और आर्त होकर प्रभु को पुकारता है तो प्रभु उसे अपनी गोद में उठा लेते हैं । प्रभु के शरणागत होने के लिए हमारे पाप कभी बाधक नहीं बन सकते । प्रभु के अंश होने के नाते प्रभु की शरण में आने के लिए किसी को कोई भी तरह की मनाही नहीं है । यह प्रभु की कितनी बड़ी उदारता और करुणा है । प्रभु का द्वार सबके लिए सदैव खुला रहता है और प्रभु अपनी शरण में आए हुए सभी को सहर्ष स्वीकार करते हैं ।
जो पाप योनि का केवल नाम मात्र लेने से वह घृणा योग्य है उस अधम-से-अधम योनि के जीव भी जब प्रभु की शरण में आ जाते हैं तो उनका उद्धार हो जाता है और वे परम गति को प्राप्त होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 20 अक्टूबर 2018 |
59 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस अनित्य और सुखरहित शरीर को प्राप्त करके तू मेरा भजन कर ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
यह सिद्धांत है कि जो प्रभु की भक्ति करने में लग जाता है उसका निश्चित उद्धार होता है । इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि भक्ति जीव का निश्चित उद्धार करवाती है । इसलिए प्रभु ने इस श्लोक में भक्ति करने पर विशेष जोर दिया है । प्रभु कहते हैं कि यह मानव जीवन जो जीव को मिला है वह नित्य रहने वाला नहीं है । मानव जीवन का अगर भक्ति करके सदुपयोग नहीं किया और मृत्यु पर इसका नाश हो गया तो यह जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा । दूसरा, प्रभु कहते हैं कि मानव जीवन सुखरहित है । संसार को प्रभु ने दुःखालय कहा है और प्रभु ने कहा है कि संसार में सुख है ही नहीं, केवल सुख का भ्रम है । मानव जीवन में सच्चा परमानंद भक्ति करने के कारण ही मिल सकता है ।
प्रभु ने जो दोनों बातें कही है वह बहुत महत्वपूर्ण हैं । मानव जीवन अनित्य है यानी नित्य रहने वाला नहीं है । यह किस समय छूट जाए, इसका कुछ पता नहीं । इसलिए इस मानव जीवन में भक्ति करके जल्दी-से-जल्दी इस जीवन को अपने उद्धार में लगा लेना ही श्रेयस्कर है । प्रभु ने जो दूसरी बात कही है वह यह है कि मनुष्य शरीर में सुख भी नहीं है । प्रभु ने इसलिए हमें सावधान किया है कि मनुष्य शरीर मिलने पर उसे सुखभोग के लिए इस्तेमाल कर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए ।
मनुष्य शरीर केवल भगवत् प्राप्ति के लिए ही मिला है और भगवत् प्राप्ति करने का सबसे सुलभ साधन भक्ति है । मनुष्य शरीर पाकर अगर भक्ति कर हम अपना उद्धार करना भूल गए तो फिर हमें अन्य असंख्य योनियों में जाना पड़ेगा और उन योनियों में अपने उद्धार का मौका हमें फिर नहीं मिलेगा । इसलिए जीव का हित करने के लिए और जीव के उद्धार के लिए कृपालु प्रभु कहते हैं कि मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवल प्रभु का भजन करना चाहिए ।
प्रभु की भक्ति के अधिकारी सभी हैं चाहे वह दुराचारी हो या पुण्यात्मा हो । इसलिए सबके उद्धार के लिए प्रभु ने मनुष्य शरीर का सदुपयोग करने की हिदायत सबको दी है क्योंकि सभी भक्ति करने के लिए स्वतंत्र, समर्थ, योग्य और अधिकारी हैं ।
प्रकाशन तिथि : 22 अक्टूबर 2018 |
60 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान) |
अ 09
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी पूजा करो । इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कितने दयालु और कृपालु हैं यह इस श्लोक में देखने को मिलता है । प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि अपनी प्राप्ति का मार्ग सबके लिए खोल देते हैं । प्रभु कहते हैं कि अपना चित्त प्रभु के नित्य चिंतन में लगाना चाहिए । इसका सीधा अर्थ यह है कि हमें संसार का चिंतन छोड़कर प्रभु का ही चिंतन करना चाहिए तभी हमारा उद्धार संभव होगा । प्रभु यहाँ पर जीव को अपने उद्धार के लिए प्रभु की भक्ति करने का सुझाव देते हैं । प्रभु जीव से कहते हैं कि प्रभु को नमस्कार करने से, प्रणाम करने से जीव का उद्धार संभव होता है । प्रभु कहते हैं कि प्रभु की सेवा और पूजन में जीव का कल्याण निहित है ।
सब कुछ इस श्लोक में प्रभु ने खोल कर बता दिया है । तात्पर्य है कि पूर्णतया अपना जीवन प्रभुमय बनाने से वह जीव प्रभु को अंत समय में प्राप्त होता है । फिर उसका संसार में आवागमन सदैव के लिए समाप्त हो जाता है । जो चार बातें प्रभु ने इस श्लोक में बताई है वे चारों बातें प्रभु की भक्ति के अन्तर्गत आती है जिससे प्रभु की शरणागति पूर्ण हो जाती है । इन चारों में मुख्यतः जो बात है वह प्रभु के भक्त बनने की ही है । हमें इसका तात्पर्य समझना चाहिए कि प्रभु कहना चाहते हैं कि जो कुछ भी है वह प्रभु ही हैं, प्रभु के सिवाय और कुछ है ही नहीं । इसलिए प्रभु की भक्ति को स्वीकार करना ही मानव जीवन की सबसे सर्वोत्तम उपलब्धि है ।
विभिन्न योनियों में न भटकते हुए, संसार में निरंतर जन्म मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पाने का एकमात्र साधन प्रभु की भक्ति है । जीव अगर प्रभु से भक्तिमय प्रेम करता है, प्रभु का चिंतन करता है, प्रभु को प्रणाम करता है और प्रभु की सेवा पूजा करता है तो यह सब क्रिया उस जीव को भक्त बनने में सहायक होती है । जो प्रभु का भक्त बन जाता है फिर उसके पतन का अवसर उसके जीवन में कभी नहीं आता क्योंकि प्रभु स्वयं अपने भक्तों की पूर्ण रक्षा करते हैं ।
इसलिए प्रभु का भक्त बन भक्ति करके प्रभु की प्राप्ति का ही एकमात्र लक्ष्य जीवन में रखना चाहिए ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
अनन्य भाव से प्रभु की भक्ति करने वाले का योगक्षेम प्रभु स्वयं वहन करते हैं । साथ ही प्रभु यह भी कहते हैं कि मेरे भक्त का कभी विनाश या पतन नहीं होता । पर जीव ऐसा है कि प्रभु की तरफ दृष्टि न रखकर संसार की तरफ दृष्टि रखता है इसलिए प्रभु को प्राप्त नहीं कर पाता और बार-बार जन्मते मरते रहता है । जीव का प्रभु के साथ ही एकमात्र शाश्वत संबंध है इसलिए उसका सबसे घनिष्ठ रिश्ता प्रभु से ही होना चाहिए ।
ऐसा करने का उपाय यह है कि ज्यों-ज्यों जीव प्रभु के बारे में अधिकाधिक पढ़ता और सुनता है त्यों-त्यों वह आत्मप्रकाशित होता जाता है । फिर वह प्रभु की भक्ति और सेवा में निरंतर लग जाता है । जैसे ही वह प्रभु की भक्ति में निरंतर रत रहने लगता है उसके सारे पाप कर्म नष्ट होते चले जाते हैं । फिर वह अपने हर कर्म प्रभु के लिए, प्रभु की प्रसन्नता के लिए और प्रभु को अर्पण करके करता चला जाता है ।
प्रभु कहते हैं कि मैं मेरे भक्त में केवल उसकी निष्काम भक्ति और निश्छल प्रेम को देखता हूँ । यह सिद्धांत है कि जब तक निष्काम भक्ति और निश्छल प्रेम से प्रभु की जीवन में प्राप्ति नहीं होगी तब तक सकाम जितने भी कर्म हम करते रहेंगे उसका फल भोगना पड़ेगा जो अंत में दुःख और अशांति के अलावा हमें कुछ भी नहीं देगा । पर जब हम निष्काम भक्ति और निश्छल प्रेम से प्रभु के शरणागत हो जाएंगे तो प्रभु हमारा हित देखकर हमसे वही कर्म करवाएंगे जिससे हमारा मंगल होगा । शरणागत से प्रभु जो भी करवाते हैं उसी में उसका कल्याण निहित होता है ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 24 अक्टूबर 2018 |