क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
97 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 13
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझाने से, जो इस संसार को दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरण को वश में करके हृदय में भगवान को धारणकर संन्यास के लिए घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री विदुरजी द्वारा धृतराष्ट्र को दिए इस उपदेश में उत्तम मनुष्य की व्याख्या मिलती है ।
एक निश्चित अवस्था तक स्वधर्म पालन करने के बाद अंत समय से पहले जो संसार को दुःखों का घर समझ कर इससे विरक्त हो जाता है और संन्यास आश्रम में प्रवेश कर हृदय में मात्र प्रभु को धारण करता है, वही उत्तम मनुष्य कहलाता है ।
जीवन के अंत से पहले प्रभु का बन जाना, प्रभु के लिए समर्पित हो जाना ही मानव जीवन का लक्ष्य होना चाहिए । पर यह एकाएक अंतिम समय में नहीं हो सकता, इसका अभ्यास जीवन काल के मध्य चरण में ही करना प्रारंभ करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 अप्रैल 2013 |
98 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 13
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
धर्मराज ! तुम किसी के लिए शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत ईश्वर के वश में है । सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वर की ही आज्ञा का पालन कर रहे हैं । वही एक प्राणी को दूसरे से मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब धृतराष्ट्र, गांधारी एवं श्री विदुरजी संन्यास के लिए घर से निकल पड़े तो उन्हें अपने बीच न पाकर धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी ने शोक किया तब देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उक्त वचन कहे ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी से बिछड़ने का, चाहे मृत्यु या अन्य कोई कारण से हो, शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि सारा संसार प्रभु के वश में है और प्रभु इच्छा से ही संयोग और वियोग होते हैं ।
दूसरी बात, सारे लोक एवं वहाँ के लोकपाल प्रभु की आज्ञा का पालन करते हैं और उस अनुरूप अपना कार्य निष्पादन करते हैं । ब्रह्माण्ड के प्रत्येक लोक प्रभु की आज्ञा से बंधे हैं एवं उनकी आज्ञा का अनुसरण करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 अप्रैल 2013 |
99 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 13
श्लो 47 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान, जो सम्पूर्ण आत्माओं के आत्मा हैं, माया के द्वारा अनेकों प्रकार से प्रकट हो रहे हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी का धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी को उपदेश ।
सभी जीवों के बाहर और भीतर सिर्फ स्वयंप्रकाश भगवान हैं । दूसरा अर्थ यह है कि जगत में प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । प्रभु ही सभी आत्माधारियों की आत्मा हैं । तभी तो महापुरुषों ने इस सत्य की अनुभूति की और श्री रामचरितमानसजी में गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने लिख दिया कि सारे जग को वे श्रीराममय देखते हैं ।
प्रभु की माया संसार को अनेक रूपों और रंगों में प्रकट करती है । इसलिए संतों ने जब माया के पर्दे को हटाकर देखा तो संसार में सिर्फ और सिर्फ प्रभु ही दिखे ।
इस तथ्य को समझना जरूरी है कि प्रभु के अलावा अन्य कुछ भी नहीं है, तभी प्रभु से सच्चा प्रेम हो पाएगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 मई 2013 |
100 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 14
श्लो 9 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन्हीं भगवान की कृपा से हमें यह संपत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी का अपने भाई श्री भीमसेनजी को कहा गया उक्त वचन ।
पाण्डवों ने सारी संपत्ति और राज्य प्रभु की अनुकम्पा एवं मार्गदर्शन से अर्जित किया था । भगवती द्रौपदीजी की लाज प्रभु ने रखी थी । पाण्डवों के प्राणों की रक्षा लाक्षागृह एवं अन्यत्र जगह प्रभु ने की थी । पाण्डवों के कुल और संतान की रक्षा प्रभु ने की थी जब श्री परीक्षितजी की रक्षा के लिए प्रभु ने उनकी माता के गर्भ में प्रवेश कर ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी । पाण्डवों द्वारा शत्रुओं पर विजय प्रभु के सानिध्य के कारण संभव हुई । पाण्डवों के द्वारा पुण्यकर्म प्रभु के दिशा निर्देश में हुए जिससे स्वर्ग आदि लोकों का अधिकार उन्हें प्राप्त हुआ ।
धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी उपरोक्त सभी को प्रभु कृपा का ही फल मानते हैं । हमारे जीवन में जो भी सकारात्मक हुआ है उसे प्रभु कृपा का ही फल मानना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 मई 2013 |
101 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 15
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कृष्णजी द्वारा अपनी श्रीलीलाओं को विश्राम देकर स्वधाम जाने पर श्री अर्जुनजी ने उक्त वचन कहे । प्रभु के वियोग में वे स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे ।
क्योंकि श्री अर्जुनजी का प्रबल पराक्रम प्रभु के बल पर ही था । अपने जीवन की एक-एक घटना याद करते हुए उसमें प्रभु की महती कृपा के दर्शन श्री अर्जुनजी करते हैं । भगवती द्रौपदीजी का स्वयंवर उन्होंने प्रभु के प्रताप से ही जीता था । खाण्डव वन में फँसने पर प्रभु ने अग्निपान कर उनकी रक्षा की थी । भगवती द्रौपदीजी की लाज की रक्षा प्रभु ने की एवं उनके अपमान का दंड कौरवों को युद्ध में पाण्डवों द्वारा हराकर दिया । एक पत्ते का भोग लगाकर ऋषि श्री दुर्वासाजी के क्रोध से प्रभु ने पाण्डवों को बचाया । प्रभु की कृपा से श्री अर्जुनजी ने बहुत सारे अस्त्र देवताओं से प्राप्त किए । प्रभु की कृपा के कारण ही मानव शरीर में स्वर्ग जाकर देवराज श्री इंद्रदेवजी की सभा में उनके आधे आसन पर बैठकर सम्मान प्राप्त किया ।
श्री अर्जुनजी अपने जीवन की समस्त घटनाओं को प्रभु कृपा से जोड़कर देखते हैं । हमें भी ऐसी दृष्टि विकसित करनी चाहिए जो हमारे जीवन की हर सकारात्मक घटना को प्रभु कृपा से जोड़कर देखने में सक्षम हो ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 मई 2013 |
102 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 15
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्यों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के श्रीकृष्ण अवतार में श्रीलीलाओं को विश्राम देकर स्वधाम गमन के बाद श्री अर्जुनजी प्रभु की महती कृपा को याद करते हैं ।
कौरवों की सेना में श्री भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्यजी, कर्ण, शल्य, भूरिश्रवा, सुशर्मा, जयद्रथ जैसे महाबली थे । श्री अर्जुनजी कहते हैं कि प्रभु मेरे रथ में सारथी के रूप में आगे बैठकर अपनी दृष्टि मात्र से उन कौरव महारथियों की आयु, मन, उत्साह और बल छीन लेते थे । उन महारथियों ने कभी न चूकने वाले अस्त्र चलाए पर प्रभु के प्रभाव के कारण उन अस्त्रों ने श्री अर्जुनजी को छुआ तक नहीं ।
कौरव महारथियों का अपार समुद्र था पर प्रभु के कृपा रथ पर बैठकर श्री अर्जुनजी ने बड़ी सहजता से उसे पार कर लिया ।
हम भी जीवन में प्रभु की कृपा अर्जित कर बड़े से बड़ा कार्य सुगमता से कर सकते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 मई 2013 |
103 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 15
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे । श्रीकृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गए .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री द्वारकाजी से लौटते वक्त मार्ग में साधारण लोगों ने श्री अर्जुनजी को अबला की भांति हरा दिया ।
उस समय प्रभु अपनी श्रीकृष्ण अवतार की श्रीलीलाओं को विश्राम देकर अपने स्वधाम पधार चुके थे । श्री अर्जुनजी जब साधारण लोगों के हाथ परास्त हुए तो उन्होंने जाना कि उनका बल, शौर्य और पराक्रम सिर्फ और सिर्फ प्रभु के कारण था । प्रभु के स्वधाम पधारते ही वे बल, शौर्य और पराक्रम से हीन हो गए । उनका वही गाण्डीव धनुष, वही बाण, वही रथ, वही घोड़े और स्वयं वे ही अर्जुनजी जिनके सामने बड़े-बड़े योद्धा क्षणभर में झुक जाते थे, अब शून्य हो गए और साधारण लोगों के सामने उन्हें झुकना पड़ा ।
हमारे भीतर भी कोई असाधारण प्रतिभा है तो उसे देव तत्व के रूप में देखकर उसे प्रभु का कृपा प्रसाद मानना चाहिए और उस प्रतिभा को हमने स्व−उपार्जित किया है, यह गर्व नहीं करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 मई 2013 |
104 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 15
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गई । भक्ति के वेग ने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति की महिमा बताता मेरा एक प्रिय श्लोक ।
यहाँ भक्ति के संदर्भ में दो संकेत मिलते हैं । पहला, यह कि प्रभु का चिंतन करने से भक्ति बढ़ती है । जितना समय हम प्रभु के चिंतन को देते हैं उतना हमारे भीतर की भक्ति को बल मिलता है । इसलिए प्रभु का चिंतन करने का समय जीवन में बढ़ाना चाहिए ।
दूसरा, जितनी भक्ति हमारे भीतर जागृत होती है उतना ही हमारे विकार बाहर निकलते हैं । यह एक अद्वितीय सिद्धांत है कि हमारे भीतर भक्ति का विकास होते ही हमारे भीतर की बुराइयां कमजोर पड़ती जाती हैं और अंत में नष्ट हो जाती हैं । भक्ति मूलतः हमें प्रभु के करीब पहुँचाती है और ऐसी पात्रता बनाने हेतु हमारे विकारों को भी नष्ट करती है । हमारी भक्ति कितनी प्रबल हुई है इसे मापने का एक मापदंड यह भी है कि हमारे भीतर के कितने विकार नष्ट हुए हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 मई 2013 |
105 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 15
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कुंती ने भी अर्जुन के मुख से .... और भगवान के स्वधाम गमन की बात सुनकर अनन्य भक्ति से अपने हृदय को भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया और सदा के लिए इस जन्म-मृत्यु रूप संसार से अपना मुँह मोड़ लिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति द्वारा आवागमन से मुक्ति मिलती है इस तथ्य का प्रतिपादन यहाँ मिलता है ।
चौरासी लाख योनियों में पुनःरूपी जन्म और पुनःरूपी मरण के कालचक्र से हमें मुक्ति देने का एकमात्र सरल साधन प्रभु की भक्ति है । यहाँ भगवती कुंतीजी के माध्यम से इस तथ्य की पुष्टि होती है । भगवती कुंतीजी का जीवन प्रभु की भक्ति में रंगा हुआ था इसलिए शरीर त्यागने पर उन्हें परमगति मिली और उन्हें जन्म-मृत्यु के कालचक्र से सदैव के लिए मुक्ति मिल गई ।
भक्ति कितना सरल साधन है और उसका सामर्थ्य कितना विशाल है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 मई 2013 |
106 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 15
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभांति प्राप्त कर लिए थे, इसलिए यह निश्चय करके कि भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदय में धारण किया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक प्रेरणादायक श्लोक जो हमें सही मार्ग दिखलाता है ।
जीवन के सभी भौतिक लाभ प्राप्त करने के बाद भी हमने सब कुछ पा लिया है, ऐसा नहीं समझना चाहिए । फिर भी एक परम पुरुषार्थ बचता है और वह है प्रभु की भक्ति ।
पाण्डवों ने इतना बड़ा साम्राज्य, इतने लौकिक सुख प्राप्त किए जिसकी आज के युग में हम कल्पना भी नहीं कर सकते । प्रभु की कृपा से पूरे पृथ्वी मंडल का साम्राज्य, अपार धन, वैभव और ऐश्वर्य एवं पारिवारिक रिश्तों की अनुकूलता उन्हें प्राप्त हुई । लौकिक तौर पर कुछ भी अप्राप्त उनके जीवन में नहीं बचा था । ऐसे में भी परम पुरुषार्थ उन्हें प्रभु में अपना चित्त लगाने में लगा ।
संसार में बहुत सारे पुरुषार्थ होते हैं पर शास्त्रों में परम पुरुषार्थ अपने आपको प्रभु को अर्पण करने का ही माना गया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 मई 2013 |
107 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 16
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... दूसरी व्यर्थ की बातों से क्या लाभ । उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री शौनक ऋषि ने श्री सूतजी से प्रभु की श्रीलीलाओं का रसपान करते हुए उक्त वचन कहे ।
श्री शौनक ऋषि सिर्फ प्रभु की मंगलमयी श्रीलीलाओं का ही रसपान करना चाहते थे क्योंकि वे जानते थे कि दूसरी बातें व्यर्थ की होती है जिसे करने से जीव को कोई लाभ नहीं होता । ऐसी बातें करके हम अपनी आयु को व्यर्थ ही नष्ट करते हैं । ऋषियों एवं भक्तों का दृष्टिकोण ऐसा ही होता है कि वे सांसारिक बातों में बिना रमे प्रभु के विषय में ही बोलना और सुनना चाहते हैं, जिससे उनका श्रवण और उनकी वाणी पवित्र हो सके ।
पर साधारण लोग ज्यादातर व्यर्थ की चीजें देखने, सुनने और बोलने में ही अपना पूरा मानव जीवन व्यर्थ कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 जून 2013 |
108 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 16
श्लो 9 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
एक तो थोड़ी आयु और दूसरी कम समझ । ऐसी अवस्था में संसार के मंदभाग्य विषयी पुरुषों की आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है, नींद में रात और व्यर्थ के कामों में दिन ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - विषयी जीव पर कटाक्ष करता यह श्लोक और साथ ही मानव जीवन का उद्देश्य बताता यह श्लोक ।
मानव जीवन विषयों के पीछे भागने के लिए नहीं मिला है । विषयों के भोग से मानव कभी तृप्त नहीं होता और वह जीवन पर्यन्त यही करता रहता है । वह निरंतर विषयों के चक्कर में ही उलझा रहता है । ऐसे जीव को "मंदभाग्य" कहा गया है और ऐसे कर्म को आयु व्यर्थ करने वाला कर्म माना गया है ।
विषयों को त्यागकर प्रभु का स्मरण, चिंतन और भजन करना ही मानव जीवन का सच्चा उद्देश्य माना गया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 जून 2013 |
109 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 16
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन्हें उन देशों में सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओं का सुयश सुनने को मिला । उस यशोगान से पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की महिमा प्रकट होती थी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब राजा श्री परीक्षितजी दिग्विजय करने निकले तो वे जिन देशों में गए सर्वत्र उन्हें अपने पूर्वज पाण्डवों का सुयश सुनने को मिला ।
पाण्डवों को सुयश दिलाने का पूरा श्रेय प्रभु को था । प्रभु के कारण ही उन्हें कीर्ति मिली थी इसलिए सर्वत्र पाण्डवों पर प्रभु कृपा की चर्चा थी । पाण्डवों की प्रभु भक्ति की चर्चा भी सर्वत्र थी ।
पाण्डवों द्वारा अर्जित की गई एक-एक कीर्ति में प्रभु की असीम कृपा की छाप साफ झलकती थी । प्रभु की पाण्डव वंश पर इतनी असीम कृपा रही थी यह तथ्य राजा श्री परीक्षितजी भी जानते थे और यही प्रसंग सब जगह सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उनके नेत्र प्रेमजल से तर हो गए ।
हमें भी जीवन में प्रभु कृपा अर्जित करनी चाहिए और ऐसा हो तो गौरवान्वित अनुभव करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 जून 2013 |
110 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 16
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवों के चरणों में उन्होंने सारे जगत को झुका दिया । तब परीक्षित की भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में और भी बढ़ जाती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब राजा श्री परीक्षितजी दिग्विजय करने निकले तो उन्हें अपने पूर्वज पाण्डवों पर प्रभु की कृपा के दृष्टान्त सुनने को मिलें ।
उन्हें सुनने को मिला कि पाण्डव कितने कष्ट में थे और उन पर कितनी आपदा आई । पर उन्होंने प्रभु की प्रेम डोर को पकड़ के रखा था जिसके फलस्वरूप हर विपदा से प्रभु ने उनको निकाला । पाण्डवों ने अपने जीवनकाल में प्रभु की कृपा अर्जित की जिसका परिणाम था कि प्रभु ने पाण्डवों के चरणों में सारे जगत को झुका दिया । जिन्होंने पाण्डवों से बैर किया वे समाप्त हो गए । बाकी पृथ्वी मंडल में जो भी राजा थे वे सब पाण्डवों के अधीन हो गए । प्रभु कृपा के कारण पूरे पृथ्वी मंडल का एकछत्र राज्य पाण्डवों को प्राप्त हुआ ।
अपने पूर्वजों पर प्रभु कृपा की गाथा सुनकर श्री परीक्षितजी की प्रभु भक्ति और भी बढ़ गई ।
भक्तों पर प्रभु की कृपा के दृष्टान्त सुनकर हमारे भीतर की प्रभु भक्ति भी हमें बढ़ानी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 जून 2013 |
111 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 16
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारने के लिए ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएं की थी, जो मोक्ष का भी अवलंबन है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु अधर्म का भार उतारने के लिए पृथ्वी पर अवतार लेते हैं । प्रभु अवतार का यह एक कारण है ।
दूसरा कारण जो सबसे बड़ा है वह यह कि अवतार लेकर प्रभु मनोहर श्रीलीलाएं करते हैं । इन श्रीलीलाओं को युगों-युगों तक गाया और सुना जाता है । श्रीलीलाओं को गाने और सुनने का यह प्रवाह मोक्षदायिनी होता है यानी मोक्ष की प्राप्ति करवाता है ।
इसलिए हमें भी प्रभु की मंगल मनोहर श्रीलीलाओं का रसपान करते रहना चाहिए । मोक्ष प्राप्ति करने का यह एक अति उत्तम साधन है जिसको हम प्रायः नजरअंदाज कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 जून 2013 |
112 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 16
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
बहुत से महान गुण उनकी सेवा करने के लिए नित्य निरंतर निवास करते हैं, एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं होते । उन्हीं समस्त गुणों के आश्रय भगवान श्रीकृष्ण ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह श्लोक मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि इसके पहले बहुत सारे गुणों की एक सूची दी गई है और इन सभी गुणों का आश्रय प्रभु को माना गया है ।
गुण इस प्रकार कहे गए हैं - सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति और गौरव ।
उपरोक्त सभी गुण प्रभु से आश्रय पाते हैं इसलिए जब भक्ति के द्वारा हम प्रभु के समीप पहुँचते हैं तो यह गुण हमारे भीतर आकर बसने लग जाते हैं । इसलिए प्रभु के सानिध्य में रहने का यह फल होता है कि इन गुणों के बीज स्वतः हमारे भीतर अंकुरित होने लगते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 जून 2013 |
113 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 17
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ये गौ-माता साक्षात पृथ्वी हैं । भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौंदर्य बिखेरने वाले चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गई थीं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उक्त वचन धर्म ने पृथ्वी माता का गौ रूप में परिचय कराते हुए राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
ध्यान देने योग्य दो बातें हैं । पहली बात, पृथ्वी माता के बोझ उतारने का दायित्व प्रभु ने ले रखा है । इसका प्रतिपादन श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु के श्रीवचनों में भी मिलता है ।
दूसरी बात, पृथ्वी लोक पर प्रभु के अवतार से और प्रभु के पावन विचरण के कारण श्रीकमलचरणों की छाप से पृथ्वी ओजस्वी और गौरवान्वित होती हैं । श्रीबृज मंडल इसका जीवन्त उदाहरण है जहाँ प्रभु के श्रीकमलचरण रज के कारण पूरा श्रीबृज मंडल ही अत्यन्त पूज्यनीय और पावन है ।
पृथ्वी पर प्रभु के श्रीलीला स्थल परम पावन और पूज्यनीय होते हैं । इनके लिए हमारे हृदय में सदैव विशेष स्थान होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 जून 2013 |
114 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 2 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस समय ब्राह्मण के शाप से उन्हें डसने के लिए तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाश के महान भय से भी भयभीत नहीं हुए, क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मृत्यु का भय बहुत बड़ा होता है और सभी को होता है । अंत समय समीप जान सभी भयभीत रहते हैं ।
पर प्रभु का भक्त जो पूरी तरह प्रभु को समर्पित है उसे मृत्यु का भयंकर भय भी भयभीत नहीं कर पाता । क्योंकि वह जानता है कि उसने जीवन काल में ही प्रभु का सानिध्य प्राप्त किया है तो मृत्यु उपरान्त भी प्रभु उसके साथ होंगे । यही कारण था कि राजा श्री परीक्षितजी तक्षक के डसने के कारण प्राण नाश के भय से विचलित नहीं हुए ।
जीवन काल में बनाए सांसारिक संबंध जीवन काल तक ही सीमित रहते हैं पर प्रभु से संबंध चिरकाल तक यानी जन्म-जन्मान्तर तक चलता है । इसलिए जीवनकाल में ही प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित हो जाना ही श्रेष्ठ है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 जून 2013 |
115 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 4 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनों द्वारा उनके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकाल में भी मोह नहीं होता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अंतकाल में हुआ मोह हमें मुक्त नहीं होने देता और हमारे पुनःरूपी जन्म का कारण बनता है ।
मनुष्य जीवन भर मोह में फंसा रहता है और इस मोह-जाल में भ्रमित होता रहता है । अंतकाल में उसे मोह रहित होना चाहिए तभी उसका कल्याण संभव है पर ऐसा होता नहीं है और मोह उसे अंत समय तक जकड़े रहता है ।
संसार के मोह से छूटने का एक श्रेष्ठ उपाय है प्रभु से प्रीति और प्रभु का स्मरण । यह प्रभु की लीलामयी कथामृत का पान करते रहने से ही संभव है ।
इसलिए जीवन में निरंतर प्रभु के लीलारूपी कथामृत का कथन, श्रवण, मनन और चिंतन करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 जून 2013 |
116 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण कीर्तन करने योग्य बहुत सी लीलाएं करते हैं । इसलिए उनके गुण और लीलाओं से संबंध रखनेवाली जितनी भी कथाएं हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सबका सेवन करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के अवतरण का एक उद्देश्य यह होता है कि उनकी श्रीलीलाओं का गुणगान हमारे पापों का क्षय करता है और पुण्यों की वृद्धि करता है ।
अपना कल्याण चाहने वाले जीव को सदा इसका सेवन करना चाहिए । इस तथ्य की पुष्टि इस श्लोक में हुई है ।
प्रभु के सद्गुणों एवं श्रीलीलाओं का गान करना, श्रवण करना और स्मरण करना जीव के लिए परम मंगलकारी और परम कल्याणकारी होता है । पर हम अक्सर जीवन में ऐसा नहीं कर पाते और इस परम सौभाग्य से चूक जाते हैं । हमें नियमित रूप से इसके लिए जीवन में समय निकालना चाहिए क्योंकि यह हमारे कल्याण का सूचक है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 जून 2013 |
117 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवत् प्रेमी भक्तों के लवमात्र सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती, फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के भक्त जहाँ मिलते हैं प्रभु की श्रीलीलाओं और सद्गुणों की चर्चा करते हैं । सत्संग का सही अर्थ है सत्य यानी प्रभु जो एकमात्र सत्य हैं उनका संग करना ।
सत्संग की महिमा स्वर्ग और मोक्ष से भी अधिक है । इसके आगे मानव जीवन में मिलने वाले तुच्छ भोगों की तो फिर गिनती ही क्या है ।
इस तथ्य का प्रतिपादन श्री रामचरितमानसजी की अमर चौपाई में मिलता है जहाँ तराजू के एक पलड़े में स्वर्ग का सुख (मानव जीवन के सुख की तो यहाँ गिनती भी नहीं की गई है) एवं दूसरे पलड़े में लेशमात्र क्षण का सत्संग रखने पर सत्संग का पलड़ा भारी रहता है ।
बिना सत्संग का जीवन बिना वस्त्र के शरीर के समान है जो लज्जा का कारण होता है । हमें अपने जीवन से लज्जा आनी चाहिए अगर उस जीवन में हमने सत्संग नहीं किया ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 जुलाई 2013 |
118 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन-सर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं से तृप्त हो जाए ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्लोक एक प्रश्न के रूप में है पर दो तथ्यों का प्रतिपादन यहाँ मिलता है ।
पहला, महापुरुष कौन हैं ? जिन्होंने अपना जीवन और अपना सर्वस्व प्रभु में लगा दिया हो । शास्त्रों ने महापुरुष उन्हें माना है जिनका एकमात्र आधार, एकमात्र आश्रय, एकमात्र आलंबन प्रभु हैं ।
दूसरा, ऐसे महापुरुष निरंतर भक्ति रस के मर्मज्ञ होते हैं और प्रभु की श्रीलीला कथाओं के पान से कभी भी तृप्त नहीं होते । प्रभु का गुणगान करना हमें निरंतर प्रिय लगे और इससे कभी तृप्ति नहीं हो, यह भक्ति का एक सिद्धांत है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 जुलाई 2013 |
119 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की अथाह श्रीलीलाओं का पूर्ण वर्णन करना किसी के लिए भी कतई संभव नहीं है । प्रभु के सद्गुणों और श्रीलीलाओं का वर्णन करते-करते श्री वेदजी भी "नेति-नेति" कह कर शान्त हो जाते हैं ।
जिन्होंने भी प्रभु की श्रीलीलाओं का वर्णन किया है उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही किया है । जैसे एक पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार ही उड़ सकता है वैसे ही महापुरुष भी अपनी बुद्धि के अनुसार ही वर्णन कर पाते हैं ।
प्रभु के सद्गुण और श्रीलीला एक समुद्र की तरह अथाह हैं । जैसे हम समुद्र का जल अंजुलि मात्र हाथों में भर पाते हैं और पूरे समुद्र का जल हमारी अंजुलि में भरना संभव नहीं है वैसे ही महापुरुषों के लिए भी प्रभु के सद्गुणों और श्रीलीलाओं का पूर्ण वर्णन करना कतई संभव नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 जुलाई 2013 |
120 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 18
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान के भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरों के द्वारा किए हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौच, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति हमें कितना स्थिरचित्त बना देती है यह तथ्य इस श्लोक से पता चलता है ।
एक साधारण व्यक्ति अपने अपमान, धोखेबाजी, आक्षेप का बदला लेने के लिए आतुर होता है । उसकी सहनशीलता बहुत कम होती है । वह परिस्थितियों से जल्दी विचलित हो उठता है और प्रतिकार करता है ।
पर भक्त की सहनशीलता अपार होती है । उसके मन में किसी का प्रतिकार करने का विचार भी नहीं उठता । वह स्थिरचित्त होता है । उसे अपने प्रभु पर विश्वास होता है । वह मान-अपमान से ऊपर उठ चुका होता है ।
भक्ति का सामर्थ्य इतना होता है कि वह जीव को शान्तचित्त कर देती है । जगत के लोग उसे सुख-दुःख के द्वन्द में डालते भी हैं तो भी वह हर्षित या व्यथित नहीं होता ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 जुलाई 2013 |