क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
889 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 82
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे उस भाव को प्राप्त हो गई, जो नित्य-निरंतर अभ्यास करने वाले योगियों के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में गोपियां प्रभु से मिली तो वे सभी भाव विभोर हो गई । गोपियों के परम प्रियतम और उनके जीवन के सर्वस्व प्रभु ही थे । प्रभु के दर्शन करते वक्त जब उनके नेत्रों की पलकें गिरती तो वे पलकों को कोसने लगती । वे प्रभु का क्षणमात्र का भी अदर्शन नहीं सह पाती क्योंकि उन्हें बहुत वर्षों के बाद प्रभु दर्शन का सौभाग्य मिला था । इसलिए प्रभु दर्शन की उनके मन में कितनी लालसा थी इसका अनुमान भी हम नहीं कर सकते । गोपियों ने अपने नेत्रों के रास्ते प्रभु को अपने हृदय में ले जाकर विराजमान किया और तन्मय हो गई । गोपियों ने उस परम भाव को प्राप्त किया जिसका नित्य-निरंतर अभ्यास करने पर भी योगियों को प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ होता है ।
प्रभु से प्रेम कैसे किया जाए यह गोपियों से सीखने योग्य है क्योंकि उनका प्रभु प्रेम अदभुत है ।
प्रकाशन तिथि : 04 जुलाई 2017 |
890 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 82
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सखियों ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम सब लोगों को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति कराने वाला है क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियों को अमृतत्व प्रदान करने में समर्थ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने गापियों से कहे ।
प्रभु गोपियों से कहते हैं कि यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गोपियों को प्रभु का वह प्रेम प्राप्त हुआ है जो प्रभु की प्राप्ति करवाने में सक्षम है । प्रभु गोपियों से कहते हैं कि प्रभु के लिए की गई प्रेमाभक्ति प्राणियों को परमानंद प्रदान करने में समर्थ है । गोपियों का प्रभु प्रेम प्रभु के वियोग में भी कभी कम नहीं हुआ । इसलिए गोपियों का प्रभु प्रेम एक आदर्श है जिसकी प्रशंसा यहाँ पर स्वयं प्रभु ने अपने श्रीमुख से की है । प्रभु के लिए हमारे हृदय में जागृत प्रेमाभक्ति ही हमें प्रभु प्राप्ति करवाने में सक्षम है । प्रभु के लिए प्रेमाभक्ति के अलावा प्रभु प्राप्ति का अन्य कोई उपाय है ही नहीं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने हृदय में प्रभु के प्रति प्रेमाभक्ति का भाव जागृत करे तभी वह प्रभु की प्राप्ति अपने जीवन में कर पाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 04 जुलाई 2017 |
891 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 82
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीच में, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने गोपियों से कहे ।
इस श्लोक में एक सिद्धांत का प्रतिपादन मिलता है । प्रभु स्वयं कहते हैं कि इस जगत में जितने भी पदार्थ हैं उनके पहले, उनके पीछे, उनके बीच में, उनके बाहर और उनके भीतर केवल और केवल प्रभु ही हैं । प्रभु के अलावा जगत में अन्य कुछ भी नहीं है । जगत में जो कुछ भी है वह प्रभुमय है । प्रभु इतने सर्वव्यापक हैं कि प्रभु के अलावा जगत में अन्य किसी भी चीज का अस्तित्व है ही नहीं । जगत में जो भी दृष्टिगोचर हो रहा है वह प्रभु का ही स्वरूप है । संतों और भक्तों ने जगत को प्रभुमय जाना और प्रभुमय माना है । उनका प्रत्यक्ष अनुभव है कि जगत में प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं क्योंकि उन्हें कण-कण में प्रभु के दर्शन हुए हैं ।
जगत को प्रभुमय मानकर ही जगत से व्यवहार करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 05 जुलाई 2017 |
892 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 82
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग संसार के कुएं में गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकालने के लिए आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलंबन हैं । प्रभो ! आप ऐसी कृपा कीजिए कि आपके वे चरणकमल, घर-गृहस्थी के काम करते रहने पर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदय में विराजमान रहे, हम एक क्षण के लिए भी उन्हें न भूलें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
जो लोग संसार सागर में डूबे हुए हैं उन्हें वहाँ से निकालने के लिए प्रभु के श्रीकमलचरण ही एकमात्र अवलंबन हैं । गोपियां प्रभु से कहतीं हैं कि प्रभु ऐसी कृपा करें कि घर गृहस्थी का काम करते रहने पर भी सदा सर्वदा प्रभु के श्रीकमलचरण उनके हृदय पटल पर विराजमान रहें और क्षण भर के लिए भी प्रभु का विस्मरण नहीं हो । गोपियों की प्रभु से की गई यह प्रार्थना सभी जीवों को करनी चाहिए कि प्रभु ऐसी कृपा करें कि हम प्रभु को संसार में रहते हुए भी क्षणभर के लिए भी नहीं भूले । जीव सबसे बड़ी गलती यही कर बैठता है कि वह संसार में उलझकर प्रभु को ही भूल जाता है । यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है और इस कारण ही वह दुःख और विपत्ति में फंसता है और संसार सागर में और अधिक उलझता ही जाता है ।
गोपियों की तरह प्रभु से ऐसी कृपा मांगनी चाहिए कि संसार में रहकर भी हम संसार के परमपिता को नहीं भूले ।
प्रकाशन तिथि : 05 जुलाई 2017 |
893 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का दर्शन करने से ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में जो भी प्रभु से मिले प्रभु ने उन पर महान अनुग्रह किया । प्रभु ने सबका सत्कार किया और सबका कुशल मंगल पूछी । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु का कुशल मंगल पूछना एक लौकिक चर्या थी क्योंकि प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन मात्र से ही सभी के सारे अशुभ स्वतः ही नष्ट हो चुके थे और सब कुशल हो गए । प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन का प्रभाव है कि वह दर्शनार्थी के सारे अशुभों को तत्काल ही नष्ट कर देते हैं । इसलिए ऋषि, संत और भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों के नित्य दर्शन की लालसा रखते हैं ।
जीव को भी प्रभु के विग्रह में प्रभु के श्रीकमलचरणों का सदैव दर्शन करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 जुलाई 2017 |
894 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उसी रस को जो लोग अपने कानों के दोनों में भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमंगल की आशंका ही क्या है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु की श्रीलीला कथा के रूप में जो रस छलकता है वह इतना दिव्य और अदभुत होता है कि जो भी प्राणी उसका रसपान कर लेता है उसकी अविद्या नष्ट हो जाती है और वह जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूट जाता है । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु की कथा के दिव्य रस को जो अपने कानों के दोने बनाकर भर-भर कर पीता है उसके अमंगल की आशंका ही नहीं बचती । जो प्रभु की श्रीलीला कथा का श्रवण करता रहता है उसका कभी भी अमंगल नहीं हो सकता । प्रभु की श्रीलीला कथा आनंद का समुद्र तो है ही पर साथ ही अमंगल को हरने वाली भी है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि नित्य जीवन में प्रभु की श्रीलीला कथा सुनने का अभ्यास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 जुलाई 2017 |
895 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान के वे ही समस्त संपत्ति और सौंदर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिए प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती रुक्मिणी माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
भगवती रुक्मिणी माता कहतीं हैं कि उनकी यही अभिलाषा है कि प्रभु के श्रीकमलचरण जो की समस्त संपत्ति और सौंदर्य का आश्रय है, वे उन्हें जन्मों-जन्मों तक प्राप्त होते रहे । वे प्रभु के श्रीकमलचरणों की जन्मों-जन्मों तक आराधना करती रहें । उन्हें प्रभु के श्रीकमलचरणों का जन्मों-जन्मों तक सेवा करने का सौभाग्य मिलता रहे । प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा से बड़ी उपलब्धि जीव के लिए अन्य कुछ भी नहीं है । जीव को प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा का सौभाग्य मिले इसका प्रयास उसे जीवन में करना चाहिए । प्रभु से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु की ऐसी कृपा हो कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करने का नित्य अवसर उसके जीवन में उपस्थित होता रहे ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा बड़े सौभाग्यशाली जीव को ही प्राप्त होती है ।
प्रकाशन तिथि : 07 जुलाई 2017 |
896 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती जाम्बवती माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
भगवती जाम्बवती माता कहतीं हैं कि वे तो यही चाहती हैं कि वे जन्मों-जन्मों तक प्रभु की दासी बनी रहें । प्रभु का दास या दासी बनना सबसे गौरव की बात है । जो भी प्रभु का दास या दासी बनकर रहा है उसने जीवन में प्रभु की कृपा पाई है और जीवन में मान पाया है । भक्त शिरोमणि प्रभु श्री हनुमानजी इसके जीवंत उदाहरण हैं । इसलिए जीवन में प्रभु के दास या दासी बनकर रहना ही श्रेयस्कर है । इसका एक और फायदा यह है कि इससे हमारे भीतर कभी अहंकार नहीं पनपता । अहंकार रहित जीवन व्यतीत करके जीव को अगर प्रभु का प्रिय बनना है तो उसे प्रभु के दास या दासी बनकर ही जीवन जीना चाहिए ।
इसलिए जीवन में प्रभु के दासत्व का भाव स्वीकार करना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
प्रकाशन तिथि : 07 जुलाई 2017 |
897 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पांव पखारने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती मित्रविंदा माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
भगवती मित्रविंदा माता कहतीं हैं कि वे चाहती हैं कि जन्मों-जन्मों तक प्रभु के श्रीकमलचरण पखारने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त होता रहे । किसी भी रूप में प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा संसार में सबसे पुण्यदायक है । सभी ऋषि, संत और भक्त सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा में रहना चाहते हैं । यहाँ पर तो स्वयं भगवती मित्रविंदा माता ने अपनी इच्छा व्यक्त की है कि उन्हें प्रभु का नित्य अनुग्रह प्राप्त हो और प्रभु उन्हें अपने श्रीकमलचरणों की सेवा में नियुक्त रखें । माता कहतीं हैं कि उनकी यही अभिलाषा है कि एक जन्म नहीं बल्कि जन्मों-जन्मों तक प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करने का सौभाग्य उन्हें मिलता रहे ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा पाने के लिए सभी लालायित रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 09 जुलाई 2017 |
898 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती सत्या माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
भगवती सत्या माता कहतीं हैं कि उनकी यही अभिलाषा है कि प्रभु की सेवा का अवसर उन्हें सदा सर्वदा प्राप्त होता रहे । जीव के लिए जीवन में प्रभु सेवा का सौभाग्य पाना इतना दुर्लभ है कि सच्चा भक्त नित्य निरंतर यही अभिलाषा रखता है कि कब प्रभु सेवा का अवसर उसके जीवन में उपस्थित हो । माता भी यही अभिलाषा रखतीं हैं कि उन्हें नित्य प्रभु सेवा का अवसर मिलता रहे । माता ऐसा करके जगत को बताना चाहतीं हैं कि प्रभु सेवा से बढ़कर संसार में अन्य कुछ भी नहीं है । इसलिए जीवन में प्रभु सेवा का अवसर कभी भी चूकना नहीं चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु सेवा में अपने जीवन को समर्पित करे ।
प्रकाशन तिथि : 09 जुलाई 2017 |
899 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूँ कि कर्म के अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ भी जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती भद्रा माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
भगवती भद्रा माता कहतीं हैं कि जीव का परम कल्याण इसी में हैं कि उसे जहाँ-जहाँ भी जन्म लेना पड़े, सर्वत्र प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा प्राप्त हो । प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा से बढ़कर जगत में कुछ भी नहीं है । इसलिए माता कहतीं हैं कि हर जन्म में उन्हें प्रभु का यही अनुग्रह चाहिए कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करने का अधिकार प्राप्त हो जाए । जीव का भी परम कल्याण इसी में है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा उसे हर जन्म में प्राप्त होती रहे । यह बड़े पुण्य और भाग्य से ही संभव होता है कि हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा जीवन में प्राप्त हो ।
इसलिए जीव को प्रभु से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु की सेवा का अवसर उसे जीवन में मिलता रहे ।
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2017 |
900 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
रानीजी ! हमने पूर्व जन्म में सबकी आसक्ति छोड़कर कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी । तभी तो हम इस जन्म में आत्माराम भगवान की गृह-दासियां हुई हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती लक्ष्मणा माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
भगवती लक्ष्मणा माता कहतीं हैं कि उन्हें विश्वास है कि पूर्व जन्म में उन्होंने कोई बहुत बड़ा साधन किया होगा तभी इस जन्म में उन्हें प्रभु की दासी बनने का सौभाग्य मिला । इससे एक सिद्धांत का प्रतिपादन होता है कि जीव का इस जन्म का प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति उसे जन्मों-जन्मों के साधन के फलस्वरूप ही प्राप्त होती है । प्रभु का दास बनना बड़ा दुर्लभ है और बिना पूर्व जन्मों के साधन के यह होना संभव नहीं है । इसलिए जीव को बड़ी सावधानी के साथ प्रभु की भक्ति करते हुए प्रभु का दास बनकर रहना चाहिए ।
जीव को इस जन्म में भी प्रभु का दास बनकर भक्ति का साधन निरंतर करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2017 |
901 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 83
श्लो 41-42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हम साम्राज्य, इंद्रपद अथवा इन दोनों के भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्मा का पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियां, कुछ भी नहीं चाहती । हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभु के सुकोमल चरणकमलों की वह श्रीरज सर्वदा अपने सिर पर वहन किया करें ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु की सोलह हजार पत्नियों की तरफ से भगवती रोहिणी माता ने भगवती द्रौपदीजी को कहे ।
वे कहतीं हैं कि उन्हें ब्रह्माण्ड का साम्राज्य, श्रीइंद्रपद अथवा इन दोनों का भोग या ऐश्वर्य नहीं चाहिए । वे कहतीं हैं कि उन्हें प्रभु श्री ब्रह्माजी का पद या मोक्ष और मुक्तियां भी नहीं चाहिए । वे केवल इतना चाहतीं हैं कि उनके प्रियतम प्रभु के सुकोमल श्रीकमलचरणों की श्रीरज सदा सर्वदा वे अपने सिर पर धारण किया करें । उनका मन सदा सर्वदा प्रभु के श्रीकमलचरणों का चिंतन करता रहे । जन्म-मृत्यु रूपी संसार से सदैव के लिए मुक्त होने का यही एकमात्र साधन है । जगत में प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा और प्रभु के श्रीकमलचरणों की श्रीरज की महिमा से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है ।
इसलिए जीव का चाहिए कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का नित्य चिंतन किया करें ।
प्रकाशन तिथि : 12 जुलाई 2017 |
902 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 84
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यंत मुग्ध, अत्यंत विस्मित हो गई । सबके नेत्रों में प्रेम के आंसू छलक आए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु की आठ पटरानियों और सौलह हजार रानियों का व्यक्त किया प्रभु के लिए प्रेम को सुनकर तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में भगवती कुंतीजी, भगवती द्रौपदीजी, भगवती सुभद्राजी एवं अन्य राजपत्नियों और गोपियों को अत्यंत आनंद हुआ । सच्चा प्रेम यही होता है कि जिनसे हम प्रेम करते हैं उनसे कोई दूसरा भी उतना प्रेम करता है यह जान कर हमें अत्यंत आनंद हो और उस प्रेमी के लिए हमारे मन में सम्मान बढ़ जाए । प्रभु की रानियों का प्रभु के लिए प्रेम देखकर सभी अत्यंत मुग्ध हो गए और सभी के नेत्रों से प्रेम के आंसू छलक पड़े ।
प्रभु के प्रेमी भक्त जब आपस में प्रभु के लिए प्रेम की चर्चा करते हैं तो वे भाव विभोर हो जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 12 जुलाई 2017 |
903 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 84
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गए । वास्तव में सबके परम फल आप ही हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में प्रभु के दर्शन को आए ऋषियों ने प्रभु से कहे ।
ऋषिगण कहते हैं कि प्रभु से मिलकर आज उनका जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गया । ऋषियों ने प्रभु से कहा कि सब साधनों के परम फल प्रभु ही हैं । सभी साधन मार्ग हमें प्रभु तक ही ले जाते हैं । सभी साधन मार्गों से प्राप्त करने योग्य केवल प्रभु ही हैं । इसलिए सभी साधन केवल प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाने चाहिए । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही साधन करे । साधन की पूर्णता होने पर प्रभु मिलते हैं जिससे हमारा जन्म, हमारी विद्या, हमारा तप और हमारा ज्ञान सफल हो जाता है ।
इसलिए जीव को साधन मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 13 जुलाई 2017 |
904 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 84
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यंत परिपक्व योग-साधना के द्वारा आपके उन चरणकमलों को हृदय में धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशि को नष्ट करने वाले गंगाजल के भी आश्रय स्थान हैं । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में प्रभु के दर्शन को आए ऋषियों ने प्रभु से कहे ।
बड़े-बड़े ऋषि मुनि अत्यंत परिपक्व साधना के द्वारा प्रभु के श्रीकमलचरणों को अपने हृदय में धारण करते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरण समस्त पाप राशि को नष्ट करने वाले है । प्रभु के श्रीकमलचरण भगवती गंगा माता का आश्रय स्थान है । ऋषिगण कहते हैं कि आज बड़े सौभाग्य की बात है कि प्रभु के उन्हीं श्रीकमलचरणों के दर्शन उन्हें प्राप्त हुए हैं । ऋषिगण कहते हैं कि वे प्रभु के भक्त हैं इसलिए प्रभु उन पर अनुग्रह करें और भक्ति के द्वारा उन्हें परम पद की प्राप्ति हो ।
भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा है और ऋषिगण भी प्रभु से भक्ति का ही अनुग्रह प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 13 जुलाई 2017 |
905 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 84
श्लो 69 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
नंदबाबा, गोपों और गोपियों का चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करने पर भी उसे वहाँ से लौटा न सके । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
तीर्थक्षेत्र श्रीकुरुक्षेत्र में जब बृजवासियों का प्रभु के साथ कई महीनों तक निवास करने के बाद अंत में विदाई की बेला आई तो प्रयत्न करने के बाद भी वे अपने मन को प्रभु से नहीं लौटा सके । बृजवासियों का मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में अटक गया । वे शरीर से तो श्रीबृज गए पर अपने मन को प्रभु के पास सुरक्षित रखा । इस दृष्टांत से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए कि हमारा शरीर चाहे संसार में रहे पर मन सदैव प्रभु में ही लगा रहना चाहिए । हमारा मन सदैव प्रभु के पास ही रहना चाहिए । प्रभु हमसे धन, संपत्ति की मांग नहीं करते, प्रभु केवल हमसे हमारे मन की मांग करते हैं । मन से जो प्रभु का हो जाता है प्रभु भी उसके हो जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपना मन सदैव प्रभु को समर्पित करके रखे ।
प्रकाशन तिथि : 14 जुलाई 2017 |
906 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री भी तुम्हीं हो । इस सारे जगत के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीड़ा के लिए इसका निर्माण हुआ है । यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ भी रहता है, होता है, वह सब तुम्हीं हो । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री वसुदेवजी ने प्रभु से कहे ।
श्री वसुदेवजी ने बड़े-बड़े ऋषियों से प्रभु की महिमा सुनी थी । श्री वसुदेवजी ने प्रभु के ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी सुने थे । इसलिए उन्हें पक्का विश्वास था कि प्रभु स्वयं परमात्मा हैं । इसलिए उन्होंने प्रभु की स्तुति में यह वचन कहे । वे कहते हैं कि प्रभु जगत के आधार हैं और जगत के निर्माता हैं । जिससे जगत निर्माण हुआ है वह निर्माण सामग्री भी प्रभु ही हैं । प्रभु सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं और प्रभु की क्रीड़ा के लिए ही प्रभु ने जगत का निर्माण किया है । जिस समय जिस रूप में जो कुछ भी जगत में होता है वह भी प्रभु ही करते हैं । जगत का निर्माण करके आत्मरूप से प्रभु ने ही जगत में प्रवेश किया है । संपूर्ण जगत का पालन पोषण भी प्रभु ही करते हैं ।
इसलिए ऋषियों, संतों और भक्तों ने जगत को प्रभुमय ही देखा और अनुभव किया है ।
प्रकाशन तिथि : 14 जुलाई 2017 |
907 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परमेश्वर ! मुझे शुभ प्रारब्ध के अनुसार इंद्रियादि की सामर्थ्य से युक्त अत्यंत दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ, किंतु तुम्हारी माया के वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गई ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री वसुदेवजी ने प्रभु से कहे ।
श्री वसुदेवजी कहते हैं कि उन्हें शुभ प्रारब्धवश इंद्रियों से समर्थ अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है । परंतु माया के वश में होकर वे सच्चे परमार्थ से असावधान हो गए और इस तरह उनकी बहुत सारी आयु व्यर्थ व्यतीत हो गई । जीव के साथ भी यही होता है कि उसे अत्यंत दुर्लभ मानव जीवन के उद्देश्य का ही पता नहीं होता है । वह माया में फंसा रहता है और असावधान रहता है और अपनी आयु को व्यर्थ गंवा देता है । मानव जीवन का सच्चा उद्देश्य प्रभु प्राप्ति है । मानव जीवन पाकर अगर प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकी तो यह जीवन व्यर्थ चला गया, ऐसा ही समझना चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने मानव जीवन के सही उद्देश्य को पहचाने और उस मार्ग पर प्रगति करे ।
प्रकाशन तिथि : 15 जुलाई 2017 |
908 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल ! मैं अब तुम्हारे चरणकमलों की शरण में हूँ, क्योंकि वे ही शरणागतों के संसारभय को मिटाने वाले हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री वसुदेवजी ने प्रभु से कहे ।
यह शरणागति का श्लोक है । श्री वसुदेवजी कहते हैं कि प्रभु दीनजनों के परम हितैषी हैं और शरणागतवत्सल हैं । श्री वसुदेवजी कहते हैं कि अब वे प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करते हैं । प्रभु अपनी शरण में आए हुए जीव के सांसारिक भय को मिटाने वाले हैं । प्रभु के अलावा हमारा सांसारिक भय कोई नहीं मिटा सकता । संसार के दुःख और कष्ट जीव को जकड़ कर रखते हैं । उनसे छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि प्रभु की शरणागति ग्रहण की जाए । प्रभु की शरणागति से सरल कोई मार्ग नहीं है जिससे हम संसार के कष्ट, दुःख और भय से मुक्त हो सकें ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की पूर्ण शरणागति ग्रहण करके अपना मानव जीवन व्यतीत करे ।
प्रकाशन तिथि : 15 जुलाई 2017 |
909 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सब लोग तुम्हारी कीर्ति का ही गान करते रहते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री वसुदेवजी ने प्रभु से कहे ।
श्री वसुदेवजी कहते हैं कि प्रभु की कीर्ति का गान सभी लोग करते रहते हैं । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु की कीर्ति के गान से बड़ा पुण्य संसार में अन्य नहीं है । इसलिए वेदों, शास्त्रों और पुराणों ने प्रभु की कीर्ति का गान किया है । यही कारण है कि ऋषियों, संतों और भक्तों ने भी प्रभु की कीर्ति का गान किया है । प्रभु की कीर्ति के गान के लिए मंत्र, श्लोक, स्तुति और भजन की रचना हुई है जो आज के जनमानस को उपलब्ध हैं । प्रभु का कीर्ति गान हमारे सभी पातकों को नष्ट करने में एकमात्र सक्षम है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की कीर्ति का नित्य गान करे और इसके लिए जो भी मंत्र, श्लोक, स्तुति और भजन उसे प्रिय लगे उसका उपयोग करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 16 जुलाई 2017 |
910 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
लोकाभिराम राम ! तुम्हारी शक्ति मन और वाणी के परे है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती देवकीजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु की शक्ति हमारी वाणी से परे है । प्रभु की शक्ति इतनी असीम है कि वह हमारी वाणी का विषय नहीं है । हम अपनी वाणी से प्रभु की शक्ति का वर्णन नहीं कर सकते । संसार में जो भी शक्ति कार्य कर रही है वह सभी प्रभु की है । प्रभु की शक्ति से ही अनेकों अनेक ब्रह्माण्ड चलते हैं । शास्त्रों ने भी प्रभु की शक्ति को असीम माना है और उसका वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ माना है । जैसे कोई व्यक्ति असंभव प्रतीत होने वाले पृथ्वी माता के धूलि कण को गिन भी ले फिर भी वह व्यक्ति प्रभु की शक्ति का वर्णन नहीं कर सकता । ऋषियों, संतों और भक्तों ने भी यही माना है और स्वीकार किया है कि वे अपनी वाणी से प्रभु की अदभुत और असीम शक्ति का बखान नहीं कर सकते ।
प्रभु की शक्ति असीम और अदभुत है और पूरा ब्रह्माण्ड उससे ही गतिमान है ।
प्रकाशन तिथि : 16 जुलाई 2017 |
911 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परीक्षित ! भगवान के चरणों का जल ब्रह्मापर्यंत सारे जगत को पवित्र कर देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब भगवती देवकी माता की कंस के द्वारा मारी गई संतानों को वापस लाने की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए प्रभु सुतल लोक गए तो वहाँ दैत्यराज श्री बलिजी ने प्रभु का भव्य स्वागत किया । प्रभु के भक्त दैत्यराज श्री बलिजी ने प्रभु को प्रणाम किया, श्रेष्ठ आसन पर बैठाया और प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारा । फिर उन्होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों के चरणोदक को परिवार सहित अपने सिर पर धारण किया । प्रभु के श्रीकमलचरणों का जल सारे जगत को पवित्र कर देता है । इसलिए जहाँ-जहाँ और जिस-जिस भक्त को अवसर मिला है उसने प्रभु के श्रीकमलचरणों के जल का सेवन किया है ।
भगवती गंगा माता भी प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकली हैं और सभी को पावन, पुनीत और पवित्र करती हैं ।
प्रकाशन तिथि : 17 जुलाई 2017 |
912 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 85
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदि को उनके चरणों में समर्पित कर दिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु के भक्त दैत्यराज श्री बलिजी ने सुतल लोक में प्रभु का खूब आदर सत्कार किया और विविध पूजन सामग्री से प्रभु का पूजन किया । प्रभु की पूजा करने के बाद उन्होंने अपने समस्त परिवार, धन और शरीर को प्रभु के श्रीकमलचरणों में सादर समर्पित कर दिया । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम भी रोजाना प्रभु का पूजन करते हैं पर क्या हम श्रेष्ठतम पूजन सामग्री से प्रभु का पूजन करते हैं और क्या हम पूजन के बाद अपने परिवार, धन, स्वयं के तन और स्वयं के मन को प्रभु को समर्पित कर पाते हैं । अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो ही हमारी पूजा प्रभु स्वीकार करेंगे और वह पूजा हमारे लिए लाभकारी होगी अन्यथा वह मात्र एक औपचारिकता बनकर रह जाएगी ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपना सब कुछ प्रभु को समर्पित करके प्रभु का पूजन करे और प्रभु का प्रिय बने ।
प्रकाशन तिथि : 17 जुलाई 2017 |