क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
1 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं आपका शिष्य हूँ । आपकी शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अर्जुनजी ने प्रभु से कहे ।
श्री अर्जुनजी प्रभु से कहते हैं कि वे अपनी बुद्धि से धर्म के विषय में कुछ निर्णय नहीं कर पा रहे हैं । प्रभु ही उनके आध्यात्मिक गुरु हैं और प्रभु के उपदेश और आदेश में उनकी पूर्ण श्रद्धा है । श्री अर्जुनजी धर्म संकट में फंसे हैं और उन्हें क्या करना चाहिए इसका निर्णय वे प्रभु से चाहते हैं । प्रभु ही सदा हमारे कल्याण की बात जानते हैं और जिससे हमारा निश्चित कल्याण हो जाए ऐसी बात प्रभु ही हमें बता सकते हैं ।
श्री अर्जुनजी का प्रभु में कितना अटूट विश्वास है यह इस बात से पता चलता है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित नारायणी सेना को छोड़कर निःशस्त्र प्रभु को स्वीकार किया था और दुर्योधन ने प्रभु को छोड़कर नारायणी सेना को स्वीकार किया । श्री अर्जुनजी को पता था कि जिसको प्रभु का आश्रय होता है वह कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होता और जीवन में सदा निश्चिंत और निर्भय रहता है । इसलिए श्री अर्जुनजी अपने को प्रभु के शिष्य की भूमिका में लाते हैं क्योंकि प्रभु से शिक्षा लेने पर ही उनका कल्याण हो सकता है । श्री अर्जुनजी प्रभु की शरण ग्रहण कर अपने कल्याण की जिम्मेदारी प्रभु पर छोड़ देते हैं ।
यह सिद्धांत है कि प्रभु की शरण ग्रहण करने वाले को किसी भी प्रकार का भय नहीं रह जाता चाहे वह कितनी भी विपत्ति में क्यों न हो । शरण में आए हुए का कल्याण प्रभु को करना ही पड़ता है क्योंकि यह प्रभु का व्रत है । श्री अर्जुनजी प्रभु से पूछते हैं कि मेरे लिए जो निश्चित श्रेयस्कर बात है वह बताएं । श्री अर्जुनजी ने यहाँ प्रभु का शिष्यत्व ग्रहण करके और प्रभु की शरण में आकर सबसे श्रेष्ठ कार्य किया है क्योंकि संकटकाल में प्रभु ही हमारे संरक्षण करने वाले होते हैं । प्रभु के हृदय में भक्तों के लिए अत्यधिक स्नेह होने के कारण उनकी कृपालुता उमड़ पड़ती है और आगे प्रभु अपनी कृपा से श्री अर्जुनजी के शोक को सहज ही दूर कर देंगे । अगर श्री अर्जुनजी जिज्ञासु नहीं बनते तो श्री अर्जुनजी को निमित्त बनाकर भावी कलियुग के जीवों के कल्याण के लिए श्रीमद् गीतामाँ का दिव्यतम उपदेश नहीं दिया जा सकता था ।
प्रभु को आदिगुरु मानते हुए शास्त्रों में उपलब्ध प्रभु के वचन और आदेश को शिष्य रूप में हमें अपनाना चाहिए । साथ ही हमें सदैव प्रभु की शरण में रहना चाहिए तभी हमारा निश्चित कल्याण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 03 जनवरी 2018 |
2 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं होती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
मनुष्य के सिवाय अन्य सभी योनियां भोग योनियां हैं । प्रभु ने कृपा करके हमें विलक्षण मनुष्य शरीर और विवेक बुद्धि दी है जिससे हम अपना उद्धार कर लें । ऐसा करने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है । मनुष्य जन्म हमें केवल अपना उद्धार करने के लिए ही मिला है, भोग भोगने के लिए नहीं । भोग और संग्रह में फंसा हुआ मनुष्य कभी भी प्रभु की तरफ नहीं बढ़ सकता । हमारे कल्याण में सबसे बड़ी बाधा भोग भोगने की इच्छा और संग्रह करने की इच्छा है ।
भोग भोगना और संग्रह करना यही जिसका उद्देश्य होता है वह अपने मानव जीवन को व्यर्थ कर लेता है । हमें मनुष्य शरीर प्रभु को प्राप्त करने के ध्येय से ही मिला है इसलिए नाशवान भोग और संग्रह में आसक्त हो जाना पशुबुद्धि है । जो सांसारिक भोग और संग्रह अर्जित करने में लगे हैं वे आसुरी संपत्ति वाले होते हैं । रावण ने भी अपने जीवन में भोग भोगे और संपत्ति अर्जित की और प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति नहीं की । मनुष्य जन्म लेने पर हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारी सद्बुद्धि को प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लगे ।
प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति का दृढ़ निश्चय हमारे अंदर होना चाहिए । सांसारिक भोग भोगने की इच्छा और संग्रह करने की प्रवृत्ति हमें पशुतुल्य बनाती है जबकि प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति करने की इच्छा हमें मनुष्यतुल्य बनाती है । भौतिक भोग और संग्रह अस्थाई सुख देता है और प्रभु प्रेम और प्रभु की भक्ति हमें अलौकिक परमानंद देती है । सच्चे भक्त को भोग भोगने से वैसी घृणा होती है जैसे हमें नाली में बैठे सूअर को देख कर होती है । भौतिक भोग और संग्रह हमें जन्म मृत्यु के चक्कर में डालने वाले होते हैं जबकि प्रभु की भक्ति हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचाने वाली होती है । एक बार प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँचने के बाद जीव प्रभु के साथ सच्चिदानंद रूप में रहता है ।
मनुष्य योनि हमें भोग भोगने का संग्रह करने के लिए नहीं मिली है अपितु इससे ऊँचा उठकर प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति करके परमानंद, शांति और प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान प्राप्त करने के लिए मिली है । इसलिए हमारा लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति होनी चाहिए, भोग भोगना और संग्रह करना हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 10 जनवरी 2018 |
3 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
योगक्षेम की चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
शरणागत भक्त के योगक्षेम को वहन करने का दायित्व प्रभु ने व्रत के रूप में श्रीमद् गीतामाँ में उठाया है । अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम "योग" है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम "क्षेम" है । जीव संसार में आकर अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए श्रम करता है और प्राप्त वस्तु की रक्षा के लिए जीवन भर प्रयास करता रहता है । ऐसा करते हुए वह सांसारिक चक्र में इतना फंस जाता है कि प्रभु की तरफ उसका ध्यान ही नहीं जाता और वह आध्यात्मिक उन्नति से वंचित रह जाता है ।
प्रभु श्रीमद् गीतामाँ के नवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में शरणागत भक्त के योगक्षेम को वहन करने का व्रत लेते हैं । प्रभु की भक्ति हमें करनी चाहिए और भक्ति के अंतर्गत प्रभु की शरणागति हमें ग्रहण करनी चाहिए । हमें योगक्षेम की भी इच्छा प्रभु से नहीं रखनी चाहिए । इसका सीधा अर्थ यह है कि हमें निष्काम भक्ति करनी चाहिए । जो निष्काम भक्ति करके प्रभु के परायण हो जाते हैं उनके योगक्षेम का प्रभु स्वतः ही वहन करते हैं ।
एक नवजात शिशु अपनी माँ से कोई इच्छा नहीं रखता कि माँ उसे दूध पिलाए, कपड़े पहनाए और उसका लालन-पालन करे । क्योंकि वह नवजात शिशु अभी-अभी जन्मा है इसलिए उसकी इच्छा शक्ति भी अभी जागृत नहीं हुई । पर उसकी माँ उस नवजात शिशु के निष्काम होने पर भी उसके लिए प्रेम और ममता के कारण सब कुछ करती है । हमें भी भक्ति में नवजात शिशु की तरह निष्काम बनना चाहिए और विश्वास रखना चाहिए कि परमपिता हमारी चिंताओं का वहन करेंगे । हमारा कार्य है प्रभु का चिंतन करना और प्रभु का कार्य है हमारी चिंता करना । विपदा में संसार के दरवाजे सदैव बंद मिलेंगे और प्रभु का दरवाजा सदैव खुला मिलेगा । प्रभु का व्रत है कि प्रभु अपने भक्तों का कभी अनिष्ट नहीं होने देते । प्रभु के हृदय में भक्तों के लिए अत्यधिक दयालुता है । प्रभु अपने भक्तों पर कृपा करने से कभी नहीं चूकते ।
इसलिए प्रभु से योगक्षेम की भी चाह न रखते हुए पूरी तरह से निष्काम होकर प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 17 जनवरी 2018 |
4 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान की शरण ग्रहण करो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
केवल प्रभु के लिए कर्म करने चाहिए । प्रभु मुझपर प्रसन्न हो इसलिए कर्म करने चाहिए । जितने भी कर्म हमसे होते हैं उन सबको प्रभु को अर्पण कर देने चाहिए । कर्म प्रभु को अर्पण किया तो वह परिपूर्ण हो जाता है और हमारा कर्म बंधन भी छूट जाता है । सकाम कर्म हमें जन्म-मृत्यु के चक्कर में फंसाने वाले होते हैं । इसलिए कर्म निष्काम हो और प्रभु के लिए ही हो । जो व्यक्ति अपने को प्रभु के दास के रूप में समझ लेता है वह भक्ति में स्थित होकर भक्ति के अतिरिक्त सारे कर्मों को छोड़ देता है । जीव के लिए भक्ति कर्म करना ही सही मार्ग है ।
मनुष्य को अपनी सारी शक्ति भक्ति करने में लगानी चाहिए तभी उसका जीवन सफल हो सकता है । पर अभागा जीव अपनी मानवीय शक्ति को प्रभु की भक्ति में नहीं लगाता । संसार से हमारा संबंध नश्वर है, केवल प्रभु से ही हमारा संबंध सनातन है । पर हम संसार में रहकर संसार के लिए कर्म करते हैं । हमें संसार में रहकर प्रभु के लिए कर्म करना चाहिए । मानव जन्म पाकर भक्ति से बड़ा करने योग्य कोई कर्म नहीं है । भक्ति हमें जन्म मरण के चक्कर से सदैव के लिए मुक्त कर देने वाला कर्म है । अपने कर्मों से मनुष्य बंधता है । भक्ति ही वह एकमात्र कर्म है जिससे मनुष्य बंधता नहीं अपितु मुक्त हो जाता है ।
चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए और अपने कर्मों को भोगते हुए जब जीव को प्रभु कृपा करके मानव जन्म देते हैं तो उसे उस जन्म का सदुपयोग करना चाहिए । उस मानव जन्म में उसे वैसा ही दोबारा कर्म नहीं करना चाहिए जिससे फिर से चौरासी लाख योनियों में उसे चक्कर लगाने पड़े । उसे अपने मानव जीवन में वह कर्म करने चाहिए जिससे वह प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए पहुँच जाए । भक्ति ही वह कर्म है जिससे ऐसा संभव है । इसलिए सभी शास्त्रों और आचार्यों ने मानव जीवन के लिए अंतिम प्रतिपादन भक्ति का ही किया है ।
भक्ति को ही मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य बनाना चाहिए क्योंकि भक्ति से बड़ा कोई कर्म संसार में है ही नहीं ।
प्रकाशन तिथि : 24 जनवरी 2018 |
5 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार भगवद्भक्ति में लगे रहकर भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार के कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं, वे जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जो समस्त दुःखों से परे है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
भौतिक संसार में रहकर भक्त भी कर्म करते हैं पर वे उसके कर्मबंधन में नहीं बंधते । दो कारण से ऐसा संभव हो पाता है । पहला, भक्त निष्काम भावपूर्वक कर्म करते हैं । ऐसा करने से उनको कर्म का फल तो मिलता है पर वह कर्म उनके लिए बंधनकारक नहीं होते । दूसरा, भक्त जो भी कर्म करता है उसे प्रभु को अर्पण कर देता है । ऐसा करते ही कर्मबंधन से वह सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । तात्पर्य यह है कि अगर हम कर्म निष्काम भाव से करते हैं और प्रभु को अर्पण करके चलते हैं तो वह कर्म हमें बांध नहीं सकता । ऐसा करके भक्ति में लगा भक्त इस भौतिक संसार के कर्म के फलों से और बंधन से अपने आपको मुक्त रखता है ।
कर्मबंधन नहीं होने पर भक्त जन्म मृत्यु के चक्र से सदैव के लिए छूट जाता है । पुनः जन्म हमें अपने पूर्व में किए कर्मों को भोगने के लिए लेने पड़ते हैं । पर अगर हमारा किया कर्म बंधनकारी नहीं होता है तो हमें पुनः जन्म लेने की आवश्यकता ही नहीं होती । इसलिए भक्ति करने वाला जीव जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने में सक्षम होता है । प्रभु की कृपा से वह जन्म मृत्यु के चक्र से छूटकर प्रभु के धाम पहुँच जाता है जहाँ से फिर उसे कभी भी गिरना नहीं पड़ता ।
अगर जीव पुण्य कार्य करता है तो उसे स्वर्ग मिलता है जहाँ के भोग भोगने के बाद उसे फिर मृत्यु लोक में गिरना पड़ता है । पर जो जीव प्रभु की भक्ति करता है उसे प्रभु का धाम प्राप्त होता है जहाँ से फिर कभी उसका पतन नहीं होता । प्रभु के धाम जो पहुँच जाता है वह सदैव के लिए प्रभु का हो जाता है और सदैव प्रभु के सानिध्य में रहता है ।
इसलिए जीव को अपने सांसारिक कर्म निष्काम होकर और प्रभु को अर्पण करके करने चाहिए जिससे वह कर्मबंधन में नहीं फंसे । साथ ही उसे प्रभु की निष्काम भक्ति करनी चाहिए जिससे उसका जन्म-मृत्यु का चक्र छूट जाए और वह प्रभु के धाम जाने का अधिकारी बन जाए ।
प्रकाशन तिथि : 31 जनवरी 2018 |
6 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 58 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस तरह कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है ऐसे ही मनुष्य को अपनी इंद्रियों को विषयों से हटा लेना चाहिए तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
इस श्लोक में प्रभु ने कछुए का दृष्टांत दिया है जो कि मुझे बहुत प्रिय है । हमारी पांच इंद्रियां और मन हमें संसार की तरफ खींचती है । माया हमारी इंद्रियों और मन को प्रभावित करती है और जीव को संसार की तरफ आकर्षित कर प्रभु से विमुख कर देती है । इस तरह जीव जो प्रभु प्राप्ति के लक्ष्य से मनुष्य जन्म लेकर आया है वह पथभ्रष्ट हो जाता है । प्रभु ने उपरोक्त श्लोक में कछुए का दृष्टांत देकर समझाया है कि इंद्रियों और मन को कैसे वश में करके प्रभु की तरफ मोड़ा जाए ।
एक कछुआ जब चलता है तो उसके छः अंग दिखते हैं । उसके जो छः अंग दिखते हैं उसमें चार पैर, एक पूंछ और एक मस्तक होता है । पर जब उस कछुए को कोई खतरा मालूम देता है तो वह अपने छः अंगों को समेट लेता है । उसके छः अंग छिप जाते हैं और केवल एक पीठ ही दिखती है जो इतनी सख्त होती है कि किसी भी प्रहार को झेल लेती है । प्रभु कहते हैं कि इसी प्रकार साधक को अपनी पांच इंद्रियां और एक मन, कुल मिलाकर इन छः को विषयों से हटा लेना चाहिए और प्रभु में केंद्रित करना चाहिए ।
जब माया का खतरा मंडराता है और माया हमें प्रभावित करने को होती है तो हमें इन पांच इंद्रियों और मन को समेट लेना चाहिए और विषयों से हटा लेना चाहिए । हमारी पांच इंद्रियों और मन का स्वभाव है कि उनको कोई-न-कोई विषय चाहिए, वे कहीं-न-कहीं केंद्रित होगी । इसलिए सबसे श्रेष्ठ उपाय है कि उन्हें प्रभु में केंद्रित करना चाहिए और उन्हें प्रभु की सेवा में लगानी चाहिए । जब हम अपनी पांच इंद्रियों और मन को प्रभु की सेवा में लगाते हैं तो इस प्रक्रिया को भक्ति कहते हैं । ऐसा करना भक्ति का एक अंग है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपनी इंद्रियों और मन को संसार से हटाकर प्रभु में केंद्रित करे तभी उसका मानव जीवन सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 07 फरवरी 2018 |
7 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 59 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से वह भक्ति में स्थिर हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
संसार का रस नाशवान होता है और अधिक देर तक नहीं ठहरता परंतु प्रभु का अविनाशी रस कभी कम नहीं होता और ज्यों-का-त्यों अखंड रहता है । पर जब तक सांसारिक भोगों में रसबुद्धि रहेगी तब तक प्रभु का अलौकिक रस जीवन में प्रकट नहीं होता । जीव संसार में आता है उसके पहले माता के गर्भ में प्रभु से प्रार्थना करता है कि उसे गर्भ की पीड़ा से मुक्ति दे और संसार में भेजें जहाँ आकर वह प्रभु का भजन करेगा । प्रभु कृपा करते हैं और उस जीव को संसार में जन्म देते हैं । जीव प्रभु की कृपा और अपने वचन को भूल जाता है और संसार में रस लेने लगता है ।
यह जानते हुए भी कि संसार नाशवान है और संसार का रस भी नाशवान है वह इसमें सुख खोजता है । संसार के रस न तो उसे तृप्ति देते हैं उल्टे उसमें विकार पैदा करते हैं । विकारों के कारण वह प्रभु से दूर होता चला जाता है । पर जब वह किसी संत, भक्त या श्रीग्रंथ के सानिध्य को प्राप्त करता है तब उसे सांसारिक विषयों से और सांसारिक रस से अरुचि हो जाती है । भक्ति का रस जब उसे मिलने लगता है तो उसके सामने सांसारिक रस गौण हो जाता है । यह सिद्धांत है कि संसार में हमें क्षणिक सुख मिल सकता है पर अखंड परमानंद तो प्रभु की भक्ति में ही है ।
जब उसे भक्ति के रस की अनुभूति होती है तब फिर सांसारिक रस उसे आकर्षित नहीं कर पाते । भक्ति का रस इतना दिव्य है कि इसके प्रभाव से सांसारिक रस स्वतः ही नीरस हो जाते हैं । जो आँखें प्रभु के दिव्य रूप को देख लेती है उन्हें संसार में कुछ भी देखना अच्छा नहीं लगता । जो कान प्रभु के गुणानुवाद को कथा और सत्संग के रूप में सुन लेते हैं उन्हें फिर कुछ भी सांसारिक चर्चा सुनने में रुचि नहीं रहती । जो जिह्वा प्रभु का गुणगान कर लेती है उसे फिर संसार की व्यर्थ बातें करने की आसक्ति खत्म हो जाती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह संसार में रस न लेकर प्रभु की भक्ति करे क्योंकि जो रस प्रभु की भक्ति में है वह अतुलनीय है और सांसारिक रस से उसकी तुलना करने की सोचना भी महामूर्खता है ।
प्रकाशन तिथि : 14 फरवरी 2018 |
8 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 61 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर बैठें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
अपनी रसेंद्रियों को सांसारिक विषयों से सर्वदा के लिए जड़ से तोड़ देना चाहिए । जैसे वृक्ष को ऊपर-ऊपर से छटनी करके उसकी जड़ को पानी देते रहेंगे तो वृक्ष का नाश नहीं होगा । क्योंकि जैसे-जैसे पानी मिलता जाएगा वैसे-वैसे चारों तरफ से टहनियाँ निकलकर वृक्ष को बढ़ाती जाएगी । इसलिए इंद्रियों के विषयों को जड़ से खत्म कर देना चाहिए जिससे विषय फिर इंद्रियों को कभी विचलित न करे । प्रभु के परायण न होने से, प्रभु का चिंतन नहीं होता और विषयों का चिंतन होता है जो आत्मघातक है ।
ऐसा कहने के बाद प्रभु एक बहुत मर्म की बात बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि ऐसा करके वह साधक प्रभु के परायण हो जाए तभी उसका कल्याण है । प्रभु का तात्पर्य यह है कि जब साधक इंद्रियों को वश में करता है तो उसे अपने व्यक्तिगत बल का अभिमान हो जाता है कि मैंने अपनी इंद्रियों का निरोध किया और उन्हें अपने वश में किया । यह अभिमान उस साधक को गिरा देता है और उसे प्रभु से विमुख कर देता है । प्रभु को सबसे अप्रिय कुछ लगता है तो वह साधक का अभिमान है । इसलिए साधक को चाहिए कि इंद्रियों का संयम करने पर कभी भी अपने बल का अभिमान न करे अपितु यह माने कि केवल प्रभु कृपा के कारण ही ऐसा करने में वह सफल हो पाया है ।
इंद्रियों के संयम की सफलता प्रभु कृपा के कारण ही मिलती है । जीव अपने बल पर कुछ समय के लिए तो अपनी इंद्रियों पर संयम कर लेता है पर वह आंशिक होता है और कुछ समय के लिए ही होता है । फिर संसार और माया का वेग उसे पथभ्रष्ट कर देता है । पूर्ण सफलता तो उसे प्रभु कृपा से और प्रभु की शरणागति लेने पर ही मिलती है । इसलिए पतन से बचने के लिए प्रभु के परायण होने की बड़ी भारी आवश्यकता है ।
इसलिए जीवन में प्रभु कृपा अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए जिसके कारण हमारी इंद्रियां संसार से हट कर प्रभु में केंद्रित हो जाए । जब ऐसा हो जाए तो इसे अपना पुरुषार्थ नहीं मानना चाहिए अपितु प्रभु कृपा का दर्शन करना चाहिए तभी इंद्रियों का संयम अखण्ड रह पाएगा । प्रभु के परायण हुए बिना इंद्रियों को सर्वथा और सर्वदा वश में करना असंभव है । इंद्रियों को केवल प्रभु की भक्ति के बल पर ही वश में किया जा सकता है ।
प्रकाशन तिथि : 21 फरवरी 2018 |
9 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(गीता का सार) |
अ 02
श्लो 64 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपनी इंद्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
अगर हम अपनी इंद्रियों का लाड़ करेंगे, उनके कहे अनुसार बर्ताव करेंगे तो हम संसार में दुःखी होते रहेंगे । अगर हमारी इंद्रियां प्रभु सेवा में नहीं लगी रहती और सांसारिक तृप्ति करने में लगी रहती है तो वह हमें विपथ कर देगी । इंद्रियों को पथभ्रष्ट होने से बचाना है तो उन्हें प्रभु में केंद्रित करना ही सबसे सरल और सही विधि है । सारी इंद्रियों को प्रभु की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगाकर संसार में रस लेने से विमुख किया जा सकता है ।
जिस प्रकार शत्रुओं का दमन श्रेष्ठ सेना से किया जाता है उसी प्रकार इंद्रियों का दमन उन्हें प्रभु की सेवा में लगाए रखकर किया जा सकता है । जब हमारी इंद्रियां संसार की तरफ भागती है तो अंत में वे हमें दुःख ही देती है क्योंकि संसार दुःखालय है । इंद्रियां संसार में रमने पर हमें क्षणिक सुख दे सकती है पर उसका अंत दुःख में ही होगा । इसलिए अपनी इंद्रियों को प्रभु की तरफ ले जाना ही श्रेयस्कर है । हमारी प्रत्येक इंद्रियां प्रभु की सेवा में लगनी चाहिए तभी हमें अपनी इंद्रियों द्वारा परमानंद की अनुभूति होगी ।
हमारी इंद्रियां हमें परमानंद भी दे सकती है और दुःख भी दे सकती है । यह हमें चुनना पड़ता है कि हमें उनसे क्या अर्जित करना है । अगर हम अपनी इंद्रियों को संसार में रमने देते हैं तो वह हमें दुःख की प्राप्ति करवाएगी और अगर हम उन्हें प्रभु की सेवा में लगाते हैं तो वह हमें परमानंद की अनुभूति करवाएगी । ऐसे बहुत से संत, भक्त हुए हैं जिन्होंने अपनी इंद्रियों को प्रभु सेवा में लगाया और अपने जीवन काल में ही प्रभु की प्राप्ति कर ली । उन्होंने अपने ध्येय को दृढ़ रखा कि चाहे जो हो जाए उन्हें मनुष्य जन्म में परमात्मा की प्राप्ति करनी ही है और उन्होंने अपनी इंद्रियों को प्रभु में केंद्रित रखकर ऐसा किया ।
जो जीव अपनी इंद्रियों को प्रभु की सेवा में नहीं लगाता उसके जीवन में नीचे गिरने की संभावना बनी रहती है । पर अगर वह जीव अपनी इंद्रियों को प्रभु सेवा में लगा देता है तो वह प्रभु की पूर्ण कृपा प्राप्त कर प्रभु तक पहुँच जाता है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
स्वयं प्रभु द्वारा साक्षात उच्चारित वाणी और प्राचीनतम श्रीग्रंथ होने के कारण श्रीमद् भगवद् गीताजी में न केवल अन्य सभी शास्त्रों का सार मिलेगा अपितु ऐसी बातें भी मिलेगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है । पर श्रीमद् भगवद् गीताजी के रहस्यवाद को केवल भक्त ही समझ सकते हैं, अन्य कोई नहीं ।
प्रभु के निर्देशों का पालन करना ही वास्तविक योग है क्योंकि मनुष्य को यह मानव जन्म केवल और केवल प्रभु की प्राप्ति के लिए ही मिला है । प्रभु प्राप्ति करने का अवसर मनुष्य शरीर में ही है, दूसरे शरीर में नहीं । इसलिए शरीर छूटने से पहले ही यह कार्य जरूर कर लेना चाहिए । प्रभु ने मनुष्य जन्म के रूप में हमें अवसर दिया है कि हम प्रभु प्राप्ति कर अपना उद्धार कर ले ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी साक्षात प्रभु की वाणी है इसलिए इसमें शंका की संभावना है ही नहीं । प्रभु ने सबसे पहले श्रीमद् भगवद् गीताजी का उपदेश प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को किया और मोटा अनुमान है कि यह श्रीग्रंथ 20 लाख वर्षों तक विद्यमान रहा । बहुत समय बीत जाने के बाद यह अप्रकट हो गया और फिर प्रभु ने लगभग 5000 वर्ष पूर्व अवतार ग्रहण करके इसे पुनः श्री अर्जुनजी के सामने प्रकट किया जब श्री अर्जुनजी प्रभु के शरणागत हुए ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी सभी का एक अमूल्य परमधन है । श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु से प्राप्त पूर्ण ज्ञान है जो मुक्ति का साधन है । जो लोग प्रभु और प्रभु के वचनों में श्रद्धा नहीं रखते उनका संसार और परलोक दोनों बिगड़ जाता है ।
प्रभु से बड़ा प्रमाण कोई नहीं हो सकता । अतः श्रीमद् भगवद् गीताजी में श्री अर्जुनजी को निमित्त बना प्रभु वचन सुनने का सौभाग्य हमें प्राप्त होता है । प्रभु के विषय में सुनना और वह भी साक्षात प्रभु के श्रीवचनों द्वारा सुनना, इससे बड़ा सौभाग्य कुछ भी नहीं है ।
इसलिए जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 28 फरवरी 2018 |
10 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(कर्मयोग) |
अ 03
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो । इस तरह तुम बंधन से सदा मुक्त रहोगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु की प्रसन्नता के लिए कर्म करने चाहिए । इस जगत में किए जाने वाले अन्य कर्म चाहे वे अच्छे हो या बुरे हो हमें कर्मबंधन में बांधते हैं । पर प्रभु के लिए किया कर्म हमें कर्मबंधन में नहीं बांधता और मुक्त रखता है । इंद्रिय तृप्ति के लिए कर्म नहीं किए जाने चाहिए अपितु कर्म प्रभु की प्रसन्नता और प्रभु की तृप्ति के लिए किए जाने चाहिए । ऐसा करने पर हम कर्मबंधन से बच सकते हैं और ऐसा करने पर हमें प्रभु की प्रेमाभक्ति भी प्राप्त हो जाती है । श्रीमद् भगवद् गीताजी हमें व्यवहार में परमार्थ-सिद्धि की कला सिखाती है । जो प्रभु की दिव्य सेवा करने का कर्म करता है और उसी मार्ग में उन्नति करता है प्रभु उसे स्वीकार कर लेते हैं ।
कर्मबंधन से हम तभी मुक्त हो सकते हैं जब हमारे सभी कार्य प्रभु की सेवा के लिए किए जाए, अपने लिए नहीं । जब तक प्रभु से संबंध भक्ति के द्वारा स्थापित नहीं होता तब तक सभी कर्म लौकिक होते हैं । प्रभु से संबंध स्थापित होने पर हमारे सभी कर्म प्रभु के लिए होने लगते हैं एवं हमारे सभी कर्म इस तरह अलौकिक हो जाते हैं । प्रभु के भक्त की कोई भौतिक इच्छा नहीं रहती इसलिए वे पूर्ण शांत रहते हैं और शांति और परमानंद का अनुभव करते हैं । भक्त भगवत् सेवा करने का आनंद लेता है इसलिए उसे अन्य कर्म करने की इच्छा ही नहीं रहती ।
हमारा एकमात्र उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता होनी चाहिए, अन्य कुछ नहीं । प्रत्येक वस्तु का उपयोग प्रभु की सेवा के लिए किया जा सकता है और हमें ऐसा ही करना चाहिए । हमें अपनी इच्छाओं को प्रभु की इच्छा पूरी करने में लगा देना चाहिए । जीव को संसार से नहीं केवल प्रभु से ही सरोकार रखना चाहिए जो की सर्वमंगलमय हैं । इसलिए हमें अपनी बुद्धि को प्रभु में ही प्रतिष्ठित करके रखनी चाहिए । यह सिद्धांत है कि जो जीव प्रभु की भक्ति में लगा है उसके विषय-वासना प्रभु कृपा से स्वतः ही बिना प्रयास के दब जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मनुष्य के रूप में जन्म लेकर आने पर अपने को प्रभु को समर्पित करके प्रभु की भक्ति करे और अपना प्रत्येक कर्म प्रभु के लिए और प्रभु को अर्पण करके करें ।
प्रकाशन तिथि : 07 मार्च 2018 |
11 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(कर्मयोग) |
अ 03
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अन्य लोग जो अपने इंद्रिय सुख के लिए भोजन बनाते हैं, वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
प्रभु ही सबके मूल हैं । प्रभु ने मनुष्य को जो शरीर, योग्यता, अधिकार, विद्या, बल आदि दिए हैं उसे अपने इंद्रिय सुख के लिए नहीं अपितु प्रभु की सेवा के लिए लगाना चाहिए । जो भोजन प्रभु को अर्पण करके प्रभु के प्रसाद रूप में स्वीकार करते हैं वे पापमुक्त रहते हैं । इसके विपरीत जो अपनी इंद्रियों के सुख के लिए भोजन करते हैं वे निश्चित रूप से पाप ही खाते हैं । मनुष्य को भगवत् कृपा से विशेष विवेक बुद्धि मिली हुई है जो अन्य किसी योनि को नहीं मिली है । मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता भी मिली हुई है अतः उसे इस स्वतंत्रता का सदुपयोग करना चाहिए और अपनी विवेक बुद्धि का इस्तेमाल करके अपने सभी कर्म प्रभु की सेवा के लिए करने चाहिए ।
सांसारिक कामना और इंद्रियों से सांसारिक भोग भोगने की इच्छा का त्याग करना अत्यंत आवश्यक है । वास्तव में मनुष्य जन्म ही सभी जन्मों का आदि और अंतिम जन्म है । यदि जीव मनुष्य जन्म में प्रभु प्राप्ति कर लेता है तो यह उसका अंतिम जन्म हुआ । पर अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो यह उसके आगे आने वाले अनन्त जन्मों का आरम्भ हुआ क्योंकि चौरासी लाख योनियों का चक्र यहीं से आरम्भ होता है । इसलिए ही मनुष्य योनि को मुक्ति योनि कहा गया है । हम इस मनुष्य योनि में प्रभु की प्राप्ति कर सदैव के लिए आवागमन से मुक्त हो सकते हैं ।
इसलिए हमें इस मनुष्य जन्म में जो कर्म करने हैं वह प्रभु के लिए ही करने चाहिए । इंद्रिय सुख के लिए किया गया कर्म हमें बंधन में डालने वाला होता है । प्रभु के लिए किया गया कर्म हमें मुक्त करने वाला होता है । इसलिए भक्त छोटे-से-छोटा कर्म भी प्रभु को आगे करके और प्रभु को निवेदन करके करता है । भक्त भोजन भी प्रभु के लिए बनाते हैं और प्रभु को अर्पण करके प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं ।
मनुष्य को अपने सभी कर्म प्रभु के लिए करने चाहिए और प्रभु को अर्पण करके करने चाहिए तभी वह बंधनमुक्त और पापमुक्त रह सकता है ।
प्रकाशन तिथि : 14 मार्च 2018 |
12 |
श्रीमद् भगवद्गीता
(कर्मयोग) |
अ 03
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने आप में ही पूर्ण संतुष्ट है उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री अर्जुनजी को कहे ।
मानव शरीर विशेष रूप से आत्म-साक्षात्कार के लिए ही मिला है । मानव जीवन इंद्रिय तृप्ति का सुख लेने के लिए नहीं मिला है । संसार में आकर इंद्रिय तृप्ति का सुख लेने की विचारधारा का प्रभु ने तिरस्कार किया है । आत्म-साक्षात्कार मनुष्य योनि के अलावा अन्य किसी भी योनि में संभव नहीं है । मनुष्य योनि में भी सभी साधनों में आत्म-साक्षात्कार के लिए सबसे उत्तम और सरल साधन भक्ति है । आत्म-साक्षात्कार युक्त भक्त कामना रहित हो जाता है और पूर्ण संतुष्ट हो जाता है । सांसारिक कामना रखने वाला जीव सदा दुःखी रहता है ।
आत्म-साक्षात्कार युक्त भक्त प्रभु का सानिध्य पा जाता है और सदैव परमानंद की अनुभूति करता है । उसका पूरा जीवन प्रभुमय हो जाता है । प्रभु ही उसके सर्वस्व हो जाते हैं और वह अपना जीवन प्रभु के लिए ही व्यतीत करता है । संसार के कर्तव्यों से वह सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । जो प्रभु का हो जाता है संसार फिर उसे बांध नहीं सकता । आत्म-साक्षात्कार युक्त भक्त कभी भी सांसारिक कार्यों में रुचि नहीं लेता और संसार के प्रलोभन कभी उसे विचलित नहीं करते । जो प्रभु का हो जाता है संसार में उसके लिए करने योग्य कुछ भी नहीं बचता ।
आत्म-साक्षात्कार युक्त संतों और भक्तों के आचार-विचार सांसारिक प्राणी से बहुत भिन्न होते हैं । आत्म-साक्षात्कार युक्त संतों और भक्तों को वह संतुष्टि प्राप्त होती है जो सांसारिक जीव के कल्पना से भी बाहर है । आत्म-साक्षात्कार युक्त संतों और भक्तों का संपूर्ण कर्तव्य प्रभु के लिए होता है, संसार के लिए उनका कोई भी कर्तव्य नहीं बचता । वे संसार में रहते तो हैं पर उनका जीवन पूर्णतः प्रभुमय होता है । संसार के उठापटक से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता तथा संसार के उठापटक में उनकी कोई रुचि नहीं होती ।
प्रभु से आत्म-साक्षात्कार जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए । आत्म-साक्षात्कार केवल और केवल मानव योनि में ही संभव है । इससे बड़ी उपलब्धि मानव जन्म लेकर आने पर अन्य कुछ भी नहीं है । वास्तव में आत्म-साक्षात्कार से प्रभु की प्राप्ति के अतिरिक्त मनुष्य जीवन का अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं । जरूरत केवल इस उद्देश्य को पहचान कर इसे पूरा करने की है ।
अब हम श्रीमद् भगवद् गीताजी के नवीन अध्याय में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी की यहाँ तक की यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
प्रभु हृषिकेश हैं और जो भी प्रभु की शरण ग्रहण कर लेता है प्रभु उस जीव के हृदय में स्थित होकर उसकी इंद्रियों का निर्देशन करने लगते हैं । जिस प्रकार नदियां बहते-बहते अंततः समुद्रदेवजी में मिल जाती है और उनमें समा जाती है और फिर वहाँ से लौटकर नहीं आती, वैसे ही जीव प्रभु के साक्षात्कार के बाद प्रभु में समा जाता है और प्रभु से वापस अलग नहीं होता ।
श्रीमद् भगवद् गीताजी हमें जगह-जगह बताती है कि केवल प्रभु के साथ ही हमारा नित्य संबंध है, इसलिए हर कार्य प्रभु को निमित्त मानकर किया जाए और प्रभु को समर्पित करके किया जाए तब कोई भी कर्म हमें बंधन में नहीं बांध सकते ।
प्रभु कृपा से ही हमारी बुद्धि सात्विक होती है । हमें केवल प्रभु की प्राप्ति करनी है ऐसा दृढ़ निश्चय करने वाली बुद्धि ही श्रेष्ठ होती है । जिस प्रकार जलती हुई अग्नि कमरे के भीतर की सारी वस्तुओं को जला देती है उसी प्रकार प्रभु अपने भक्त के हृदय में स्थित सारे पापों को जला देते हैं । पर अगर भक्ति का आश्रय हम नहीं लेते तो प्रभु के द्वार तक भी पहुँचकर हम नीचे गिर सकते हैं । इसलिए हमें अपना पूरा जीवन प्रभु की भक्ति में ही अर्पित करके रखना चाहिए । जीव को अपने भक्ति के संकल्प में एकदम पक्का रहना चाहिए ।
यहाँ तक की यात्रा में जो भी लेखन हो पाया है वह प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 21 मार्च 2018 |