क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
793 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 66 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धवजी ! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे तन की एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही आश्रित रहे । उन्हीं की सेवा के लिए उठे और उन्हीं में लगी भी रहे । हमारी वाणी नित्य-निरंतर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन बृजवासियों ने श्री उद्धवजी को कहे जब श्री उद्धवजी कई मास श्रीबृज में प्रवास के बाद वापस श्री मथुरा के लिए रवाना हुए ।
बृजवासी कहते हैं कि वे चाहते हैं कि अब उनके मन की एक-एक वृत्ति प्रभु के लिए हो । उनका एक-एक संकल्प प्रभु के लिए उठे । उनका जीवन प्रभु के श्रीकमलचरणों में आश्रित रहे । उनके मन की हर क्रिया प्रभु सेवा के लिए हो और उनका मन सदा प्रभु में ही लगा रहे । उनकी वाणी नित्य निरंतर प्रभु के मंगल नामों का उच्चारण करती रहे । उनका शरीर सदैव प्रभु को प्रणाम करता रहे । वे प्रभु की हर आज्ञा का पालन करें और प्रभु की सेवा में ही लगे रहें । जीव के अंदर इतने सुंदर भाव प्रभु भक्ति और प्रभु प्रेम के बल पर ही आ सकते हैं ।
इसलिए जीवन में प्रभु की भक्ति और प्रभु से प्रेम करना चाहिए जिससे ऐसी भावना हमारे भीतर जागृत हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 07 मई 2017 |
794 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 67 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धवजी ! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिलकुल नहीं है । हम भगवान की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें, वहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन बृजवासियों ने श्री उद्धवजी को कहे जब श्री उद्धवजी कई मास श्रीबृज में प्रवास के बाद वापस श्री मथुरा के लिए रवाना हुए ।
बृजवासी कहते हैं कि उन्हें प्रभु द्वारा प्रदान की जाने वाले मोक्ष की बिलकुल इच्छा नहीं है । वे चाहते हैं कि उन्हें अपने कर्म अनुसार जिस भी योनि में जन्म मिले, प्रभु ऐसी कृपा करें कि उस योनि में उनकी प्रभु के लिए प्रीति निरंतर बढ़ती चली जाए । साधारण जीव प्रभु से मोक्ष की कामना करता है पर धन्य हैं बृजवासी जो कि मोक्ष के अधिकारी होते हुए भी अपने आने वाले जन्म भी कर्म अनुसार चाहते हैं और प्रभु से प्रभु प्रेम के अलावा कोई विशेष प्रावधान की मांग नहीं करते । वे बस प्रभु से इतना चाहते हैं कि किसी भी योनि में उनका जन्म हो उनकी प्रभु के प्रति प्रीति निरंतर बढ़ती चली जाए । सबसे बड़ी प्रभु की अनुकंपा भी यही होती है जब प्रभु कृपा से हमारी प्रभु भक्ति और हमारा प्रभु प्रेम बढ़ता चला जाता है ।
प्रभु से हमें भी यही मांगना चाहिए कि प्रभु के लिए हमारी भक्ति और प्रेम निरंतर बढ़ता चला जाए ।
प्रकाशन तिथि : 07 मई 2017 |
795 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 48
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख मांगता है, वह निश्चित ही दुर्बुद्धि है क्योंकि वास्तव में विषय-सुख अत्यंत तुच्छ, नहीं के बराबर है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
उपरोक्त श्लोक में प्रभु के लिए निष्काम प्रेम और निष्काम भक्ति का प्रतिपादन मिलता है । श्लोक में कहा गया है कि जो प्रभु को प्रसन्न करके सांसारिक विषयों के सुख मांगता है वह निश्चित ही बुद्धि से हीन है । शास्त्रों ने सांसारिक विषयों के सुख को अत्यंत तुच्छ बताया है और उनका महत्व नहीं के बराबर बताया है । इसलिए प्रभु से सांसारिक सुख मांगना मूर्खता है । प्रभु से सदैव प्रभु को ही मांगना चाहिए जैसा कि श्री अर्जुनजी ने महाभारत युद्ध से पहले मांगा था । प्रभु से हमारा प्रेम निरंतर बढ़ता जाए और हमारी प्रभु भक्ति दृढ़ होती जाए, यही प्रभु से मांगना चाहिए । जीवन में जितनी निष्कामता रहेगी उतना ही हम प्रभु के समीप पहुँचते चले जाएंगे ।
इसलिए जीव को निष्काम रहकर प्रभु से कभी सांसारिक विषयों के सुख की मांग नहीं करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 08 मई 2017 |
796 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 48
श्लो 15-16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! उन्होंने पहले भगवान के चरण धोकर चरणोदक सिर पर धारण किया और फिर अनेकों प्रकार की पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गंध, माला और श्रेष्ठ आभूषणों से उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणों को अपनी गोद में लेकर दबाने लगे । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु से सभी कितना प्रेम करते थे यह यहाँ देखने को मिलता है ।
प्रभु ने एक बार श्री अक्रूरजी को आश्वासन दिया था कि वे उनके घर पधारेंगे । उसी आश्वासन को पूर्ण करने के लिए प्रभु और श्री बलरामजी ने एक बार श्री अक्रूरजी के यहाँ जाने का निश्चय किया । श्री अक्रूरजी ने जब देखा कि प्रभु उनके घर पधार रहें हैं तो उन्होंने प्रभु का भव्य स्वागत किया । उन्होंने सबसे पहले प्रभु के श्रीकमलचरणों को धोकर चरणामृत को अपने सिर पर धारण किया । फिर अनेक प्रकार की पूजा सामग्री से, दिव्य वस्त्र, गंध चंदन, माला और श्रेष्ठ आभूषणों से प्रभु का पूजन किया । फिर श्री अक्रूरजी ने अपने सिर को प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकाकर प्रभु को प्रणाम किया । उसके बाद श्री अक्रूरजी ने प्रभु के दोनों श्रीकमलचरणों को अपनी गोद में रखा और उसे आदर के साथ प्रभु की थकान मिटाने के लिए दबाने लगे ।
प्रभु के भक्त प्रभु का सानिध्य पाकर प्रभु सेवा का कोई मौका नहीं चूकते ।
प्रकाशन तिथि : 08 मई 2017 |
797 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 48
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं, जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं । भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण में जाएगा ? ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु अपने प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम हैं । प्रभु जीव का अकारण हित करने वाले हैं । प्रभु जीव की जरा-सी सेवा को भी बहुत बड़ा मान लेते हैं और उस पर कृपा करते हैं । प्रभु अपने भजन करने वाले भक्तों की समस्त अभिलाषा पूर्ण करने वाले हैं । प्रभु भक्तों का कष्ट हरने वाले हैं और जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले हैं । इतने कृपालु प्रभु को छोड़कर भक्त किसी अन्य की शरण में जाने की बात कभी सोच भी नहीं सकता है । भक्त की जरा-सी भी की गई भक्ति को प्रभु बहुत बड़ा मानकर उसका फल देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु से प्रेम और भक्ति से अपना नाता जोड़े और अपने मानव जीवन को सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 09 मई 2017 |
798 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 49
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसार से डरे हुए हैं, उनके लिए तुम्हारे चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई शरण, और कोई सहारा नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव भगवती कुंतीजी ने प्रकट किए ।
प्रभु ने श्री अक्रूरजी को अपनी बुआ भगवती कुंतीजी और पाण्डवों का हालचाल जानने के लिए हस्तिनापुर भेजा । जब श्री अक्रूरजी भगवती कुंतीजी से मिले तो उन्होंने जो भावना प्रभु के प्रति प्रकट की वह बड़ी हृदयस्पर्शी है । उन्होंने कहा कि प्रभु बड़े भक्तवत्सल और शरणागत रक्षक हैं । उन्होंने प्रभु को अनाथ पाण्डवों के नाथ बताया । उन्होंने कहा कि प्रभु पूरे विश्व के आत्मा हैं और विश्व के जीवनदाता हैं । भगवती कुंतीजी कहती हैं कि वे दुःख पर दुःख भोग रही हैं और प्रभु की शरण ग्रहण करती हैं और पाण्डवों की रक्षा की जिम्मेदारी प्रभु को सौंपती हैं । भगवती कुंतीजी कहती हैं कि संसार मृत्युमय है और प्रभु के श्रीकमलचरण मोक्ष प्रदान करने वाले हैं । उन्होंने कहा कि जो संसार से डरे हुए हैं उनके लिए प्रभु के श्रीकमलचरणों के अलावा अन्य कोई आश्रय या अन्य कोई सहारा नहीं है ।
जीव को भी प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही आश्रय जीवन में लेकर रखना चाहिए ।
अब हम श्रीमद् भागवतमहापुराण के दशम स्कंध के उत्तरार्द्ध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे । हमारा धन्य भाग्य है कि प्रभु श्रीकृष्णजी की दिव्य कथा का विस्तार से मंगलमय रसास्वादन हम कर रहे हैं । दशम स्कंध सुंदर, सुखद और रस से भरा स्कंध है एवं प्रभु श्रीकृष्णजी की कथा होने के कारण श्रीमद भागवतजी का हृदय स्वरूप है ।
श्रीमद् भागवतमहापुराण के दशम स्कंध के पूर्वार्द्ध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगतजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं श्री समुद्रदेव का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए - इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाएं ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 09 मई 2017 |
799 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 50
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण की सेना में किसी का बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासंध की तेईस अक्षौहिणी सेना पर, जो समुद्र के समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ने कंस का वध किया तो कंस की दोनों विधवा पत्नियां अपने पिता जरासंध के पास गई ।
जरासंध ने बहुत बड़ी सेना लेकर श्री मथुरा पर आक्रमण किया । प्रभु और श्री बलरामजी अपनी छोटी-सी सेना के साथ युद्धभूमि में आए । प्रभु जगत के स्वामी हैं, उनके लिए बड़ी-से-बड़ी सेना को नष्ट करना खेल मात्र है । प्रभु ने खेल-खेल में जरासंध की बड़ी विशाल सेना का संहार कर दिया । जरासंध की सारी सेना मारी गई । वह भी बुरी तरह से घायल हो गया । उसके शरीर में केवल प्राण मात्र बाकी थे । प्रभु ने युक्ति करके उसे छोड़ दिया कि वह फिर बार-बार दुष्टों की सेना इकट्ठा करके आएगा और प्रभु को दुष्टों का संहार करके पृथ्वी माता का भार उतारने का घर बैठे ही मौका मिलता जाएगा ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि इतने बड़े युद्ध में प्रभु की सेना में से किसी का बाल भी बाँका नहीं हुआ और प्रभु की सेना ने जरासंध की अनंत गुना विशाल सेना पर सहज ही विजय प्राप्त कर ली । सिद्धांत यह है कि प्रभु जिस पक्ष में होते हैं विजय सदैव उसी पक्ष की होती है ।
प्रकाशन तिथि : 10 मई 2017 |
800 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 50
श्लो 57 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियां उन्होंने भगवान के चरणों में समर्पित कर दी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जरासंध ने बार-बार विशाल सेना इकट्ठा की और प्रभु ने उसका सत्रह बार संहार किया और दुष्टों का नाश किया । फिर अंतिम बार युद्ध करने के लिए जब कालयवन और जरासंध दोनों आए तो प्रभु ने श्री मथुरा से स्थानांतरण करने का निर्णय लिया ।
प्रभु के आदेश पर श्री विश्वकर्माजी ने श्री समुद्रदेवजी के बीच श्री द्वारका नगर को बसाया । श्री इंद्रदेवजी, श्री वरुणदेवजी, श्री कुबेरजी और लोकपालों ने अपने अधिकार में जो भी शक्तियां और समृद्धि थी उन्हें तत्काल श्री द्वारकाजी पहुँचा दिया । प्रभु की योगमाया ने मथुरा के समस्त प्रजाजनों को श्री द्वारकाजी पहुँचा दिया । श्री द्वारकाजी की शोभा अद्वितीय हो गई । सिद्धांत यह है कि जब प्रभु इच्छा करते हैं तो उससे पहले प्रकृति एवं सभी देवता प्रभु की सेवा के लिए अपने आपको नियुक्त कर देते हैं और प्रभु सेवा में समर्पित हो जाते हैं ।
प्रभु की इच्छा करने से पहले ही इच्छापूर्ति स्वतः ही हो जाती है ।
प्रकाशन तिथि : 10 मई 2017 |
801 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह संभव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले परंतु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्रीवचन प्रभु ने कहे जब राजा श्री मुचकुंदजी ने निद्रा से उठकर प्रभु का परिचय पूछा ।
प्रभु कहते हैं कि उनके अगणित जन्म, कर्म और नाम हैं । वे सभी अनंत हैं इसलिए कोई भी उनकी गिनती करके नहीं बता सकता । प्रभु कहते हैं कि यह तो संभव है कि कोई पुरुष अपने अनेकों अनेक जन्म लगाकर पृथ्वी माता के छोटे-छोटे धूलि कणों की गिनती कर ले पर वह पुरुष भी प्रभु के अनंत जन्म, सद्गुण, कर्म और नामों की किसी भी प्रकार से गिनती नहीं कर सकता । प्रभु की महिमा, सद्गुण, कर्म का बखान करते-करते शास्त्र भी नेति-नेति कह कर शांत हो जाते हैं ।
शास्त्रों ने कहा है कि प्रभु के अनंत जन्म हैं, अनंत सद्गुण हैं, अनंत कर्म हैं और अनंत नाम हैं जिनका पार कोई भी नहीं पा सकता ।
प्रकाशन तिथि : 11 मई 2017 |
802 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है उसके लिए फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिए वह शोक करे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्रीवचन प्रभु ने राजा श्री मुचकुंदजी से कहे ।
प्रभु ने राजा श्री मुचकुंदजी को अपना परिचय दिया और फिर प्रभु ने कहा कि प्रभु उन पर कृपा करने के लिए आए हैं । प्रभु ने राजा श्री मुचकुंदजी को याद दिलाया कि उन्होंने प्रभु की बहुत आराधना की थी और भक्तवत्सल होने के कारण प्रभु उनकी आराधना से प्रसन्न होकर उनकी अभिलाषा पूर्ण करने और वरदान देने आए हैं । प्रभु की आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती और प्रभु अपने भक्त को खोजकर उसकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं । जो एक बार प्रभु की शरण में आ जाते हैं फिर उनके लिए ऐसी कोई वस्तु बचती नहीं जिसकी अभिलाषा अपूर्ण रह जाए । प्रभु की शरण में आने पर सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में प्रभु की आराधना करे और प्रभु की शरण ग्रहण करे ।
प्रकाशन तिथि : 11 मई 2017 |
803 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 47 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिए कोई भी असुविधा नहीं है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री मुचकुंदजी ने प्रभु से कहे ।
जगत के सभी जीव माया से मोहित हैं और प्रभु से विमुख होकर अनर्थ में ही फंसे रहते हैं । वे घर गृहस्थी के झंझटों में फंसे रहते हैं और प्रभु का भजन नहीं करते । यही सांसारिक जीव के दुःख का मूल कारण है । इस तरह बिना प्रभु का भजन किए सारे जीव जीवन में ठगे जा रहे हैं । भारत भूमि अत्यंत पवित्र कर्मभूमि है और इस भूमि में मनुष्य जन्म पाना अत्यंत दुर्लभ है । मनुष्य जीवन प्रभु भजन के लिए सर्वथा योग्य है क्योंकि एकमात्र मनुष्य जीवन ही इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिए कोई असुविधा नहीं है । जो लोग संसार के विषयों में, घर गृहस्थी में उलझे रहते हैं और प्रभु की उपासना और भजन नहीं करते वे पशुतुल्य हैं ।
इसलिए जीव को अपना मानव जन्म सफल करने के लिए प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 12 मई 2017 |
804 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल का ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढ़ेर बन जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री मुचकुंदजी ने प्रभु से कहे ।
राजा श्री मुचकुंदजी कहते हैं कि मैं राजा था और राजकुमार, रानी, खजाने तथा राज्य के मोह में फंसा हुआ था । इन सबकी चिंता करते-करते उनका अमूल्य जीवन बिलकुल निष्फल और व्यर्थ चला गया । वे अपने सांसारिक कर्तव्यों में लगे रहे और मनुष्य के एकमात्र कर्तव्य भगवत् प्राप्ति से विमुख हो गए । विषयों की दिन दूनी रात चौगुनी लालसा बढ़ती रही और काल अब उनका ग्रास करने के लिए तैयार बैठा है । राजा श्री मुचकुंदजी कहते है कि जैसे एक असावधान चूहे को सांप दबोच लेता है वैसे ही काल अब उन्हें दबोच लेगा । मृत्यु के बाद या तो उनके शरीर को पक्षी या जानवर खाएंगे या सड़ जाने के कारण कीड़े खाएंगे और या आग में जला देने के बाद राख का ढ़ेर बन जाएगा ।
इसलिए जीव को जीवन काल में ही प्रभु की भक्ति करनी चाहिए और संसार में ही उलझकर नहीं रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 12 मई 2017 |
805 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 56 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवन ! भला, बतलाइए तो सही कि मोक्ष देने वाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को बांधने वाले सांसारिक विषयों का वर मांगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री मुचकुंदजी ने प्रभु से कहे ।
जब प्रभु ने राजा श्री मुचकुंदजी को वरदान मांगने के लिए कहा तो राजा ने कहा कि वे प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा के अतिरिक्त अन्य कोई वर नहीं चाहते । राजा श्री मुचकुंदजी कहते हैं कि प्रभु मोक्ष देकर मुक्त करने वाले हैं और भला कौन बंधन वाले सांसारिक विषयों का वर प्रभु से मांगेगा । प्रभु से जो सांसारिक विषयों की कामना करता है वह मूढ़ है क्योंकि सांसारिक विषय बंधन के कारण होते हैं । प्रभु की आराधना या तो मोक्ष प्राप्ति के लिए या फिर उससे भी बढ़कर निष्काम भक्ति के लिए करनी चाहिए । पर जीव प्रभु की आराधना सांसारिक विषयों की मांग के लिए करता है ।
प्रभु की आराधना निष्काम भक्ति और निष्काम प्रेम के लिए करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 13 मई 2017 |
806 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 58 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... शरणदाता ! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोक से रहित चरणकमलों की शरण में आया हूँ । सारे जगत के एकमात्र स्वामी ! परमात्मन ! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री मुचकुंदजी ने प्रभु से कहे ।
राजा श्री मुचकुंदजी कहते हैं कि वे अनादि काल से अनेक जन्मों में अपने कर्म फलों को भोगते-भोगते दीन हो चुके हैं । दुःख की ज्वाला उन्हें रात दिन जलाती रहती है । उनकी पांच इंद्रियां और मन कभी शांत नहीं होते और उनके विषय सेवन की प्यास निरंतर बढ़ती ही जाती है । कभी किसी प्रकार से उन्हें एक क्षण के लिए भी शांति नहीं मिलती है । इसलिए अब वे प्रभु की शरण में आए हैं । प्रभु जगत के एकमात्र स्वामी हैं इसलिए अब वे प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करते हैं जो भय, मृत्यु और शोक से उन्हें रहित कर देगा । प्रभु का व्रत है कि प्रभु शरणागतों की रक्षा करते हैं इसलिए अब वे प्रभु की शरण में आकर प्रभु से रक्षा की प्रार्थना करते हैं ।
जीव को भी चाहिए कि प्रभु की शरणागति ग्रहण करे तभी उसका कल्याण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 13 मई 2017 |
807 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 51
श्लो 60 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओं से इधर-उधर नहीं भटकती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने राजा श्री मुचकुंदजी से कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु के जो अनन्य भक्त होते हैं उनकी बुद्धि कभी कामनाओं से इधर-उधर नहीं भटकती । प्रभु के अनन्य भक्तों को संसार के विषय और सांसारिक कामनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता । वे अपनी बुद्धि को भक्ति के माध्यम से प्रभु में केंद्रित रखते हैं । अपनी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करना कभी भी प्रभु के अनन्य भक्तों का लक्ष्य नहीं होता । इसलिए प्रभु के अनन्य भक्त कभी भी प्रभु से सांसारिक कामना पूर्ति की इच्छा नहीं रखते । प्रभु के अनन्य भक्तों का मन विषयों के लिए मचलता नहीं है । वे प्रभु से विषयों और वासनाओं से शून्य निर्मल भक्ति ही मांगते हैं ।
जीव को भी सांसारिक विषयों और कामनाओं के पीछे नहीं पड़कर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 14 मई 2017 |
808 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 52
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ब्रह्मर्षे ! भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के संबंध में क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देने वाली हैं । उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है । भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु श्री शुकदेवजी से कहे ।
जब प्रभु श्री शुकदेवजी ने संक्षिप्त में भगवती रुक्मिणी माता के प्रभु के साथ विवाह का प्रसंग सुनाया तो राजा परीक्षित ने उसे विस्तार से सुनाने की प्रार्थना की । उन्होंने कहा कि प्रभु की श्रीलीला वे सदैव विस्तार से सुनना चाहते हैं क्योंकि प्रभु की श्रीलीला परम पवित्र होती है और जगत के मल को धो कर उसे भी पवित्र करने वाली होती है । प्रभु की मधुर श्रीलीला का दिन-रात श्रवण करने पर नित्य नया-नया रस मिलता रहता है । ऐसा कोई रसिक भक्त आज तक नहीं हुआ जो प्रभु की मधुर श्रीलीलाओं को सुनकर तृप्त हो गया है । भक्त सदैव प्रभु की श्रीलीला श्रवण करते वक्त अतृप्त रहते हैं और प्रभु की श्रीलीला नित्य निरंतर सुनना चाहते हैं ।
जीव को भी प्रभु की श्रीलीला और कथा का नित्य श्रवण करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 14 मई 2017 |
809 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 52
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शांति का अनुभव करता है, आनंदित होता है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु को भेजे अपने संदेश में व्यक्त किए ।
भगवती रुक्मिणी माता कहती हैं कि संसार में जितने भी प्राणी हैं सबका मन प्रभु को देखकर शांति और आनंद का अनुभव करता है । प्रभु शांति और आनंद के दाता हैं । जीव प्रभु की आराधना कर शांति पाता है और प्रभु के स्वभाव, प्रभाव, सद्गुण और श्रीलीला का श्रवण कर आनंदित होता है । संसार में ऐसा कोई नहीं जिसने प्रभु के संपर्क में आकर शांति का अनुभव न किया हो और आनंदित न हुआ हो । चाहे जिस भी दृष्टि से देखें प्रभु अद्वितीय हैं और प्रभु के समान आनंद और शांति प्रदान करने वाले केवल प्रभु ही हैं । प्रभु का हर रूप हमें शांति का अनुभव कराता है और प्रभु की हर श्रीलीला हमें आनंदित करती है ।
जीव को अगर शांति और आनंद चाहिए तो उसे वह संसार में नहीं मिलेगी, उसके लिए तो उसे प्रभु के पास ही आना पड़ेगा ।
प्रकाशन तिथि : 15 मई 2017 |
810 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 52
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु को भेजे अपने संदेश में व्यक्त किए ।
भगवती रुक्मिणी माता कहती हैं कि वे प्रभु के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुकी हैं । वे प्रभु से विवाह करना चाहती हैं जबकि उनके भाई ने उनका विवाह अन्यत्र तय कर दिया है । अब उन्हें भरोसा एकमात्र प्रभु का ही है कि प्रभु आकर उनकी रक्षा करेंगे और उनकी इच्छा की पूर्ति करेंगे । इसलिए वे अपना पूर्ण आत्मसमर्पण प्रभु को कर चुकी हैं । अब उन्हें एकमात्र प्रभु से ही आस है और इसलिए उन्होंने प्रभु को ही अपना संदेशा भिजवाया है ।
प्रभु को किए आत्मसमर्पण में बड़ा सामर्थ्य होता है क्योंकि सच्चा आत्मसमर्पण होते ही रक्षा या इच्छापूर्ति का पूरा-का-पूरा दायित्व प्रभु पर आ जाता है और प्रभु उस दायित्व को सहर्ष स्वीकारते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 15 मई 2017 |
811 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 52
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... चाहे उसके लिए सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़े, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव भगवती रुक्मिणी माता ने प्रभु को भेजे अपने संदेश में व्यक्त किए ।
भगवती रुक्मिणी माता कहती हैं कि बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिए प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज में स्नान करना चाहते हैं । माता कहती हैं कि उनकी भी अभिलाषा है कि वे प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज को प्राप्त कर अपना जीवन धन्य करे । माता कहती हैं कि चाहे प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज प्राप्त करने के लिए उन्हें सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़े पर उनका दृढ़ संकल्प है कि कभी-न-कभी प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज उन्हें प्रसाद रूप में अवश्य प्राप्त होगी ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की महिमा अपार है और संसार में उससे पवित्र और कल्याणकारी कुछ भी नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 20 मई 2017 |
812 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 53
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचंद्र के चरणकमलों का चिंतन करती हुई भगवती भवानी के पादपल्लवों का दर्शन करने के लिए पैदल ही चली ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब भगवती रुक्मिणी माता परिवार की रीति के अनुसार विवाह से पूर्व भगवती जगजननी पार्वती माता की पूजा अर्चना करने चली उस समय का यह वर्णन है ।
भगवती रुक्मिणी माता परिवार के रिवाज के अनुसार पैदल मार्ग से चली । पर उनका मन प्रभु के श्रीकमलचरणों का नित्य चिंतन कर रहा था । मन से प्रभु का चिंतन करते हुए वे भगवती जगजननी पार्वती माता का आशीर्वाद लेने के लिए मंदिर चली । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु का चिंतन और माता का आशीर्वाद लेने के लिए वे चली । जीव को भी किसी भी शुभ कार्य या किसी विपदा में प्रभु का चिंतन और प्रभु और माता का आशीर्वाद लेना चाहिए तभी उसे सफलता मिलती है ।
यह स्पष्ट सिद्धांत है कि शुभ अवसर या विपत्ति में प्रभु और माता का चिंतन और उनका आशीर्वाद ही हमारा मंगल करता है ।
प्रकाशन तिथि : 20 मई 2017 |
813 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 54
श्लो 60 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
महाराज ! भगवती लक्ष्मीजी को रुक्मिणी के रूप में साक्षात लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियों को परम आनंद हुआ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब प्रभु ने सभी राजाओं को जीत कर भगवती रुक्मिणी माता को लेकर श्री द्वारकाजी में प्रवेश किया तो श्री द्वारकापुरी के घर-घर में बड़ा उत्सव मनाया जाने लगा । प्रभु ने माता के साथ विधिपूर्वक विवाह किया । श्री द्वारकाजी के सभी नर नारी प्रभु से अनन्य प्रेम करते थे इसलिए सभी ने बहुत सुंदर उत्सव मनाया जिसकी शोभा दीपावली से भी बड़ी विलक्षण थी । उस समय श्री द्वारकाजी की अपूर्व शोभा हो रही थी । सभी लोगों को बड़ा आनंद का अनुभव हुआ । सभी जगह श्री रुक्मिणी मंगल की कथा गाई जाने लगी ।
भगवती श्री लक्ष्मी माता को भगवती रुक्मिणी माता के रूप में एवं लक्ष्मीपति प्रभु श्री नारायणजी को प्रभु श्री कृष्णजी के रूप में देखकर श्री द्वारकापुरी के नर नारियों को परम आनंद का अनुभव हुआ ।
प्रकाशन तिथि : 21 मई 2017 |
814 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 56
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! मैं जान गया । आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान विष्णु हैं । आप ही सबके प्राण, इंद्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन ऋक्षराज श्री जाम्बवंतजी ने प्रभु से कहे ।
जब श्री सूर्यनारायणजी प्रभु द्वारा दी गई स्यमंतक मणि को श्री सत्राजित का भाई प्रसेन पहनकर वन में गया तो एक सिंह ने उसे मार डाला । सिंह को ऋक्षराज श्री जाम्बवंतजी ने मार डाला और मणि लेकर अपनी गुफा में चले गए । प्रभु जब मणि को खोजते हुए गुफा में पहुँचे तो श्री जाम्बवंतजी प्रभु को पहचान नहीं पाए और मणि के लिए प्रभु से उनका युद्ध हुआ । जब कई दिनों के युद्ध के बाद प्रभु की चोट से श्री जाम्बवंतजी का शरीर टूटने लगा तो उन्हें ज्ञात हो गया कि यह तो साक्षात प्रभु ही हैं । उन्होंने कहा कि मैं जान गया कि आप प्रभु ही हैं । उन्होंने कहा कि प्रभु समस्त प्राणियों के स्वामी हैं, समस्त प्राणियों के रक्षक हैं और पुराणपुरुष हैं । फिर जो उन्होंने प्रभु के लिए चार विशेषणों का प्रयोग किया वह ध्यान देने योग्य है । उन्होंने कहा कि प्रभु ही सभी के प्राणबल, इंद्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ।
सभी के प्राण को, इंद्रियों को, मन को और शरीर को जो बल मिलता है वह प्रभु से ही मिलता है ।
प्रकाशन तिथि : 21 मई 2017 |
815 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 56
श्लो 35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुर्गादेवी की शरण में गए, उनकी उपासना करने लगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - इस श्लोक में भगवती जगजननी दुर्गा माता की उपासना के प्रभाव को दर्शाया गया है ।
जब प्रभु का श्री जाम्बवंतजी के साथ कई दिनों तक युद्ध हुआ तो गुफा के बाहर जो लोग प्रभु के साथ वन में गए थे वे बारह दिन की प्रतीक्षा के बाद हताश होकर श्री द्वारकाजी लौट आए । प्रभु गुफा से बाहर नहीं आए जब ऐसा समाचार भगवती देवकी माता, श्री वसुदेवजी, भगवती रुक्मिणी माता और अन्य संबंधियों ने सुना तो वे सभी अत्यंत चिंतित हुए । प्रभु के सकुशल लौटने के लिए सबने भगवती जगजननी दुर्गा माता की उपासना की और माता की शरण में गए । उनकी उपासना से माता प्रसन्न हुई और माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया । माता के आशीर्वाद देते ही प्रभु मणि एवं नववधु भगवती जाम्बवती माता को लेकर सकुशल लौट आए ।
माता जगत की जननी हैं एवं माता की आराधना कभी विफल नहीं जाती ।
प्रकाशन तिथि : 22 मई 2017 |
816 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 57
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की कथा श्रवण का क्या फल होता है उसकी व्याख्या इस श्लोक में की गई है ।
सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक प्रभु के पराक्रम की कथा श्रवण करने से हमारे समस्त पापों का नाश होता है । प्रभु की कथा श्रवण करने से हमारे अपराधों का मार्जन होता है । प्रभु की कथा श्रवण करने से हमारे ऊपर लगे दोषों का भी मार्जन हो जाता है । प्रभु की कथा श्रवण हमारा परम मंगल करती है । जो प्रभु की कथा पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है वह सभी प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूट जाता है । प्रभु की कथा श्रवण करने वाला परम शांति को प्राप्त करता है ।
इसलिए प्रभु की कथा का श्रवण जीवन में नित्य करने की आदत बनानी चाहिए क्योंकि ऐसा करना परम कल्याणकारी है ।
प्रकाशन तिथि : 22 मई 2017 |