क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
817 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 58
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वीर पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, उनके अंग-संग से इनके सारे पाप-ताप धुल गए । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब पाण्डव प्रभु कृपा से लाक्षाभवन की आग से बच गए तो प्रभु उनसे मिलने के लिए इंद्रप्रस्थ पधारे । जब पाण्डवों ने देखा कि उनके प्रिय प्रभु उनसे मिलने आए हैं तो जैसे प्राणों का संचार होने से इंद्रियां सचेत हो जाती हैं वैसे ही पाण्डव आनंदित हो उठे । उन्होंने अपने प्रिय प्रभु का आलिंगन किया और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया । प्रभु के श्रीअंग का स्पर्श होते ही पाण्डवों के सारे पाप और ताप नष्ट हो गए । यह सिद्धांत है कि जो भी प्रभु के हृदय से लगता है उसके पाप और ताप प्रभु हर लेते हैं ।
इसलिए जीव को प्रभु की इतनी भक्ति और प्रभु से इतना प्रेम करना चाहिए कि वह प्रभु के हृदय में स्थान पा सके ।
प्रकाशन तिथि : 23 मई 2017 |
818 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 58
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसा होने पर भी, श्रीकृष्ण ! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदय में आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परंपरा को सदा के लिए मिटा देते हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती कुंतीजी ने प्रभु से कहे ।
जब प्रभु भगवती कुंतीजी से मिले तो उन्होंने कहा कि प्रभु ने ही अनाथ पाण्डवों को सनाथ किया है । उन्होंने कहा कि प्रभु कृपा से ही पाण्डवों का कल्याण हुआ है । भगवती कुंतीजी ने कहा कि जो प्रभु का सदा स्मरण करते हैं प्रभु उनके हृदय के आकर बैठ जाते हैं और उनके दुःख और क्लेशों को सदा के लिए मिटा देते हैं । प्रभु का स्मरण जीवन में निरंतर हो यह बात अति आवश्यक है । जो ऐसा कर पाता है वह दुःख और क्लेश से सदा के लिए बच जाता है । जिस जीव के प्रभु स्मरण के कारण प्रभु उसके हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं वह सम्पूर्ण दुःख और क्लेश से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है ।
इसलिए जीवन में निरंतर प्रभु स्मरण होता रहे ऐसी व्यवस्था जीव को करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 23 मई 2017 |
819 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 58
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियों को घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री युधिष्ठिरजी ने प्रभु से कहे ।
जब प्रभु पाण्डवों से मिलने के लिए इंद्रप्रस्थ पधारे तो पाण्डवों ने प्रभु का खूब आदर सत्कार किया । श्री युधिष्ठिरजी ने प्रभु से कहा कि पता नहीं पाण्डवों ने पूर्व जन्म में या इस जन्म में कौन-सा कल्याण साधन किया है जो प्रभु साक्षात उन्हें दर्शन देने और कृतार्थ करने आए हैं । प्रभु के दर्शन बड़े-बड़े ऋषियों को भी बड़ी दुर्लभता से प्राप्त होते हैं और वे ही प्रभु घर बैठे पाण्डवों को दर्शन देकर उन पर कृपा करने आए हैं । पाण्डवों ने प्रभु का खूब आदर सम्मान किया और प्रभु से कुछ दिनों तक वहीं रुकने की प्रार्थना की । प्रभु ने पाण्डवों की भावना के अनुसार और इंद्रप्रस्थ के नर नारियों को कृतार्थ करने के लिए बरसात के चार मास पाण्डवों के साथ प्रवास किया ।
प्रभु अपने सच्चे भक्तों की भावना को सहर्ष स्वीकार करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 24 मई 2017 |
820 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 58
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अनाथों के एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती कालिंदी माता ने श्री अर्जुनजी से कहे ।
इंद्रप्रस्थ प्रवास के दौरान एक बार प्रभु और श्री अर्जुनजी वन में गए । वहाँ उन्होंने भगवती कालिंदी माता को तपस्या करते हुए देखा । श्री अर्जुनजी के पूछने पर भगवती कालिंदी माता ने बताया कि वे प्रभु को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रही हैं । उन्होंने कहा कि प्रभु अनाथों के एकमात्र सहारे हैं । यह सिद्धांत है कि अनाथों को सनाथ करने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । दूसरी बात जो भगवती कालिंदी माता ने कही वह यह कि प्रभु प्रेम का वितरण करने वाले हैं । प्रभु भक्तों से प्रेम चाहते हैं प्रेम के बदले भक्तों को प्रेम का वितरण करते हैं ।
जीव को भी प्रभु को ही अपना एकमात्र सहारा मानना चाहिए और प्रभु से ही निच्छल प्रेम करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 24 मई 2017 |
821 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 58
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियम से प्रसन्न होंगे ? वे तो केवल अपनी कृपा से ही प्रसन्न हो सकते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भावना भगवती सत्या माता ने प्रकट की ।
किसी जीव के द्वारा धर्म, व्रत और नियम पालन करने में वह क्षमता नहीं है कि वह प्रभु को प्रसन्न कर सके । प्रभु सिर्फ जीव पर अपनी कृपा के कारण ही प्रसन्न होते हैं । प्रभु जीव पर कृपा करते हैं तभी प्रभु उस जीव पर प्रसन्न होते हैं । जीव का सामर्थ्य नहीं कि वह प्रभु को अपने किसी भी धर्म पालन, अपने किसी भी व्रत या अपने किसी भी नियम पालन से प्रसन्न कर पाए । इसलिए जब भी प्रभु किसी जीव पर प्रसन्न हाते हैं तो उसे उस अपने ऊपर प्रभु की अत्यंत विलक्षण कृपा माननी चाहिए । प्रभु का प्रसन्न होना प्रभु की कृपा प्रसादी है, ऐसा मानना चाहिए ।
इसलिए जीव को अपने जीवन में प्रभु कृपा प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 मई 2017 |
822 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 59
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परीक्षित ! भगवान की शक्ति अमोघ और अनंत है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु की शक्ति अमोघ है । प्रभु की शक्ति वह कार्य करती है जो प्रभु चाहते हैं । प्रभु की शक्ति कभी विफल नहीं होती । प्रभु की शक्ति सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है । प्रभु की शक्ति अनंत है । प्रभु की शक्ति की कोई सीमा नहीं है । प्रभु की शक्ति इतनी अनंत है जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते । प्रभु की शक्ति अमोघ है और प्रभु की शक्ति अनंत है इन दोनों बातों को समझने के बाद हम प्रभु के प्रभाव को जान सकते हैं ।
इसलिए जीवन में सर्वशक्तिमान प्रभु को पाने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 मई 2017 |
823 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 59
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में भगवती पृथ्वी माता ने प्रभु को कहे ।
श्री गरुड़जी पर सवार होकर प्रभु और भगवती माता सत्यभामाजी प्रागज्योतिषपुर गए जहाँ प्रभु का भौमासुर के साथ भीषण युद्ध हुआ । युद्ध में जब प्रभु के द्वारा भौमासुर का उद्धार हुआ तो भगवती पृथ्वी माता प्रभु के पास आई और प्रभु की स्तुति करने लगी । भगवती पृथ्वी माता ने प्रभु को
बार-बार प्रणाम किया और जो वचन कहे वह ध्यान देने योग्य हैं । उन्होंने प्रभु से कहा कि प्रभु समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं । प्रभु से बड़ा ऐश्वर्यवान, धर्मशील, यशवान, संपत्तिवान, ज्ञानवान और वैराग्यवान विश्व में अन्य कोई नहीं है ।
प्रभु की महिमा अपार है और उसका कोई भी पार नहीं पा सकता ।
प्रकाशन तिथि : 26 मई 2017 |
824 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 59
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
शरणागत-भय-भंजन प्रभो ! ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त संबोधन भगवती पृथ्वी माता ने प्रभु को अपनी स्तुति में किया ।
प्रभु को किया यह संबोधन मुझे अति प्रिय है । संबोधन में कहा गया है कि प्रभु शरणागतों के भय का भंजन करने वाले हैं । प्रभु की शरण में जो भी आता है उसे प्रभु भय रहित कर देते हैं । प्रभु शरणागति का इतना बड़ा सामर्थ्य है कि जीव कितनी भी बड़ी विपदा में क्यों न फंसा हो प्रभु उसे बचा लेते हैं । प्रभु की शरणागति ग्रहण करने पर जीव कितने भी बड़े भय से ग्रस्त क्यों न हो प्रभु उसे तत्काल अभय कर देते हैं । शरणागतों की रक्षा करना और उसे अभय करने का प्रभु का सनातन व्रत है ।
इसलिए जीव को जीवन में सदैव प्रभु की पूर्ण शरणागति ग्रहण करके रखनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 26 मई 2017 |
825 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 59
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अपना वह करकमल रखिए जो सारे जगत के समस्त पाप-तापों को नष्ट करने वाला है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती पृथ्वी माता ने प्रभु से कहे ।
प्रभु ने जब युद्ध में भौमासुर का वध किया तो भगवती पृथ्वी माता भौमासुर के पुत्र भगदत्त को लेकर प्रभु के समक्ष गई । भौमासुर का पुत्र बड़ा भयभीत था । भगवती पृथ्वी माता इसलिए उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण में लेकर आई और उसकी रक्षा के लिए प्रभु से निवेदन किया । भगवती पृथ्वी माता ने प्रभु से कहा कि प्रभु अपने करकमल भगदत्त के सिर पर रख दें । भगवती पृथ्वी माता ने प्रभु से कहा कि प्रभु के करकमल सारे जगत के समस्त पापों को नष्ट करने में एकमात्र सक्षम हैं ।
यह स्पष्ट सिद्धांत है कि प्रभु के करकमलों की छाया में आने के बाद जीव के कोई भी पाप बचते नहीं हैं ।
प्रकाशन तिथि : 27 मई 2017 |
826 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 59
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिए सैकड़ों दासियां रहती, फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते, तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लाती, श्रेष्ठ आसन पर बैठाती, उत्तम सामग्रियों से पूजा करती, चरणकमल पखारती, पान लगाकर खिलाती, पांव दबाकर थकावट दूर करती, पंखा झलती, इत्र-फुलेल, चंदन आदि लगाती, फूलों के हार पहनाती, केश संवारती, सुलाती, स्नान कराती और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान की सेवा करती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने भौमासुर के बंदीगृह से सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त कराया । उन सभी राजकुमारियों ने अपने मन-ही-मन प्रभु को पति रूप में स्वीकार कर लिया था । इसलिए उन्हें संसार के कलंक से बचाने के लिए प्रभु ने करुणा करके उन सभी राजकुमारियों के साथ विधिपूर्वक विवाह किया ।
सभी सोलह हजार माताओं के श्रीद्वारकाजी में अलग-अलग महल थे और उनकी सेवा करने के लिए सैकड़ों दासियां रहती थीं । पर जब प्रभु उनके महल में पधारते थे तो वे स्वयं आगे आकर प्रभु का स्वागत करती । प्रभु को श्रेष्ठ आसन पर बैठाती, उत्तम सामग्रियों से प्रभु की पूजा करती । प्रभु के श्रीकमलचरण पखारती और उन्हें दबाकर प्रभु की थकावट दूर करती । प्रभु को पंखा करती और इत्र, फूल और चंदन से प्रभु का श्रृंगार करती । प्रभु को फूलों का हार पहनाती और प्रभु के केश संवारती । प्रभु को अनेक प्रकार के भोजन कराती । तात्पर्य यह है कि प्रभु की संपूर्ण सेवा अपने हाथों से करती ।
जीव को भी अपना जीवन प्रभु सेवा में अर्पित करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 27 मई 2017 |
827 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण आप ही सब कुछ हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु से कहे ।
भगवती रुक्मिणी माता कहती हैं कि प्रभु के अलावा अन्य और कुछ भी नहीं होने के कारण प्रभु ही उनके सब कुछ हैं । यह सिद्धांत भक्ति का है । एक भक्त प्रभु के अतिरिक्त जगत में कुछ भी नहीं देखता । भक्त की जहाँ भी दृष्टि जाती है उसको सब कुछ प्रभुमय ही दिखता है । वास्तव में शास्त्र भी यही कहते हैं कि कण-कण में प्रभु हैं और विश्व में प्रभु के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं । भक्त जब सब तरफ प्रभु को देखता है तो उसके सब कुछ प्रभु ही हो जाते हैं । वह प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही अपना प्रत्येक कर्म करता है । प्रभु की सेवा के अलावा उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता ।
संसार में हमें भी एकमात्र प्रभु को ही अपना सब कुछ मानना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 28 मई 2017 |
828 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जगत में जीव के लिए जितने भी वांछनीय पदार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उन सबके रूप में आप ही प्रकट हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु से कहे ।
जगत में जीव के लिए जो भी मिलने वाले पदार्थ हैं उन्हें प्रकट करने वाले प्रभु हैं । जगत में आने पर जीव चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहता है । इनको प्रकट करने वाले और इन्हें प्रदान करने वाले प्रभु ही हैं । बिना प्रभु की इच्छा के किसी भी जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नहीं मिल सकता । प्रभु की कृपा से ही जीव धर्म मार्ग पर चल सकता है, प्रभु की कृपा से ही जीव अर्थ कमा सकता है, प्रभु की कृपा से ही जीव अपनी कामनाओं की पूर्ति कर सकता है और प्रभु की कृपा से ही जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।
इसलिए जीव को चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले प्रभु की शरण में ही रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 28 मई 2017 |
829 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... विचारशील पुरूष आपको प्राप्त करने के लिए सब कुछ छोड़ देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु से कहे ।
भगवती रुक्मिणी माता कहती हैं कि विचारशील पुरुष प्रभु को प्राप्त करने के लिए सब कुछ छोड़ देते हैं । जो जीव विचार करके मानव जीवन के उद्देश्य और मानव जीवन के महत्व को समझ लेता है वह प्रभु प्राप्ति को ही अपना एकमात्र लक्ष्य बना लेता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह विचारशील पुरुष अन्य सब कुछ छोड़ देता है । श्रेष्ठ ऋषियों, संतों और भक्तों ने अपना जीवन दांव पर लगाकर प्रभु प्राप्ति का जीवन में प्रयास किया और उसमें सफलता पाई । प्रभु के अलावा संसार में प्राप्त करने योग्य और कुछ भी नहीं है । मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि प्रभु प्राप्ति ही है ।
इसलिए जीव को प्रभु प्राप्ति के लिए मानव जीवन में प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 29 मई 2017 |
830 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं । आप ही इस लोक और परलोक में समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाले एवं आत्मा हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु से कहे ।
प्रभु समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं । जगत की उत्पत्ति, संचालन और विलय प्रभु के द्वारा ही होता है । इसलिए जो जगत की उत्पत्ति, संचालन और विलय करते हैं वे प्रभु ही जगत के एकमात्र स्वामी हैं । प्रभु इहलोक और परलोक की हमारी समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाले हैं । जीव की कोई भी आशा प्रभु की कृपा के बिना पूर्ण नहीं हो सकती । जीव इहलोक में और परलोक के लिए बहुत सारी आशाएं रखता है । उसे अपने सामर्थ्य से पूर्ण करने की जीव की क्षमता नहीं होती । जीव की वह संपूर्ण इहलोक और परलोक की आशाएं प्रभु कृपा से ही पूर्ण होती है ।
इसलिए जीव को जगत के एकमात्र स्वामी प्रभु की भक्ति करनी चाहिए तभी प्रभु कृपा से उसकी समस्त आशाएं पूर्ण होगी ।
प्रकाशन तिथि : 29 मई 2017 |
831 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... फिर भी आपके चरणकमलों में मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु से कहे ।
भगवती रुक्मिणी माता कहती हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनका सुदृढ़ प्रेम हो यही उनकी अभिलाषा है । भक्त सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनुराग चाहता है । कितने जन्मों के भाग्य का जब उदय होता है तब जीव की इच्छा होती है कि उसका प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम हो अन्यथा जीव संसार से ही प्रेम करता है । प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम हो, इससे बड़ी अन्य कोई उपलब्धि हो ही नहीं हो सकती । मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि जीव का प्रभु के श्रीकमलचरणों में निश्छल प्रेम हो । उसी जीव का मानव जीवन धन्य है जिसका प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेम जागृत हो जाता है ।
इसलिए जीव को भक्ति करके प्रभु के श्रीकमलचरणों में अपना स्थान बनाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 30 मई 2017 |
832 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मुझसे की हुई अभिलाषाएं सांसारिक कामनाओं के समान बंधन में डालने वाली नहीं होती, बल्कि वे समस्त कामनाओं से मुक्त कर देती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता को कहे ।
भक्त जो प्रभु से अभिलाषा करता है वह उसे सांसारिक बंधन में डालने वाली नहीं होती है अपितु वह उसे मुक्त करने वाली होती है । सांसारिक कामनाएं हमें बंधन में डालने वाली होती है इसलिए भक्त प्रभु से कभी सांसारिक कामनाएं नहीं करता । प्रभु का सानिध्य भक्त को समस्त सांसारिक कामनाओं से मुक्त कर देता है । इसलिए प्रभु से हमें जो भी अभिलाषा रखनी चाहिए वह सांसारिक कामनाओं की न हो इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए । अगर हम इसका ध्यान नहीं रखते तो यह सांसारिक बंधन को निर्माण करने वाली कामनाएं हमारे भीतर जन्म ले लेंगी ।
इसलिए प्रभु की भक्ति कभी भी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए नहीं करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 30 मई 2017 |
833 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 52 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रिये ! मैं मोक्ष का स्वामी हूँ । लोगों को संसार-सागर से पार करता हूँ । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता को कहे ।
यह प्रभु के श्रीवचन हैं इसलिए इनका महत्व बहुत बड़ा है । प्रभु स्वयं अपने श्रीमुख से कहते हैं कि मैं मोक्ष का स्वामी हूँ । शास्त्रों ने, ऋषियों ने और संतों ने सदैव कहा है कि प्रभु मोक्ष के दाता हैं पर यहाँ पर स्वयं प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता से कहा है कि एकमात्र वे ही मोक्ष के दाता हैं । दूसरी बात जो प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता को कही है वह यह कि जीव को संसार सागर से पार करने वाले प्रभु ही हैं । कोई भी जीव अपनी क्षमता से संसार सागर पार नहीं हो सकता । प्रभु की कृपा होने पर ही प्रभु उसे संसार सागर के पार उतारते हैं ।
इसलिए जीव को जीवन में प्रभु कृपा अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 31 मई 2017 |
834 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषय सुख के साधन संपत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मंदभागी हैं क्योंकि विषय सुख तो नर्क में और नर्क के समान सूकर-कूकर आदि योनियों में भी प्राप्त हो सकते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो जीव प्रभु से केवल विषय सुख के साधन और संपत्ति की अभिलाषा रखते हैं और प्रभु की भक्ति नहीं चाहते वे बड़े मंदभागी हैं । विषय सुख को प्रभु ने नर्क की उपमा दी है और प्रभु ने कहा है कि विषय सुख तो सूकर और कूकर की योनियों में भी उपलब्ध हैं इसलिए मानव जन्म लेकर विषय सुख की अभिलाषा करने वाला जीव अपना निश्चित पतन करवाता है । मानव जीवन प्रभु की भक्ति करके प्रभु को प्राप्त करने के लिए मिला है । प्रभु प्राप्ति मानव योनि के अलावा अन्य किसी योनि में संभव नहीं है । इसलिए मानव जीवन को विषय सुख के पीछे कदापि व्यर्थ नहीं करना चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मानव जीवन का उपयोग प्रभु की भक्ति करके प्रभु की प्राप्ति के लिए करे ।
प्रकाशन तिथि : 31 मई 2017 |
835 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 60
श्लो 57 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे । हम इसका बदला नहीं चुका सकते । तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भाव का केवल अभिनंदन करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने भगवती रुक्मिणी माता को कहे ।
भगवती रुक्मिणी माता का प्रभु के लिए अद्वितीय प्रेम भाव था । प्रभु केवल प्रेम से ही वश में हो जाते हैं । प्रभु माता से कहते हैं कि तुम्हारा यह प्रेम भाव सदैव तुम्हारे अंदर बना रहे । प्रभु कहते हैं कि मैं प्रेम का बदला कभी नहीं चुका सकता । प्रभु कहते हैं कि वे माता के इस सर्वोच्च प्रेम भाव का केवल अभिनंदन करते हैं । भक्ति का यह सिद्धांत है कि भक्त प्रभु से जितना प्रेम करता है प्रभु उतना भक्त के वश में हो जाते हैं । प्रभु सदैव कहते हैं कि वे सिर्फ जीव से प्रेम की अपेक्षा रखते हैं । प्रभु ने गोपियों को भी कहा था कि वे उनके प्रेम का ऋण अनेकों जन्म लेकर भी नहीं चुका सकते ।
जगत में एकमात्र प्रेम करने योग्य तो सिर्फ प्रभु ही हैं ।
प्रकाशन तिथि : 01 जून 2017 |
836 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 62
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जिन लोगों के मनोरथ अब तक पूरे नहीं हुए हैं, उनको पूर्ण करने के लिए आप कल्पवृक्ष हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
इस श्लोक में देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी की महिमा बताई गई है । प्रभु श्री महादेवजी बड़े ही भक्तवत्सल हैं और शरणागतरक्षक हैं । प्रभु श्री महादेवजी सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देव हैं और सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं । असुरों ने भी प्रभु श्री महादेवजी की उपासना करके सदैव मनचाहा वर प्राप्त किया है । जिन लोगों के मनोरथ अब तक पूर्ण नहीं हुए उनको पूर्ण करने के लिए प्रभु श्री महादेवजी कल्पवृक्ष के समान है । प्रभु श्री महादेवजी की महिमा अपरंपार है और उनकी भक्ति करने वाला सचमुच धन्य होता है ।
प्रभु श्री महादेवजी की कृपा जिस जीव पर हो जाती है वह सब कुछ पा लेता है, संसार में उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होता ।
प्रकाशन तिथि : 01 जून 2017 |
837 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 63
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवन ! देहधारी जीवों को तभी तक ताप-संताप रहता है, जब तक वे आशा के फंदों में फंसे रहने के कारण आपके चरणकमलों की शरण नहीं ग्रहण करते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के श्रीकमलचरणों की छत्रछाया में रहने का महत्व इस श्लोक में बताया गया है ।
देहधारी जीवों को तभी तक संताप रहता है जब तक वे संसार की आशाओं में फंसे रहते हैं और प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण नहीं करते । प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करने पर जीव के सारे संताप नष्ट हो जाते हैं । इसलिए जीव को सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों की छत्रछाया में रहना चाहिए । संसार के दुःख और संताप से छूटने का यही एकमात्र उपाय है । प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरणागति के बिना संसार के ताप और संताप से मुक्त नहीं हुआ जा सकता ।
इसलिए जीव को सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों की छत्रछाया में रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 03 जून 2017 |
838 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 63
श्लो 41 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संसार के मानवों को यह मनुष्य-शरीर आपने अत्यंत कृपा करके दिया है । जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इंद्रियों को वश में नहीं करता और आपके चरणकमलों का आश्रय नहीं लेता, उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यंत शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री महादेवजी ने प्रभु श्रीकृष्णजी को कहे ।
यह मेरा एक अत्यंत प्रिय श्लोक है क्योंकि यह प्रभु के द्वारा कहा गया है और मानव जीवन का चित्रण यहाँ पर मिलता है । प्रभु ने अत्यंत कृपा करके संसार के मानवों को मनुष्य शरीर दिया है । जो यह मनुष्य शरीर पाकर अपनी इंद्रियों को वश में नहीं करता वह अपना जीवन व्यर्थ कर लेता है । मनुष्य शरीर पाकर जो प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय नहीं लेता और उनका सेवन नहीं करता वह अपना जीवन अत्यंत शोचनीय बना लेता है और स्वयं को धोखा देता है । मानव जीवन का सही उपयोग इंद्रिय सेवन नहीं अपितु प्रभु के श्रीकमलचरणों का सेवन है ।
इसलिए जीव को मानव जीवन में प्रभु के श्रीकमलचरणों की पूर्ण शरणागति ग्रहण करनी चाहिए तभी उसका मानव के रूप में जन्म सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 03 जून 2017 |
839 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 64
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसार के चक्कर से छुटकारा मिलने का समय आता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री नृगजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु का दर्शन तब होता है जब संसार के चक्कर से छूटने का समय आता है । प्रभु के दर्शन होने का अर्थ ही है कि जीव अपने सभी सांसारिक चक्करों से मुक्त हो जाता है । जब हमारे पुण्यों का उदय होता है तब प्रभु दर्शन होता है । प्रभु के दर्शन होते ही हमारे सारे पातक नष्ट हो जाते हैं । प्रभु के दर्शन से पाप नष्ट हो गए और प्रभु दर्शन से पुण्य का फल मिल गया तो जीव पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है । जब तक जीव पाप और पुण्य दोनों से मुक्त नहीं होता तब तक मोक्ष संभव नहीं है ।
इसलिए जब भी जीव को प्रभु दर्शन हो उसे मानना चाहिए कि उसके मुक्त होने का समय आ गया है ।
प्रकाशन तिथि : 04 जून 2017 |
840 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 64
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप ऐसी कृपा कीजिए कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलों में ही लगा रहे । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री नृगजी ने प्रभु से कहे ।
राजा श्री नृगजी बड़े दानी राजा थे और बहुत सारी गौ-माताओं का दान ब्राह्मणों को करते थे । एक बार गलती से उनके द्वारा किसी ब्राह्मण को दान दी हुई गौ-माता का दोबारा दान हो गया । मृत्यु के बाद श्री यमराजजी ने उनसे पूछा कि पहले वे पाप भोगना चाहेंगे या पुण्य । गलत गौ-माता के दान के कारण हुए पाप को भोगने के लिए वे गिरगिट बने । प्रभु की कृपा से प्रभु का स्पर्श पाकर वे पापमुक्त हुए और अब दान का पुण्य भोगने के लिए उत्तम लोक के लिए उन्हें प्रस्थान करना था । उस समय उन्होंने प्रभु की परिक्रमा की और अपना सिर का प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्पर्श कर प्रभु को प्रणाम किया । फिर उन्होंने जो प्रभु से निवेदन किया वह ध्यान देने योग्य है । उन्होंने प्रभु से कहा कि मैं चाहे कही भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही लगा रहे ।
जीव को भी अपना चित्त प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही लगाकर रखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 04 जून 2017 |