श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
865 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 74
श्लो 27
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपनी पत्‍नी, भाई, मंत्री और कुटुम्बियों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम और आनंद से भगवान के पांव पखारे तथा उनके चरणकमलों का लोकपावन जल अपने सिर पर धारण किया ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

पाण्‍डवों के राजसूय यज्ञ में अग्रपूजा के लिए प्रभु की पूजा हो ऐसा निर्णय हुआ । सबने एक स्‍वर में इसका समर्थन किया । धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी ने बड़े आनंद से प्रेमविभोर होकर प्रभु की पूजा की । धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी ने अपनी पत्‍नी, भाई, मंत्री और कुटुम्‍ब के सदस्‍यों के साथ मिलकर प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारा और प्रभु के श्रीकमलचरणों की धोवन को अपने सिर पर धारण किया । उस समय पाण्‍डवों के नेत्र प्रेम और आनंद के आंसुओं से इस प्रकार भर गए कि वे प्रभु के भली भांति दर्शन भी नहीं कर पाए । सभा में उपस्थित सभी ने प्रभु का जयकारा लगाया और आकाश से प्रभु पर पुष्‍पों की वर्षा होने लगी ।

प्रभु की अग्रपूजा कर पाण्‍डवों ने प्रभु के प्रति अपनी असीम श्रद्धा को जग जाहिर किया ।

प्रकाशन तिथि : 18 जून 2017
866 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 74
श्लो 46
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सच है, मृत्यु के बाद होने वाली गति में भाव ही कारण है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

दुष्‍ट शिशुपाल ने प्रभु की अग्रपूजा का विरोध किया और प्रभु के लिए गलत शब्‍दों का प्रयोग किया । प्रभु के लिए निंदा के शब्‍द सुनकर सबने शिशुपाल को युद्ध के लिए ललकारा क्‍योंकि प्रभु के लिए निंदा के शब्‍द सुनकर जो पुरजोर विरोध नहीं करता उसके सारे शुभकर्म नष्‍ट हो जाते हैं और वह अधोगति को प्राप्‍त होता है । पर प्रभु ने सबको शांत किया और शिशुपाल के सौ अपराध तक प्रभु चुप रहे । सौ अपराध पूरे होने पर प्रभु ने अपने श्रीसुदर्शन चक्र से शिशुपाल का सिर काट दिया । सभी के देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक ज्‍योति निकली और प्रभु में समा गई । बैर भाव के कारण भी क्‍यों न हो प्रभु का ध्‍यान करते-करते शिशुपाल प्रभु में तन्‍मय हो गया था इसलिए उसे मुक्ति मिल गई क्‍योंकि मृत्यु के बाद होने वाली गति में भाव ही प्रधान कारण होता है ।

प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि अपने को बैर के कारण भी याद करने वाले को मुक्ति प्रदान कर देते हैं ।

प्रकाशन तिथि : 18 जून 2017
867 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 75
श्लो 21
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
महाराज युधिष्ठिर के स्‍नान कर लेने के बाद सभी वर्णों एवं आश्रमों के लोगों ने गंगाजी में स्‍नान किया क्‍योंकि इस स्‍नान से बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशि से तत्‍काल मुक्‍त हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

इस श्‍लोक में भगवती गंगा माता का महात्म्य बताया गया है । महाराज श्री युधिष्ठिरजी ने राजसूय यज्ञ के बाद श्रीगंगाजी में स्‍नान किया और उनके बाद सभी वर्णों और आश्रमों के लोगों ने श्रीगंगाजी में स्‍नान किया । श्रीगंगाजी में स्‍नान से बड़े-से-बड़े महापापी भी अपनी पाप राशि से तत्‍काल मुक्‍त हो जाते हैं । भगवती गंगा माता प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकली हैं इसलिए उनमें पापों को नाश करने की अदभुत शक्ति है । जो भी शुद्ध अंतःकरण से भगवती श्रीगंगाजी को माता के रूप में स्‍मरण करके अपने पापों का प्रायश्चित करते हुए श्रीगंगाजी में स्‍नान करता है और माता की शरण में जाता है वह सर्वदा के लिए पाप मुक्‍त हो जाता है । उसके पुराने पातक सर्वदा के लिए नष्‍ट हो जाते हैं । भगवती गंगा माता की महिमा अपरंपार है ।

इसलिए भगवती श्रीगंगाजी में सर्वदा मातृ बुद्धि रखनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 19 जून 2017
868 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 75
श्लो 28
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान श्रीकृष्ण को भी रोक लिया, क्‍योंकि उन्‍हें उनके बिछोह की कल्‍पना से ही बड़ा दुःख होता था ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

राजसूय यज्ञ पूर्ण होने के बाद आए हुए सभी लोगों का यथोचित आदर सत्‍कार होने के बाद सबने महाराज श्री युधिष्ठिरजी से अनुमति लेकर अपने-अपने निवास स्‍थान के लिए प्रस्‍थान किया । परंतु जब प्रभु के श्रीद्वारकापुरी के लिए प्रस्‍थान की बेला आई तो श्री युधिष्ठिरजी ने प्रभु को रोक लिया क्‍योंकि प्रभु से वियोग की कल्‍पना मात्र से ही वे कांप उठे । प्रभु के संयोग के बाद वियोग सहना भक्‍त के लिए असहाय होता है क्‍योंकि प्रभु के वियोग में बड़ी वेदना होती है । श्री युधिष्ठिरजी इसकी कल्‍पना से भी कांप जाते थे । प्रभु उनके हृदय का भाव समझकर उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए और उन्‍हें आनंद देने के लिए उनके आग्रह पर कुछ समय के लिए वही रुक गए ।

अगर भाव है तो प्रभु अपने भक्‍तों की अभिलाषा जरूर पूर्ण करते हैं ।

प्रकाशन तिथि : 19 जून 2017
869 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 75
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार धर्मनंदन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान समुद्र को, जिसे पार करना अत्यंत कठिन है, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गए और उनकी सारी चिंता मिट गई ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि राजा श्री युधिष्ठिरजी के राजसूय यज्ञ और दिग्विजय करने के मनोरथ तो समुद्र के समान थे और जिसे पार करना अत्यंत कठिन था, उसे वे प्रभु की कृपा से अनायास ही पार कर गए । प्रभु की कृपा के कारण उनके सारे मनोरथ सफल हुए और उनकी सारी चिंताएं मिट गई । इस प्रकरण से यह बात सिद्ध होती है कि जीवन के किसी भी उद्योग में प्रभु को आगे रखने से वह सफल होता है । यह सिद्धांत है कि प्रभु को अपने जीवन की बागडोर पकड़ाने से ही हमें पूर्ण सफलता मिलती है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि अपने जीवन में सदैव प्रभु को आगे रखे तभी उसे निश्‍चित सफलता मिलेगी ।

प्रकाशन तिथि : 20 जून 2017
870 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 77
श्लो 32
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तथा आत्‍मसंबंधी अनंत ऐश्‍वर्य प्राप्‍त करते हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

बड़े-बड़े ऋषि मुनि प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करते हैं जिससे उन्‍हें ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होती है । इससे उनकी आत्‍मबुद्धि जागृत होने के कारण उनका अज्ञान मिट जाता है । ऐसा होने पर उन्‍हें आत्‍मसंबंधी अनंत ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । संसारी जीव संसारी ऐश्वर्य चाहता है और उसके लिए प्रयत्‍न करता है । संसारी जीव प्रभु से भी संसारी ऐश्वर्य ही मांगता है । पर ऋषि मुनि प्रभु से आत्‍मसंबंधी अनंत ऐश्वर्य मांगते हैं । आत्‍मा का ऐश्वर्य, संसारी ऐश्वर्य से बहुत बड़ा है । जो आत्‍मा के ऐश्वर्य में रम जाता है उसे फिर संसारी ऐश्वर्य बड़ा तुच्‍छ लगता है ।

जीव को भी प्रभु से आत्‍मसंबंधी ऐश्वर्य की ही कामना करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 20 जून 2017
871 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 02
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसी स्थिति में ऐसा कौन सा रसिक-रस का विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार बार पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण की मंगलमयी लीलाओं का श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु श्री शुकदेवजी को कहे ।

राजा श्री परीक्षितजी कहते हैं कि प्रभु की माधुर्य और ऐश्वर्य से भरी श्रीलीलाएं अनंत हैं । ऐसी स्थिति में कौन-सा रसिक होगा जो पवित्रकीर्ति प्रभु की मंगलमयी श्रीलीलाओं का बार-बार श्रवण नहीं करना चाहेगा । कोई भी भ‍क्‍त प्रभु की मंगलमयी कथा से कभी विमुख नहीं हो सकता । जब भी कोई रसिक भक्‍त प्रभु की श्रीलीला और कथा को बार-बार सुनता है उसमें से उसके लिए नए अर्थ प्रकट होते हैं और उसे बार-बार सुनने से पहले से भी ज्‍यादा आनंद मिलता है । इसलिए ऋषि, संत और भक्‍त नित्‍य निरंतर प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण करते रहते हैं । पापों से मुक्‍त होने का इससे बड़ा साधन अन्‍य कुछ भी नहीं है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की श्रीलीला और कथा का नित्‍य श्रवण करे और ऐसा करके अपने आपको पवित्र करे ।

प्रकाशन तिथि : 23 जून 2017
872 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 03
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो वाणी भगवान के गुणों का गान करती है, वही सच्‍ची वाणी है । वे ही हाथ सच्‍चे हाथ हैं, जो भगवान की सेवा के लिए काम करते हैं । वही मन सच्‍चा मन है, जो चराचर प्राणियों में निवास करने वाले भगवान का स्‍मरण करता है और वे ही कान वास्‍तव में कान कहने योग्‍य हैं, जो भगवान की पुण्‍यमयी कथाओं का श्रवण करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु श्री शुकदेवजी को कहे ।

यह मेरा एक प्रिय श्‍लोक है क्‍योंकि इसमें भक्ति का प्रतिपादन मिलता है । वही वाणी सच्‍ची वाणी है जो प्रभु के गुणों का गान करती है । इसलिए हमें अपनी वाणी को संसार की व्‍यर्थ चर्चा में नहीं लगाकर उसे प्रभु का यशगान करने में लगाना चाहिए । वही हाथ सच्‍चे हाथ हैं जो प्रभु की सेवा के लिए काम करते हैं । हम अपने हाथों से संसार के कार्य तो करते हैं पर प्रभु सेवा करना भूल जाते हैं । वही मन सच्‍चा मन है जो चराचर में निवास करने वाले प्रभु का स्‍मरण करता है । हमारा मन संसार का स्‍मरण करता है इसलिए दुःखी रहता है । वे ही कान वास्‍तव में कान कहलाने योग्‍य हैं जो प्रभु की पुण्यमयी कथाओं का श्रवण करते हैं । हमारे कान संसार की व्‍यर्थ बातों का श्रवण करते हैं और प्रभु के यशगान का श्रवण करना भूल जाते हैं ।

इसलिए जीव को अपने शरीर का प्रत्‍येक अंग प्रभु की सेवा में लगाना चाहिए तभी उसका मानव के रूप में जन्‍म लेना सफल होगा ।

प्रकाशन तिथि : 23 जून 2017
873 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 04
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वही सिर सिर है, जो चराचर जगत को भगवान की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्‍कार करता है और जो सर्वत्र भगवद् विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्‍तव में नेत्र हैं । शरीर के जो अंग भगवान और उनके भक्‍तों के चरणोदक का सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्‍तव में अंग हैं, सच पूछिए तो उन्‍हीं का होना सफल है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु श्री शुकदेवजी को कहे ।

राजा श्री परीक्षितजी कहते हैं कि वही सिर सिर है जो सर्वत्र प्रभु के दर्शन कर प्रभु को प्रणाम करने के लिए झुकता ही रहता है । वही नेत्र सच्ची दृष्टि वाले नेत्र है जो सर्वत्र प्रभु के दर्शन करते है । संतों ने तो यहाँ तक कहा है कि जो नेत्र प्रभु के दर्शन नहीं करते वे मोर के पंख में दिखने वाले नेत्रों की तरह नकली नेत्र हैं । शरीर का वही अंग वास्‍तव में अंग है जो प्रभु की सेवा करने का गौरव हासिल करता है । जो शरीर के अंग प्रभु की सेवा में नहीं लगते वे अंग व्‍यर्थ हैं ।

हमारा मस्‍तक सर्वदा प्रभु को प्रणाम करे, हमारे नेत्र सदैव प्रभु विग्रह के दर्शन करे और हमारे शरीर के अंग सदैव प्रभु सेवा में अर्पित रहे तभी हमें अपना मानव जीवन सफल समझना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 24 जून 2017
874 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 11
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलों का स्‍मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्‍तों को वे अपने आप तक का दान कर डालते हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु के प्रिय भक्‍त और सखा श्री सुदामाजी को उनकी पत्‍नी भगवती सुशीलाजी ने कहे ।

प्रभु अपने भक्‍तों के लिए उनकी इच्‍छाओं की पूर्ति करने वाले कल्‍पतरु के समान हैं । प्रभु शरणागतों को पिता की भांति प्रेम करने वाले हैं । प्रभु संतों और सत्‍पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं । प्रभु इतने उदार हैं कि जो उनकी शरण लेता है और उनके श्रीकमलचरणों का हृदय में स्‍मरण करता है प्रभु उन प्रेमी भक्‍तों को अपने स्‍वयं तक का दान दे देते हैं । प्रभु दानियों के शिरोमणि हैं और अपने प्रिय भक्‍तों के लिए स्‍वयं अपने आप तक का दान कर देते हैं । श्री सुदामाजी की तरह अगर भक्ति निष्‍काम है तो प्रभु ऐसे भक्तों पर स्‍वयं को ही न्यौछावर कर देते हैं ।

इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की निष्‍काम भक्ति करे और प्रभु से प्रभु को ही मांगे ।

प्रकाशन तिथि : 24 जून 2017
875 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसा कौन-सा पुण्‍य किया है, जिससे त्रिलोकी में सबसे बड़े श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्‍वयं इसका आदर-सत्‍कार कर रहे हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

प्रभु ने जब देखा कि श्री सुदामाजी आए हैं तो वे तुरंत उठ खड़े हुए और बड़े आदर और प्रेम से उन्‍हें अपनी बाहों में भर लिया । प्रभु अत्यंत आनंदित हुए और उनके कोमल श्रीनेत्रों से प्रेम के आंसू बरसने लगे । प्रभु ने अपने राजमहल के पलंग पर उन्‍हें बैठाया और स्‍वयं पूजन की सामग्री लाकर उनकी पूजा की । प्रभु ने बड़े आनंद से उनके चरणों को धोया और उनकी आरती उतारी । प्रभु को श्री सुदामाजी की सेवा करते देखकर भगवती रुक्मिणी माता भी चंवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगी । जब प्रभु और माता को महल में उपस्थित सभी लोगों ने श्री सुदामाजी की सेवा करते हुए देखा तो सभी ने श्री सुदामाजी का बहुत बड़ा पुण्‍य माना जिसके कारण त्रिलोकी के स्‍वामी उनका इतना आदर सत्‍कार कर रहे हैं ।

प्रभु अपने भक्‍तों की सेवा का कोई अवसर कभी नहीं चूकते ।

प्रकाशन तिथि : 25 जून 2017
876 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जगत में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्‍याग कर देते हैं ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने श्री सुदामाजी को कहे ।

प्रभु ने श्री सुदामाजी को कहा कि मैं जानता हूँ कि आपका चित्‍त गृहस्थी में रहने पर भी विषय भोग में आसक्‍त नहीं है । प्रभु कहते हैं कि मुझे मालूम है कि धन-संपत्ति से आपकी कोई प्रीति नहीं है । प्रभु कहते हैं कि जगत में ऐसे बिरले लोग ही होते हैं जो प्रभु की माया से निर्मित विषय संबंधी अपनी वासनाओं का त्‍याग कर देने में सक्षम हों । प्रायः सभी लोग विषय संबंधी वासनाओं में उलझे रहते हैं और इस उलझन में प्रभु को भूल जाते हैं । पर श्री सुदामाजी ने विषय संबंधी वासनाओं का त्‍याग कर केवल प्रभु का ही स्‍मरण किया ।

जीवन में हमें भी माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्‍याग कर केवल प्रभु का ही स्‍मरण करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 25 जून 2017
877 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 80
श्लो 34
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्रिय मित्र ! मैं सबका आत्‍मा हूँ । सबके हृदय में अंतर्यामी रूप में विराजमान हूँ । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने श्री सुदामाजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि वे ही सभी जीवों की आत्‍मा हैं । प्रभु कहते हैं कि वे ही अंतर्यामी के रूप में सबके हृदय में विराजमान हैं । सभी जीवों के अंदर प्रभु दृष्टा के रूप में रहते हैं । इसलिए कोई भी जीव अंतर्यामी प्रभु से कुछ भी छिपा नहीं सकता । हम जो भी मन, कर्म और वचन से सोचते और करते हैं उसको प्रभु दृष्टा के रूप में देखते हैं । इसलिए जीव को कुछ भी बुरा सोचना और करना नहीं चाहिए । जो प्रभु के भक्‍त होते हैं उन्‍हें अंतरात्मा की आवाज के रूप में प्रभु के निर्देश प्राप्‍त होते हैं । जितनी-जितनी हमारी भक्ति प्रबल होगी उतनी-उतनी अंतर्यामी प्रभु की आवाज हमें और भी स्‍पष्‍ट सुनाई देने लगेगी ।

भक्‍त सदैव सावधान रहता है और कभी भी ऐसा कोई कर्म नहीं करता जिससे अंतर्यामी प्रभु को कष्‍ट पहुँचे ।

प्रकाशन तिथि : 26 जून 2017
878 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 03
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे प्रेमी भक्‍त जब प्रेम से थोड़ी-सी वस्‍तु भी मुझे अर्पण करते हैं, तो वह मेरे लिए बहुत हो जाती है । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने श्री सुदामाजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि उनके प्रेमी भक्‍त जब प्रेम से उन्‍हें थोड़ी-सी भी वस्‍तु अर्पण करते हैं तो प्रभु उसे बहुत बड़ा मानते हैं । परंतु जब कोई अभक्‍त बहुत सी सामग्री भी प्रभु को भेंट करता है तो भी प्रभु उससे संतुष्‍ट नहीं होते । प्रभु को भेंट की हुई वस्‍तु का महत्‍व नहीं है पर भेंट करने के भाव का महत्‍व है । प्रभु कहते हैं कि जो प्रेमी भक्‍त फल, फुल या पत्‍ता, पानी भी उन्‍हें भाव से अर्पण करता है तो प्रभु उसे स्‍वीकार ही नहीं करते अपितु तत्‍काल उसका भोग लगा लेते हैं ।

इसलिए जीव को चाहिए कि भाव की प्रधानता से प्रभु की पूजा और सेवा करे तभी उसके द्वारा अर्पित वस्‍तु को प्रभु स्‍वीकार करेंगे ।

प्रकाशन तिथि : 26 जून 2017
879 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 09
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्‍त करने के लिए पर्याप्‍त हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने श्री सुदामाजी को कहे ।

जब प्रभु ने श्री सुदामाजी से पूछा कि वे उनके लिए क्‍या भेंट लाए हैं तो श्री सुदामाजी ने संकोच से अपना मुँह नीचे कर लिया और लज्‍जावश प्रभु के लिए लाए चार मुट्ठी चिउड़े प्रभु को नहीं दिए । प्रभु समस्‍त प्राणियों के हृदय के एक-एक संकल्‍प को जानने वाले हैं । प्रभु जान गए कि श्री सुदामाजी सोच रहे हैं कि स्‍वर्णनगरी श्रीद्वारकापुरी के राजमहल में सबके सामने अगर वे प्रभु को भेंट में लाए चार मुट्ठी चिउड़े देते हैं तो इससे प्रभु के मान की हानि होगी क्‍योंकि लोग मजाक उड़ाएंगे कि प्रभु का भक्‍त लाया भी तो क्‍या लाया । पर प्रभु ने पोटली में बंधे चिउड़े को खींच कर ले लिया और कहा कि यह चिउड़े न केवल प्रभु को बल्कि पूरे विश्‍व को तृप्‍त करने के लिए पर्याप्‍त हैं । प्रभु ने उन चिउड़े के बदले संकल्‍प किया कि श्री सुदामाजी को इतनी संपत्ति दूंगा जो देवताओं के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है ।

प्रभु भेंट की वस्‍तु को नहीं बल्कि उसको अर्पण करने के भाव को देखते हैं ।

प्रकाशन तिथि : 27 जून 2017
880 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 20
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
फिर भी परम दयालु श्रीकृष्ण ने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाए और मुझे न भूल बैठे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त विचार श्रीद्वारकापुरी से वापस लौटते वक्‍त श्री सुदामाजी के मन में आए ।

श्री सुदामाजी ने सोचा कि प्रभु स्‍वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी की संपत्ति और योग की सिद्धियां देने में एकमात्र सक्षम हैं । श्री सुदामाजी ने सोचा कि फिर भी परम दयालु प्रभु ने यह सोचकर उन्‍हें कुछ भी नहीं दिया कि कही यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाए और इस धन-संपत्ति के कारण प्रभु को ही न भूल बैठे । श्री सुदामाजी मंझे हुए उच्‍चकोटि के प्रभु के निष्काम भक्‍त थे इसलिए उन्‍होंने प्रभु के कुछ भी नहीं देने को भी प्रभु की असीम कृपा ही माना । उनके मन में प्रभु के लिए कोई भी विपरीत भावना नहीं आई । वे प्रसन्नता से अपने घर की ओर चलने लगे । संतजन इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह उनकी अंतिम परीक्षा थी जिसमें वे पूर्णरूप से उत्तीर्ण हुए ।

निष्‍काम भक्ति कैसे की जाती है यह श्री सुदामाजी के दृष्टांत में देखने को मिलता है और वह सीखने योग्‍य है ।

प्रकाशन तिथि : 27 जून 2017
881 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 35
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे प्‍यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा ! और उनका प्रेमी भक्‍त यदि उनके लिए कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त विचार श्री सुदामाजी के मन में आए ।

प्रभु ने प्रत्‍यक्ष रूप से श्रीद्वारकापुरी से विदा करते वक्‍त श्री सुदामाजी को कुछ भी नहीं दिया पर जब वे वापस अपने गांव पहुँचे तो उन्‍हें देने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी । देवताओं को भी नहीं मिल पाए इतनी असीम संपत्ति प्रभु ने श्री सुदामाजी को दी । उनकी संपत्ति का कोई पार नहीं पा सकता था । यह सब देखकर श्री सुदामाजी के मन में जो विचार आया उससे दो सिद्धांतों का प्रतिपादन होता है । पहला यह कि प्रभु देते तो बहुत हैं पर उसे मानते बहुत कम हैं । दूसरा यह कि प्रभु का प्रेमी भक्‍त अगर प्रभु के लिए कुछ छोटा-सा भी कर्म कर दे तो प्रभु उसे बहुत बड़ा मान लेते हैं । प्रभु की दयालुता देखें कि स्‍वयं जो भक्‍त को दिया उसे कम आंकते हैं और स्‍वयं जो भक्‍त से पाया उसे बहुत ज्‍यादा आंकते हैं ।

इसलिए ही प्रभु को करुणामय, दयामय और कृपामय कहा जाता है ।

प्रकाशन तिथि : 28 जून 2017
882 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सदा-सर्वदा उन्‍हीं गुणों के एकमात्र निवासस्‍थान महानुभाव भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग बढ़ता जाए । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त विचार श्री सुदामाजी के मन में आए ।

परिपक्‍व भक्‍त कैसा होता है यह यहाँ देखने को मिलता है । निष्‍कामता भक्‍त के जीवन में कैसे रहनी चाहिए यह भी यहाँ देखने को मिलता है । जब प्रभु ने देवताओं से भी ज्‍यादा ऐश्वर्य और संपत्ति श्री सुदामाजी को प्रदान की तो श्री सुदामाजी के मन में भोग विलास की इच्‍छा नहीं हुई । उन्‍होंने बस यही कामना की कि प्रभु की मित्रता और सेवा करने का अवसर उन्‍हें निरंतर प्राप्‍त होता रहे । उनका संकल्‍प था कि संपत्ति की उन्‍हें आवश्‍यकता नहीं है । उनकी एकमात्र इच्‍छा थी कि सदा सर्वदा प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनका अनुराग बढ़ता ही रहे । सच्‍चा भक्‍त प्रभु से केवल प्रभु की प्रीति और प्रभु की भक्ति ही मांगता है ।

हमें भी प्रभु से प्रभु के लिए प्रेम और प्रभु की भक्ति ही मांगनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 28 जून 2017
883 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 37
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अजन्‍मा भगवान श्रीकृष्ण संपत्ति आदि के दोष जानते हैं । वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियों का धन और ऐश्‍वर्य के मद से पतन हो जाता है । इसलिए वे अपने अदूरदर्शी भक्‍त को मांगते रहने पर भी तरह-तरह की संपत्ति, राज्‍य और ऐश्‍वर्य आदि नहीं देते । यह उनकी बड़ी कृपा है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त विचार श्री सुदामाजी के मन में आए ।

प्रभु संपत्ति और ऐश्वर्य के दोषों को जानते हैं । प्रभु को पता है कि बड़े-बड़े धनियों का धन और ऐश्वर्य के अहंकार के कारण पतन हो जाता है । इसलिए प्रभु से अगर सच्‍चे भक्‍त कभी गलती से भी संपत्ति, राज्‍य और ऐश्वर्य मांग लेते हैं तो भी प्रभु कठोर बन कर उन्‍हें वे नहीं देते । जैसे एक माता को पता होता है कि उसके बच्‍चे के लिए क्‍या हितकारी है वैसे ही प्रभु को ज्ञात होता है कि सच्‍चे भक्‍त के लिए क्‍या हितकारी है । जैसे एक माता रोगी बच्‍चे को हलवा नहीं देती जिससे अपच हो सकती है वैसे ही प्रभु अपने सच्‍चे भक्‍तों को संपत्ति नहीं देते जिससे अहंकार हो सकता है । क्‍योंकि अहंकार प्रभु मिलन में सबसे बड़ी बाधा है । ‍

इसलिए अगर किसी सच्‍चे भक्‍त को प्रभु संपत्ति नहीं देते तो उसे प्रभु की यह असीम कृपा ही माननी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 29 जून 2017
884 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 81
श्लो 40
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... यद्यपि भगवान अजीत हैं, किसी के अधीन नहीं हैं, फिर भी वे अपने सेवकों के अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

पहली बात जो श्‍लोक में कही गई है वह यह कि प्रभु अजीत हैं यानी प्रभु को कोई भी जीत नहीं सकता । फिर भी प्रभु अपने भक्‍त से पराजित हो जाते हैं । प्रभु भक्‍त से पराजित होने में अपना गौरव मानते हैं । महाभारत के प्रसंग में प्रभु ने प्रतिज्ञा कि थी कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा । उनकी यह प्रतिज्ञा सुनकर उनके भक्‍त श्री भीष्‍मपितामह ने भी प्रतिज्ञा कर ली कि मैं प्रभु से शस्त्र उठवा कर रहूंगा । दोनों प्रतिज्ञाएं विपरीत थी इसलिए युद्ध में एक का टूटना निश्‍चित था । अपने भक्‍त का मान रखने के लिए प्रभु ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर शस्त्र उठाया । दूसरी बात जो श्‍लोक में कही गई है वह यह कि प्रभु किसी के अधीन नहीं हैं पर फिर भी प्रेमवश प्रभु अपने सेवकों के अधीन हो जाते हैं ।

प्रभु अपने प्रेमी भक्‍त को बड़ा मान देते हैं और उनके लिए प्रेमवश किसी भी हद तक जा सकते हैं ।

प्रकाशन तिथि : 29 जून 2017
885 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 82
श्लो 10
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उन्‍होंने अपने मन में यह संकल्‍प किया था कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में हमारी प्रेमाभक्ति बनी रहे । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

तीर्थों में क्‍या संकल्‍प करना चाहिए इसका दृष्टांत यहाँ देखने को मिलता है । सूर्यग्रहण लगने पर यदुवंशी श्रीद्वारकापुरी से श्री कुरुक्षेत्र तीर्थ में आए । तीर्थ में स्‍नान, दान, पुण्य करने के बाद उन्‍होंने संकल्‍प किया कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनकी प्रेमाभक्ति बनी रहे । वे प्रभु को अपना आदर्श और इष्‍टदेव मानते थे इसलिए प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनकी प्रीति निरंतर बनी रहे, ऐसा संकल्‍प उन्‍होंने किया । हमें भी तीर्थों में जाकर सभी कर्म करने के बाद यही संकल्‍प करना चाहिए कि हमारा अनुराग प्रभु के श्रीकमलचरणों में बढ़ता जाए । यही सच्‍चा संकल्‍प होता है और ऋषि, संत और भक्‍त ऐसा ही करते हैं ।

तीर्थों में निष्‍काम होना सबसे जरूरी है और जो तीर्थों में जाकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनुराग एवं प्रभु की निष्‍काम भक्ति मांगता है वही सर्वश्रेष्‍ठ होता है ।

प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2017
886 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 82
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे सब भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर परमानंद और शांति का अनुभव करने लगे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में प्रभु का श्रीबृज से आए गोप और गोपियों से मिलना हुआ । प्रभु के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनंद हुआ । सभी का हृदय आनंदित हुआ और मुख कमल खिल उठे । प्रभु सभी से बड़े प्रेम और आनंद से मिले एवं सभी का हालचाल पूछा । सभी के नेत्रों से आंसुओं की झड़ी बह निकली । उनका रोम-रोम खिल उठा । प्रेम के आवेग में उनकी बोलती बंद हो गई । सब-के-सब प्रभु को देख कर आनंद के समुद्र में डूब गए । सभी ने प्रभु के दर्शन पाकर परमानंद एवं परम शांति का अनुभव किया ।

जीव जब भी प्रभु से मिलता है उसका रोम-रोम खिल उठता है और वह परमानंद में मग्‍न हो जाता है ।

प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2017
887 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 82
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वेदों ने बड़े आदर के साथ भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति का गान किया है । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

वेदों और शास्त्रों ने बड़े आदर के साथ प्रभु की कीर्ति का गान किया है । वेदों ने और शास्त्रों ने प्रभु की पवित्र कीर्ति का गान करके जगत को अत्यंत पवित्र किया है । इसलिए जीव को चाहिए कि वेदों और शास्त्रों का श्रवण, चिंतन और मनन करें । स्‍वयं को पवित्र करने का इससे सर्वोत्तम साधन अन्‍य कुछ भी नहीं है । विपदा और संकट में फंसे जीव को विपदा और संकट से छूटने का यही एकमात्र उपाय है । ऋषि, संत और भक्‍त नित्‍य वेदों, शास्त्रोंऔर पुराणों का श्रवण, कथन, चिंतन और मनन करते रहते हैं ।

जीवन को अगर आनंद से भरना है तो प्रभु का कीर्ति गान इसका सर्वोच्च साधन है ।

प्रकाशन तिथि : 03 जुलाई 2017
888 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध)
अ 82
श्लो 31
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु आप लोगों के घर में सर्वव्‍यापक विष्‍णु भगवान मूर्तिमान रूप से निवास करते हैं, जिनके दर्शन मात्र से स्‍वर्ग और मोक्ष तक की अभिलाषा मिट जाती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन तीर्थक्षेत्र श्री कुरुक्षेत्र में आए लोगों ने महाराज श्री उग्रसेनजी को संबोधित करके कहे ।

प्रभु यदुवंशियों और राजा श्री उग्रसेनजी के साथ निवास करते थे । इसलिए लोग उनके भाग्‍य की सराहना करते थे कि साक्षात प्रभु का सदैव दर्शन उन्‍हें प्राप्‍त होता रहता है जो सबके लिए अत्यंत दुर्लभ है । वे कहते हैं कि प्रभु का एकमात्र दर्शन ही सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला है । प्रभु के दर्शन से स्‍वर्ग और मोक्ष तक की अभिलाषा मिट जाती है क्‍योंकि जीव में भक्ति का संचार हो जाता है । जीव की प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रीति हो जाती है । वैसे तो संसार के जीव गृहस्थी के झंझटों में फंसे रहते हैं जो नर्क का मार्ग है पर प्रभु के सानिध्य पाने के कारण जीव का आकर्षण प्रभु में हो जाता है और उसमें प्रभु के लिए भक्ति भाव का संचार हो जाता है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपना संबंध प्रभु से जोड़कर रखे तभी वह उत्तम गति को प्राप्‍त कर पाएगा ।

प्रकाशन तिथि : 03 जुलाई 2017