क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
13 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(दिव्य ज्ञान) |
अ 04
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं अपने आपको साकार रूप में प्रकट करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
यह श्रीमद् गीतामाँ का एक अमर श्लोक है जिसमें प्रभु अपने एक व्रत का प्रतिपादन करते हैं । प्रभु कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है और उस अधर्म की वृद्धि के कारण लोगों की नैतिकता और संस्कारों का पतन होता है तो उस पतन को रोकने के लिए प्रभु अवतार ग्रहण करते हैं । जब-जब भगवत् प्रेमी, धर्मात्मा, सदाचारी और निर्बल पर नास्तिक, पापी और दुराचारी का अत्याचार बढ़ जाता है तो उस अत्याचार को खत्म करने के लिए प्रभु अवतार लेते हैं । जब भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है प्रभु धर्म की पुनःस्थापना करने के लिए आते हैं । जब-जब आसुरी शक्तियों के द्वारा प्रभु के संसार को संचालित करने के लिए बनाए नियमों में व्यवधान डाला जाता है, प्रभु उसे दुरुस्त करने के लिए प्रकट होते हैं ।
यह प्रभु का कितना बड़ा आश्वासन है कि सब कुछ ठीक करने के लिए प्रभु सदैव उपलब्ध हैं । प्रभु का अगर यह आश्वासन नहीं होता और संसार में आसुरी शक्तियों का बोलबाला हो जाता तो सभी निराश हो जाते कि अब उन्हें बचाने वाला और इस परिस्थिति से उनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । परिस्थिति कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, सब कुछ सदैव प्रभु के नियंत्रण में होता है । यह सिद्धांत है कि जगत कभी भी प्रभु के नियंत्रण से बाहर नहीं हो सकता ।
जब प्रभु ने जीव को आश्वस्त कर रखा है कि सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल करने के लिए प्रभु सदैव उपलब्ध हैं तो जीव निश्चिंत और निर्भय हो जाता है । यह निश्चिंतता और निर्भयता देना प्रभु का जीव पर कितना बड़ा उपकार है और जीव को प्रभु द्वारा दिया गया कितना बड़ा उपहार है । जीव का सर्वोच्च धर्म है कि प्रभु की शरण ग्रहण करके रखना, बाकी सब कार्य प्रभु का है ।
संसार की रक्षा तो प्रभु करते ही हैं पर अपने शरणागत भक्तों की विशेष रूप से प्रभु रक्षा करते हैं और उनका पूरा उत्तरदायित्व प्रभु संभालते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 28 मार्च 2018 |
14 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(दिव्य ज्ञान) |
अ 04
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भक्तों की रक्षा करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भली भांति स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
पाप कर्म में युक्त असाधु लोग अधर्म का प्रचार और धर्म की हानि करते हैं इसलिए उनके विनाश के लिए प्रभु अवतार लेते हैं । प्रभु का एक नाम श्रीमद् भागवतजी महापुराण में "भक्तभक्तिमान" कहा गया है । इसलिए प्रभु भक्तों को कष्ट देने वाले दुष्टों का विनाश करने के लिए स्वयं आते हैं । जो पापी पाप कर्म करते हैं और प्रभु के भक्तों को सताते हैं उनका विनाश करने प्रभु पधारते हैं । प्रभु अपने भक्तों की पीड़ा सहन नहीं कर पाते और उन्हें पीड़ा से मुक्त करने के लिए आते हैं ।
जब प्रभु पापियों और दुष्टों का विनाश करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से उन पर भी कृपा करते हैं क्योंकि प्रभु के श्रीहाथों उनका विनाश होता है तो वे शुद्ध और पवित्र बन जाते हैं । प्रभु सबके परमपिता हैं इसलिए उनके द्वारा किसी का अहित हो ही नहीं सकता चाहे वह कितना बड़ा दुष्ट या पापी ही क्यों न हो । प्रभु के हृदय में सबके लिए उदारता और समता होती है । प्रभु का दुष्टों और पापियों से कोई विरोध नहीं होता अपितु उनके दुष्कर्मों से विरोध होता है । इसलिए वे दुष्टों और पापियों के हित के लिए ही उनका विनाश करते हैं । प्रभु के द्वारा जो दुष्ट और पापी मारे जाते हैं प्रभु के धाम पहुँच जाते हैं, यह प्रभु की उन पर कितनी विलक्षण कृपा और दया है ।
शाश्वत धर्म की पुनःस्थापना करने के लिए प्रभु अवतार लेते हैं । धर्म का कभी नाश नहीं होता केवल ह्रास होता है और इस ह्रास को ठीक करने के लिए प्रभु पधारते हैं । प्रभु अवतार लिए बिना भी अपने स्वधाम में बैठे अपने संकल्प मात्र से सब कुछ कर सकते हैं । पर जब वे अवतार लेकर प्रकट होते हैं तो ऐसी श्रीलीलाएं करते हैं जिन्हें श्रवण करके आने वाले जीव भगवत् परायण होकर अपना उद्धार कर सके । प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण, चिंतन और ध्यान, प्रभु के उपदेशों का अनुसरण के कारण आने वाली पीढ़ियों का सदा उद्धार होता ही रहे, इस कारण प्रभु अवतार लेते हैं ।
प्रभु अवतार का मुख्य उद्देश्य अपने भक्तों को प्रसन्न करना होता है । प्रभु अपने अवतार काल के प्रेमी भक्तों को आनंद देने के लिए, उनकी इच्छा पूरी करने के लिए अवतार लेते हैं । यह भाव सभी संतों का है जो प्रभु के अवतार लेने का सर्वश्रेष्ठ कारण प्रतीत होता है ।
प्रकाशन तिथि : 04 अप्रैल 2018 |
15 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(दिव्य ज्ञान) |
अ 04
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, जो मनुष्य तत्व से जान लेता है वह शरीर त्याग करके पुनःजन्म को प्राप्त नहीं होता प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु जब पृथ्वीलोक पर अवतार लेते हैं तो उनका जन्म दिव्य होता है । अवतार काल में प्रभु के प्रत्येक कर्म दिव्य होते हैं । प्रभु की छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक क्रिया श्रीलीला होती है जो कि दिव्य और विलक्षण होती है । प्रभु जीव मात्र का कल्याण करने के उद्देश्य से अवतार लेते हैं और अलौकिक श्रीलीलाएं करते हैं । प्रभु की श्रीलीलाओं को गाने, सुनने, पढ़ने और उनका चिंतन करने से प्रभु के साथ संबंध जुड़ जाता है । प्रभु के साथ संबंध जुड़ने से संसार का संबंध छूट जाता है । प्रभु के जन्म और कर्म के तत्वों को जानने से संसार के नाशवान पदार्थों का आकर्षण सर्वदा के लिए मिट जाता है ।
जो मनुष्य प्रभु के दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के तत्वों को जान लेता है वह प्रभु की तरफ आकर्षित हो जाता है और प्रभु की भक्ति में लग जाता है । प्रभु की भक्ति उस जीव के अंतःकरण में प्रभु के लिए प्रेम का निर्माण कर देती है । प्रभु के लिए तीव्र व्याकुलता से बहुत जल्दी प्रभु मिलन का कार्य हो जाता है । जीव को प्रभु का होने के लिए कुछ करना नहीं होता, वह तो प्रभु का है ही । जब वह प्रभु के साथ अपना संबंध मान लेता है तो वह प्रभु के साथ नित्य संबंध का अनुभव करने लगता है । प्रभु के साथ जीव का स्वतः सिद्ध संबंध होता है । प्रभु के साथ ही जीव का एकमात्र शाश्वत संबंध है ।
जो मनुष्य प्रभु को जान लेता है वह प्रभु की प्राप्ति का लक्ष्य बनाकर अपने जीवन में प्रयास करता है । हम जब प्रभु की तरफ एक कदम बढ़ाते हैं तो प्रभु भी दस कदम हमारी तरफ बढ़ाते हैं । जो जीव अपनी भक्ति के कारण प्रभु का सानिध्य पाने में सफल हो जाता है वह प्रभु की दिव्यता और प्रभु तत्व को पहचान लेता है । ऐसा करने वाला जीव फिर पुनःजन्म को प्राप्त नहीं होता अपितु वह प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचकर प्रभु को प्राप्त करता है । फिर वह मृत्युलोक में आवागमन से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है ।
इसलिए हमें भक्ति करके प्रभु को जानने और पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए और प्रभु के साथ शाश्वत संबंध स्थापित करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 11 अप्रैल 2018 |
16 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(दिव्य ज्ञान) |
अ 04
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु की शरणागति जितनी तन्मयता से होगी उतना ही प्रभु हमें परम आश्रय देंगे । हम जिस भाव और जिस संबंध से प्रभु की शरण ग्रहण करते हैं प्रभु भी उसी भाव और संबंध से हमें आश्रय प्रदान करते हैं । अगर हम एक पुत्र के रूप में पुत्रभाव रखते हुए प्रभु की शरण लेते हैं तो प्रभु परमपिता के भाव से हमें आश्रय देते हैं । अगर हम शिष्य के रूप में प्रभु की शरण लेते हैं तो प्रभु सद्गुरु के रूप में हमें आश्रय प्रदान करते हैं । पर सबसे उत्तम विधि है कि भक्त बनकर प्रभु की पूर्ण शरणागति ग्रहण की जाए क्योंकि भक्ति में इतना सामर्थ्य है कि प्रभु को भी भक्त को आश्रय देने के लिए व्याकुल कर देती है ।
जैसा हम श्रद्धाभाव रखते हैं प्रभु का वैसा ही बनने का स्वभाव है । प्रभु की कितनी उदारता, दया और कृपा है कि अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी होने के बावजूद भक्त की इच्छा के अनुसार बन जाते हैं । भक्त प्रभु के बिना नहीं रह सकते और प्रभु भी भक्त के बिना नहीं रह सकते । दास भाव, सखा भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव से भी श्रेष्ठ शरणागति का भाव है । शरण में आए हुए जीव को प्रभु कभी नहीं त्यागते । शरणागत हुए जीव का प्रभु पूर्व का लेखा-जोखा भी नहीं देखते, यह प्रभु की कितनी बड़ी उदारता है । अगर प्रभु ऐसा करते तो हम शरणागति के पात्र ही नहीं हो पाते । पर सभी जीव प्रभु की शरणागति ग्रहण करने के पात्र हैं ।
जो अपना आत्म-समर्पण प्रभु को करके अपना सब कुछ प्रभु को अर्पित कर देता है, प्रभु भी अपने आपको उसे दे देते हैं । जीव को केवल प्रभु को ही अपना मानना चाहिए और अपने को केवल प्रभु का ही मानना चाहिए क्योंकि यह भगवत् प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग है । प्रभु का कार्य जीव का कल्याण करना ही है इसलिए जो भी जिस भी भाव के साथ प्रभु तक आता है उसका सदैव कल्याण ही होता है । द्वेष से, भय से भी प्रभु तक आने वाले का प्रभु ने कल्याण ही किया है । प्रभु की उदारता अपार है । इसलिए प्रभु को ही जीवन में सर्वोपरि मानना चाहिए ।
यह सिद्धांत है कि जीव जिस प्रकार का संबंध प्रभु से मानता है प्रभु भी वैसा ही संबंध जीव के साथ मानते हैं । इसलिए प्रभु से संबंध जोड़कर प्रभु की शरण में जाना चाहिए और प्रभु से कुछ नहीं चाहना चाहिए, केवल प्रभु को ही चाहना चाहिए । जो जीव अपना नित्य संबंध केवल प्रभु से मान लेता है वह प्रभु के आश्रय को प्राप्त कर लेता है । प्रभु का आश्रय मिलने पर जीव निश्चिंत, निर्भय, शोक रहित और शंका रहित हो जाता है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
समस्त धन, शक्ति, यश, सौंदर्य, ज्ञान और त्याग से युक्त परमपुरुष प्रभु कहलाते हैं । ऐसे दिव्य प्रभु से संपर्क भक्ति बिना संभव नहीं है । प्रभु और प्रभु के भक्तों का संबंध अत्यंत दिव्य होता है । जो प्रभु का भक्त होता है प्रभु केवल उसकी बात सुनते ही नहीं अपितु उसकी सभी सात्विक इच्छाओं की पूर्ति भी करते हैं । भक्त भी प्रभु को कभी भूल नहीं पाता और सदैव प्रभु के नाम, रूप, गुण, श्रीलीला का चिंतन करता रहता है । जो भक्ति करके प्रभु की शरण में चला जाता है प्रभु उसे स्वीकार कर लेते हैं ।
यह मनुष्य योनि सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं मिली है अपितु सुख-दुःख से ऊँचा उठकर प्रभु की भक्ति करके आनंद, शांति और परमगति की प्राप्ति के लिए मिली है । जीवन में हर कार्य प्रभु के निमित्त किया जाए और प्रभु को समर्पित करके किया जाए तो उस भौतिक कार्य का भी कोई बंधन हमें नहीं होगा । पर मनुष्य संसार के नाशवान पदार्थ का भोग और संग्रह करने में और उसका सुख लेने में तथा परिवार आदि में ममता रखने में फंस जाता है और अपना मानव जीवन व्यर्थ कर लेता है ।
प्रभु ही सदैव हमारे साथ रहते हैं, संसार हमारे साथ सदैव कभी नहीं रह सकता । इसलिए जब मनुष्य प्रभु प्राप्ति का जीवन में निश्चय कर लेता है तो उसे संसार की कोई अनुकूलता और प्रतिकूलता प्रभु प्राप्ति के मार्ग में बाधा नहीं पहुँचा सकती । प्रभु की तरफ चलने का दृढ़ निश्चय होने पर हमसे पाप होने स्वतः ही बंद हो जाते हैं । सर्वव्यापी प्रभु हमसे दूर हैं ही नहीं और हो भी नहीं सकते । प्रभु हमारे सबसे समीप हैं । इसलिए प्रभु को प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य का महत्व जीवन में नहीं रहना चाहिए ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 18 अप्रैल 2018 |
17 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(आत्मसंयम योग) |
अ 05
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परंतु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भक्ति पथ सबसे सुगम है । भक्ति करने वाले भक्त की भावना होती है कि प्रत्येक वस्तु प्रभु की है अतः उसका उपयोग प्रभु के लिए ही किया जाना चाहिए । भक्त जो भी करता है प्रभु के लिए ही करता है । जीव को एकमात्र प्रभु को प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए । जो ऐसी इच्छा रखता है उस भक्त की पुकार प्रभु तक पहुँच जाती है । महान दुराचारी व्यक्ति भी अगर निश्चय कर ले कि अब मैं प्रभु की भक्ति करूँगा तो उसका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है ।
जब कोई जीव प्रभु की तीव्र भक्ति में लग जाता है तो वह माया के प्रभाव से तुरंत मुक्त हो जाता है । इसलिए हमें प्रभु की निष्काम और निश्चल भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए । हमें अविनाशी प्रभु का अनुभव करने के लिए कर्म करने चाहिए । लोक और परलोक के विनाशी भोगों की प्राप्ति के लिए कर्म नहीं करने चाहिए । जीवात्मा प्रभु का नित्य दास है इसलिए उसे जीवन में प्रभु के लिए ही कार्य करने चाहिए । अगर कर्म प्रभु के लिए किए जाएंगे तो उसके संपादन में दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी ।
प्रभु में रमें हुए भक्त का आकर्षण प्रभु में ही होता है और उसे जीवन में प्रिय से प्रिय प्रभु ही लगते हैं । प्रभु में आकर्षण होने पर मनुष्य प्रभु में जल्दी तन्मय हो जाता है । ऐसी अवस्था आने पर भक्त हर समय प्रभु में तल्लीन रहता है । हमें अपने आपको प्रभु का शाश्वत सेवक मानकर प्रभु की सेवा में प्रवृत्त रहना चाहिए । हमें प्रभु से सीधा संबंध स्थापित करना चाहिए । हमारा आकर्षण प्रभु की तरफ ही होना चाहिए । जीव प्रभु का अभिन्न अंश है इसलिए उसका जीवन प्रभु की सेवा के लिए ही है । इसलिए प्रबल भक्ति जागृत हुए बिना जीव की प्रगति नहीं हो सकती । प्रभु प्राप्ति का जीवन में उद्देश्य होने पर हमारे सभी कर्म प्रभु के लिए ही होंगे ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति का जीवन में आश्रय लें जिससे उसे इस जीवन में सुलभता से प्रभु प्राप्ति संभव हो सके । जीव का प्रयास इसी दिशा में होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 अप्रैल 2018 |
18 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(आत्मसंयम योग) |
अ 05
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो संपूर्ण कर्मों को परमात्मा को अर्पण करके आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है वह जल में कमल के पत्ते की तरह पाप में लिप्त नहीं होता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भक्त अपना संपूर्ण कर्म प्रभु के लिए करता है और प्रभु को अर्पण करके करता है । प्रभु के लिए कर्म करने पर और प्रभु को अपना कर्म अर्पण करने के कारण भक्त कर्मों से नहीं बंधता । जैसे कमल का पत्ता जल में उत्पन्न होता है फिर भी जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहता है वैसे ही भक्त अपने कर्म प्रभु के लिए करने और प्रभु को अर्पण करने के कारण अपने कर्मों से निर्लिप्त रहता है । भक्त मानता है कि इस संसार की सारी वस्तु प्रभु से संबंधित है और प्रभु ही उनके एकमात्र स्वामी हैं ।
भक्त अपने आपको प्रभु का शाश्वत दास मानता है और प्रभु के लिए कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा कर्म नहीं करता । कर्म के बंधन से मुक्ति तभी संभव है जब जीव हर कार्य प्रभु के लिए करे और प्रभु को समर्पित करके करे । जो भक्ति के संस्कार अपने भीतर जागृत कर लेता है वह अपने कर्म करने की दिशा को ही बदल लेता है । पहले वह संसार के लिए और अपने सुख प्राप्ति के लिए कर्म करता था पर भक्ति की जागृति के बाद उसके कर्म प्रभु के लिए होने लग जाते हैं ।
यदि मन प्रभु की सेवा में निरंतर लगा रहे तो हमारी इंद्रियों के अन्यत्र जाने की संभावना ही नहीं बचती । मन अगर प्रभु की सेवा में लग जाता है तो उसे तुच्छ विषयों का आकर्षण समाप्त हो जाता है । यह शाश्वत नियम है कि सांसारिक पदार्थों की कामना वाला मनुष्य दुःख और पाप से कभी नहीं बच सकता । संसार की कामना करेंगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा और पाप भोगना ही पड़ेगा । जिस समय जीव अपने मन में रहने वाली समस्त सांसारिक कामनाओं का परित्याग कर देता है, उसी समय वह प्रभु के सानिध्य का अनुभव करने लगता है । इसलिए सारी इच्छाओं को मिटाने के लिए भक्ति को तीव्र करना बहुत उपयोगी और जरूरी है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि सांसारिक कामना का त्याग कर जीवन में जो भी कर्म करे वह प्रभु के लिए और प्रभु को अर्पण करके करे जिससे वह सदैव के लिए दुःख और पाप से निवृत्त हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 02 मई 2018 |
19 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(आत्मसंयम योग) |
अ 05
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
निश्चल भक्त शुद्ध शांति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि वह जीव परम शांति को प्राप्त करता है जो अपने समस्त कर्मों को प्रभु को अर्पण कर देता है । जो ऐसा नहीं करता और अपने कर्मों का फलकामी बनता है वह बंध जाता है । हम प्रभु के हैं और हमारा मन, बुद्धि और शरीर भी प्रभु की संपत्ति है । इसलिए हमारे मन, बुद्धि और शरीर से जो भी कर्म हो वह प्रभु के लिए हो । दूसरी बात, जो भी हम संसार में कर्म करें वह प्रभु को अर्पण करते हुए चलें । ऐसा होने पर हम उन कर्मों के बंधन से ऊपर उठकर मुक्त हो जाते हैं और वह कर्मफल हमें बांध नहीं पाते ।
जो कर्म प्रभु के लिए नहीं होते और संसार के लिए होते हैं वे कर्मबंधन का निर्माण करते हैं । जो कर्म प्रभु को अर्पण नहीं होते वे हमें कर्मफल की इच्छा जागृत करके बंधन में डाल देते हैं । जिस प्रकार निरंतर ईंधन डालने पर आग कभी नहीं बुझती उसी प्रकार संसार के लिए कर्म करते रहने पर कभी भी तृप्ति नहीं मिलती । प्रभु के लिए किया गया कर्म और प्रभु को अर्पण हुआ कर्म हमें तृप्त भी करता है और शांति भी प्रदान करता है । इसलिए हमें अपने जीवन के सारे कर्म प्रभु की सेवा में नियोजित करने चाहिए ।
प्रभु हृषिकेश कहलाते हैं अर्थात वे हमारे शरीर की इंद्रियों के स्वामी हैं । इसलिए हमारी इंद्रियों से प्रत्येक कर्म प्रभु के लिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए होने चाहिए । हमारे पास जो शरीर, इंद्रियां, मन और बुद्धि है वह सब प्रभु का ही है क्योंकि हम भी प्रभु के ही हैं । इसलिए उनका उपयोग ऐसे कर्म करने के लिए करना चाहिए जो प्रभु के लिए ही हो । हम प्रभु के शाश्वत दास हैं ऐसा मानना चाहिए और अपने जीवन का उद्देश्य प्रभु के लिए कर्म करने का होना चाहिए । जो प्रभु के साथ अपने शाश्वत संबंध को समझ लेता है वह प्रभु के लिए समर्पित हो जाता है ।
इसलिए भक्ति द्वारा अपने आपको प्रभु को समर्पित करते हुए और सभी कर्म प्रभु के लिए और प्रभु को अर्पण करके करने चाहिए जिससे हम कर्मबंधन से मुक्त रहें और साथ ही परमानंद की अनुभूति भी हमें प्राप्त हो सके ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
सब कुछ प्रभु का है यानी संसार मात्र प्रभु का है । पर हम प्रभु की वस्तु को अपना मान लेते हैं इसलिए बंधन में पड़ जाते हैं । हमें केवल प्रभु को ही अपना मानना चाहिए । प्रभु की वस्तु को प्रभु का ही मानना वास्तविक अर्पण है । जो मनुष्य वस्तु को अपनी मानते हुए प्रभु को अर्पण करता है वह गलत है । मनुष्य को कोई भी वस्तु अपनी न मानकर प्रभु की ही मानते हुए प्रभु को अर्पण करना ही सच्चा अर्पण है ।
कोषाध्यक्ष अपने स्वामी के लिए लाखों रुपए गिन सकता है, किंतु इसमें से एक भी पैसा उसका नहीं होता । वैसे ही संसार में किसी भी मनुष्य का कुछ भी नहीं है क्योंकि सारी वस्तुएं प्रभु की ही हैं । इसलिए भक्त किसी भी वस्तु पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं करता । जो भक्त को चाहिए उसकी व्यवस्था प्रभु स्वतः और बिना मांगे ही करते हैं ।
संसार की वस्तुओं का सदुपयोग करने का अधिकार हमें है पर उसे अपना मानने का अधिकार नहीं है । इन वस्तुओं को अपना मान लेना प्रभु की उदारता का दुरुपयोग करना है । प्रभु प्राप्ति चाहने वाले भक्त को धन, मान, बड़ाई, आदर आदि पाने की चाहत नहीं होनी चाहिए । इसलिए हमें अपने कर्म प्रभु अर्पण कर देने चाहिए और ऐसा मानना चाहिए कि कर्म मैंने अपने लिए नहीं अपितु प्रभु के लिए किए हैं क्योंकि जिनसे कर्म होते हैं वह शरीर, इंद्रियां, मन और बुद्धि सब प्रभु के ही हैं ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 09 मई 2018 |
20 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(ध्यान योग) |
अ 06
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
अपने मन पर हमारी विजय सबसे बड़ी विजय है । यह हमारा मन ही है जो संसार की तरफ भागता है । हमारे मन को ही माया प्रभावित करती है और संसार के विषयों के प्रति आकर्षित करती है । हमें अपने मनुष्य जन्म का अमूल्य और मुक्तिदायक समय संसार के निरर्थक संकल्पों को सिद्ध करने में बर्बाद नहीं करना चाहिए । यह तभी हो सकता है जब मन पर हमारी विजय हो । भक्ति के द्वारा ही मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है क्योंकि जब कोई भक्त प्रभु की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लग जाता है तब वह इंद्रियतृप्ति और सकाम कर्म के लिए प्रवृत्त नहीं होता ।
जब भक्ति द्वारा मन पर विजय प्राप्त हो जाती है तो हमारा मन प्रभु की आज्ञा का पालन करने लग जाता है । हमें अपने मन को निरंतर प्रभु में लगाए रखना चाहिए । जो मन प्रभु का चिंतन नहीं करता वह मन फिर संसार में लिप्त हो जाता है । इसलिए अपने मन को प्रभु के चिंतन में ही लगाए रखना चाहिए । मन जब संसार का चिंतन करता है तो संसार का आकर्षण बढ़ता जाता है और वही मन जब संसार से हटकर प्रभु का चिंतन करता है तो उस मन में प्रभु का दिव्य आकर्षण जागृत होता है ।
सभी संतों और भक्तों ने अपने मन को संसार से खींचकर प्रभु में केंद्रित किया है । भक्ति ही वह साधन है जो सबसे सरलता से हमें ऐसा करने के योग्य बनाती है । भक्ति के द्वारा संसार से हमारा वैराग्य हो जाता है और प्रभु हमें अत्यंत प्रिय लगने लग जाते हैं । भक्ति के अलावा अन्य कोई ऐसा साधन नहीं जो हमारे मन को इतनी अच्छी तरह से नियंत्रित कर सकता है । भक्ति हमारे मन की दिशा को संसार से मोड़कर प्रभु की तरफ कर देती है ।
इसलिए जीव को भक्ति का आश्रय लेकर अपने मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । मन संसार से हटे और प्रभु में लगने लगे तो ही मन पर हमने विजय प्राप्त कर ली ऐसा मानना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 16 मई 2018 |
21 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(ध्यान योग) |
अ 06
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है वहाँ-वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही भलीभांति लगाए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
हमारा मन कहीं टिकता और ठहरता नहीं । इसलिए प्रभु ने मन को अस्थिर कहा है । हमारा मन तरह-तरह के सांसारिक भोगों और पदार्थों का चिंतन करता रहता है । इसलिए प्रभु ने मन को चंचल कहा है । पर इस मन को वश में करने का एकमात्र साधन है कि इसे प्रभु में केंद्रित किया जाए । मन को प्रभु में लगाना सबसे श्रेष्ठ साधन है । मन जहाँ-जहाँ जाए उसे वहाँ से हटाकर प्रभु में केंद्रित करना चाहिए । हमारे मन का संबंध केवल और केवल प्रभु के साथ ही होना चाहिए ।
हमें अपने मन को समझाना चाहिए कि संसार की तरफ जाने से सुख नहीं पाया जा सकता केवल दुःख-ही-दुःख मिलता है । इसलिए मन को संसार से हटाकर प्रभु में लगाना ही सर्वश्रेष्ठ क्रिया है । हमारा मन अगर प्रभु का चिंतन करने में रम जाता है तो प्रभु का चिंतन करते-करते मन प्रभु को प्राप्त कर लेता है । प्रभु के सिवा ब्रह्माण्ड में अन्य कोई दूसरी सत्ता है ही नहीं । इसलिए हमारे मन को एकमात्र प्रभु का चिंतन करने की आदत लगनी चाहिए । मन जैसे-जैसे प्रभु का ध्यान और चिंतन करेगा वैसे-वैसे वह प्रभु में एकाग्र होने लग जाएगा ।
हमें अपने मन को एक नियम लगा देना चाहिए कि प्रभु के चिंतन का जो हमने निश्चय किया है उसका वह कभी उल्लंघन नहीं करेगा । मन को कभी मुक्त और खुला नहीं छोड़ना चाहिए और वह जहाँ भी जाए वहाँ से पुनः खींचकर प्रभु की तरफ लौटाना चाहिए । जिसने अपने मन को प्रभु में लगाने हेतु नियंत्रित कर लिया उसने बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर ली । मन का वेग वायु से भी तेज होता है और पलक झपकते ही वह कहीं-से-कहीं पहुँच जाता है । उसका नियंत्रण केवल और केवल उसे प्रभु में लगाकर ही किया जा सकता है ।
इसलिए हमें चाहिए कि हमारे मन को सदैव प्रभु में लगाने का अभ्यास जीवन में करना चाहिए । मन प्रभु में लगने लग गया तो वह प्रभु सानिध्य के कारण परमानंद की अनुभूति हमें करा देगा ।
प्रकाशन तिथि : 23 मई 2018 |
22 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(ध्यान योग) |
अ 06
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो भक्त सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भक्ति की एक बहुत ऊँची अवस्था है कि कण-कण में प्रभु के दर्शन करना । प्रभु के बिना किसी भी चीज का संसार में कोई अस्तित्व नहीं है । सारा संसार ही प्रभु रूप है । प्रभु का वास सभी जगह है । इसलिए भक्त सभी में प्रभु का दर्शन करता है । भक्त श्री प्रह्लादजी को एक खंभे में भी प्रभु दिखाई दिए और प्रभु ने खंभे से प्रकट होकर यह दिखाया कि भक्त जहाँ भी प्रभु को देखता है प्रभु वहाँ विराजमान होते हैं ।
भक्त सभी जगह और सभी जीव में प्रभु का दर्शन करता है । भक्त प्रभु में पूरे ब्रह्मांड का दर्शन करता है । प्रभु ने श्री अर्जुनजी को अपने विराट रूप में दिखाया कि सभी कुछ प्रभु में समाहित है । सारी सृष्टि और कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड प्रभु की एक रोमावली में समाए हुए हैं । जो भक्त इसका अनुभव कर लेता है प्रभु उससे कभी अदृश्य नहीं होते । जो भक्त प्रभु को हर जगह देखने की कला सीख लेता है फिर प्रभु उससे कहाँ छिप पाएंगे ।
प्रभु कहते हैं कि जो भक्त प्रभु को सब जगह देखने लगता है वह प्रभु को सर्वदा प्रिय होता है । ऐसे भक्त का किसी से द्वेष और वैर नहीं होता क्योंकि वह अपने प्रभु का अनुभव हर जीव में करता है । जब अपने भीतर भी प्रभु हैं और वे प्रभु ही सामने वाले के भीतर भी हैं तो वह भक्त द्वेष और वैर किससे करेगा । संसार में जो द्वेष और वैर की भावना है वह इसलिए है कि हमने सर्वत्र प्रभु का दर्शन करने की कला को अभी तक नहीं सीखा है । ऋषियों, संतों और भक्तों ने सदैव प्रभु का दर्शन सबमें किया है ।
प्रभु को सर्वत्र देखना और प्रभु को सर्वदा देखना यह भक्ति की एक परिपूर्ण अवस्था है । ऐसे भक्तों की दृष्टि से प्रभु कभी अदृश्य नहीं होते और ऐसे भक्त भी कभी प्रभु की दृष्टि से अदृश्य नहीं होते । ऐसे भक्त प्रभु को सदैव याद रखते हैं और प्रभु भी ऐसे भक्तों को सदैव याद रखते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 30 मई 2018 |
23 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(ध्यान योग) |
अ 06
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो जीव मुझ परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
जो जीव प्रभु की भक्ति करता है और भक्तिभाव से प्रभु की सेवा करता है प्रभु उसे अपने में स्थित रखते हैं । भक्त प्रभु का अभिन्न अंग होता है । भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं होता । भक्ति प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय है इसलिए जो जीव भक्ति का आश्रय लेकर प्रभु की सेवा करता है वह प्रभु को अत्यधिक प्रिय होता है । भक्त प्रभु को अपने हृदय में स्थान देता है और प्रभु भी भक्त को अपने हृदय में स्थान देते हैं ।
भक्त सदैव प्रभु का सानिध्य प्राप्त करने में सफल रहता है । प्रभु भक्त के लिए सदैव उपलब्ध होते हैं । भक्तिभाव से प्रभु की सेवा करना ही भक्त के जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है । भक्त कभी भी संसार में जन्म लेकर संसार में नहीं फंसता । संसार में फंसकर हम प्रभु की भक्ति नहीं कर सकते । संसार भक्ति करने वालों के लिए बाधा उत्पन्न करता है । इसलिए भक्ति करने वाला भक्त संसार और प्रभु में प्रभु को चुन लेता है । संसार उसके लिए गौण हो जाता है और प्रभु उसके लिए सर्वोपरि हो जाते हैं ।
ऐसा भक्त प्रभु की भक्तिपूर्वक सेवा में अपना जीवन अर्पण कर देता है । मानव जीवन का यही उद्देश्य है और इस उद्देश्य की पूर्ति भक्त सफलतापूर्वक करता है । ऐसा भक्त सदैव प्रभु के अंतःकरण में अपनी जगह बनाने में सफल हो जाता है । भक्त के हृदय में एकमात्र प्रभु का वास होता है और प्रभु के हृदय में एकमात्र भक्त का वास होता है । प्रभु कहते हैं कि मैं अपने भक्त के अलावा किसी को नहीं पहचानता । भक्ति की इतनी बड़ी महिमा होती है ।
इसलिए मनुष्य जन्म पाकर प्रभु की भक्तिपूर्वक सेवा में अपना जीवन लगाना चाहिए तभी हमारे मनुष्य जीवन की सफलता है । सभी शास्त्र, ऋषि, संत और भक्तों का जीव मात्र से ऐसा करने का आग्रह भी है और आदेश भी है ।
प्रकाशन तिथि : 06 जून 2018 |
24 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(ध्यान योग) |
अ 06
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मन बड़ा चंचल, हठीला और अत्यंत बलवान है, इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु से कहे ।
यहाँ पर श्री अर्जुनजी मानो प्रभु की कृपादृष्टि मांग रहे हैं और प्रभु से अरदास कर रहे हैं कि प्रभु कृपा करके उनके मन को अपनी ओर खींच ले । श्री अर्जुनजी कहते हैं कि मन स्वभाव से बड़ा अस्थिर और चंचल है, मन बड़ा हठीला और जिद्दी है । मन बड़ा बलवान भी है और मन के बल के आगे जीव हार जाता है । जैसे वायु को वश में करना असंभव है वैसे ही मन को वश में करना भी लगभग असंभव है । संत एक उपमा देते हैं कि जैसे बंदर की समाधि लगानी असंभव सी बात है क्योंकि बंदर स्वभाव वश ही अत्यंत चंचल होता है वैसे ही मन भी अत्यंत चंचल है और इसे स्थिर करना लगभग असंभव है ।
पर अगर हम अपने मन को संसार से हटाकर प्रभु में लगा देते हैं तो इसकी चंचलता समाप्त हो जाती है । मन
जहाँ-जहाँ भी जाए उसे वहाँ से खींचकर वापस प्रभु में लगाना चाहिए । मन को ऐसा अभ्यास कराया जाए कि वह निरंतर प्रभु का ही चिंतन करे । प्रभु के अलावा मन में दूसरी बात आए ही नहीं । जब मन का संकल्प विकल्प खत्म हो जाएगा और वह प्रभु में केंद्रित होकर स्थिर होने लग जाएगा तो वह हमारे वश में हो जाएगा । कितने संत हुए हैं जिन्होंने अपने मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों से प्रभु के श्रीनेत्रों तक और प्रभु के श्रीनेत्रों से प्रभु के श्रीकमलचरणों तक के ही चिंतन में जीवन भर लगाए रखा ।
मन अगर प्रभु में नहीं लगेगा तो वह संसार की तरफ भागेगा । फिर उसे कोई भी नहीं रोक पाएगा । इसलिए मन को प्रभु के चिंतन में और प्रभु के स्वरूप में निग्रह किया जाना अति आवश्यक है । मन अगर संसार में उलझेगा तो वह हमारा पतन करवाएगा । वही मन अगर प्रभु में लगेगा तो वह हमारा उद्धार करवाएगा । इसलिए अपने मन को संसार में जाने से हमें रोकना चाहिए और इसका सबसे उत्तम तरीका उसे प्रभु में केंद्रित करना है ।
जितना-जितना हमारा मन प्रभु में लगने लगेगा उतना-उतना हमारी भक्ति को बल मिलेगा और हमारा कल्याण सुनिश्चित होता चला जाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 13 जून 2018 |