क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
961 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 02
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान में ही आधेयरूप से अथवा अध्यस्तरूप से स्थित है, अर्थात वास्तव में भगवत्स्वरूप ही हैं, इस प्रकार जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान का परम प्रेमी उत्तम भागवत् समझना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री हरिजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
उपरोक्त श्लोक में सबसे उत्तम भक्तों के लक्षण बताए गए हैं । उत्तम भक्त वह है जो सर्वत्र प्रभु की सत्ता को देखता है । वह समस्त प्राणियों में एवं समस्त पदार्थों में प्रभु स्थित है ऐसा अनुभव करता है । जिसकी ऐसी दृष्टि हो कि वह सर्वत्र प्रभु को देखे यानी जिसे जगत ही प्रभुमय दिखे उसे भगवान का परम प्रेमी उत्तम भक्त समझना चाहिए । उत्तम भक्त की दृष्टि जिधर जाती है उसे प्रभु का ही दर्शन होता है । उसे कण-कण में और क्षण-क्षण में प्रभु की अनुभूति होती है ।
इसलिए जगत को प्रभुमय देखना जीव की भक्ति सिद्ध हुई इसका सबसे बड़ा लक्षण है ।
प्रकाशन तिथि : 18 अगस्त 2017 |
962 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 02
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान के ऐसे चरणकमलों से आधे क्षण, आधे पल के लिए भी जो नहीं हटता, निरंतर उन चरणों की सन्निधि और सेवा में ही सलंग्न रहता है, यहाँ तक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवन की राजलक्ष्मी दे तो भी वह भगवतस्मृति का तार नहीं तोड़ता, उस राजलक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता, वही पुरुष वास्तव में भगवतभक्त वैष्णवों में अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री हरिजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
जो प्रभु के श्रीकमलचरणों से अपना ध्यान नहीं हटाता और प्रभु के श्रीकमलचरणों के सानिध्य में और सेवा में रहता है, वह श्रेष्ठ भक्त है । जिसको राजलक्ष्मी का भी आकर्षण दे तो भी वह भगवत् स्मृति में ही निरंतर रहता है और राजलक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता वह वास्तव में श्रेष्ठ भगवत् भक्त है । जो प्रभु की माया से मोहित नहीं होता, जो भगवान की स्मृति में तन्मय रहता है, जिसके मन में विषय भोग की इच्छा का उदय नहीं होता और जो सदैव प्रभु के सानिध्य में शांत रहता है वह श्रेष्ठ भगवत् भक्त है ।
जीव को प्रभु से मांगना चाहिए कि प्रभु उस पर कृपा करें और श्रेष्ठ भक्त के लक्षण उसके भीतर प्रकट हों ।
प्रकाशन तिथि : 18 अगस्त 2017 |
963 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 02
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान श्रीहरि जिसके हृदय को क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेम की रस्सी से उनके चरण-कमलों को बांध रखा है, वास्तव में ऐसा पुरुष ही भगवान के भक्तों में प्रधान है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री हरिजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु अपने भक्तों के हृदय को क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते । भक्त भी प्रभु प्रेम की रस्सी से अपने आपको प्रभु के श्रीकमलचरणों में बांधे रखता है । जो ऐसा कर पाता है वास्तव में वही प्रभु के भक्तों में प्रधान होता है । सांसारिक विषय वासना, घर परिवार, ममता मोह सभी को भुलाकर भक्त अपनी डोर प्रभु के श्रीकमलचरणों में बांध देता है । जब भक्त ऐसा करता है तो प्रभु उसके हृदय में वास करते हैं । भक्त प्रभु को नहीं छोड़ता और प्रभु भी भक्तों को नहीं छोड़ते । यह परस्पर भक्त और भगवान के मिलन का संबंध होता है । भक्तों में प्रधान भक्त उन्हें ही माना गया है जो स्वयं का समर्पण प्रभु के श्रीकमलचरणों में कर देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि समर्पण भाव से प्रभु की भक्ति करे ।
प्रकाशन तिथि : 19 अगस्त 2017 |
964 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! भगवान की लीलाएं अदभुत हैं । उनके जन्म-कर्म और गुण दिव्य हैं । उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएं हों, सब भगवान के लिए करना सीखे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री प्रबुद्धजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु की सभी श्रीलीलाएं अदभुत हैं । प्रभु के द्वारा संसार में लिए जन्म और संसार के लिए किए कर्म दिव्य हैं । प्रभु के सद्गुण भी अति दिव्य हैं । जीव को उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना चाहिए । जीव को सीखना चाहिए कि उसके शरीर से जो कुछ भी हो रहा है वह सब प्रभु के लिए होना चाहिए । उसके सभी कर्मों के हेतु प्रभु होने चाहिए । वह जो कुछ भी करता है अथवा उसे जो कुछ भी प्रिय लगता है वह सब प्रभु के श्रीकमलचरणों में निवेदन करके प्रभु को सौंप देना चाहिए । जो जीवन में ऐसा करना सीख लेता है उसका कभी पतन नहीं होता और वह प्रभु को अत्यधिक प्रिय होता चला जाता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने सभी कर्म प्रभु के लिए करे और प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनका निवेदन कर दे ।
प्रकाशन तिथि : 19 अगस्त 2017 |
965 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं । सब उन्हीं का स्मरण करें और एक-दूसरे को स्मरण करावें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री प्रबुद्धजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु पापों के पहाड़ को भी एक क्षण में भस्म कर देते हैं । जीव ने अपने जन्मों-जन्मों में जो पाप संचित किए हैं उसको लेकर भी जब वह प्रभु के सम्मुख आता है तो प्रभु क्षण भर में ही उसे नष्ट कर देते हैं और जीव को पाप मुक्त कर देते हैं । श्लोक में दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि जीव को सदैव संसार के प्रपंच को छोड़कर प्रभु का स्मरण करना चाहिए और दूसरों को भी प्रेरणा देकर दूसरों से भी प्रभु का ही स्मरण करवाना चाहिए । हमें प्रभु के पावन यश के संबंध में ही एक दूसरे से बातचीत करनी चाहिए । ऐसा करने वाला जीव संतुष्ट होता है और आध्यात्मिक शांति का अनुभव करता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु को ही अपने जीवन में चर्चा का विषय बना ले ।
प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2017 |
966 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! जो इस प्रकार भागवत् धर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री प्रबुद्धजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
जो भागवत् धर्म की शिक्षा ग्रहण करके भागवत् धर्म का पालन करता है उसे प्रभु की प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है । भागवत् धर्म का पालन करने वाले पर प्रभु तत्काल अनुग्रह करते हैं और उस जीव को अपने प्रेम और अपनी भक्ति का दान देते हैं । वह जीव प्रभु के अनुग्रह के कारण प्रभु की माया को अनायास ही पार कर जाता है । वैसे माया के शिकंजे से निकलना अत्यंत कठिन है और प्रभु के अनुग्रह के बिना यह असंभव है । पर प्रभु भागवत् धर्म का पालन करने वालों को अपनी भक्ति और प्रेम देते हैं और साथ ही उसे अपनी माया से भी निवृत्त कर देते हैं ।
इसलिए जीव को भागवत् धर्म का पालन करने की जीवन में चेष्टा करनी चाहिए जिससे उसे प्रभु का अनुग्रह प्राप्त हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2017 |
967 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब भगवान कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्नि की भांति गुण और कर्मों से उत्पन्न हुए चित्त के सारे मलों को जला डालती है । जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री पिप्पलायनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
जब प्रभु के श्रीकमलचरणों का सानिध्य प्राप्त करने के लिए तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति हमारे चित्त के सारे मलों को जला डालती है । तीव्र भक्ति हमारे चित्त को शुद्ध कर देती है क्योंकि शुद्ध चित्त के बिना भगवत् प्राप्ति संभव नहीं है । जब चित्त शुद्ध हो जाता है तो जीव प्रभु से आत्म साक्षात्कार के लिए प्रस्तुत हो जाता है । इसलिए भक्ति की महिमा अपार है । बिना तीव्र भक्ति के हमारा चित्त शुद्ध होना संभव नहीं है और बिना शुद्ध चित्त के भगवत् प्राप्ति संभव नहीं है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने जीवन में तीव्र भक्ति के जरिए अपने चित्त को शुद्ध कर प्रभु प्राप्ति का प्रयास करें ।
प्रकाशन तिथि : 21 अगस्त 2017 |
968 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 04
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! भगवान अनंत हैं । उनके गुण भी अनंत हैं । जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणों को गिन लूंगा, वह मूर्ख है, बालक है । यह तो संभव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वी के धूलि-कणों को गिन ले, परंतु समस्त शक्तियों के आश्रय भगवान के अनंत गुणों को कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री द्रुमिलजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु अनंत हैं । प्रभु के सद्गुण भी अनंत हैं । प्रभु के अलौकिक सद्गुणों की गणना करना किसी के लिए भी संभव नहीं है । जो ऐसा सोचता है कि मैं प्रभु के सद्गुणों को गिन लूंगा, शास्त्र कहते हैं कि वह महामूर्ख है । यह तो संभव है कि कोई असंभव से लगने वाला कार्य जैसे कि पृथ्वी माता के धूलि कणों को गिनना है वह गिन भी ले परंतु वह जीव भी अपनी समस्त शक्तियां लगाकर प्रभु के अनंत सद्गुणों में से किंचित मात्र भी सद्गुण को नहीं गिन सकता । प्रभु के सद्गुणों का कोई भी, कभी भी, किसी भी प्रकार से पार नहीं पा सकता ।
जीव को चाहिए कि प्रभु के अनंत सद्गुणों का चिंतन करे और ऐसा करके परमानंद को प्राप्त करे ।
प्रकाशन तिथि : 21 अगस्त 2017 |
969 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 04
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके श्वास-प्रश्वास से सब शरीरों में बल आता है तथा इंद्रियों में ओज और कर्म करने की शक्ति प्राप्त होती है । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री द्रुमिलजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु की प्रत्येक श्वास से सभी शरीरधारी जीवों के शरीर में बल आता है । प्रभु की प्रत्येक श्वास से सभी शरीरधारी जीवों की इंद्रियों में शक्ति जागृत होती है और इस प्रकार कर्म करने की शक्ति जीव को प्राप्त होती है । शास्त्र कहते हैं कि प्रत्येक जीवधारी को कार्य करने की शक्ति प्रभु प्रदान करते हैं । वह जीवधारी प्रभु की शक्ति से ही अपने कार्य का संपादन करता है । इसलिए इंद्रियों को सक्रिय रखने की जो शक्ति है और कार्य करने की जो शक्ति है उसके दाता प्रभु ही हैं । सभी जीवों को उनके शरीर का बल प्रभु के द्वारा ही प्राप्त होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि ऐसे प्रभु की शरण में रहे जिनके बिना हमारा अस्तित्व ही साकार नहीं हो सकता ।
प्रकाशन तिथि : 22 अगस्त 2017 |
970 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 04
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सीतापति भगवान राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री द्रुमिलजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
जब तीनों लोकों में विपत्ति आती है और आसुरी शक्ति प्रबल हो जाती है तो प्रभु उसका विनाश करने के लिए और अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं । बुरी-से-बुरी और विकट-से-विकट परिस्थिति में भी प्रभु ने अवतार लिया है और सदा सर्वदा और सर्वत्र विजयी-ही-विजयी रहे हैं । एक शाश्वत सिद्धांत है कि जिस पक्ष में प्रभु खड़े हो जाते हैं विजयश्री को भी उसी पक्ष में आना पड़ता है । प्रभु ने सदैव धर्म के पक्ष में खड़े होकर धर्म को विजयी बनाया है । जब प्रभु अपना अवतार काल पूर्ण करके अपने स्वधाम पधारते हैं तो धर्म पूरी तरह से स्थापित हो चुका होता है ।
जीवन में धर्म आचरण करके अगर हमने प्रभु को अपने पक्ष में कर लिया तो सदा-सर्वदा और सर्वत्र हमें विजय-ही-विजय प्राप्त होगी ।
प्रकाशन तिथि : 22 अगस्त 2017 |
971 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... आप लोग उन्हें कथा-कीर्तन की सुविधा देकर उनका उद्धार करें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री चमसजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु की कीर्ति अनंत है । शास्त्रों ने और महात्माओं ने प्रभु के ऐसे अनेक जन्मों और कर्मों का गान किया है । पर जो जीव प्रभु की कीर्ति का गान नहीं करते उनका मनुष्य योनि में जन्म लेना बेकार चला जाता है क्योंकि उनका पतन हो जाता है । बहुत से लोग प्रभु की कथा और नाम कीर्तन आदि से दूर हो चुके हैं । ऐसे लोग भगवान के भक्तों की दया के पात्र होते हैं । भगवान के भक्तों को उन पर दया करके उन पतित लोगों को कथा कीर्तन की सुविधा देकर उनका उद्धार करने का प्रयास करना चाहिए । भक्त को चाहिए कि वह दूसरों को भी प्रभु से जोड़े और दूसरों को भी प्रभु भक्ति के लिए प्रेरित करें ।
प्रभु के भक्त सदैव सबको प्रभु से जोड़ने का प्रयास करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2017 |
972 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! जो लोग अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यंत परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-संपत्ति इकट्ठी करते हैं, परंतु उन्हें अंत में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री चमसजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
जो लोग प्रभु से विमुख हैं और अत्यंत परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र, धन, संपत्ति जमा करते हैं उन्हें न चाहने पर भी अंत में सब कुछ छोड़ना पड़ता है । अंत काल में हमारे जीवन में अर्जित प्रभु भक्ति के अलावा कुछ भी हमारे काम नहीं आता । जीव को अंत में अपना धन, संपत्ति, रिश्ते-नाते सब का त्याग करना पड़ता है । अगर वह अपने जीवन काल में सिर्फ धन-संपत्ति को कमाने में और रिश्ते-नातों को निभाने में लगा रहा है और प्रभु से विमुख रहा है तो अंत में उसे घोर नर्क में जाना पड़ता है । भगवान का भजन न करने वाले विषयी जीव की यही अंतिम गति होती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि दुनियादारी छोड़कर प्रभु का भजन करे और अपना चित्त प्रभु में लगाए तभी उसका उद्धार संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2017 |
973 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धि संपन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं, जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री करभाजनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
कलियुग में जो श्रेष्ठ बुद्धि से संपन्न लोग हैं वे प्रभु की आराधना करते हैं और प्रभु के नाम, सद्गुण और श्रीलीला का गान करते हैं । कलियुग में तपस्या, यज्ञ, कर्मकांड आदि की प्रधानता नहीं है । कलियुग में केवल प्रभु के नाम, सद्गुण और श्रीलीला के गान की प्रधानता है । प्रभु के नाम का जप हो, प्रभु के सद्गुणों का गान हो, प्रभु की श्रीलीला का कथा के रूप में श्रवण हो, कलियुग में इन्हीं बातों की प्रधानता है । कलियुग में प्रभु प्राप्ति के साधन अन्य सभी युगों से बहुत सरल है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि कलियुग में प्रभु के नाम, सद्गुण और श्रीलीला का जप करे, गान करे और श्रवण करे ।
प्रकाशन तिथि : 24 अगस्त 2017 |
974 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे लोग भगवान की स्तुति इस प्रकार करते हैं कि प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं । आपके चरणारविंद सदा-सर्वदा ध्यान करने योग्य, माया-मोह के कारण होने वाली सांसारिक पराजयों का अंत कर देने वाले तथा भक्तों को समस्त अभीष्ट वस्तुओं का दान करने वाले कामधेनुस्वरुप हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री करभाजनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु शरणागतों के रक्षक हैं । शरण में आए हुए जीव की प्रभु सदैव रक्षा करते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरण सदा सर्वदा ध्यान करने योग्य हैं । प्रभु की कृपा माया और मोह के कारण होने वाली सांसारिक पराजय का अंत कर देने वाली है । जो जीव प्रभु की कृपा का आश्रय लेता है उसकी कभी पराजय नहीं होती । प्रभु भक्तों को सभी अभीष्ट वस्तुओं का दान करने वाले हैं । जो भी जिस कामना के साथ प्रभु के पास आता है प्रभु उसकी कामना की पूर्ति करते हैं । चाहे जो कोई भी प्रभु की शरण में आ जाए, प्रभु उसे स्वीकार कर लेते हैं । प्रभु अपने सेवकों की समस्त विपत्तियों का नाश करने वाले और उन्हें संसार सागर से पार करवाने वाले हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि सदैव ऐसे भक्तवत्सल प्रभु की शरण ग्रहण करके रहे ।
प्रकाशन तिथि : 24 अगस्त 2017 |
975 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसमें संदेह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सभी पुरुषार्थों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीहरि ही हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री करभाजनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन सभी पुरुषार्थों के एकमात्र स्वामी प्रभु ही हैं । प्रभु की आराधना से धर्म जीवन में टिकता है । धर्मशील रहने के लिए प्रभु की कृपा जीवन में अनिवार्य है । अर्थ की प्राप्ति के लिए प्रभु की दया जरूरी है । प्रभु की अर्थ के लिए की गई उपासना के बाद ही अर्थ की इच्छा पूर्ति होती है । किसी भी कामना की पूर्ति भी प्रभु की कृपा से ही संभव होती है । छोटी-से-छोटी या बड़ी-से-बड़ी कोई भी कामना की पूर्ति प्रभु की इच्छा के बिना संभव नहीं है । मोक्ष के दाता तो प्रभु ही है । प्रभु के अलावा मोक्ष कोई भी नहीं दे सकता ।
सभी पुरुषार्थों को देने में एकमात्र प्रभु ही समर्थ हैं ।
प्रकाशन तिथि : 26 अगस्त 2017 |
976 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कलियुग में केवल संकीर्तन से ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री करभाजनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
कलियुग में प्रभु प्राप्ति का साधन बहुत सरल है । कलियुग में जीव सभी प्रकार के दोषों से ग्रस्त रहता है इसलिए बड़े-बड़े साधन कर पाना उसके लिए संभव नहीं है । इसलिए कलियुग के दोषों के मद्देनजर कलियुग में प्रभु की प्राप्ति के साधन को बड़ा सरल रखा गया है । कलियुग में केवल प्रभु नाम के कीर्तन से जीव के सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं । इसलिए इस युग की महिमा को समझने वाले श्रेष्ठ पुरुष कलियुग की बड़ी प्रशंसा करते हैं और इससे बड़ा प्रेम करते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि कलियुग में जन्म का पूरा लाभ उठाए और प्रभु प्राप्ति का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 26 अगस्त 2017 |
977 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके लिए भगवान की लीला, गुण और नाम के कीर्तन से बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है, क्योंकि इससे संसार में भटकना मिट जाता है और परम शांति का अनुभव होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री करभाजनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
जीव संसार चक्र में अनादि काल से भटक रहा है । उसे अपने कर्मों के अनुसार अनेकों जन्म लेने पड़ते हैं । संसार चक्र में भटकते-भटकते उसे अंत में प्रभु कृपा से मानव जन्म मिलता है । इस मानव जन्म का उपयोग उसे प्रभु की श्रीलीला, सद्गुण और नाम का कीर्तन करने में करना चाहिए । क्योंकि उसके लिए भगवान की श्रीलीला, सद्गुण और नाम के कीर्तन से बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है । ऐसा करने से उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों में परम गति प्राप्त होती है और उसका संसार चक्र में भटकना सदैव के लिए मिट जाता है । प्रभु की श्रीलीला, सद्गुण और नाम का कीर्तन करने पर अंत में उसे परमगति की प्राप्ति होती है और जीवन काल में उसे परम शांति का अनुभव होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की श्रीलीला, सद्गुण और नाम का गुणगान कर अपने मानव जीवन को सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2017 |
978 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भजन करता है, उससे पहली बात तो यह है कि पाप कर्म होते ही नहीं, परंतु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जाएं तो परमपुरुष भगवान श्रीहरि उसके हृदय में बैठकर वह सब धो-बहा देते हैं और उसके हृदय को शुद्ध कर देते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नौ योगेश्वरजी में से श्री करभाजनजी ने राजा श्री निमिजी को कहे ।
प्रभु के जो प्रेमी भक्त अपने प्रियतम प्रभु के श्रीकमलचरणों की अनन्य भाव से भक्ति करते हैं उनसे कभी कोई पाप कर्म होते ही नहीं । परंतु अगर उनसे किसी भी प्रकार से कभी कोई पाप कर्म हो भी जाते हैं तो परम दयालु प्रभु जो उनके हृदय में निवास करते हैं, वे उन सभी पापों का नाश कर देते हैं । प्रभु उस भक्त के पापों का नाश कर उसका हृदय शुद्ध कर देते हैं । जो जीव प्रभु का अनन्य भक्त है उसे कभी भी कोई पाप कर्म भोगने नहीं पड़ते । इसलिए प्रभु के भक्तों को नर्क जाने का डर कभी नहीं सताता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की अनन्य भक्ति करे जिससे उसका जीवन पापमुक्त रहे और पाप का भय कभी उन्हें सताए नहीं ।
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2017 |
979 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 05
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे पृथ्वी के भारभूत राजवेषधारी असुरों का नाश और संतों की रक्षा करने के लिए तथा जीवों को परम शांति और मुक्ति देने के लिए ही अवतीर्ण हुए हैं और इसी के लिए जगत में उनकी कीर्ति भी गाई जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्री वासुदेवजी को कहे ।
प्रभु असुरों का नाश करने के लिए और संतों की रक्षा करने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं । प्रभु जीवों को अपनी श्रीलीला के द्वारा परम शांति और मुक्ति देने के लिए अवतीर्ण होते हैं । अपने अवतार काल में प्रभु जो-जो मंगलकारी श्रीलीलाएं करते हैं उनकी जगत में कीर्ति गाई जाती है । प्रभु की कीर्ति का गान करने से जीव को जीवन में परम शांति मिलती है और अंत में मुक्ति मिलती है । इसलिए जीव को अपने जीवन में प्रभु के अवतार काल की कीर्ति का गुणगान करना चाहिए । प्रभु की श्रीलीलाओं को शास्त्रों ने, संतों ने और भक्तों ने गाया है और ऐसा करके सबको ऐसा करने के लिए प्रेरित भी किया है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने जीवन में प्रभु की श्रीलीलाओं का नित्य गान करे ।
प्रकाशन तिथि : 28 अगस्त 2017 |
980 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
स्वामी ! कर्मों के विकट फंदों से छूटने की इच्छा वाले मुमुक्षुजन भक्ति-भाव से अपने हृदय में जिसका चिंतन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमल को हम लोगों ने अपनी बुद्धि, इंद्रिय, प्राण, मन और वाणी से साक्षात नमस्कार किया है । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
जब प्रभु ने अपने अवतार काल के सभी कार्य पूर्ण कर लिए तो स्वर्ग से देवतागण प्रभु को स्वधाम पधारने के लिए प्रार्थना करने के लिए श्री द्वारकापुरी आए । जब उन्होंने अपने नेत्रों द्वारा प्रभु के रूप माधुर्य का दर्शन किया तो वह एकटक देखते रहे क्योंकि उनके नेत्र तृप्त नहीं हुए । देवतागणों ने प्रभु से कहा कि सांसारिक जीव अपने कर्मों के विकट फंदों से छूटने के लिए भक्ति भाव से प्रभु के जिन श्रीकमलचरणों का अपने हृदय में चिंतन करते हैं देवतागण भी अपनी बुद्धि, इंद्रिय, प्राण, मन और वाणी से प्रभु की उन्हीं श्रीकमलचरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हैं ।
देवतागणों ने यहाँ इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि जीव को सांसारिक कर्मों के फंदों से छूटने के लिए भक्ति भाव से अपने हृदय में प्रभु के श्रीकमलचरणों का चिंतन करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 28 अगस्त 2017 |
981 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जैसी श्रवण के द्वारा संपुष्ट शुद्धांतःकरण सज्जन पुरुषों की आपकी लीला कथा, कीर्ति के विषय में दिनों दिन बढ़कर परिपूर्ण होने वाली श्रद्धा से होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
देवतागण प्रभु से कहते हैं कि उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्मों से भी जीव की वैसी शुद्धि नहीं हो सकती जैसी प्रभु की श्रीलीला कथा और कीर्ति गान से होती है । प्रभु की श्रीलीला कथा और कीर्ति का गान दिनों दिन बढ़कर प्रभु के लिए परिपूर्ण श्रद्धा का निर्माण कर देती है । वर्तमान युग में कोई भी साधन उतने फलदाई नहीं है जितने प्रभु की श्रीलीला कथा का श्रवण और प्रभु के निर्मल कीर्ति का गान है । अलग-अलग युगों में अलग-अलग कर्मों की प्रधानता होती है । वर्तमान युग में प्रभु की श्रीलीला कथा का श्रवण और प्रभु की कीर्ति के गान की प्रधानता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की श्रीलीला कथा का श्रवण करे और प्रभु के निर्मल यश और कीर्ति का गान करे ।
प्रकाशन तिथि : 29 अगस्त 2017 |
982 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्रभो ! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं, विषय वासनाओं को भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप हो । यह अग्नि के समान हमारे पाप-तापों को भस्म कर दें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
प्रभु के श्रीकमलचरण हमारी समस्त अशुभ वासनाओं और हमारी समस्त विषय वासनाओं को भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप हैं । जैसे अग्नि अपने संपर्क में आने वाली सभी चीजों को जला देती है वैसे ही प्रभु अपने संपर्क में आने वाले जीवों के समस्त पाप और ताप को भस्म कर देते हैं । जीव के अंदर अशुभ वासनाएं होती हैं । जीव विषयी होता है इसलिए उसके भीतर भी विषय वासनाएं भी होती है । पर प्रभु के संपर्क में आने पर जीव की अशुभ वासनाएं और विषय वासनाएं दोनों ही नष्ट हो जाती है । प्रभु का संपर्क जीव को वासनाओं और पापों से मुक्त कर देता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि सदैव प्रभु के सानिध्य में ही रहे ।
प्रकाशन तिथि : 29 अगस्त 2017 |
983 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवन ! आपका वही पादपद्म हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताप धो-बहा दे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
देवतागण प्रभु से कहते हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरण भजन करने वालों के सारे पाप और ताप को धो डालते हैं और उन्हें बहा देते हैं । जीव के पाप और संसार के ताप जीव को तभी तक प्रभावित करते हैं जब तक वह प्रभु सानिध्य में नहीं जाता । भक्ति करके जो प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ले लेता है उसके सभी पाप प्रभु मूल से नष्ट कर देते हैं । संसार के ताप ऐसे भक्तों के लिए सदैव के लिए समाप्त हो जाते हैं । भक्ति के अभाव में जीव अपने पाप कर्मों को भोगता रहता है और संसार के तापों से ग्रस्त रहता है ।
संसार में हुए पाप और ताप से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि जीव को प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 30 अगस्त 2017 |
984 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ठीक वैसे ही आपके वश में हैं, जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामी के वश में होते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
देवतागण एवं ब्रह्मांड के समस्त प्राणी प्रभु के वैसे ही वश में है जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामी के वश में होते हैं । प्रकृति एवं प्राणी सभी प्रभु के अधीन है । जगत में ऐसा कोई नहीं जिसका नियंत्रण प्रभु नहीं करते । प्रभु सभी के स्वामी हैं एवं सभी के नियंत्रक हैं । जगत की सभी क्रियाओं के संचालक प्रभु हैं । जीव प्रभु के अधीन होने के कारण अपनी प्रत्येक क्रिया प्रभु की शक्ति से ही करता है । सभी को प्रभु की आज्ञा का पालन करना होता है । सभी प्रभु से बंधे हैं क्योंकि जगत के एकमात्र स्वामी प्रभु ही हैं ।
जीव को प्रभु के अधीन रहकर प्रभु का भजन करना चाहिए तभी उस का कल्याण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 30 अगस्त 2017 |