क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
769 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपके गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी है । उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु के सद्गुणों और प्रभु की लीलाओं का श्रवण और उनका कीर्तन बड़ा मंगलकारी है । उत्तम साधक प्रभु के सद्गुणों का श्रवण नित्य करते हैं और प्रभु की श्रीलीलाओं का कीर्तन भी नित्य करते हैं । प्रभु जब अवतार ग्रहण करते हैं तो दिव्य लीलाएं करते हैं । उनका पहला उद्देश्य उस समय के भक्तों को परमानंद प्रदान करना होता है । उनका दूसरा उद्देश्य आने वाले भक्तों का उद्धार करना होता है । उन भक्तों का प्रभु की श्रीलीलाओं के श्रवण और कीर्तन से उद्धार होता है । प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण और कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी होता है । वह हमारे समस्त अशुभों का तत्काल नाश करता है और हमारा उद्धार करता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु के सद्गुणों और श्रीलीलाओं का नित्य श्रवण और कीर्तन करे ।
प्रकाशन तिथि : 24 अप्रैल 2017 |
770 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मथुरा की स्त्रियां बहुत दिनों से भगवान श्रीकृष्ण की अदभुत लीलाएं सुनती आ रही थी । उनके चित्त चिरकाल से श्रीकृष्ण के लिए चंचल, व्याकुल हो रहे थे । आज उन्होंने उन्हें देखा । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु श्री मथुरा में नगर भ्रमण के लिए निकले तो श्री मथुरा की स्त्रियां प्रभु के दर्शन को आतुर हो गई ।
श्री मथुरा की स्त्रियों ने प्रभु की श्रीलीलाओं के बारे में सुन रखा था । उनकी प्रभु में अथाह श्रद्धा थी । वे कब से इस पल का इंतजार कर रही थी कि प्रभु का श्री मथुरा में आगमन हो और वे अपने नेत्रों से प्रभु के दर्शन कर पाए । वे प्रभु के दर्शन के लिए अति व्याकुल थी । उन्हें ऐसा लगा मानो उनका भाग्य आज जग गया हो जो साक्षात प्रभु उन्हें श्री मथुरा आकर दर्शन दे रहे हैं । इसलिए जब उन्होंने सुना कि प्रभु श्री मथुरा भ्रमण पर निकले हैं तो जो जैसी अवस्था में थी उसी अवस्था में दौड़ी । जो भी काम वे कर रही थी उसे तत्काल त्याग कर वे प्रभु दर्शन के लिए दौड़ी ।
प्रभु का सानिध्य पाने के लिए भक्त सदैव लालायित रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 24 अप्रैल 2017 |
771 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान को देखकर सभी पुरवासी आपस में कहने लगे, धन्य है ! धन्य है ! गोपियों ने ऐसी कौन-सी महान तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्य मात्र को परमानंद देने वाले इन दोनों मनोहर किशोरों को देखती रहती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मथुरा के निवासियों ने आपस में चर्चा करते हुए कहे ।
जब मथुरावासियों ने प्रभु के दिव्य दर्शन किए और प्रभु के दिव्य सौंदर्य को देखा तो वे मंत्रमुग्ध हो गए । उन्होंने प्रभु की झांकी को अपने नेत्रों के माध्यम से हृदय में ले जाकर स्थिर कर लिया । उनकी बहुत दिनों की व्याकुलता शांत हो गई । वे प्रभु पर फूलों की वर्षा करने लगे । प्रभु को देखकर मथुरावासियों ने अपने को धन्य माना पर सबसे ज्यादा धन्य उन्होंने गोपियों को माना जिन्होंने अभी तक प्रभु के सदैव दर्शन किए थे । वे कहते हैं कि गोपियों ने कौन-सी ऐसी तपस्या की है जिस कारण जीवों को परमानंद देने वाले प्रभु की मनोहर झांकी के दर्शन उन्हें रोजाना होते हैं ।
जीव के जब जन्मों के पुण्य उदय होते हैं तभी उसे प्रभु से अनुराग होता है एवं प्रभु की दिव्य झांकी के दर्शन होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 25 अप्रैल 2017 |
772 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण उस दर्जी पर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने उसे इस लोक में भरपूर धन-संपत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और दूर तक देखने-सुनने आदि की इंद्रिय संबंधी शक्तियां दी और मृत्यु के बाद के लिए अपना सारूप्य मोक्ष भी दे दिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु जब श्री मथुरा भ्रमण पर निकले तो सबसे पहले उन्हें कंस का धोबी मिला । प्रभु ने उससे वस्त्र मांगे पर उसने देने से मना कर दिया । प्रभु ने उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धड़ से अलग हो गया ।
प्रभु और श्री बलरामजी ने वस्त्र ले लिए और ग्वाल बालकों को भी वस्त्र दे दिए । वस्त्र नाप में काफी बड़े थे इसलिए आगे प्रभु को एक दर्जी मिला । दर्जी ने बड़ी प्रसन्नता से वस्त्रों को उनके नाप का बना कर प्रभु को सजा दिया । वस्त्रों से विभूषित होकर प्रभु अधिक शोभायमान हो रहे थे । बदले में प्रभु ने दर्जी को प्रसन्न होकर धन-संपत्ति, बल-ऐश्वर्य और अपनी स्मृति दी और मृत्यु के बाद उसे मोक्ष भी प्रदान कर दिया ।
एक तरफ प्रभु से प्रतिकूल व्यवहार पर जहाँ धोबी ने अपनी जान गवाई वही दूसरी तरफ प्रभु से अनुकूल व्यवहार पर दर्जी ने सब कुछ पा लिया । प्रभु से अनुकूल व्यवहार ही जीव का कल्याण करता है ।
प्रकाशन तिथि : 25 अप्रैल 2017 |
773 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्रभो ! आप दोनों के शुभागमन से हमारा जन्म सफल हो गया । हमारा कुल पवित्र हो गया । आज हम पितर, ऋषि और देवताओं के ऋण से मुक्त हो गए । वे हम पर परम संतुष्ट हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु से श्री सुदामा माली ने कहे ।
प्रभु श्री मथुरा भ्रमण करते-करते श्री सुदामा नाम के माली के घर गए । वह उठ खड़ा हुआ और जमीन पर सिर रख कर प्रभु को प्रणाम किया । प्रभु को आसन पर बैठाकर प्रभु के श्रीकमलचरणों को जल से पखारा और फूल, हार, चंदन आदि से प्रभु की पूजा की । उसने प्रभु से कहा कि प्रभु के आगमन से उसका कुल पवित्र हो गया और उसका जन्म सफल हो गया । फिर उसने जो बात कही वह ध्यान देने योग्य है । उसने कहा कि आज प्रभु की सेवा के कारण वह पितर, ऋषि और देवताओं के ऋण से मुक्त हो गया । हर जीव पर उसके पितर, ऋषि और देवताओं के ऋण होते हैं । इन ऋणों को चुकाए बिना जीव की सद्गति नहीं होती ।
सिद्धांत यह है कि जब प्रभु को हम संतुष्ट और तृप्त कर लेते हैं तो हमारे सभी ऋण स्वतः ही चूक जाते हैं । इसलिए जीव को प्रभु को संतुष्ट और तृप्त करने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 26 अप्रैल 2017 |
774 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान ! जीव पर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपा-प्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्य में नियुक्त करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु से श्री सुदामा माली ने कहे ।
प्रभु जब जीव पर अनुग्रह करते हैं तो उसे अपने कार्य के लिए नियुक्त करते हैं । यह प्रभु की पूर्ण कृपा प्रसादी होती है कि प्रभु उसे अपने कार्य के लिए नियुक्त करते हैं । ऋषियों, संतों और भक्तों पर प्रभु का अनुग्रह होता है जब प्रभु उन्हें अपने कार्य हेतु नियुक्त करते हैं । जो भक्ति के और भगवत् प्रेम के प्रचारक हैं उन्हें यह नियुक्ति प्रभु ने अनुग्रह करके दी होती है । प्रभु की आज्ञा के बिना कोई भी प्रभु कार्य नहीं कर सकता । प्रभु जब तक जीव पर अनुग्रह नहीं करते तब तक उस जीव का मन प्रभु कार्य में लगेगा ही नहीं । इसलिए जो प्रभु कार्य कर रहे हैं उन्हें प्रभु का अनुग्रह प्राप्त जीव मानना चाहिए ।
प्रभु की सचमुच बहुत बड़ी कृपा होती है जब प्रभु किसी जीव को अपना कार्य करने के लिए नियुक्त करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 26 अप्रैल 2017 |
775 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 43
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जिनके नेत्र, एक बार उन पर पड़ जाते, बस, लग ही जाते । यही नहीं, वे अपनी कांति से उनका मन भी चुरा लेते । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ने कंस के बुलाने पर रंगभूमि में प्रवेश किया तो प्रभु बड़े सुशोभित हो रहे थे ।
जब प्रभु रंगभूमि में पधारे तो वहाँ उपस्थित सभी लोगों को प्रभु के दर्शन उनकी अपनी भावना और योग्यता के अनुसार हुए । जिसकी जैसी भावना रही प्रभु उन्हें उसी रूप में दिखे । पर एक बात सबके लिए समान थी । जिसके नेत्रों ने एक बार प्रभु को देख लिया वे नेत्र फिर वहाँ से हटे नहीं । सभी उपस्थित लोगों के नेत्र प्रभु के दर्शन में ही लगे रहे । प्रभु ने अपनी कांति से उनके मन को ही चुरा लिया । प्रभु चित्त चुराने में सदैव से ही अग्रणी रहे हैं और जो भी भावना, भक्ति और प्रेम से प्रभु के संपर्क में आता है प्रभु उसके चित्त को चुरा लेते हैं ।
इसलिए जीव को प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 28 अप्रैल 2017 |
776 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 43
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मानो वे उन्हें नेत्रों से पी रहे हो, जिह्वा से चाट रहे हो, नासिका से सूंघ रहे हो और भुजाओं से पकड़ कर हृदय से सटा रहे हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु रंगभूमि के मंच पर आए तो प्रभु के दर्शन सभी बैठे हुए जनसमुदाय को हुए ।
जो भी वहाँ बैठे थे वे प्रभु का दर्शन करके इतने प्रसन्न हुए जिसकी कोई सीमा नहीं थी । सभी देखने वालों के नेत्र और मुखकमल प्रभु दर्शन से खिल उठे । उनके नेत्र प्रभु के दर्शन करते-करते तृप्त ही नहीं हो रहे थे । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि ऐसा लग रहा था मानो मथुरावासी अपने नेत्रों से प्रभु के रस का पान कर रहे हों, मानो अपनी जिह्वा से प्रभु का स्वाद ले रहे हों, मानो अपने नासिका से प्रभु को सूंघ रहे हों और मानो अपनी भुजाओं से पकड़ कर प्रभु को अपने हृदय से लगा रहे हों ।
मथुरावासियों ने अपने आपको धन्य करते हुए प्रभु के दर्शन किए । जीव को भी अपने को धन्य करते हुए प्रभु के दर्शन करने चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 28 अप्रैल 2017 |
777 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 44
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... कहाँ तक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्ण के गुणों के गान में ही मस्त रहती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मथुरा की स्त्रियों ने आपस में कहे ।
श्री मथुरा की स्त्रियां गोपियों के भाग्य की प्रशंसा करतीं हैं और कहतीं हैं कि गोपियों ने कौन-सा पुण्य किया है कि उनके नेत्र नित्य निरंतर प्रभु के रूप माधुर्य का पान करते रहते हैं । वे प्रभु के रूप को निहारते कभी तृप्त नहीं होते क्योंकि प्रभु का रूप प्रतिक्षण नित्य नूतन होता है । प्रभु के रूप में असीम सौंदर्य समाया हुआ है । श्री मथुरा की स्त्रियां कहतीं हैं कि गोपियां धन्य हैं जो प्रभु में चित्त लगाकर, प्रेम भरे हृदय से और आंसुओं से गदगद कंठ से प्रभु की श्रीलीला का नित्य गान करती रहतीं हैं । वे संसार के सारे काम करते हुए भी अपना ध्यान प्रभु पर केंद्रित रखते हुए प्रभु के सद्गुणों का गान सदैव करती रहतीं हैं ।
जीव को भी अपना नित्य कार्य करते हुए प्रभु का ही स्मरण रखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 29 अप्रैल 2017 |
778 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 44
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कंस नित्य-निरंतर बड़ी घबराहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिंतन करता रहता था । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ने रंगभूमि के मंच पर चढ़कर कंस को नीचे पटक कर मार गिराया तो कंस मुक्त हो गया ।
संतजन कहते हैं कि कंस नित्य निरंतर घबराहट और डर से प्रभु का चिंतन करता रहता था । वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और सांस लेते कालरूप में प्रभु के दर्शन करता रहता और डर से प्रभु का चिंतन करता रहता । प्रभु का किसी भी निमित्त से चिंतन किया जाए वह हमारा कल्याण करके ही रहता है । इस प्रकार प्रभु चिंतन के कारण कंस को प्रभु ने मुक्ति प्रदान की जो बड़े-बड़े योगियों को भी कठिनाई से प्राप्त होती है । प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि अपने से द्वेष करने वाले को भी मुक्ति प्रदान करते हैं । इतना दयालु और कृपालु जगत में और कोई नहीं है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु का जीवन में चिंतन करे जिससे वह प्रभु की कृपा को प्राप्त कर सके ।
प्रकाशन तिथि : 29 अप्रैल 2017 |
779 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 45
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने मानव लीला करते हुए श्री सांदीपनिजी मुनि के यहाँ जाकर चौसठ दिनों में चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया ।
तब प्रभु ने श्री सांदीपनिजी मुनि को गुरुदक्षिणा देनी चाही तो मुनि ने अपने मृत पुत्र की याचना की जो कि डूबकर मर गया था । श्री यमराजजी की पुरी प्रभु पहुँचे जहाँ पर श्री यमराजजी ने प्रभु का भव्य स्वागत और आदर सत्कार किया । प्रभु ने श्री यमराजजी से कहा कि आप कर्मबंधन के अनुसार मेरे गुरुपुत्र को ले आए हैं । प्रभु ने कहा कि मैं आज्ञा देता हूँ कि उसके कर्म पर ध्यान न देते हुए उसे मुक्त करें । श्री यमराजजी ने प्रभु की आज्ञा मानते हुए उनके गुरुपुत्र को लाकर दे दिया । ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु कृपा करते हैं तो जीव कर्मबंधन से तत्काल उसी समय मुक्त हो जाता है । श्री यमराजजी भी उस जीव का आदर करते हैं जो प्रभु की कृपा प्राप्त कर लेता है ।
इसलिए जीव को प्रभु की कृपा प्राप्त करने का भक्ति के द्वारा प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 30 अप्रैल 2017 |
780 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 45
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानंद में मग्न हो गए, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु एक बार जिसको संयोग देते हैं वह प्रभु का वियोग फिर नहीं सह पाता ।
जब श्री सांदीपनिजी मुनि के आश्रम में प्रभु अध्ययन करने के लिए उज्जैन गए तो वह चौसठ दिन मथुरावासियों के लिए अत्यंत भारी पड़े क्योंकि उन्हें प्रभु का वियोग सहना पड़ा । श्री मथुरा की प्रजा बहुत दिनों तक प्रभु और श्री बलरामजी को देखे बिना दुःखी हो रही थी । जब प्रभु अध्ययन पूरा करके वापस श्री मथुरा आए तो उन्हें आया देख सब-के-सब मथुरावासी परमानंद में मग्न हो गए । उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनका खोया हुआ धन उन्हें पुनः प्राप्त हो गया । बृजवासियों की तरह मथुरावासी भी प्रभु से बेहद प्रेम करने लग गए थे ।
जीव को भी प्रभु से अत्यंत प्रेम करना चाहिए । मानव जीवन प्रभु से प्रेम और प्रभु की भक्ति करने के लिए ही हमें मिला है ।
प्रकाशन तिथि : 30 अप्रैल 2017 |
781 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 46
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिए लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्लोक मेरा एक प्रिय श्लोक है क्योंकि इसमें भक्तों के लिए प्रभु की एक प्रतिज्ञा है ।
प्रभु जब श्री मथुरा में थे तो उन्होंने अपने प्रिय सखा श्री उद्धवजी को श्रीबृज भेजा । प्रभु ने उन्हें कहा कि वे श्रीबृज जाकर गोपियों से मिले और प्रभु का संदेश उन्हें सुना कर उनकी वेदना से उन्हें मुक्त करें । प्रभु ने कहा कि गोपियां नित्य निरंतर अपना मन प्रभु में लगाए रखती हैं । प्रभु ने कहा कि गोपियों के प्राण और गोपियों के सर्वस्व प्रभु ही हैं । प्रभु ने कहा कि गोपियों ने प्रभु को ही अपना प्रियतम और अपनी आत्मा मान रखा है । फिर जो प्रभु ने कहा वह भक्तों के लिए प्रभु की प्रतिज्ञा है । प्रभु कहते हैं कि जो लोग मेरे लिए लौकिक और पारलौकिक धर्म और सुख छोड़ देते हैं उनकी पूरी जिम्मेदारी प्रभु स्वयं वहन करते हैं ।
प्रभु अपने प्रिय भक्तों की सदैव पूर्ण जिम्मेदारी का वहन करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 01 मई 2017 |
782 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 46
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
गोपी और गोप सुंदर-सुंदर वस्त्र तथा गहनों से सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के मंगलमय चरित्रों का गान कर रहे थे और इस प्रकार बृज की शोभा और भी बढ़ गई थी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - गोपियों के परम प्रियतम प्रभु थे । वे प्रभु का निरंतर स्मरण करके मोहित होती रहतीं थीं ।
प्रतिक्षण प्रभु के विरह में गोपियां अपना जीवन व्यतीत कर रही थी क्योंकि प्रभु उन्हें आश्वासन देकर गए थे कि वे आएंगे । प्रभु का यही आश्वासन उनके जीवन जीने का आधार था । गोप और गोपियां रोजाना सुंदर-सुंदर वस्त्र और गहनों से सजकर प्रभु की प्रतीक्षा करती और प्रभु के मंगलमयी चरित्रों का गान करती रहती । जब श्री उद्धवजी श्रीबृज पहुँचे तो उन्होंने देखा कि गोपियां प्रभु के लिए अत्यंत व्याकुल थीं और प्रतिक्षण प्रभु के आगमन का इंतजार कर रही थीं । उन्होंने अपने घरों को और श्रीबृज को प्रभु के आगमन के लिए सजा रखा था ।
जीव की भी प्रभु को पाने की ऐसी व्याकुलता जीवन में होनी चाहिए तभी उसका प्रभु से मिलन संभव हो सकता है ।
प्रकाशन तिथि : 01 मई 2017 |
783 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 46
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो जीव मृत्यु के समय अपने शुद्ध मन को एक क्षण के लिए भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओं को धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगति को प्राप्त होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने श्रीबृज में श्री नंदजी एवं भगवती यशोदा माता से कहे ।
जो जीव मृत्यु के समय अपने मन को शुद्ध करके एक क्षण मात्र के लिए भी प्रभु में लगा लेता है वह परमगति को प्राप्त होता है । ऐसा करने वाला जीव अपनी समस्त कर्म वासनाओं को धो डालता है जो बंधन का कारण होती है । जीव को अपने अंत समय प्रभु का स्मरण हो जाए और वह अपना चित्त प्रभु में केंद्रित कर ले तो उसकी सद्गति निश्चित है । ऐसा करने वाला जीव प्रभु को पा लेता है और संसार चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । पर ऐसा तभी संभव है जब हम अपने जीवन काल में अपना मन प्रभु में लगाने का अभ्यास करते चले । जीवन काल में भी अगर हमारा मन प्रभु में लगने लग गया तो ही अंत काल में भी ऐसा संभव हो पाएगा ।
इसलिए जीव को अपना चित्त प्रभु में लगाने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 02 मई 2017 |
784 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चस्का लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता । ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्लोक भ्रमर गीत का है जहाँ गोपियां प्रभु के लिए अपना संदेश एक भ्रमर को निमित्त बनाकर श्री उद्धवजी को सुनाती हैं ।
गोपियां कहतीं हैं कि जिसको एक बार प्रभु का सानिध्य प्राप्त हो जाता है फिर वह प्रभु को कभी भी भूल नहीं सकता । प्रभु का एक बार का संग उसे सदैव के लिए प्रभु का बना देता है । फिर उस जीव के जीवन की चर्या ही प्रभुमय हो जाती है । वह सोचता है तो प्रभु के बारे में, वह रोता है तो प्रभु के लिए, वह याद करता है तो प्रभु को, वह चर्चा करता है तो प्रभु की । प्रभु के बिना वह अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता । प्रभु उसके लिए सर्वस्व बन जाते हैं । गोपियों की ऐसी दशा है कि चाहने पर भी गोपियां प्रभु को नहीं भूला पाती ।
जीव को भी प्रभु से इतना असीम प्रेम करना चाहिए कि वह प्रभु के बिना रह ही न पाए ।
प्रकाशन तिथि : 02 मई 2017 |
785 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अहो गोपियों ! तुम कृतकृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । देवियों ! तुम सारे संसार के लिए पूजनीय हो क्योंकि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने गोपियों को सांत्वना देते हुए कहे ।
श्री उद्धवजी ने जब गोपियों की प्रभु मिलन की व्याकुलता देखी तो उन्होंने गोपियों के प्रभु प्रेम का बड़ा आदर किया । उन्होंने कहा कि प्रभु से ऐसा निच्छल प्रेम करके गोपियां कृतकृत्य हैं । गोपियों का जीवन धन्य है और सफल है । गोपियां सारे संसार के लिए पूजनीय हैं क्योंकि उन्होंने अपना हृदय और अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित कर दिया है । जो विविध साधनों से प्रभु की प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है वह गोपियों ने प्राप्त करके उसका आदर्श संसार के लिए स्थापित कर दिया है । श्री उद्धवजी ने कहा कि यह बड़े सौभाग्य की बात है कि जो प्रेमाभक्ति ऋषि मुनियों के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है वह गोपियों ने प्राप्त कर ली है ।
गोपियों की प्रेमाभक्ति साधकों के लिए एक आदर्श है और उनसे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 03 मई 2017 |
786 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार क्योंकि वे सब मन को निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त बात गोपियों को प्रभु ने श्री उद्धवजी के माध्यम से संदेश रूप में कहलवाई ।
प्रभु कहते हैं जैसे स्वप्न में दिखने वाली चीज मिथ्या है वैसे ही इंद्रियों के विषय भी मिथ्या हैं । इसलिए विषयों का चिंतन करने वाले मन को रोक कर प्रभु में लगाया जाए । प्रभु कहते हैं कि जिस प्रकार सभी नदियां घूम फिर कर श्री समुद्रदेवजी में जाकर मिल जाती हैं वैसे ही समस्त साधन मार्ग और समस्त धर्म प्रभु तक पहुँच कर विलीन हो जाते हैं । सबका सच्चा फल तो प्रभु साक्षात्कार है । इसलिए जीव को अंत में प्रभु तक पहुँचना है यह लक्ष्य जीवन में बनाकर चलना चाहिए । वह किसी भी मार्ग से चले अंत में उस मार्ग की सार्थकता तभी है जब वह उस साधक को प्रभु तक पहुँचा कर प्रभु साक्षात्कार करवा दे ।
प्रभु मिलन जीव का अंतिम लक्ष्य और जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 03 मई 2017 |
787 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वश में नहीं है, अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने श्री उद्धवजी को कहे ।
गोपियां कहतीं हैं कि प्रभु जब उनके साथ श्रीबृज में थे तो प्रभु ने उनके साथ जहाँ-जहाँ लीलाएं की थी वह जगह उन्हें अभी भी प्रभु की याद दिलाती हैं । वे नदी, वे पर्वत, वे वन जहाँ प्रभु उनके साथ रमण करते थे उन्हें देखते ही उन्हें प्रभु की दिव्य श्रीलीलाओं की याद आ जाती है । श्रीबृज की धूलिकण में अभी भी प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न अंकित हैं । गोपियां कहतीं हैं कि वे चाहकर भी किसी प्रकार प्रभु को भूला नहीं पाती । प्रभु की सुंदरता, प्रभु का हास्य, प्रभु की मधुर वाणी ने गोपियों का चित्त चुरा लिया है । गोपियां कहतीं हैं कि हमारा मन हमारे वश में नहीं है, वह तो प्रभु में लगा हुआ है । इसलिए वे प्रभु को भूलने का प्रयास करतीं हैं तो भी वे प्रभु को भुला नहीं पाती ।
ऋषि, मुनि प्रभु का ध्यान करने का प्रयास करते हैं और गोपियां प्रभु को भूलने का प्रयास करतीं हैं । यही गोपियों की महानता और श्रेष्ठता का प्रतीक है ।
प्रकाशन तिथि : 04 मई 2017 |
788 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 52 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हम बृजगोपियों के एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने श्री उद्धवजी को कहे ।
गोपियां कहतीं हैं कि उनके जीवन के स्वामी एकमात्र प्रभु ही हैं । एकमात्र प्रभु ही उनके सर्वस्व हैं । गोपियां कहतीं हैं कि बार-बार प्रभु ने ही उनकी संकट में रक्षा की है । प्रभु श्रीबृज के नाथ हैं । गोपियों ने अनन्य भाव से प्रभु को अपना स्वामी स्वीकार किया है । प्रभु को अपना सच्चा स्वामी स्वीकार करना प्रेमाभक्ति का शिखर है । इसलिए गोपियां प्रेमाभक्ति के शिखर पर हैं क्योंकि उन्होंने एकमात्र प्रभु को ही अपना सच्चा स्वामी स्वीकार किया है ।
जीव का मानव जीवन तभी सफल होता है जब वह प्रभु को अपना सर्वस्व मानने लगे और प्रभु को अपना एकमात्र स्वामी स्वीकार करे । जीवन में जब प्रभु के लिए प्रेमाभक्ति हो तभी ऐसा संभव हो पाता है ।
प्रकाशन तिथि : 04 मई 2017 |
789 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 58 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अथवा यदि भगवान की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पों तक बार-बार ब्रह्मा होने से ही क्या लाभ ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भावना श्रीबृज में श्री उद्धवजी ने व्यक्त की ।
श्री उद्धवजी ने कई महीनों तक श्रीबृज में रहकर गोपियों का प्रभु के प्रति निश्छल प्रेम और तन्मयता देखी । श्री उद्धवजी गोपियों के प्रभु प्रेम को देखकर आनंद से भर गए और उन्होंने कहा कि पृथ्वी पर केवल गोपियों का ही शरीर धारण करना सफल और श्रेष्ठ है । गोपियों के सर्वात्मा प्रभु हैं और प्रभु प्रेम की अत्यंत ऊँचाइयों को गोपियों ने छू लिया है जो बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी नहीं छू पाते । श्री उद्धवजी ने कहा कि प्रभु की श्रीलीला कथा का जिसको रस लग गया उसे अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है । पर यदि किसी को प्रभु की कथा का रस नहीं मिला अथवा प्रभु की कथा सुनने में रुचि जागृत नहीं हुई तो ऐसे व्यक्ति को देवता का पद मिलने से भी उसका कोई लाभ नहीं ।
तन्मय होकर प्रभु की कथा श्रवण करना और उसमें रस आना बड़े भाग्य से संभव होता है ।
प्रकाशन तिथि : 05 मई 2017 |
790 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 59 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अहो, धन्य है ! धन्य है ! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान के स्वरूप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उसका परम कल्याण कर देते हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भावना श्रीबृज में श्री उद्धवजी ने व्यक्त की ।
श्री उद्धवजी कहते हैं कि गोपियां गांव की रहने वाली ग्वालिन और आचार, ज्ञान से हीन थी और प्रभु सच्चिदानंद और जगत के स्वामी हैं । पर गोपियों के प्रबल प्रेम ने प्रभु को मोहित कर दिया । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रभु के स्वरूप और प्रभु के रहस्य को न जानकर भी अगर कोई प्रभु से प्रेम करता है और प्रभु का भजन करता है तो प्रभु स्वयं अपनी कृपा और अपनी करुणा से उसका परम कल्याण कर देते हैं । प्रभु तक पहुँचने के लिए केवल प्रभु से अनन्य प्रेम और प्रभु की निष्काम भक्ति की ही आवश्यकता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रेमाभक्ति से इस मानव जीवन में प्रभु को पाने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 05 मई 2017 |
791 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 61 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इनके चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भावना श्रीबृज में श्री उद्धवजी ने व्यक्त की ।
प्रभु के लिए की गई प्रेमाभक्ति कितनी श्रेष्ठ उपलब्धि है यह इस श्लोक में दर्शाया गया है । श्री उद्धवजी परम ज्ञानी थे और प्रभु के प्रिय सखा थे । प्रभु ने उन्हें अपना संदेश लेकर गोपियों को सांत्वना देने के लिए श्री मथुरा से श्रीबृज भेजा था । श्री उद्धवजी कुछ दिनों के लिए आए थे यह सोचकर कि मैं अपना ज्ञान उपदेश देकर गोपियों के विरह का समाधान कर दूंगा । पर गोपियों का प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम देखकर वे कई महीनों के लिए श्रीबृज में रुक गए । उन्हें प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति में ऐसा रस आया कि वे गोपियों को अपना आदर्श मानने लगे । उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि उन्हें श्री वृंदावन की कोई झाड़ी, लता या वृक्ष बना दें जिससे गोपियों के चलने से उड़ी उनकी चरणधूलि के स्पर्श से वे पवित्र और धन्य हो जाए ।
इसलिए जीव को प्रभु के लिए प्रेम और भक्ति को अपने जीवन में सर्वोपरि स्थान देना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 मई 2017 |
792 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 47
श्लो 61 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... धन्य हैं ये गोपियां ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यंत कठिन है, उन स्वजन-संबंधियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होंने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भावना श्रीबृज में श्री उद्धवजी ने व्यक्त की ।
श्री उद्धवजी कहते हैं कि गोपियां धन्य हैं क्योंकि उन्होंने प्रभु के लिए अपने स्वजन और संबंधियों तथा लोक मर्यादा का परित्याग करके प्रभु के लिए प्रेमाभक्ति का आदर्श स्थापित किया है । अपनी इस तन्मयता और परम प्रेम के कारण वे प्रभु से एकाकार हो गई और प्रभुमय बन गई । श्रुतियां और उपनिषद जो प्रभु का गुणगान करतीं हैं और प्रभु को प्रिय हैं वे भी प्रेम से प्रभु को ढूँढ़ती हैं पर प्रभु को प्राप्त नहीं कर पाती हैं । पर गोपियों ने अपने प्रबल प्रेम से प्रभु को प्राप्त कर लिया है ।
प्रभु के लिए अगाध प्रेम के बल पर गोपियों ने वह स्थान प्राप्त किया है जिसकी दूसरे लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ।
प्रकाशन तिथि : 06 मई 2017 |