क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
25 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(ध्यान योग) |
अ 06
श्लो 47 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान भक्त मुझमें तल्लीन हुए मन से मेरा भजन करता है वह मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर श्री अर्जुनजी को योगी बनने की आज्ञा देते हैं । कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी और भक्तियोगी में से प्रभु अपने प्रिय श्री अर्जुनजी को भक्तियोगी बनने की आज्ञा देते हैं और इस उद्देश्य से भक्ति की विशेष महिमा बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि जो योगी उनकी भक्ति करते हैं वे सभी प्रकार के योगियों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं और प्रभु को सबसे अधिक प्रिय हैं । प्रभु के साथ भक्ति से संबंध जोड़ने वाला भक्तियोगी ही सर्वश्रेष्ठ है । जो संसार से विमुख होकर प्रभु के सम्मुख हो जाता है वही वास्तव में भक्त होता है ।
प्रभु का भक्त संसार की आसक्ति को सर्वदा के लिए छोड़ देता है और प्रभु के परायण रहकर प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही कर्म करता है । भक्त का मन कभी प्रभु को छोड़ता नहीं और प्रभु भी अपने भक्त को कभी नहीं छोड़ते । प्रभु ने भक्तियोगी को सर्वश्रेष्ठ बताकर यह सिद्ध किया है कि दूसरे जितने भी मार्ग हैं उनमें कुछ-न-कुछ कमी है । भक्त छोटा बनकर रहता है और सच्चे भक्त में थोड़ा-सा भी अहंकार नहीं रहता । इस कारण से वह प्रभु को प्रिय होता है और प्रभु ने भक्त को सर्वश्रेष्ठ माना है ।
भक्ति के रस की और प्रेम की भूख प्रभु को भी होती है । प्रभु की इस भूख की पूर्ति भक्त करता है । इसलिए प्रभु ने अपने भक्त को सर्वश्रेष्ठ माना है । भक्त केवल और केवल प्रभु पर आश्रित और निर्भर रहता है और प्रभु की प्रसन्नता में ही प्रसन्न रहता है । भक्त का मन और भक्त की बुद्धि सदैव प्रभु में लगी रहती है । प्रभु से प्रगाढ़ आत्मीयता के कारण भक्त प्रभु के हृदय में ही स्थित रहता है ।
कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, हठयोगी, लययोगी, राजयोगी आदि जितने भी योगी हो सकते हैं उन सभी योगियों में प्रभु ने अपने भक्त को ही सर्वश्रेष्ठ माना है । श्रीमद् भगवद् गीतामाँ में प्रभु ने भक्तों के सर्वश्रेष्ठ होने की बात कई जगह कही है । प्रभु प्राप्ति के सभी साधनों में भक्ति मुख्य है । अन्य सभी साधनों को अंत में भक्ति का अवलंबन लेना ही पड़ता है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जीव की सांसारिक भोग और संग्रह की कामना कभी भी जीवन में पूरी नहीं होती । जितने भी भोग पदार्थ मिलते हैं और जितना भी संग्रह जीवन में होता है उतनी ही उसके लिए भूख बढ़ती रहती है । मनुष्य प्रभु प्राप्ति किए बिना अगर शरीर को सांसारिक भोग और संग्रह में नष्ट कर देता है तो फिर उसे अति दुर्लभ मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मिलेगा । इसलिए मनुष्य जीवन को भोग और संग्रह के पीछे नष्ट नहीं करना चाहिए अपितु उसका उपयोग प्रभु प्राप्ति करने के लिए ही करना चाहिए ।
प्रभु से वैभव को चाहने से वैभव तो जीवन में आ जाता है पर प्रभु जीवन में नहीं आते । हमें प्रभु और प्रभु के वैभव में से एक को चुनना पड़ता है पर अधिकतर लोग गलत चुनाव कर लेते हैं और प्रभु की जगह प्रभु के वैभव को चुन लेते हैं । पर सच्चा भक्त वैभव की प्राप्ति के लिए प्रभु का भजन नहीं करता । भक्त वैभव नहीं चाहता अपितु वैभव के स्वामी प्रभु को ही चाहता है । वैभव को चाहने वाले वैभव के दास होते हैं और प्रभु को चाहने वाले प्रभु के दास होते हैं ।
प्रभु से सदैव भक्ति की ही चाहत रखनी चाहिए क्योंकि भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार प्रभु को साकार रूप में प्रकट कर देती है । भक्ति से भक्त भगवान को अपनी ओर खींच लेता है । भक्ति भी केवल हम अपने पुरुषार्थ से नहीं पा सकते । भक्ति भी प्रभु ही कृपा करके जीव को देते हैं । भक्ति देने की कृपा जीव पर प्रभु की सबसे बड़ी कृपा होती है । इसलिए जीवन में प्रभु से भक्ति अर्जित करने की ही कृपा मांगनी चाहिए क्योंकि यही प्रभु की सच्ची कृपा है ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 20 जून 2018 |
26 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हजारों मनुष्यों में कोई-कोई ही परमेश्वर प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु की प्राप्ति जीवन में कठिन या दुर्लभ नहीं है पर ऐसा इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि सच्ची लगन और तत्परतापूर्वक ऐसा प्रयत्न करने वाले बहुत कम जीव होते हैं । सामान्यतया मनुष्य आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन जैसी पशुवृत्तियों में ही लगा रहता है और अपना जीवन इनमें ही पूरा कर लेता है । प्रभु प्राप्ति की न तो उसमें इच्छा होती है, न लगन और न ही इस दिशा में उसका प्रयास होता है । प्रभु ऐसे जीव की बाट जोहते हैं जो संसार को भूलकर प्रभु की तरफ मुड़ता है ।
हम प्रभु के अंश हैं और प्रभु हमारे अंशी हैं । यह शाश्वत सत्य है और इस तथ्य का प्रतिपादन श्रीग्रंथों में साफ रूप से मिलता है । अंश का कर्तव्य होता है कि वह अंशी से कभी दूर न रहे । पर जीव जब संसार में जन्म लेता है तो उससे पूर्व माता के गर्भ में ही प्रभु से प्रार्थना करता है कि गर्भ की पीड़ा से प्रभु कृपा करके उसे मुक्ति दें । उसी समय जीव प्रभु को आश्वासन देता है कि वह संसार में आकर प्रभु को कभी नहीं भूलेगा । पर संसार में आकर माया से प्रभावित होकर इस संसार में रम जाता है और प्रभु को भूल बैठता है ।
प्रभु ने कृपा करके चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म देकर हमें अवसर दिया है कि हम सदैव के लिए प्रभु प्राप्ति कर लें और संसार चक्र के आवागमन से सदैव के लिए मुक्त हो जाए । पर जीव इस अवसर का सदुपयोग नहीं करता और संसार में ही रमता रहता है । धन, कीर्ति, प्रतिष्ठा कमाने में, परिवार पालने में, संग्रह करने में, भोग भोगने में वह अपना पूरा जीवन दांव पर लगा देता है और उसे व्यर्थ कर देता है । कामरूप दोष के कारण उसका स्त्री में आकर्षण होता है, लोभरूप दोष के कारण उसका धन में आकर्षण होता है, मोहरूप दोष के कारण उसका कुटुंब-परिवार में आकर्षण होता है । पर इन सब से ऊपर उठकर भक्ति द्वारा प्रभु में आकर्षण कर लेना चाहिए तभी हमारा कल्याण संभव हो सकता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मानव जीवनरूपी सुअवसर मिलने पर प्रभु प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करें । प्रभु प्राप्ति से बड़ा लक्ष्य मानव के लिए अन्य कुछ भी नहीं हो सकता । इसलिए मानव का प्रयास सदैव इसी दिशा में होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 27 जून 2018 |
27 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे सिवा इस जगत का दूसरा कोई किंचितमात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु सर्वव्यापक हैं । सबके परम कारण प्रभु हैं । सभी रूपों में प्रभु ही हैं । प्रभु के सिवा दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं । संसार प्रभु से उत्पन्न होता है, प्रभु में स्थित रहता है और प्रभु में ही लीन हो जाता है । प्रभु के सिवा संसार में कुछ है ही नहीं इसलिए प्रभु को जानने के बाद कुछ भी जानने योग्य बचता ही नहीं है । जिस प्रकार मोती धागे से गुँथे रहते हैं उसी प्रकार सब कुछ प्रभु पर ही आश्रित है । एकमात्र प्रभु ही परम सत्य हैं और आदि पुरुष हैं । प्रभु से भिन्न कोई वस्तु संसार में है ही नहीं । जगत के अंदर और बाहर प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।
प्रभु ही एक से अनेक हुए हैं इसलिए ऋषियों और संतों ने जगत को प्रभुमय देखा है । हर जड़ और चेतन में प्रभु समाए हुए हैं । संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं, संसार में कोई ऐसा स्थान नहीं जहाँ प्रभु का वास नहीं हो । जब प्रभु ने अपना विराट रूप श्री अर्जुनजी को दिखाया तो प्रभु के रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समाए हुए दिखे । इसी प्रकार सभी ब्रह्माण्डों में प्रभु समाए हुए हैं । ब्रह्माण्ड में प्रभु के अलावा अन्य कोई सत्ता है ही नहीं । पूरा ब्रह्माण्ड ही प्रभुमय है ।
प्रभु इतने व्यापक होने के कारण हमारे लिए सर्वदा और सभी जगह उपलब्ध हैं । प्रभु का जो प्रभाव है, ऐश्वर्य है उसका अंत कभी नहीं आता । जब उसका अंत है ही नहीं तो उसे जानना मनुष्य की बुद्धि के बाहर की बात है । प्रभु के बारे में वर्णन करने का जितना ऋषियों, संतों और भक्तों का अनुभव होता है वह बुद्धि में नहीं आता, बुद्धि में जितना आता है उतना मन में नहीं आता, मन में जितना आता है उतना कहने में नहीं आता । इसलिए प्रभु के बारे में जो भी लिखा या कहा गया है वह बहुत अल्प है, ऐसा मानना चाहिए ।
प्रभु की सर्वव्यापकता और प्रभु की सर्वत्र सत्ता को ध्यान में रखते हुए पूरे जगत को प्रभुमय देखना चाहिए । प्रभु का कण-कण में और सर्वत्र दर्शन करना भक्ति की एक बहुत ऊँची अवस्था है ।
प्रकाशन तिथि : 04 जुलाई 2018 |
28 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संपूर्ण प्राणियों में जीवनीशक्ति मैं हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु यहाँ के कुछ श्लोकों में अपना ऐश्वर्य बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि जल में जो रस है वह प्रभु हैं । श्री सूर्यदेवजी एवं श्री चंद्रदेवजी में जो प्रकाश है वह प्रभु हैं । मनुष्यों में जो पुरुषार्थ है वह प्रभु हैं । श्री अग्निदेवजी में जो तेज है वह प्रभु हैं । इसके बाद प्रभु जो कहते हैं वह श्रीवाक्य मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि वह सत्य और हृदयस्पर्शी है । प्रभु कहते हैं कि संपूर्ण प्राणियों में जो जीवनीशक्ति है वह प्रभु हैं । जिस प्राणशक्ति से सभी प्राणी जीवित हैं वह प्राणशक्ति प्रभु हैं ।
प्राणशक्ति के बिना जीव का कोई अस्तित्व नहीं । प्राणशक्ति शरीर से निकल जाए तो वह जीव फिर जीव नहीं मुर्दा कहलाता है । प्रभु कहते हैं कि सभी जीवों में प्रभु प्राणशक्ति के रूप में स्थित हैं । हमारे प्राण हैं और हम जीवन जी रहे हैं क्योंकि प्रभु प्राणशक्ति के रूप में हमारे भीतर विराजमान हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रभु के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं । प्रभु हमारे भीतर हैं तभी तक हम हैं । हमारे भीतर प्रभु की सत्ता के कारण ही हमारा अस्तित्व है ।
जब प्रभु के कारण ही हमारा अस्तित्व है तो हमारा सबसे पहला संबंध प्रभु के साथ ही हुआ । प्रभु के साथ हमारे संबंध को हम कितनी प्राथमिकता जीवन में देते हैं यह हमें देखना चाहिए । जिन प्रभु के कारण हमारा अस्तित्व है उन प्रभु को जीवन में सर्वप्रथम प्राथमिकता देनी चाहिए । प्रभु ने हमें प्राणशक्ति के रूप में सबसे बड़ा दान दिया है । प्राणशक्ति के रूप में हमारे भीतर विराजमान होकर प्रभु ने जीव पर सबसे बड़ा उपकार किया है । पर जीव प्रभु के इतने बड़े उपकार को भूल जाता है और अपना संबंध नश्वर संसार से जोड़ता है । जबकि जीव को अपना संबंध सनातन प्रभु से जोड़ना चाहिए जिनके कारण उसका अस्तित्व है ।
जब अपनी जीवनीशक्ति के रूप में अपने भीतर प्रभु का दर्शन करना हम सीख जाएंगे तो प्रभु के उपकार को हम समझ पाएंगे जिससे हम कभी उऋण नहीं हो सकते । ऐसा होने पर प्रभु के लिए भक्ति हमारे भीतर जागृत होगी जो प्रभु को सर्वाधिक प्रिय है और हमारे निश्चित कल्याण का साधन भी है ।
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2018 |
29 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरी इस दैवी माया से पार पाना बड़ा कठिन है । जो केवल मेरी ही शरण होते हैं वे इस माया को तर जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
माया जीव को भ्रमित करती है और प्रभु से विमुख करके पथभ्रष्ट कर देती है । जीव को संसार में मनुष्य जन्म प्रभु प्राप्ति के लिए ही मिला है पर माया के प्रभाव के कारण वह जीव संसार में उलझ जाता है । माया से संबंध होते ही जीव के अंदर भोग और संग्रह की इच्छा जागृत होती है । पर जो प्रभु की शरण में चले जाते हैं वे माया से तर जाते हैं । माया फिर उन पर अपना कोई प्रभाव नहीं डालती । माया उनके लिए लुप्त हो जाती है ।
माया हमें प्रभु से विमुख कर संसार के सम्मुख करती है जबकि भक्ति हमें संसार से विमुख कर प्रभु के सम्मुख कर देती है । भक्ति हमें प्रभु की शरण में ले जाती है । माया के प्रभाव से बचने का इसके सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं है । जो जीव माया को महत्व न देकर भक्ति के द्वारा प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है वही अपने मानव जीवन को सफल कर पाता है । जब हम प्रभु की शरण में चले जाते हैं तो प्रभु कृपा करते हैं और प्रभु कृपा से माया का प्रभाव हमारे लिए खत्म हो जाता है ।
माया ने संसार में सबको नचाया है । जिस पर प्रभु कृपा करते हैं और जिसे प्रभु बचाते हैं वही माया के प्रभाव से बच पाते हैं । इसलिए जीव को संसार से विमुख होकर प्रभु की शरणागति स्वीकार कर लेनी चाहिए । इसमें कदापि विलम्ब नहीं करना चाहिए । जो प्रभु की शरण लेता है वह अपना संबंध प्रभु से स्थापित कर लेता है और फिर उसका माया से कोई संबंध नहीं रहता । इसलिए हमें संसार को छोड़कर प्रभु के ही आश्रित होना चाहिए । माया को अपने बलबूते से लांघ पाना असंभव है । प्रभु की भक्ति और प्रभु की शरणागति से ही माया को लांघा जा सकता है । केवल प्रभु ही जीव को माया के चंगुल से छुड़ा सकते हैं ।
जीव अपने सामर्थ्य से माया से पार नहीं हो सकता । जो प्रभु की भक्ति करते हैं और प्रभु की शरणागति स्वीकार करते हैं वे ही इस माया से पार हो पाते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में प्रभु की भक्ति करे और प्रभु की शरणागति ग्रहण करे ।
प्रकाशन तिथि : 18 जुलाई 2018 |
30 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है क्योंकि उन्हें मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यंत प्रिय है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भक्ति करने वालों के चार प्रकार प्रभु ने बताए हैं । पहला, अर्थार्थी भक्त जिसे धन-वैभव, सुख-सुविधा की इच्छा होती है और इसके लिए प्रभु की भक्ति करता है । दूसरा, आर्त भक्त जो पीड़ित होता है जिसके प्राण संकट में होने पर प्रतिकूलता की घड़ी में प्रभु को पुकारता है । तीसरा, जिज्ञासु भक्त जो जिज्ञासा से परम सत्य को जानने के लिए प्रभु की भक्ति करता है । चौथा, प्रेमी भक्त जिनको प्रभु का ज्ञान हो चुका है और अपने प्रभु प्रेम के पोषण के लिए प्रभु की भक्ति करता है ।
भक्ति की पहली तीनों श्रेणी अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु यह सारे लोग विभिन्न परिस्थितियों के कारण प्रभु की भक्ति करते हैं । यह शुद्ध भक्ति नहीं है क्योंकि यह भक्ति के बदले कुछ महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं । शुद्ध भक्ति सदैव निष्काम होती है और उसमें प्रभु से किसी लाभ की कोई आकांक्षा ही नहीं होती । यह चौथी प्रकार की भक्ति होती है जिसे प्रेमी भक्ति कहते हैं । प्रेमी भक्तों में गोपियों का नाम प्रसिद्ध है । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने गोपियों को प्रेमी भक्तों का आदर्श माना है ।
गोपियां अपने प्रभु प्रेम के कारण अपने चरणों की रज भी प्रभु के माथे में लगाने के लिए देने को तैयार हो गई जिससे प्रभु की वेदना मिट सके । उन्हें भय दिखाया गया कि इसके लिए उन्हें नर्क में जाना पड़ सकता है पर उन्होंने उसकी परवाह न कर अपने प्रेमी प्रभु को सुख पहुँचाने के लिए ऐसा करना स्वीकार किया । इसलिए ही प्रभु कहते हैं कि मेरे प्रेमी भक्त ही श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनको प्रभु अत्यंत प्रिय हैं और इस कारण वे भी प्रभु को अत्यंत प्रिय हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति सकाम और भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होकर करे । यही शुद्ध भक्ति कहलाती है । प्रभु को निष्काम प्रेमी भक्त सबसे प्रिय होते हैं । निष्काम प्रेमी भक्तों पर रीझकर प्रभु अपने स्वयं तक का दान उन्हें दे देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 25 जुलाई 2018 |
31 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परंतु प्रेमी भक्त तो मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ने भक्ति करने वालों के चार प्रकार बताए हैं । उसमें से जो प्रेमी भक्त है वह प्रभु को सबसे प्रिय है । प्रेमी भक्त अपनी भक्ति के बदले प्रभु से कुछ लाभ नहीं चाहता । प्रभु से उनका स्वाभाविक स्नेह होता है इसलिए वह प्रभु की भक्ति करता है । उनका उद्देश्य प्रभु से प्रेम करना और प्रभु की सेवा करना ही होता है । ऐसे भक्तों को प्रभु बहुत चाहते हैं और प्रभु कभी भी उनसे विलग नहीं हो पाते । ऐसे भक्त सदैव प्रभु के हृदय में वास करते हैं और प्रभु ऐसे भक्तों के हृदय में वास करते हैं ।
जो भक्त प्रभु के अतिरिक्त प्रभु से कुछ नहीं चाहता, प्रभु ऐसे प्रेमी भक्तों को कभी नहीं भूलते । प्रभु का ऐसे प्रेमी भक्तों के साथ सबसे घनिष्ठ संबंध होता है । शास्त्र कहते हैं कि जिनको प्रभु में ही रुचि हो गई वे प्रेमी भक्त ही सच्चे भाग्यशाली होते हैं और मनुष्य कहलाने योग्य होते हैं । प्रभु के साथ अपनापन होने का अर्थ है कि हृदय में यह भाव जागृत हो जाना कि मैं केवल प्रभु का ही हूँ और केवल प्रभु ही मेरे हैं । ऐसे भाव रखने वाले भक्त केवल प्रभु को ही चाहते हैं और प्रभु केवल ऐसे भक्तों को ही अपने हृदय में स्थान देते हैं ।
प्रेमी भक्त से बड़ा कोई भक्त नहीं होता क्योंकि उसकी भक्ति निष्काम होती है । सकामता से प्रभु की भक्ति करना एक व्यापार की तरह हो गया क्योंकि हमने प्रभु की भक्ति किसी कामना पूर्ति के लिए की और अपनी भक्ति को अपनी कामना पूर्ति करके भुना लिया । पर जो निष्काम भक्ति करता है और प्रभु से बिना किसी स्वार्थ के निश्छल प्रेम करता है प्रभु उस पर अपने स्वयं को
न्यौछावर कर देते हैं । प्रेमी भक्त जो निष्काम भक्ति करता है वह अंत में प्रभु को पा लेता है । भक्ति में प्रेम और निष्कामता होना भक्ति का गौरव है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने सांसारिक स्वार्थ से ऊपर उठकर प्रभु से प्रेम करे और प्रभु की निष्काम भक्ति करे । ऐसा करने वाला प्रभु का अत्यधिक प्रिय होता है और वह जीव प्रभु के हृदय में स्थान पा जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 01 अगस्त 2018 |
32 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
बहुत जन्मों में अंतिम जन्म अर्थात मनुष्य जन्म में जो मेरी शरण होता है ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ने मनुष्य जन्म को संपूर्ण जन्मों में प्रभु प्राप्ति के लिए अंतिम अवसर माना है । अगर जीव अपने मनुष्य जन्म में प्रभु की अनन्य और निष्काम भक्ति करके प्रभु को प्राप्त कर लेता है तो यह उसका अंतिम जन्म हुआ क्योंकि फिर वह सदैव के लिए जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है । प्रभु ने मनुष्य जन्म देकर सभी जीवों को प्रभु प्राप्ति करने का पूर्ण अधिकार दिया है । शास्त्रों में वर्णन आता है कि मनुष्य जन्म केवल प्रभु की प्राप्ति के लिए ही मिला है, विषयों का सुख भोगने या संग्रह करने, यहाँ तक की पुण्य कमाकर स्वर्ग की प्राप्ति के लिए भी नहीं मिला है ।
भक्ति हमारे संचित पापों का, वासनाओं का नाश कर प्रभु की प्राप्ति करवा हमारा कल्याण करवाती है । भक्ति हमसे निरंतर प्रभु का स्मरण और भजन करवाती है और अंतिम अवस्था में भी ऐसा कर पाने के कारण हम प्रभु को प्राप्त करते हैं । मनुष्य का शरीर अपने कल्याण के लिए सबसे उपयुक्त शरीर है क्योंकि मनुष्य शरीर से ही भक्ति का साधन किया जा सकता है । मनुष्य जन्म में भक्ति और प्रभु की शरणागति हो जाए तो यह मानना चाहिए कि प्रभु की बहुत बड़ी कृपा हम पर हो गई है ।
प्रभु ने कृपा करके मनुष्य शरीर दिया वह तभी सार्थक होगा जब हम उससे प्रभु की प्राप्ति कर पाएँ । इसलिए शीघ्रता शीघ्र मृत्यु आने से पहले हमें अपना कल्याण सुनिश्चित करना चाहिए और प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि सच्चे हृदय से और निस्वार्थ भाव से प्रभु प्राप्ति में लगने वाला जीव संसार में अति दुर्लभ है । प्रभु समुद्र जैसे है और जीव उस समुद्र की तरंग जैसा है । तरंग की अंतिम गति समुद्र से मिलना ही होता है । ऐसे ही जीव की अंतिम गति प्रभु की प्राप्ति ही होती है । पर प्रभु कहते हैं कि मनुष्य जन्म रहते ऐसा करने वाला बहुत दुर्लभ होता है ।
जो जीव मनुष्य जन्म पाकर भी प्रभु प्राप्ति नहीं कर पाता उसे फिर चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है । इसलिए जीव को चाहिए कि अपने मनुष्य जन्म में प्रभु की भक्ति करके और प्रभु की शरणागति लेकर प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 08 अगस्त 2018 |
33 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मुझे भक्त के सिवा कोई भी नहीं जानता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो प्राणी भूतकाल में हो चुके हैं या जो प्राणी वर्तमान काल में हैं या जो प्राणी भविष्य में जन्म लेने वाले हैं प्रभु उन सबको जानते हैं । ऐसा इसलिए क्योंकि भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल में जो कुछ भी हुआ, हो रहा है और होगा वह प्रभु के विधान से ही हुआ है, हो रहा है और होगा । प्राणी कहीं भी रहे, वह कभी भी प्रभु की दृष्टि से ओझल नहीं हो सकता । प्रभु सबको और सब कुछ जानने वाले हैं पर प्रभु को जानने वाला कोई नहीं है ।
प्रभु को हम अपनी बुद्धि से नहीं जान सकते । जिसको प्रभु चाहते हैं कि वह प्रभु को जान पाए वही जीव प्रभु की कृपा से प्रभु को जान पाता है । प्रभु कहते हैं कि भक्ति ही वह एकमात्र साधन है जिससे हम प्रभु को जान सकते हैं । भक्त के अलावा प्रभु को जानने का अधिकार प्रभु ने किसी को नहीं दिया है । प्रभु को जानने का उपक्रम ज्ञानी और योगी भी करते हैं पर केवल भक्त ही ऐसा करने में सफल हो पाता है । प्रभु स्पष्ट कहते हैं कि भक्त के सिवा कोई भी प्रभु को नहीं जान सकता ।
भक्ति भक्त को प्रभु से एकरूप कर देती है । प्रभु अपने में और अपने भक्तों में कोई भेद नहीं मानते । प्रभु अपना रहस्य एक भक्त के सामने ही प्रकट करते हैं । जैसे एक पिता के चार पुत्र हैं पर जिस पुत्र पर पिता का सबसे ज्यादा स्नेह है, वह पिता अपना सारा रहस्य उस पुत्र के समक्ष ही प्रकट करता है । वैसे ही प्रभु अपना रहस्य अपने सबसे प्रिय पुत्र जो की भक्त होता है उसके समक्ष ही प्रकट करते हैं । एक भक्त बनकर ही हम प्रभु को जान सकते हैं, प्रभु को सही मायने में पहचान सकते हैं ।
इसलिए जीवन में भक्ति को सबसे ऊँचा स्थान देना चाहिए क्योंकि भक्ति ही अप्रकट प्रभु को हमारे सामने प्रकट कर देती है । भक्ति के कारण भक्त प्रभु को प्रिय हो जाता है और प्रभु भक्त को प्रिय हो जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2018 |
34 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिन पुण्यकर्मा मनुष्य के पाप नष्ट हो गए हैं, वे मेरा भजन करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
सभी लोगों की प्रभु के भजन करने में रुचि नहीं होती । जीव संसार में अटक और भटक जाता है और अपने जीवन के मुख्य उद्देश्य को भूल जाता है । मनुष्य जन्म जीव का अंतिम जन्म हो सकता है अगर वह प्रभु की भक्ति करके इस जीवन में ही प्रभु की प्राप्ति कर लें । पर जीव ऐसा नहीं करता, यहाँ तक कि ऐसा करने के लिए वह मन से सिद्ध भी नहीं होता । उसे संसार, परिवार, धन-संपत्ति ही प्रिय लगती है और वह उसके संग्रह और भोग में ही लगा रहता है ।
प्रभु से विमुख होना पूरा पाप है और प्रभु के सन्मुख होना सबसे बड़ा पुण्य और लाभ है । हर समय हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि हम संसारी नहीं हैं, साधक हैं और प्रभु प्राप्ति करना ही हमारे इस मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है । यह सिद्धांत है कि किसी भी तरह से प्रभु में हमारा चित्त आकर्षित हो जाए तो हमारा उद्धार हो जाता है । यह भी सिद्धांत है कि जो संसार से विमुख होकर प्रभु के सन्मुख हो जाते हैं वे ही प्रभु का भजन कर पाते हैं ।
हमारे संचित पाप हमें प्रभु का भजन नहीं करने देते । पापों को पता होता है कि भजन होते ही उनका क्षय हो जाएगा । इसलिए हमारे पाप हमारे भजन में बाधा उत्पन्न करते हैं । पर एक बार अगर हम दृढ़ता से प्रभु का भजन करना प्रारंभ कर देते हैं तो चाहे हमारे संचित पापों का पहाड़ भी क्यों न हो वह प्रभु भजन के प्रभाव से नष्ट हो जाता है । जितना पाप हम जन्मों-जन्मों में संचित नहीं कर सकते, प्रभु के भजन में उससे भी अनन्त गुना अधिक पापों को जलाने की क्षमता होती है । प्रभु का भजन करते-करते हमारे पाप नष्ट होते हैं और पाप नष्ट होते ही हमारा मन भजन करने में दृढ़ता से लगने लग जाता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपना आकर्षण संसार से हटाकर प्रभु में केंद्रित करे और प्रभु का भजन करना जीवन में प्रारंभ करे । जो प्रभु की भक्ति करने में सिद्ध हो जाता है, प्रभु उस जीव को पुण्यकर्मा कहते हैं क्योंकि उसके पाप नष्ट हो चुके होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 22 अगस्त 2018 |
35 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद ज्ञान) |
अ 07
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो जरा और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
जो जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटना चाहते हैं उन्हें अपने मनुष्य जीवन को प्रभु की भक्ति में अर्पित करना चाहिए । मनुष्य जीवन मुक्ति का द्वार है और हम इस जीवन में भक्ति करके मुक्त हो सकते हैं । मनुष्य जन्म को अगर हमने भोग और संग्रह करने में गंवा दिया तो फिर हमें चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ेगा । प्रभु की असीम कृपा जीव पर होती है तब जीव को मनुष्य जन्म मिलता है । इसलिए मनुष्य जन्म का सदुपयोग करना चाहिए और केवल उसे पशुतुल्य कर्म जैसे आहार, निद्रा और मैथुन में व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए ।
बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का चक्र कितने लंबे काल से हमारे साथ चिपका हुआ है । हम विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं और फिर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । जीव इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति और प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए विश्राम चाहता है । यह केवल मनुष्य जीवन में किए उपक्रम से ही संभव है । इस उपक्रम का नाम ही भक्ति है । जो अपने मनुष्य जन्म का उपयोग प्रभु की भक्ति करने में करता है वह सदैव के लिए आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है और प्रभु के पास पहुँच जाता है ।
इसलिए प्रभु कहते हैं कि जो इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील होते हैं वे जीव ही बुद्धिमान होते हैं । ऐसे जीव प्रभु की भक्ति कर प्रभु की शरणागति ग्रहण करते हैं । जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति से बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है और यह केवल मनुष्य जीवन में किए प्रयास से ही संभव है । प्रभु की भक्ति करके प्रभु की शरणागति ग्रहण करना हमारे मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए । जीव को मनुष्य जन्म यही करने के लिए मिला है ।
इसलिए हमें अपने मनुष्य जीवन के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए प्रभु की भक्ति करनी चाहिए और प्रभु की शरणागति ग्रहण करनी चाहिए जिससे हम जन्म-मृत्यु के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो सके ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
अपने लिए कुछ भी चाहना, किसी भी वस्तु को अपनी मानना और प्रभु को अपना न मानना यह तीनों बातें प्रभु प्राप्ति में मुख्य बाधक है । प्रभु श्रीमद् भगवद् गीताजी में कहते हैं कि केवल मुझे ही अपना माने अन्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदि को अपना न माने । ऐसा करने वाला भक्त कभी भी अपनी आत्मतृप्ति की इच्छा नहीं रखता, बस सदैव प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही जीवन में कार्य करता है । भक्ति करने वाला साधक केवल प्रभु के लिए ही कर्म करता है ।
हमारे जीवन में प्रभु प्राप्ति का ही दृढ़ उद्देश्य होना चाहिए । संसार से संबंध के कारण ही हर्ष, शोक, राग, द्वेष आदि द्वंद होते हैं और इन्हीं के कारण ही हमारी शांति भंग होती है । इसलिए चित्त को संसार से हटाकर प्रभु की श्रीलीला, गुण, प्रभाव, महिमा के चिंतन में लगाने से ही शांति मिलती है । हमारा लक्ष्य प्रभु के चिंतन का होना चाहिए, संसार के चिंतन का नहीं । प्रभु के सिवा हमारे अंतःकरण में कोई सांसारिक वासना, आसक्ति, कामना, ममता आदि नहीं रहनी चाहिए ।
भक्ति की विशेषता यह है कि प्रभु के परायण रहने से हमारे भीतर प्रभु का बल जागृत रहता है जिससे हमारे विकार शीघ्र दूर होते रहते हैं और यहाँ तक कि अभिमान भी नहीं होता । प्रभु के अलावा सच्चे भक्तों का किसी से कोई संबंध नहीं रहता । मन को संसार से हटाकर प्रभु में लगाना ही भक्ति का मुख्य उद्देश्य है । हम संसार में सांसारिक धन-वैभव आदि कमाने के लिए नहीं आए हैं अपितु प्रभु की प्राप्ति करने के लिए आए हैं । इसलिए दिनचर्या से जितना समय निकाल सके उतना समय निकालकर अधिक-से-अधिक प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 29 अगस्त 2018 |
36 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(भगवद प्राप्ति) |
अ 08
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य अंतकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है, इसमें संदेह नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
उपरोक्त श्लोक में प्रभु की दयालुता और कृपालुता के स्पष्ट दर्शन होते हैं । प्रभु ने अपनी प्राप्ति का मार्ग कितना सरल बना दिया है कि अंतकाल में भी जो जीव प्रभु का स्मरण कर ले वह प्रभु को प्राप्त कर लेता है । पर इसका यह मतलब नहीं कि जीवन काल में प्रभु का स्मरण न किया जाए, प्रभु के लिए समय नहीं निकाला जाए । जो जीवन काल में प्रभु का स्मरण का अभ्यास नहीं करता, अंतकाल में कितने भी प्रयत्न के बाद भी प्रभु स्मरण उस जीव को नहीं हो पाता । उस जीव के संचित पाप उस जीव को अंतकाल में प्रभु स्मरण नहीं होने देते ।
पर जिस जीव का प्रभु स्मरण का नित्य अभ्यास है उस जीव को अंत समय भी बिना किसी व्यवधान के प्रभु स्मरण स्वतः ही हो जाता है और उसे प्रभु की प्राप्ति हो जाती है । अभ्यास उसी का नाम है जो हम जीवन भर करते चले आते हैं । जीवन भर का किया हुआ अभ्यास अंत समय भी हमारे काम आता है । इसलिए हमें प्रभु स्मरण का नित्य अभ्यास आरंभकाल से ही करना चाहिए और इस अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाते चलना चाहिए ।
प्रभु स्मरण का अभ्यास निरंतर जीवन में हो यह इसलिए भी नितांत जरूरी है कि हमारा अंतकाल कब आए यह हमें भी पता नहीं है । जीव वर्षों वर्ष की योजना बनाता है पर अगले ही पल उसका अंत हो जाता है, ऐसा भी देखने में आता है । इसलिए अगर वह प्रभु स्मरण का नियम बनाने में और उसका नित्य पालन करने में सावधान नहीं है, तो हो सकता है कि अगला ही पल उसका अंत समय हो और वह अपने अंतकाल में प्रभु स्मरण करने से चूक जाए । इसलिए जीव को प्रभु स्मरण का नित्य अभ्यास जीवन भर करते रहना चाहिए । अंतकाल किसी भी समय आ सकता है । ऐसा कोई वर्ष, महीना, दिन, घंटा, मिनट और क्षण नहीं जिसमें अंतकाल नहीं आ सकता । इसलिए मनुष्य को नित्य निरंतर प्रभु का स्मरण करना चाहिए ताकि जिस समय भी वह शरीर छोड़ेगा वह प्रभु को स्मरण करते हुए ही छोड़ेगा और प्रभु को प्राप्त होगा ।
प्रभु इतने करुणानिधान है कि अपनी प्राप्ति का एकदम सरल मार्ग उन्होंने बताया है । पर यह संभव तभी हो सकता है जब इसके पीछे जीवन भर का अभ्यास हो । इसलिए जीवन भर प्रभु का स्मरण चलते रहना चाहिए जिससे अंत समय चूक की कोई भी संभावना बचे ही नहीं ।
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2018 |