श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
37 श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति)
अ 08
श्लो 07
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए हर समय मेरा स्मरण कर और युद्ध कर । मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करने वाला निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु हमारे कल्याण के लिए इस बात पर जोर देते हैं कि हर समय प्रभु का स्मरण होना चाहिए । हमारे क्रिया और कार्य करने के लिए हम समय को विभाजित करते हैं परंतु प्रभु स्मरण के समय का कोई विभाजन नहीं होना चाहिए । प्रभु का स्मरण हर समय और निरंतर होना चाहिए । मन और बुद्धि से निरंतर प्रभु का चिंतन होते रहना चाहिए क्योंकि वास्तव में हमारा संबंध केवल प्रभु के साथ ही है । हमारा केवल और केवल प्रभु के साथ ही सनातन संबंध है और हम साक्षात प्रभु के ही अंश हैं । इसलिए हमें चाहिए कि अपने मन और बुद्धि को प्रभु को अर्पण कर दें ।

हम प्रभु के ही थे, प्रभु के ही हैं और प्रभु के ही रहेंगे, ऐसा प्रभु के साथ नित्‍य संबंध जागृत हो जाना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि जो इस प्रकार प्रभु से नित्य संबंध जोड़कर अपने मन और बुद्धि को प्रभु को अर्पण करता है वह निःसंदेह प्रभु को प्राप्त होता है । सबसे जरूरी बात जो प्रभु कहते हैं वह यह कि कर्म करते हुए भी प्रभु का स्मरण नित्य-निरंतर बना रहना चाहिए । संसार का कार्य करते हुए भी प्रभु को सदैव याद करते रहना चाहिए । भाव यह रहे कि संसार का कर्म भी हो पर साथ-साथ प्रभु का नित्य-निरंतर स्मरण भी होता रहे ।

प्रभु के स्‍मरण में भूल नहीं होनी चाहिए । हर समय प्रभु का स्मरण करने का अभ्यास जिसने कर लिया उसकी मन और बुद्धि प्रभु को स्‍वतः ही अर्पित हो जाती है । जो नित्‍य-निरंतर प्रभु का स्‍मरण करता है उसके लिए प्रभु की प्राप्ति बहुत सुलभ है क्योंकि वह किसी भी समय शरीर छोड़ेगा तो प्रभु का स्मरण करते हुए ही छोड़ेगा और ऐसा करने पर वह प्रभु को प्राप्त कर लेगा । प्रभु ने श्री अर्जुनजी को युद्ध करते समय भी प्रभु का स्मरण करते रहने को कहा है । प्रभु ऐसा कहकर यह बताना चाहते हैं कि कोई भी कर्म करते समय प्रभु का स्मरण नहीं छोड़ना चाहिए ।

इसलिए जीव को चाहिए कि हर अवस्था, हर प्रक्रिया में, हर कर्म में प्रभु का स्मरण नित्य-निरंतर करते रहने का अभ्यास जीवन में करे । अपने मन और बुद्धि को सदैव प्रभु को अर्पण करके रखे तभी उसका जीवन काल में कल्याण संभव है और तभी उसका अंत सुधर सकता है ।

प्रकाशन तिथि : 08 सितम्‍बर 2018
38 श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति)
अ 08
श्लो 08
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाए रखकर मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

इस श्‍लोक में प्रभु ने अपना स्मरण और ध्यान किए जाने की महत्ता पर बल दिया है । प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु का ध्यान करता है वह निःसंदेह प्रभु को प्राप्त होता है । हमें ध्यान और स्मरण करना चाहिए तो वह केवल प्रभु का । ध्यान करने की बहुत विधियां प्रचलित है पर ध्यान करने योग्य केवल प्रभु ही है । इसलिए केवल और केवल प्रभु के स्वरूप का ही ध्यान करना चाहिए । हमारा ध्यान प्रभु के श्रीकमलचरणों से लेकर प्रभु के एक-एक श्रीअंगों का होना चाहिए ।

प्रभु के स्वरूप का ध्यान करने में जो आनंद है उसकी अनुभूति अन्य किसी चीज का ध्यान करने में नहीं मिल सकती । प्रभु आनंदस्वरूप हैं और प्रभु के प्रत्येक श्रीअंग से माधुर्य और आनंद झलकता है । जीव को दो बातें करने का निर्देश प्रभु इस श्‍लोक में देते हैं । प्रभु कहते हैं कि प्रभु का ही स्मरण करो और प्रभु का ही ध्यान करो । हमारे कल्याण के लिए यह दोनों बातें अति आवश्यक है । जो प्रभु का नित्य-निरंतर स्मरण करना सीख लेता है वह मानो प्रभु को प्राप्त करने के मार्ग पर बढ़ जाता है । ऐसे ही जो प्रभु के ध्यान का अभ्यास जीवन में करने में सफल हो जाता है वह मानो प्रभु को प्राप्त करने के मार्ग में और भी आगे बढ़ जाता है ।

अभ्यास के बल पर पंगु मनुष्य भी पर्वत पर चढ़ सकता है । ऋषियों, संतों और भक्तों ने अभ्यास के बल पर प्रभु का नित्य-निरंतर स्मरण करने में अपने मन को लगाया और अभ्यास के बल पर अपना ध्यान प्रभु के स्‍वरूप में केंद्रित किया । इस तरह उन्होंने प्रभु की प्राप्ति की । प्रभु यही मार्ग हम सभी को दिखाना चाहते हैं कि प्रभु प्राप्ति का सबसे सुलभ साधन है कि हमारा मन नित्‍य-निरंतर प्रभु का स्मरण करें और हमारा मन प्रभु के स्वरूप का ध्यान करें । प्रभु का स्‍मरण और प्रभु का ध्यान जीवन में निरंतर होने लगे इससे बड़ी जीव के लिए कुछ भी उपलब्धि मानव जन्‍म में नहीं हो सकती ।

इसलिए हमें अपने मन को प्रभु के स्‍मरण में और प्रभु के ध्यान में केंद्रित करना चाहिए जिससे हमारे मनुष्य जन्म में हमें प्रभु की प्राप्ति संभव हो जाए ।

प्रकाशन तिथि : 10 सितम्‍बर 2018
39 श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति)
अ 08
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अनन्‍य चित्‍तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरंतर स्मरण करता है, मैं उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु अनन्‍य चित्‍तवाले लोगों को सुलभता से प्राप्त होते हैं । जिसका चित्‍त प्रभु को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाता, जिसका प्रभु के सिवाय कोई आश्रय नहीं और जो प्रभु के अलावा जीवन में किसी को महत्व नहीं देता वह जीव अनन्‍य चित्‍तवाला होता है । अनन्‍य चित्‍तवाला जीव केवल प्रभु के परायण रहता है । अनन्‍य चित्‍तवाले वाले जीव की दृढ़ मान्यता होती है कि मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं । वह दृढ़तापूर्वक मानता है कि मेरा संसार में और कोई नहीं है और मैं संसार में किसी का नहीं हूँ । जो ऐसा संबंध प्रभु से जोड़ लेता है वह अनन्‍य चित्‍तवाला होता है ।

ऐसा अनन्‍य चित्‍तवाला जीव नित्य-निरंतर प्रभु का स्मरण करता है क्योंकि उसकी पहुँच प्रभु के अलावा कहीं भी नहीं होती । उसका प्रभु स्मरण प्रातः उठने से शयन तक तथा एक समय ऐसा भी उसके जीवन में आता है जब निद्रा अवस्था में भी उसका प्रभु स्मरण खंडित नहीं होता । ऐसा जीव मृत्यु बेला तक प्रभु का स्मरण करता रहता है । प्रभु कहते हैं कि ऐसे जीव के लिए प्रभु सुलभ है और बड़ी सुलभता से ऐसे अनन्‍य चित्‍तवाला और नित्‍य-निरंतर प्रभु का स्मरण करने वाला जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है ।

प्रभु का स्मरण सांसारिक जीव भी करते हैं पर वे नित्‍य-निरंतर नहीं करते और स्वार्थ सिद्धि या विपत्ति निवारण के लिए करते हैं । दूसरा, सांसारिक जीव संसार से अपना रिश्ता जोड़कर रखते हैं । संसार का बनकर रहेंगे तब तक हमारी उन्नति नहीं है । हमें केवल और केवल प्रभु का ही बनकर रहना चाहिए । प्रभु से ही हमारा सनातन और शाश्‍वत रिश्ता है क्योंकि हम प्रभु के अंश हैं । जो जीव इस तथ्‍य को समझ जाता है वह अनन्‍यता से अपना चित्‍त प्रभु में केंद्रित कर देता है और प्रभु का नित्य-निरंतर स्मरण करता है । संसार में चित्‍त को लगाने योग्य और स्मरण करने योग्य केवल और केवल प्रभु ही हैं ।

इसलिए जीव को चाहिए कि अपने चित्‍त को संसार से खींचकर प्रभु में लगाए और संसार का चिंतन न करके नित्‍य-निरंतर प्रभु का ही चिंतन करे । यह दोनों क्रियाएं भक्ति के अंतर्गत आती है इसलिए मनुष्य जन्म लेकर जीव को केवल और केवल प्रभु की भक्ति ही करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 12 सितम्‍बर 2018
40 श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति)
अ 08
श्लो 15
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी है, कभी भी दुःखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

इस श्‍लोक में प्रभु का भक्तों के लिए एक बहुत बड़ा आश्वासन है । प्रभु ने संसार को दुःखालय कहा है क्योंकि यहाँ दुःख-ही-दुःख है । प्रभु कहते हैं कि जो भी जीव भक्ति करके प्रभु को प्राप्त कर लेता है उसको वापस इस संसाररूपी दुःखालय में नहीं आना पड़ता । इसका सीधा तात्पर्य यह है कि उस जीव का पुनर्जन्म नहीं होता और वह जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है । पुनर्जन्म का अर्थ है फिर से शरीर धारण करना चाहे वह मनुष्य का हो या पशु, पक्षी, वनस्पति का हो ।

प्रभु का आश्वासन है कि जो जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है उसका कभी भी फिर पुनर्जन्म नहीं होता । जीव को अपनी ममता, कामना और आसक्ति के कारण और अपने कर्मों को भोगने के लिए न चाहते हुए भी इस संसार में लौटकर आना पड़ता है । उसे किसी भी योनि में लौटना पड़े पर उसे लौटना पड़ता है यह बात निश्चित है । अगर कोई जीव पुण्य करके ऊँचे-से-ऊँचे लोकों में भी जाता है तो भी उसका पूर्ण कल्याण नहीं होता क्योंकि उसे अपने पुण्यों को भोगकर वहाँ से भी संसार में लौटना पड़ता है ।

पर जो जीव भक्ति करके प्रभु की प्राप्ति कर लेता है वह प्रभु के पास पहुँच जाता है । फिर वह जन्म-मृत्यु के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । उसका संसार में आवागमन सदैव के लिए बंद हो जाता है । प्रभु की भक्ति कर प्रभु को प्राप्त करने के अलावा अन्य कोई भी उपाय नहीं है जिससे चौरासी लाख योनियों के चक्र से छूटा जा सके । पुनः जन्म, पुनः मरण की प्रक्रिया चलती ही रहती है । इस प्रक्रिया से बचने और मुक्त होने का एकमात्र उपाय है कि भक्ति करके प्रभु को प्राप्त किया जाए । वैसे भी प्रभु की प्राप्ति ही मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य और उद्देश्य है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि अपने मानव जीवन में प्रभु की तीव्रता से भक्ति करें और प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान प्राप्त करने की चेष्टा और प्रयास करें । ऐसा करने पर ही वह जीव पुनर्जन्म के दुःख से सदैव के लिए मुक्त हो सकता है ।

प्रकाशन तिथि : 14 सितम्‍बर 2018
41 श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति)
अ 08
श्लो 22
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संपूर्ण प्राणी जिनके अंतर्गत हैं और जिनमें यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्‍य भक्ति से प्राप्त होने योग्य हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

पूरा ब्रह्माण्‍ड प्रभु में व्याप्त है । प्रभु ने अपने विराट रूप में अपने एक-एक रोमावली में कोटि-कोटि ब्रह्माण्‍डों के दर्शन कराए । ऐसे परम पुरुष प्रभु को हम प्राप्त कर सकते हैं और उसका एकमात्र साधन है अनन्य भक्ति । प्रभु इस श्‍लोक में कहते हैं कि केवल अनन्य भक्ति से ही प्रभु को प्राप्त किया जा सकता है । अनन्य भक्ति में एकमात्र प्रभु की सत्ता को स्वीकार करते हुए हम अपना प्रत्येक कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए करते हैं । मैं केवल और केवल प्रभु का ही हूँ और केवल और केवल प्रभु ही मेरे हैं, यह भाव अनन्य भक्ति में होना चाहिए ।

प्रभु को प्राप्त करने का सबसे सुगम और सरल साधन अनन्य भक्ति है । यहाँ पर अनन्य शब्द का विशेष महत्व है । भक्ति कामना पूर्ति के लिए भी की जाती है, भक्ति डर से मुक्ति के लिए भी की जाती है । पर अनन्‍य भक्ति प्रभु को सर्वाधिक प्रिय है । अनन्‍य भक्ति का अर्थ है निष्काम और निश्‍छल भक्ति । अनन्‍य भक्ति का अर्थ है कि हम प्रभु सानिध्य के बिना एक पल भी रह ही नहीं पाए ।

जब हम भक्तों के चरित्र को देखते हैं तो उनकी भक्ति में अनन्‍यता के दर्शन हमें होते हैं । भक्ति में अनन्यता प्रभु को सबसे प्रिय है । प्रभु ही मेरे सब कुछ हैं, यह भाव जीवन में स्थिर कर लेना अनन्यता है । जरा सोचें कि संपूर्ण प्राणी जिन प्रभु के अंतर्गत हैं और संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड जिन प्रभु में व्याप्त है, उन प्रभु को कितनी सुलभता से केवल अनन्य भक्ति से हम प्राप्त कर सकते हैं । जीवन में प्रभु की भक्ति बहुत लोग करते हैं पर अनन्य भक्ति कुछ बिरले ही कर पाते हैं ।

इसलिए जीवन में प्रभु के लिए अनन्‍यता का भाव जागृत करना चाहिए । अनन्य भक्ति हमें सीधे प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचा देती है । भक्ति में प्रभु के लिए अनन्‍यता हो तो यह भक्ति का सबसे बड़ा गौरव है ।

प्रकाशन तिथि : 16 सितम्‍बर 2018
42 श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति)
अ 08
श्लो 28
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है वह मात्र भक्ति करके समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्‍यधाम को प्राप्त होता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि इस जगत में मृत्यु के बाद आत्मा के पलायन करने के विभिन्न मार्ग हैं । उन विभिन्न मार्गों को सुनकर जीव को विचलित नहीं होना चाहिए । प्रभु भक्ति को ही सर्वोपरि मानते हैं । प्रभु कहते हैं कि भक्ति करने वाले जीव के लिए भगवत् धाम का मार्ग स्‍वतः ही सुगम, सुनिश्चित और सीधा है । यहाँ यह तीनों बातें महत्वपूर्ण है । भक्ति करने वाले के लिए प्रभु के धाम का मार्ग सुगम है । भक्ति करके जीव अंत में बड़ी सुगमता से प्रभु तक पहुँच जाता है । भक्ति करने वाले के लिए प्रभु का धाम सुनिश्चित है । प्रभु ने पहले ही सुनिश्चित कर रखा है कि भक्ति करने वाला जीव प्रभु तक आकर पहुँचेगा । भक्ति करने वाले के लिए प्रभु के धाम का मार्ग सीधा है ।

दूसरी बात जो प्रभु श्लोक में कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी साधन हैं, उनके जो फल है वह भक्ति करने वाले जीव को स्‍वतः ही प्राप्त हो जाते हैं । भक्ति करने वाला जीव एक ही झटके में भक्ति करने के कारण मनुष्य जन्म के विभिन्न आश्रमों, साधनों और अनुष्ठानों का फल प्राप्त कर लेता है । भक्ति को प्रभु ने इतनी बड़ी महिमा प्रदान की है कि भक्ति करने वाले जीव को सभी अन्य कर्मों और साधनों का फल स्‍वतः ही प्राप्त हो जाता है ।

मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सिद्धि भक्ति प्राप्त करना है । भक्तों की निष्काम और प्रेमा भक्ति का प्रभु अपने ऊपर ऋण मानते हैं । मनुष्य जीवन में आकर भक्तिमार्ग को ही स्वीकार करना चाहिए । हमारा उद्देश्य भक्ति करके केवल प्रभु की प्राप्ति का ही होना चाहिए । प्रभु प्राप्ति के अलावा जीवन में और कोई भी ध्‍येय होना ही नहीं चाहिए । भक्ति में प्रभु की ओर जाने वाला मार्ग सरल है और भक्ति के अलावा अन्य साधनों से प्रभु की ओर जाने वाला मार्ग टेढ़ा है । माया से प्रभावित होकर संसार की ओर जाने वाला मार्ग तो सबसे घातक और विपरीत है ।

इसलिए जीव को जीवन में प्रभु प्राप्ति का ही एकमात्र लक्ष्य रखना चाहिए और इसकी पूर्ति के लिए भक्तिमार्ग को ही अपनाना चाहिए ।

अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
भक्‍त की दृष्टि में सिवाय प्रभु के कुछ भी नहीं रहता । भक्त ऐसी भावना रखता है कि मैं प्रभु का सेवक हूँ और केवल प्रभु की सेवा करना ही मेरा काम है । भक्त प्रभु के ही आश्रय में रहता है इसलिए प्रभु अपने भक्तों की विशेष रक्षा करते हैं । यह सिद्धांत है कि जिसकी रक्षा प्रभु करते हैं उसकी दुर्गति कभी नहीं हो सकती ।
प्रभु कहते हैं कि जो मनुष्य मेरी तरफ चला आता है वह मुझे बहुत प्रिय लगता है । वास्तव में हम प्रभु के अंश हैं, संसार के अंश नहीं, इसलिए हमारा वास्तविक संबंध प्रभु के साथ है । प्रभु के हृदय में प्रभु की भक्ति करने वालों के लिए बहुत बड़ा स्थान है । जो भक्ति करके प्रभु की शरण चला जाता है उसकी कभी न कोई क्षति होती है और न कभी पतन होता है ।
इसलिए हमारे जीवन में प्रभु की तरफ चलने की उत्कंठा, लगन, उत्साह और तत्परता दिन प्रतिदिन बढ़ती ही रहनी चाहिए । ऐसा इसलिए क्योंकि जीव को केवल मनुष्य जन्म में ही अपने उद्धार का अवसर मिलता है । अतः उसे इस अवसर का सदुपयोग करना चाहिए । मनुष्यरूपी जन्म हमारा अंतिम जन्म हो सकता है अगर हम इसका सदुपयोग प्रभु प्राप्ति के लिए करते हैं । प्रभु ने जीव को केवल अपना कल्याण करने के लिए ही यह अवसर दिया है ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्‍द्रशेखर कर्वा


प्रकाशन तिथि : 18 सितम्‍बर 2018
43 श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान)
अ 09
श्लो 03
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते । अतः वे इस भौतिक जगत में जन्म मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि भक्ति की महिमा बहुत बड़ी है । प्रभु जोर देकर कहते हैं कि पूर्ण श्रद्धा से भक्ति करनी चाहिए । भक्ति में श्रद्धा रखना परम आवश्यक है । प्रभु कहते हैं कि जो जीव भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते वे किसी भी सूरत में प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकते । इसका तात्पर्य यह है कि सुलभता से प्रभु को केवल भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है और इसके लिए भक्ति के साधन में पूर्ण श्रद्धा रखना परम आवश्यक है ।

प्रभु स्पष्ट कहते हैं कि जो जीव प्रभु की भक्ति नहीं करते वे कदापि जन्म मृत्यु के चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते । भक्ति नहीं करने वाला जीव प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता और इसके अभाव में उस जीव को संसार में विभिन्न योनियों में जन्म लेते रहना पड़ता है । जीव संसार के आवागमन से तभी छूट सकता है जब वह भक्ति करके सदैव के लिए प्रभु की प्राप्ति कर लेता है ।

भक्ति के अभाव में जीव संसार में विभिन्न योनियों में कर्म अनुसार जन्म लेकर भटकता ही रहता है । उसे परम विश्राम कभी नहीं मिलता । वह जीव चौरासी लाख योनियों में जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है । ऐसा उसे एक बार नहीं बल्कि बार-बार भोगना पड़ता है । चौरासी लाख योनियों के चक्र में न जाने कितनी बार जीव भ्रमण करता है और करता ही रहता है । इससे मुक्ति पाने का एकमात्र साधन है प्रभु की भक्ति । भक्ति से जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है और इस तरह वह जन्म मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छूट जाता है ।

इसलिए प्रभु इस श्‍लोक में भक्ति पर बड़ा बल देते हैं और श्रद्धायुक्त होकर भक्ति करने का निर्देश देते हैं । प्रभु स्पष्ट कहते हैं कि जो श्रद्धा रखकर भक्ति नहीं करता वह प्रभु को प्राप्त नहीं कर पाता और संसार चक्र से मुक्त भी नहीं हो पाता ।

प्रकाशन तिथि : 20 सितम्‍बर 2018
44 श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान)
अ 09
श्लो 06
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऐसे ही संपूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जगत के संपूर्ण प्राणी प्रभु में ही स्थित हैं । वे प्रभु को छोड़कर कहीं नहीं जा सकते । प्रभु का संकेत यह है कि जीव अपने को कितना भी संसार का मान ले पर वह संसार का होता नहीं और जीव अपने को कितना भी प्रभु से अलग मान ले पर वह प्रभु से अलग नहीं हो सकता । जीव का एकमात्र प्रभु से ही नित्य निरंतर घनिष्ठ संबंध है और अभिन्‍नता है । जीव सांसारिक दृष्टि से प्रभु से भिन्‍न दिखता हो पर जीव की अलग से कोई सत्‍ता है ही नहीं ।

जीवात्मा प्रभु से ही प्रकट होता है, प्रभु में ही स्थित रहता है और प्रभु में लीन हो जाता है । इस तरह सभी जीव अटल रूप से नित्‍य निरंतर प्रभु में ही स्थित रहते हैं । तात्पर्य यह है कि सभी योनियों में घूमते रहने पर भी जीव प्रभु का अभिन्न अंग बनकर नित्य निरंतर प्रभु में ही स्थित रहता है । प्रभु का यहाँ संकेत है कि जीव नित्‍य निरंतर प्रभु में स्थित है फिर वह जीव प्रभु की प्राप्ति के लिए परिश्रम क्यों नहीं करता और प्रभु की प्राप्ति में देरी क्यों करता है ?

प्रभु से अलग जीव की स्थिति कभी हो ही नहीं सकती । जीव अंश तो प्रभु का है पर पकड़ लेता है संसार को । उसका खिंचाव संसार की तरफ हो जाता है और वह संसार में सुख और भोग तलाशता है । ऐसा करते हुए वह प्रभु का अंश होते हुए भी प्रभु से विमुख हो जाता है । उसका एकमात्र नित्‍य और सनातन संबंध प्रभु के साथ है पर वह यह भूल जाता है । प्रभु को छोड़कर जीव की कोई स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं, इस बात को अगर जीव दृढ़ता से स्वीकार कर ले तो वह जीव यह अनुभव करने लगेगा कि मेरे सब कुछ प्रभु ही हैं । यही वास्तविक सत्य है ।

संसार से हमारा संयोग और प्रभु से हमारा वियोग कभी भी नहीं होना चाहिए । जीव किसी भी योनि में क्यों न हो वह प्रभु का अंश है और प्रभु में सदैव स्थित रहता है इसलिए सदैव उसका संयोग प्रभु से ही होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 22 सितम्‍बर 2018
45 श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान)
अ 09
श्लो 07
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं फिर उनकी रचना करता हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

इस श्‍लोक में प्रभु के विराट ऐश्वर्य का दर्शन होता है जब प्रभु महाप्रलय की बात करते हैं और फिर जीव के जन्मदाता के रूप में प्रभु का परमपिता का भाव देखने को मिलता है । मनुष्य के चार अरब बत्‍तीस करोड़ वर्षों का प्रभु श्री ब्रह्माजी का एक दिन होता है और मनुष्य के उतने ही वर्षों की प्रभु श्री ब्रह्माजी की एक रात्रि होती है । जब प्रभु श्री ब्रह्माजी के सौ वर्षों की आयु पूरी होती है तब वे प्रभु में लीन हो जाते हैं और महाप्रलय का समय आ जाता है । जरा कल्पना करें कि मनुष्य के चार अरब बत्‍तीस करोड़ वर्षों का एक दिन और इतने ही चार अरब बत्‍तीस करोड़ वर्षों की एक रात और इस तरह के दिन रात को मिलाकर सौ वर्ष के बाद महाप्रलय ।

मनुष्य के कितने वर्षों के बाद महाप्रलय होता है इसकी गिनती भी हम नहीं कर पाएंगे । गणना करने का कोई उपकरण और गणना करने की कोई संख्या भी इस गणना को नहीं कर पाएगी क्योंकि चार अरब बत्‍तीस करोड़ को दोगुना करने से प्रभु श्री ब्रह्माजी का एक दिन और रात्रि और तीस दिन का महीना और बारह महीने का एक वर्ष के दिनों से गुणा करने से प्रभु श्री ब्रह्माजी का एक वर्ष और ऐसे सौ वर्षों से गुणा करने से महाप्रलय का समय निकलेगा । इतनी गणना करना किसी के लिए और किसी भी साधन से संभव नहीं है ।

इस तथ्य से प्रभु की विराट ऐश्वर्य का दर्शन होता है । प्रभु कहते हैं कि महाप्रलय के समय सब कुछ प्रभु में लीन हो जाता है और महाप्रलय के बाद प्रभु पुनः सबकी रचना करते हैं । ऐसा प्रभु एक बार नहीं हर बार महाप्रलय के बाद बार-बार करते हैं । इस तरह प्रभु हमारे सबसे प्रथम जन्मदाता हैं और इसलिए प्रभु को सदैव परमपिता के भाव से ही देखना चाहिए ।

प्रभु के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं । प्रभु के अलावा किसी से हमारा कोई सनातन संबंध नहीं है । इतने विराट और ऐश्वर्यवान प्रभु से हमारा एकमात्र और सनातन संबंध है, यह अपने आप में कितनी बड़ी उपलब्धि है ।

प्रकाशन तिथि : 24 सितम्‍बर 2018
46 श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान)
अ 09
श्लो 13
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वह मुझे आदि और अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु को प्राप्त करने में सहयोगी जितने गुण और आचरण हैं वे दैवी संपत्ति कहलाती है । प्रभु में इन सद्गुणों की पराकाष्ठा है और प्रभु के स्वभाव से ही यह गुण निकले हैं । जो जीव भक्ति करके प्रभु का आश्रय लेता है उसमें यह गुण विकसित होने लगते हैं । दैवीय गुण हमें प्रभु की तरफ चलने में सहायक बनते हैं और इस तरह वे हमारा कल्याण कराते हैं । दैवीय गुण को सदा प्रभु के गुण मानने चाहिए और प्रभु की कृपा प्रसादी के रूप में जीवन में ग्रहण करना चाहिए तभी दैवीय गुण के हमारे भीतर जागृति के बाद हमें अभिमान नहीं होगा ।

यह सिद्धांत है कि मनुष्य में दैवीय गुण तभी प्रकट होते हैं जब उस जीव का उद्देश्य केवल प्रभु की प्राप्ति होता है । भगवत् प्राप्ति के लिए यह दैवीय गुण सहायक होते हैं और इनका आश्रय लेकर जीव प्रभु की तरफ बढ़ता ही चला जाता है । जीवन में सबसे जरूरी है कि हम प्रभु को सर्वोपरि माने और प्रभु की प्राप्ति के लक्ष्य की पूर्ति हेतु प्रयास में लगे रहे । ऐसे में प्रभु की कृपा से भक्तों के अंदर दैवीय गुण विकसित होते हैं और वे उन्हें भक्ति मार्ग में सहायक बनकर जीव का उद्धार कराते हैं ।

दैवीय गुणों से युक्त भक्त प्रभु की भक्ति में ही पूर्णतः निमग्‍न रहता है । उस भक्‍त को पता होता है कि यह गुण प्रभु की कृपा के कारण ही उसमें विकसित हुए हैं और वह भक्‍त इन दैवीय गुणों का उपयोग अपनी भक्ति को दृढ़ करने के लिए करता है । अनन्य होकर प्रभु की भक्ति करने से बड़ा लाभ अन्‍य कुछ भी नहीं है । भजन और भक्ति करने में सहायक बन सके इसलिए ही प्रभु दैवीय गुण का विकास भक्‍त के भीतर करते हैं ।

इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति में रमे रहे और जैसे-जैसे भक्ति करते-करते दैवीय गुण उसके भीतर विकसित होते चले जाए वैसे-वैसे जीवन में भक्ति को और सुदृढ़ करता चला जाए ।

प्रकाशन तिथि : 26 सितम्‍बर 2018
47 श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान)
अ 09
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ़ संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, भक्ति भाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु यहाँ दैवीय गुणों से युक्त भक्तों की चर्या के विषय में बताते हैं । दैवीय गुणों से युक्त महात्मा सदैव भक्ति के विविध कार्यों में व्यस्त रहते हैं । दैवीय गुणों से युक्त भक्तों के लिए भक्ति करना बहुत सरल होता है और वे आनंदपूर्वक इसे करते हैं । दैवीय गुणों से युक्त भक्‍त का प्रभु की प्राप्ति ही एकमात्र उद्देश्य होता है और वे दृढ़ता से इसी उद्देश्य की पूर्ति में लगे रहते हैं । दैवीय गुणों से युक्त भक्त प्रभु के साथ अपने सनातन और नित्य संबंध को पहचान लेता है और सदैव के लिए प्रभु के सन्मुख हो जाता है ।

दैवीय गुणों से युक्त भक्तों का प्रभु प्राप्ति का निश्चय बहुत दृढ़ होता है । वे अपने निश्चय से कभी विचलित नहीं होते । प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलते हुए प्रभु के यह भक्‍त प्रेमपूर्वक कभी प्रभु के नाम का कीर्तन करते हैं, कभी प्रभु नाम जपते हैं, कभी पाठ करते हैं, कभी प्रभु के लिए नित्य कर्म करते हैं तो कभी प्रभु संबंधी वार्ता कथा का श्रवण करते हैं । इस प्रकार वे अनन्‍य रूप से प्रभु की निरंतर भक्ति करते रहते हैं । वे अपनी सभी क्रियाएं प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करते हैं ।

यह सिद्धांत है कि भक्त जो कुछ भी करता है प्रभु के लिए ही करता है इसलिए उसकी हर क्रिया भक्ति होती है । भक्‍त अपना एकमात्र संबंध प्रभु के साथ ही जोड़कर रखता है और इस कारण वह अपनी हर क्रिया प्रभु को केंद्र में रखकर करता है । भक्‍त की लौकिक क्रिया भी प्रभु के लिए होती है और पारमार्थिक क्रिया तो प्रभु के लिए होती ही है । भक्‍त यह मानता है कि केवल जीवन धारण करना ही कोई जीवन नहीं है । भक्त मानता है कि अपना जीवन प्रभु के नाम करना और प्रभु के लिए ही जीवन जीना यथार्थ जीवन है ।

जब प्रभु भक्‍त के मन में अपने लिए अपनापन का भाव देखते हैं तो प्रभु को अति प्रसन्नता होती है । प्रभु को जीव से केवल प्रेम और भक्ति ही चाहिए होती है और इसके अलावा कुछ भी नहीं चाहिए होता ।

प्रकाशन तिथि : 28 सितम्‍बर 2018
48 श्रीमद् भगवद्गीता
(परम ज्ञान)
अ 09
श्लो 17
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस जगत का पिता, माता, पोषणकर्ता, पितामह मैं ही हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जगत को उत्पन्न करने वाले जगत के पिता प्रभु हैं । प्रभु कहते हैं कि चराचर जगत के पिता और माता वे ही हैं । प्रभु के सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की किंचितमात्र भी सत्‍ता नहीं है । हमें किंचितमात्र भी संदेह नहीं होना चाहिए कि प्रभु के अतिरिक्त जगत में किसी अन्य सत्ता का अस्तित्व है क्योंकि प्रभु के अलावा कुछ अन्य है ही नहीं । प्रभु ने अपने विराट रूप में यह दिखाया कि सब कुछ प्रभु ही प्रभु हैं । हमारे देखने, सुनने, समझने और मानने में जो कुछ भी आता है वह केवल एकमात्र प्रभु ही हैं ।

प्रभु ने यहाँ श्री अर्जुनजी से स्पष्ट कहा है कि जगत के पिता, जगत की माता, जगत के पोषणकर्ता और जगत के आदि पिता यानी पितामह वे ही हैं । संतों ने इसलिए सारे जगत को प्रभुमय देखा है । उन्होंने जगत में प्रभु के अलावा किसी के अस्तित्‍व को स्वीकार ही नहीं किया । वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि कल्पना में भी जगत में प्रभु के अतिरिक्‍त किसी का अस्तित्व है । सभी शास्त्रों, ऋषियों, संतों और भक्तों ने एकमत से अनुभव किया है और स्वीकार किया है कि सब कुछ एक प्रभु ही हैं ।

जब हमारा मन इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है कि जगत में प्रभु के अलावा अन्य किसी की कोई सत्ता और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है और प्रभु ही एकमात्र हमारे सब कुछ हैं तो प्रभु के लिए हमारे हृदय में एक दिव्य प्रेम और लगाव का निर्माण हो जाता है । इसी का नाम भक्ति है । एक भक्‍त के लिए उसके सब कुछ प्रभु होते हैं । भक्त अपना हर संबंध प्रभु के साथ ही जोड़कर रखता है । प्रभु भी ऐसे भक्तों से अपना हर संबंध जोड़कर रखते हैं ।

जिन्होंने प्रेम और भक्ति से अपना संपूर्ण आश्रय प्रभु को ही बना रखा है, प्रभु उनके योगक्षेम की पूरी जिम्मेदारी उठाते हैं । इसलिए हमें प्रभु की भक्ति में रमे रहना चाहिए और इसके अतिरिक्त अन्य कोई रुचि नहीं रखनी चाहिए, तभी हम वास्तविक भक्‍तों की गिनती में आएंगे ।

प्रकाशन तिथि : 30 सितम्‍बर 2018