क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
745 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 37
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप सबके अंतर्यामी और नियंता हैं । अपने आप में स्थित, परम स्वतंत्र हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु सच्चिदानंद स्वरूप हैं । प्रभु संपूर्ण ऐश्वर्यों से संपन्न हैं । प्रभु सबके अंतर्यामी हैं । सबकी अंतरात्मा में दृष्टा के रूप में प्रभु विद्यमान हैं । प्रभु से कुछ भी छिपा नहीं है । जो कुछ हमारे मन, कर्म, वाणी से होता है अंतर्यामी प्रभु को उसका ज्ञान होता है । प्रभु सबके नियंता हैं । प्रभु सबको नियंत्रित करने वाले हैं । जगत का नियंत्रण प्रभु के द्वारा ही होता है । प्रभु परम स्वतंत्र हैं और सब कुछ करने में सक्षम हैं । जीव अपने कर्मों और प्रारब्ध के कारण परतंत्र है ।
इसलिए जीव को प्रभु के सानिध्य में ही रहना चाहिए तभी उसका कल्याण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2017 |
746 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गए । आज मेरा जन्म सफल हो गया । क्योंकि आज मैं भगवान के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूंगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब कंस ने श्री अक्रूरजी को प्रभु को लाने के लिए श्रीबृज भेजा तो श्री अक्रूरजी के मन मे दो बातें आई । पहली बात तो यह कि वे जाकर प्रभु को दुष्ट कंस की योजना बताकर सावधान कर देंगे । और दूसरी बात कि इस बहाने प्रभु के दर्शन का लाभ उन्हें मिल जाएगा ।
रास्ते में श्री अक्रूरजी यह सोचने लगे कि उन्होंने जीवन में कौन-सा ऐसा शुभ कर्म किया है या कौन-सी श्रेष्ठ भक्ति की है या कौन-सा महत्वपूर्ण पुण्य किया है कि आज उन्हें प्रभु के दर्शन का लाभ मिलने वाला है । उन्होंने माना कि आज उनका सच्चा भाग्योदय हुआ है और उनके सारे अशुभ नष्ट हुए हैं । आज उनका मानव जन्म सफल हुआ है क्योंकि आज वे प्रभु के साक्षात श्रीकमलचरणों के दर्शन करने वाले हैं ।
हमारा सच्चा भाग्योदय तब होता है जब सच्ची भक्ति के कारण हमें प्रभु की अनुभूति प्राप्त होती है और प्रभु का दर्शन लाभ मिलता है जो कि अति दुर्लभ है ।
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2017 |
747 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मैं प्रेम और मुक्ति के परम दानी श्रीमुकुंद के उस मुखकमल का आज अवश्य दर्शन करूंगा । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
प्रभु प्रेम के परम दानी हैं । प्रभु हर जीव से प्रेम करते हैं । जीव से प्रेम करना प्रभु का स्वभाव है । प्रभु का व्रत है कि वे अपने प्रेमी भक्तों से अनन्य प्रेम करते हैं । भक्तों के लिए प्रभु का सबसे बड़ा दान प्रेम का दान होता है । प्रभु मुक्ति के भी परम दानी हैं । किसी भी भावना से कोई भी प्रभु से जब जुड़ जाता है तो प्रभु उस पर कृपा करके उसे मुक्ति प्रदान कर देते हैं । प्रभु ने अपने से क्रोध और द्वेष करने वालों को भी मुक्ति दी है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु के प्रेम को पाने की योग्यता जीवन में बनाए ।
प्रकाशन तिथि : 09 अप्रैल 2017 |
748 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आज मुझे सहज में ही आँखों का फल मिल जाएगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
हमारी आँखों का परम लाभ प्रभु के दर्शन हैं । आँखें तभी सार्थक होती है जब उससे प्रभु के दर्शन होते हैं । प्रभु का सौंदर्य असीम है । प्रभु के सौंदर्य की तुलना विश्व में किसी से नहीं की जा सकती । श्री रामचरितमानसजी में गोस्वामी तुलसीदासजी प्रभु के सौंदर्य की उपमा देने के लिए पूरी खोज करने के बाद अंत में उन्हें कोई उपमा नहीं मिली और उन्हें कहना पड़ा कि प्रभु के जैसे तो प्रभु ही हैं । आँखों का उपयोग सौंदर्य को देखने के लिए होता है इसलिए आँखों का परम उपयोग यही है कि उसे प्रभु के दर्शन में लगाया जाएं क्योंकि प्रभु का सौंदर्य अतुलनीय है ।
प्रभु का दर्शन लाभ ही आँखों का परम फल है इसलिए अपनी आँखों से सदैव प्रभु के दर्शन का लाभ लेना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 09 अप्रैल 2017 |
749 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु जिस वाणी से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएं नहीं गाई जाती, वह तो मुर्दों को ही शोभित करने वाली है, होने पर भी नहीं के समान व्यर्थ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के सद्गुण, सत्कर्म और श्रीलीलाओं का गान जब हमारी वाणी से होता है तो हमारे समस्त पापों का नाश हो जाता है ।
प्रभु के गुणगान से हमारे जीवन में स्फूर्ति आती है और हमारा जीवन शोभावान बनता है । प्रभु के गुणगान से हमारी सारी अपवित्रता नष्ट हो जाती है और हमारा जीवन पवित्र हो जाता है । जिस वाणी से प्रभु के सद्गुणों, सत्कर्म और श्रीलीलाओं का गान नहीं होता वह वाणी होने पर भी नहीं होने के समान है । वह वाणी व्यर्थ है जो संसार की चर्चा में लगी रहती है और प्रभु का गुणगान नहीं करती ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए प्रभु के यश का नित्य गुणगान करे । प्रभु का यश इतना पवित्र और निर्मल है कि देवतागण भी प्रभु के यश का नित्य गुणगान करते रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 10 अप्रैल 2017 |
750 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके चरण कितने दुर्लभ हैं । बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कार के लिए मन-ही-मन अपने हृदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊंगा और उन पर लोट जाऊंगा । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
श्री अक्रूरजी प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन के लिए आतुर थे । वे सोच रहे थे कि जैसे ही वे प्रभु के दूर से दर्शन करेंगे तो वे रथ से कूद पड़ेंगे और प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ लेंगे । उन्होंने सोचा कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन कितने दुर्लभ हैं क्योंकि बड़े-बड़े संत और योगी अपने मन में प्रभु के श्रीकमलचरणों की धारणा करते हैं । प्रभु के जिन श्रीकमलचरणों का ध्यान योगी और संत लगाते हैं उन श्रीकमलचरणों के प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ श्री अक्रूरजी को मिलने वाला है इसलिए वे अपने आपको परम धन्य मानते हैं । श्री अक्रूरजी का संकल्प है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रणाम करके वे उन पर लोट जाएंगे और श्रीकमलचरणों को छोड़ेंगे नहीं ।
जीव का परम सौभाग्य होता है जब उसे प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन करने का और प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित होने का लाभ मिलता है ।
प्रकाशन तिथि : 10 अप्रैल 2017 |
751 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलों में गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिर पर रख देंगे ? उनके वे करकमल उन लोगों को सदा के लिए अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी सांप के भय से अत्यंत घबरा कर उनकी शरण चाहते और शरण में आ जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
श्री अक्रूरजी सोचते हैं कि जब वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिर जाएंगे तब प्रभु अपने श्रीकरकमल उनके सिर पर रख देंगे । प्रभु के श्रीकरकमल उन जीवों को अभयदान देते हैं जो काल के भय से घबरा कर प्रभु की शरण ग्रहण करते हैं । जो प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरणागति ले लेता है प्रभु उस जीव को अपने श्रीकरकमलों की छत्रछाया प्रदान कर देते हैं और उसे अभय कर देते हैं । जन्म-मृत्यु रूपी कालचक्र से डरने वाले को प्रभु अभयदान देते हैं । जो प्रभु की शरणागति ग्रहण कर लेता है उसके जन्म-मृत्यु के चक्र को ही प्रभु सदा के लिए समाप्त कर देते हैं ।
इसलिए जीव को प्रभु की शरणागति ग्रहण करनी चाहिए तभी वह जीवन में अभय रह सकेगा ।
प्रकाशन तिथि : 11 अप्रैल 2017 |
752 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जाएंगे और मैं निःशंक होकर सदा के लिए परमानंद में मग्न हो जाऊँगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
श्री अक्रूरजी सोचते हैं कि वे कंस के भेजे दूत है इसलिए कहीं प्रभु उन्हें शंका की दृष्टि से तो नहीं देखेंगे । पर श्री अक्रूरजी को विश्वास है कि प्रभु समस्त विश्व के साक्षी हैं और सर्वज्ञ हैं इसलिए उनकी दृष्टि में श्री अक्रूरजी के लिए शंका नहीं होगी । श्री अक्रूरजी सोचते हैं कि वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में विनीत भाव से प्रणाम करेंगे और प्रभु अपनी दयामयी दृष्टि उनके ऊपर डालेंगे । उसी समय उनके जन्मों-जन्मों के समस्त अशुभ संस्कार नष्ट हो जाएंगे और वे निर्विकार होकर सदा के लिए परमानंद में मग्न हो जाएंगे ।
प्रभु की एक क्षण की करुणामयी दृष्टि जीव के जन्मों-जन्मों के पातक और अशुभों को नष्ट कर देती है ।
प्रकाशन तिथि : 11 अप्रैल 2017 |
753 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अहा ! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरों को पवित्र करने वाली भी बन जाएगी और उसी समय उनका आलिंगन प्राप्त होते ही मेरे कर्ममय बंधन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ, टूट जाएंगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
श्री अक्रूरजी प्रभु को अपना आराध्यदेव मानते थे । उन्हें विश्वास था कि प्रभु जब उनसे मिलेंगे तो प्रेम से उन्हें अपनी बाहों में जकड़ लेंगे और उन्हें अपने हृदय से लगा लेंगे । श्री अक्रूरजी ने सोचा कि जब ऐसा होगा तो उनकी देह पवित्र हो जाएगी और उनकी देह दूसरों को भी अपने स्पर्श से पवित्र करने वाली बन जाएगी । श्री अक्रूरजी को दृढ़ विश्वास है कि प्रभु का आलिंगन प्राप्त होते ही उनके कर्म के बंधन टूट जाएंगे जिस कारण वे अनादिकाल से संसार चक्र में भटक रहे हैं ।
प्रभु की अनुकंपा हमारे कर्म बंधन को समाप्त कर देती है इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में प्रभु की अनुकंपा प्राप्त करने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 12 अप्रैल 2017 |
754 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करने वालों को उनकी मुँह मांगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं और वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त विचार श्री अक्रूरजी के मन में आए जब वे प्रभु के दर्शन का लाभ लेने श्रीबृज जा रहे थे ।
प्रभु को जो जिस प्रकार से भजता है प्रभु भी उस जीव का उसी प्रकार आदर करते हैं । प्रभु अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं । जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करने वाले को मुँह मांगी वस्तु प्रदान करता है वैसे ही प्रभु भी अपने प्रेमी भक्तों को सब कुछ प्रदान करते हैं । इसलिए जिसने प्रभु को अपनाया नहीं, प्रभु का जीवन में आदर नहीं किया उसके जीवन को धिक्कार है । प्रभु का पूर्ण प्रेम प्राप्त करना हो तो प्रभु को पूर्णरूप से प्रेम करना पड़ेगा । जो प्रभु की प्रेमाभक्ति करता है प्रभु स्वयं अपने आपको भी उसे प्रदान कर देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु से पूर्ण रूप से प्रेम करे जिससे वह जीवन में प्रभु का प्रेम प्राप्त कर सके ।
प्रकाशन तिथि : 12 अप्रैल 2017 |
755 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे रथ से कूदकर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे, अहो ! यह हमारे प्रभु के चरणों की रज है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
पूरे रास्ते प्रभु का चिंतन करते हुए जब श्री अक्रूरजी श्री नंदगांव के समीप पहुँचे तो उन्हें रास्ते में प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिह्न के दर्शन हुए । प्रभु के श्रीकमलचरणों में अंकित दिव्य चिह्नों को वे पहचान गए । पृथ्वी माता की शोभा बढ़ाने वाले उन श्रीकमलचरणों के चिह्नों के दर्शन से श्री अक्रूरजी के हृदय में परमानंद छा गया और वे अपने आपको संभाल नहीं पाए और रथ से कूद पड़े । उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगी और वे उस धूलि में लोटने लगे जहाँ प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिह्न अंकित थे । प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज का स्पर्श पाकर वे भाव विभोर हो उठे और प्रभु प्रेम के आवेग में बह गए ।
सच्चा भक्त प्रभु के दिव्य चिह्नों का दर्शन करने पर भाव विभोर हो उठता है ।
प्रकाशन तिथि : 14 अप्रैल 2017 |
756 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 38
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसलिए जीव मात्र का यही परम कर्तव्य है कि दंभ, भय और शोक त्यागकर भगवान की मूर्ति, चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणों के दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव संपादन करें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिह्नों को देखकर और रास्ते भर प्रभु का चिंतन करते हुए आने पर श्री अक्रूरजी के चित्त की जैसी अवस्था रही वैसी हमारी भी होनी चाहिए तभी मानव देह धारण करने का लाभ है । मानव देह धारण करने का परम लाभ यही है कि हमारे हृदय में प्रभु प्रेम का दिव्य भाव जागृत हो । प्रभु के श्रीचिह्न, श्रीलीला, स्थान, सद्गुण के श्रवण और दर्शन से ही ऐसा प्रेम का भाव जागृत हो सकता है । प्रभु के लिए हमारे मन में जितना-जितना प्रेम बढ़ता जाएगा उतना-उतना हम प्रभु के समीप पहुँचते चले जाएंगे । इसलिए प्रभु के लिए प्रेम का भाव जागृत करना मानव जीवन का परम लक्ष्य और उद्देश्य होना चाहिए ।
जीवमात्र का परम कर्तव्य है कि प्रभु के लिए प्रेम का भाव अपने हृदय में जागृत करे ।
प्रकाशन तिथि : 14 अप्रैल 2017 |
757 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 39
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! लक्ष्मी के आश्रय स्थान भगवान श्रीकृष्ण के प्रसन्न होने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ? फिर भी भगवान के परम प्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तु की कामना नहीं करते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु के प्रसन्न होने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है जो प्राप्त नहीं हो सकती । प्रभु के प्रसन्न होने पर जीव के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है । प्रभु तो कल्पवृक्ष और कामधेनु माता के भी स्वामी हैं । जब कल्पवृक्ष और कामधेनु माता इच्छित फल देने में सक्षम हैं तो प्रभु के लिए ऐसा करना कौन-सी बड़ी बात है । प्रभु सहज ही प्रसन्न होने पर सब कुछ देने में सक्षम हैं । पर ऐसा होने पर भी प्रभु के प्रेमी भक्तजन प्रभु से किसी भी वस्तु की कामना या याचना नहीं करते । प्रभु के सच्चे प्रेमी और सच्चे भक्त सदैव निष्काम होते हैं ।
जीव को भी प्रभु की निष्काम भक्ति करनी चाहिए क्योंकि निष्काम भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा है ।
प्रकाशन तिथि : 15 अप्रैल 2017 |
758 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 39
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! जब गोपियों ने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुंदर और गौरसुंदर बलरामजी को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूरजी बृज में आए हैं, तब उनके हृदय में बड़ी व्यथा हुई । वे व्याकुल हो गई ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब श्री अक्रूरजी ने प्रभु को बताया कि कंस ने न्यौता भेजकर प्रभु को श्री मथुरा बुलाया है तो ये वार्ता गोपियों तक पहुँच गई । गोपियों ने जैसे ही सुना कि हमारे प्यारे प्रभु को श्री मथुरा ले जाने के लिए श्री अक्रूरजी आए हैं तो उनके हृदय में बड़ी व्यथा हुई । वे सभी व्याकुल हो उठी । वे सोचने लगी कि प्रभु का वियोग वे कैसे सहेंगी । जिन प्रभु को देखे बिना उनका समय युग के समान व्यतीत होता था वे प्रभु जब श्री मथुरा चले जाएंगे तो उनका हाल बेहाल हो जाएगा । गोपियां प्रभु से इतना प्रेम करतीं थीं कि प्रभु से वियोग की बात वे सोच भी नहीं सकती थीं ।
भक्त के प्रेम को और बढ़ाने के लिए प्रभु संयोग के बाद थोड़ा वियोग देते हैं । वियोग में प्रभु की अत्यंत याद आती है और प्रभु के लिए प्रेम और भी बढ़ जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 15 अप्रैल 2017 |
759 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 39
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनका हृदय, उनका जीवन, सब कुछ भगवान के प्रति समर्पित था । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
गोपियों का हृदय और गोपियों का जीवन प्रभु के प्रति समर्पित था । गोपियों के लिए प्रभु ही उनके सब कुछ थे । गोपियों ने अपना हृदय प्रभु को समर्पित कर दिया था । गोपियों के हृदय में उठने वाली प्रत्येक तरंग प्रभु के लिए होती थी । उनके हृदय में केवल और केवल प्रभु का निवास था । गोपियों ने अपना जीवन भी प्रभु को समर्पित कर दिया था । जीवन के प्रत्येक क्षण में उनका चिंतन केवल प्रभु का ही होता था । जीवन की प्रत्येक चर्या वे प्रभु के लिए ही करतीं थीं । गोपियों का प्रभु प्रेम से ओत-प्रोत ऐसा अदभुत जीवन था जिसकी मिसाल अन्यत्र कहीं भी मिलना संभव नहीं है ।
हमें भी अपना हृदय और अपना जीवन प्रभु को समर्पित करना चाहिए तभी हमारा मानव के रूप में जन्म सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 16 अप्रैल 2017 |
760 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 39
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हम आधे क्षण के लिए भी प्राणवल्लभ नंदनंदन का संग छोड़ने में असमर्थ थी । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियां एक दूसरे से कहतीं हैं ।
जब श्री अक्रूरजी रथ में बैठाकर प्रभु को श्री मथुरा ले जाने के लिए तैयार हुए और प्रभु रथ में बैठ गए तो गोपियां लोक लज्जा त्यागकर प्रभु को जाने से रोकने का प्रयास करने लगी । गोपियों को पता था कि प्रभु उनके प्राणधन हैं और प्रभु के लिए ही उन्होंने अपना जीवन धारण कर रखा है । प्रभु से आधे क्षण का भी वियोग वे सहने को तैयार नहीं थीं । गोपियां मथुरावासियों के भाग्य की प्रशंसा करती है जिनको प्रभु के दर्शन होने वाले हैं और अपने को भाग्यहीन मानती हैं क्योंकि उनका प्रभु से वियोग होने वाला है । प्रभु उनके प्राणवल्लभ हैं और प्रभु का वियोग सहना उनके वश में नहीं है ।
गोपियों का प्रभु प्रेम एक आदर्श है और हमें भी प्रभु से प्रेम करने की प्रेरणा गोपियों से लेनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 16 अप्रैल 2017 |
761 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 39
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु को जब श्री अक्रूरजी रथ में बैठाकर श्री मथुरा ले चले तो गोपियां वहाँ तब तक खड़ी रहीं जब तक रथ की ध्वजा और रथ के पहियों से उड़ती धूल उनको दिख रही थी । गोपियां ज्यों-की-त्यों इस उम्मीद में खड़ी रहीं कि प्रभु लौटकर वापस आएंगे । जब प्रभु नहीं लौटे तो गोपियों ने अपना चित्त सदा के लिए प्रभु के साथ भेज दिया । प्रभु जीव से उसका चित्त और उसकी बुद्धि ही मांगते हैं । श्रेष्ठ भक्त अपने चित्त और अपनी बुद्धि का समर्पण प्रभु को कर देते हैं । गोपियों ने ऐसा ही किया और अपने चित्त और बुद्धि का समर्पण प्रभु को करके अपने को धन्य कर लिया ।
जीव को भी अपने चित्त और बुद्धि का समर्पण प्रभु को कर देना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 17 अप्रैल 2017 |
762 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 39
श्लो 56 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानंद से लबालब भर गया । उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गई । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब श्री अक्रूरजी प्रभु को रथ में लेकर श्री यमुनाजी के तट पर पहुँचे तो श्री अक्रूरजी जल पान करने एवं स्नान करके श्री गायत्री माता का जप करने के लिए रुके । प्रभु और श्री बलरामजी रथ पर बैठे थे और जब श्री अक्रूरजी ने श्री यमुनाजी में डुबकी लगाई तो उनको जल के अंदर श्री शेषजी (श्री बलरामजी) पर विराजमान प्रभु के दर्शन हुए । जल के बाहर निकल कर देखा तो प्रभु और श्री बलरामजी रथ पर बैठे थे । फिर जल में प्रवेश करके देखा तो प्रभु की वही झाँकी उन्हें वहाँ दिखी । सभी पार्षद, देवता, भक्त और ऋषि प्रभु की दिव्य स्तुति कर रहे थे । इस झाँकी को देखकर श्री अक्रूरजी का हृदय परमानंद से लबालब भर गया । प्रभु ने अपने दिव्य दर्शन करवाकर मानो उन्हें भक्ति का दान दे दिया । श्री अक्रूरजी का शरीर हर्ष से पुलकित हो गया और प्रेमभाव के कारण उनके नेत्रों से आंसू छलक पड़े । श्री अक्रूरजी ने प्रभु को प्रणाम किया और प्रभु की स्तुति करने लगे ।
प्रभु से अगर हमारा अनन्य प्रेम है तो प्रभु अपनी अनुभूति हमें देते हैं और अपनी झाँकी के दर्शन भी करवाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 17 अप्रैल 2017 |
763 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 40
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! जैसे पर्वतों से सब ओर बहुत-सी नदियां निकलती हैं और वर्षा के जल से भरकर घूमती-घामती समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकार के उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
जो लोग दूसरे देवताओं की आराधना करते हैं वे वास्तव में प्रभु की ही आराधना करते हैं क्योंकि समस्त देवताओं के रूप में प्रभु ही हैं । जैसे पर्वत से बहुत सी नदियां निकलती है और वर्षा के जल से भरकर घूमती-घामती श्री समुद्रदेवजी में प्रवेश करती है वैसे ही सभी प्रकार की उपासना के मार्ग घूम फिर के अंत में प्रभु तक ही पहुँचते हैं । हम किसी भी साधन मार्ग से चले, अंत में पहुँचना प्रभु तक ही है । इसलिए सभी धर्म, पंथ और साधन मार्ग की पहुँच प्रभु तक ही है ।
जैसे एक सरोवर के किसी भी घाट से जाया जाए पहुँच जल तक होगी वैसे ही किसी भी मार्ग से बढ़ा जाए अंत में वह प्रभु तक ही हमें पहुँचाएगा क्योंकि प्रभु के अलावा अन्य किसी का अस्तित्व है ही नहीं ।
प्रकाशन तिथि : 19 अप्रैल 2017 |
764 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 40
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप क्रीडा करने के लिए पृथ्वी पर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगों के शोक-मोह को धो-बहा देते हैं और फिर सब लोग बड़े आनंद से आपके निर्मल यश का गान करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु धर्म की स्थापना के लिए और भक्तों को आनंदित करने के लिए जो-जो रूप धारण करके अवतार ग्रहण करते हैं, वे सभी अवतार लोगों के शोक और पापों को मिटा देते हैं । प्रभु के अवतार का गुणगान करने से लोग आनंदित होते हैं और प्रभु के निर्मल यश का गान करने से उनका मंगल होता है । प्रभु अपने अवतारों में जो-जो श्रीलीलाएं करते हैं उनका मंगल गान करने से हमारे पातक, दोष और शोक का नाश होता है और हमें आनंद की अनुभूति होती है । प्रभु के अवतारों की श्रीलीलाओं का गुणगान पातक और शोक नाश करने के अचूक साधन है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में प्रभु की श्रीलीलाओं का गुणगान नित्य करे ।
प्रकाशन तिथि : 19 अप्रैल 2017 |
765 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 40
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि में ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
श्री अक्रूरजी कहते हैं कि सभी जीवों की तरह वे भी सांसारिक पदार्थों को सत्य समझ कर उसी के मोह में भटक रहे हैं । जैसे स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ झूठे होते हैं वैसे ही संसार मिथ्या है पर फिर भी मोहवश जीव इसमें फंसा हुआ है । जो जीव अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख में रम गया है वह प्रभु को भूल जाता है । जीव को यह याद रखना चाहिए कि प्रभु ही हमारे सच्चे प्यारे परमपिता हैं और संसार मिथ्या है । प्रभु से ही हमारा सनातन रिश्ता है और संसार से हमारा रिश्ता नश्वर है । पर जीव विपरीत बुद्धि के कारण संसार को सत्य मान बैठा है और प्रभु को भुला बैठा है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह सनातन प्रभु से अपना सनातन रिश्ता बनाए ।
प्रकाशन तिथि : 22 अप्रैल 2017 |
766 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 40
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही मैं अपनी ही माया से छिपे रहने के कारण आपको छोड़कर विषयों में सुख की आशा से भटक रहा हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु की माया से भ्रमित जीव प्रभु को छोड़कर विषयों में भटक रहा है । जीव विषयों में सुख की आशा करता है जबकि विषयों में सुख है ही नहीं । संसार को दुःखालय कहा गया है । विषयों में अतृप्ति और दुःख है । कितना भी विषयों का सेवन कर लें हमें तृप्ति नहीं मिलेगी । विषयों के और ज्यादा सेवन करने की इच्छा बनी रहेगी । सच्चा परमानंद प्रभु के सानिध्य में ही है । सुख पहली सीढ़ी है और परमानंद उसका शिखर है । संसार के विषयों के सेवन में सनातन सुख भी नहीं मिलता जबकि प्रभु के सानिध्य में सनातन परमानंद मिलता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति करके प्रभु का सानिध्य प्राप्त करे जिससे उसे परमानंद की अनुभूति हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 22 अप्रैल 2017 |
767 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 40
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है, तब सत्पुरुषों की उपासना से चित्तवृत्ति आपमें लगती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
हमारी इंद्रियां बड़ी प्रबल और बलवान हैं और जीव को बलपूर्वक इधर-उधर घसीट कर ले जाती है । हमारे मन के वेग को हम रोक नहीं पाते । पर प्रभु की कृपा होती है तो भटकता हुआ जीव प्रभु की छत्रछाया में आ पहुँचता है । जब जीव का संसार से मुक्त होने का समय आता है तो उसका चित्त भक्ति के द्वारा प्रभु में लगता है । इसलिए जब हमारा चित्त प्रभु में लगना प्रारंभ हो जाए तो मानना चाहिए कि जीवन में प्रभु कृपा हुई है और प्रभु के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को और बढ़ाना चाहिए । जितना-जितना हम अपना प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति बढ़ाएंगे उतना-उतना प्रभु कृपा से हमारा चित्त प्रभु में लगता जाएगा ।
मानव जन्म लेकर अगर जीव अपना चित्त अधिकाधिक प्रभु में लगा पाता है तो ही उसका मानव जन्म सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 23 अप्रैल 2017 |
768 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 41
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिए । आपके चरणों की धोवन से अग्नि, देवता, पितर सब-के-सब तृप्त हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री अक्रूरजी ने प्रभु से कहे ।
जब श्री अक्रूरजी प्रभु को लेकर श्री मथुरा पहुँचे तो प्रभु नगर के बाहर ही रुकना चाहते थे । पर श्री अक्रूरजी ने बड़ी आत्मीयता से कहा कि प्रभु चलकर उनके घर को पवित्र और उन्हें सनाथ करें । उन्होंने प्रभु से विनती की कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की धूलि पड़ने से उनका घर पवित्र हो जाएगा । प्रभु के श्रीकमलचरणों के चरणामृत से सभी देवता और उनके सभी पितर तृप्त हो जाएंगे । प्रभु के श्रीकमलचरणों की महिमा अपार है । राजा श्री बलिजी ने प्रभु के श्रीकमलचरणों का अपने मस्तक पर स्पर्श पाकर अत्यंत यश प्राप्त किया । प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकली भगवती गंगा माता तीनों लोकों को पवित्र करती हैं ।
जीवन में प्रभु के श्रीकमलचरणों के चरणामृत का सेवन नित्य करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 23 अप्रैल 2017 |