श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
73 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 7
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम्‍हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिए और तुम्‍हारे अनन्‍य प्रेमी भक्‍तजनों के निरंतर स्‍मरण-ध्‍यान करने के लिए है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब अश्वत्थामा ने श्री अर्जुनजी पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा तो अपने प्राण संकट में देख श्री अर्जुनजी ने प्रभु से विपदा से बचाने के लिए स्‍तुति की ।

स्‍तुति के उपरोक्‍त शब्‍दों पर विशेष ध्‍यान दें । प्रभु के अवतारों के दो मुख्‍य हेतु यहाँ बताए गए हैं । पहला कारण, पृथ्वी का भार हरण करना, बुराइयों का अंत कर धर्म की पुनःस्‍थापना करना ।

दूसरा कारण, अपने अवतार एवं श्रीलीलाओं से प्रेमीजनों और भक्‍तजनों को आनंदित करना एवं अपने स्‍मरण-ध्‍यान करने का एक हेतु देना । प्रभु की श्रीलीलाओं का हम स्‍मरण करते हैं, झांकी के रूप में, कथा के रूप में, भजन के रूप में । प्रभु के अवतार के रूपों का हम ध्‍यान करते हैं श्रीरामजी, श्रीकृष्णजी के रूप में । भक्ति के प्रवाह को बल देने के लिए यह दोनों अत्‍यन्‍त उपयोगी हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 फरवरी 2013
74 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 9
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देवाधिदेव ! जगदीश्‍वर ! आप महायोगी हैं । आप मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए । आपके अतिरिक्‍त इस लोक में मुझे अभय देनेवाला और कोई नहीं है .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब अश्‍वत्‍थामा ने श्री परीक्षितजी की माता भगवती उत्‍तरा पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा तो वह दौड़ती हुई प्रभु के पास पहुँची और अपने स्‍वयं की एवं अपने गर्भ की रक्षा हेतु प्रभु से प्रार्थना की ।

प्रार्थना के इन शब्‍दों पर विशेष ध्‍यान दें कि आपके अतिरिक्‍त इस लोक में मुझे अभय देनेवाला और कोई नहीं । पहली बात, हमें यह दृढ़ विश्‍वास होना चाहिए कि प्रभु के अतिरिक्‍त हमारा मंगल करने वाला, हमें अभय देनेवाला कोई अन्‍य नहीं । अगर कोई संसारी भी हमारा मंगल करता है तो वह मात्र निमित्त बना है परंतु अदृश्य रूप से हमारा मंगल प्रभु ही कर रहें हैं । जब हम संसार को पुकारते हैं तो हमें निराशा ही हाथ लगती है जैसे भगवती द्रौपदीजी ने चीरहरण के वक्‍त पितामह, पति, गुरु को पुकारा एवं श्री गजेन्‍द्रजी ने ग्राह द्वारा पकड़े जाने पर अपने परिवार को पुकारा । दोनों ही दृष्टान्तों में जब अंत में पुकारने वाले ने हार कर प्रभु को पुकारा तब ही उद्धार हुआ । दोनों ही दृष्टान्तों में भय से अभय प्रभु ने ही दिया ।

दूसरी बात, संसार हमें भय देता है और प्रभु सर्वदा हमें अभय करते हैं, यह सिद्धांत है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 फरवरी 2013
75 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 23-25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हृषीकेश ! जैसे आपने दुष्‍ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्‍त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है । आप ही हमारे स्‍वामी हैं । आप सर्वशक्तिमान हैं । श्रीकृष्ण ! कहाँ तक गिनाऊँ - विष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, हिडिम्‍ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्‍टों की धूर्त-सभा से, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्ध में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्‍वत्‍थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने हमारी रक्षा की है । जगद्‌गुरुम् ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्ति आती रहे, क्‍योंकि विपत्ति में ही निश्‍चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्‍म-मृत्यु के चक्‍क्‍र में नहीं आना पड़ता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भगवती कुंतीजी का यह कृतज्ञता ज्ञापन एवं यह प्रार्थना मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय है । हम जीवन में अक्सर प्रभु को कृतज्ञता ज्ञापित करने से चूक जाते हैं । हमारा जीवन प्रभु के ऋण से लदा हुआ है । माँ के गर्भ में छटपटाते हुए वहाँ से मुक्ति हेतु हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं एवं प्रभु जन्‍म देकर वहाँ से मुक्ति देते हैं । यह पहला ऋण और इसके बाद निरंतर प्रभु कृपा के ऋण हम पर चढ़ते रहते हैं । पर हम कभी भी भगवती कुंतीजी की तरह उन ऋणों को याद करके प्रभु को कृतज्ञता ज्ञापित नहीं करते ।

भगवती कुंतीजी के उद्बोधन के कुछ शब्‍द बड़े मार्मिक हैं । पहला, "पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों में रक्षा की है" । भगवती कुंतीजी को बार-बार की विपत्तियां याद है और प्रभु द्वारा रक्षा के प्रसंग याद हैं । हम कितने ही प्रसंग भूल चुके होते हैं जब प्रभु ने हमारी रक्षा की । दूसरा, "आप ही हमारे स्‍वामी हैं " । भगवती कुंतीजी ने जीवन पर्यन्त प्रभु को ही अपना स्‍वामी माना । तीसरा, "कहाँ तक प्रभु के उपकार गिनाऊँ" । भगवती कुंतीजी प्रभु के उपकार याद करते-करते थक जाती है और कहती है कहाँ तक गिनाऊँ । कितने धन्‍य होते हैं वे लोग जो प्रभु उपकार को गिनते-गिनते नहीं थकते हैं और फिर भी उनकी गिनती पूर्ण नहीं होती । चौथा, "हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्ति आती रहे क्‍योंकि विपत्ति में ही निश्‍चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं" । भगवती कुंतीजी के सबसे ज्‍यादा प्रभावित करने वाले वे अमर शब्‍द हैं जब वे जीवन में विपत्ति मांगती हैं क्‍योंकि विपत्ति में हम प्रभु सानिध्‍य में, प्रभु शरण में जाते हैं । इस कारण हृदय पटल में प्रभु के दर्शन पाते हैं और जन्‍म-मरण से मुक्‍त हो जाते हैं ।

हमें जीवन पर्यन्त प्रभु के ऋणों को निरंतर गिनते रहने की आदत बनानी चाहिए, प्रभु से कृतज्ञता ज्ञापन निरंतर करते रहना चाहिए एवं प्रभु सानिध्‍य में निरंतर रहने का प्रयास करते रहना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 फरवरी 2013
76 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 26
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऊँचे कुल में जन्‍म, ऐश्‍वर्य, विद्या और संपत्ति के कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्‍य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता, क्‍योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं, जो अकिंचन हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त श्‍लोक में चार बातें बताई गई है जो हमारा घमंड बढ़ाती है और हमें प्रभु से दूर कर देती है । ऊँचे कुल का घमंड, ऐश्‍वर्य का घमंड, विद्या का घमंड एवं संपत्ति का घमंड हमें प्रभु से दूर करके हमारा पतन करवाता है ।

आज के परिप्रेक्ष्य में यह बात कितनी सत्‍य है कि उपरोक्‍त चार तरह के लोग प्रभु भजन-पूजन का ढोंग जरूर कर सकते हैं पर सच्‍चा भजन-पूजन उनसे नहीं होता ।

जो अकिंचन हैं, वे ही प्रभु का सच्‍चा भजन-पूजन कर पाते हैं एवं ऐसा करके प्रभु की भक्ति प्राप्‍त करते हैं एवं प्रभु के दुर्लभ साक्षात्कार हेतु प्रस्‍तुत होते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 फरवरी 2013
77 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 27
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप निर्धनों के परम धन हैं । माया का प्रपंच आपको स्‍पर्श भी नहीं कर सकता । आप अपने आप में विहार करने वाले, परम शान्‍तस्‍वरूप हैं । आप ही कैवल्‍य मोक्ष के अधिपति हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त श्‍लोक तीन बातों का बोध कराता है ।

पहला, प्रभु निर्धनों के परम धन हैं । निर्धन के पास कोई धन नहीं होता पर वे भी भक्ति पथ पर चलकर प्रभुरूपी परम धन प्राप्‍त कर सबसे धनवान बन सकते हैं ।

दूसरा, माया का प्रपंच प्रभु को स्‍पर्श भी नहीं कर सकता । हम माया में रहकर मायापति यानी प्रभु को कभी भी नहीं प्राप्त कर सकते । माया के प्रपंच से निकलने पर ही मायापति यानी प्रभु मिलते हैं ।

तीसरा, प्रभु ही केवल मोक्ष के अधिपति हैं । मोक्ष देने का सामर्थ्‍य अकेले प्रभु में ही है । प्रभु के अलावा कोई भी मोक्षदायक यानी मोक्ष देने वाला नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 फरवरी 2013
78 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 28
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं आपको अनादि, अनन्‍त, सर्वव्‍यापक, सबके नियंता, कालरूप परमेश्‍वर समझती हूँ । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के असंख्‍य सद्गुणों में से पांच सद्गुणों का वर्णन यहाँ मिलता है ।

प्रभु अनादि हैं यानी हर युग में हर काल में स्थित हैं । प्रभु अनन्‍त हैं यानी बिना किसी अंत के, निरंतर हैं । प्रभु सर्वव्‍यापक हैं यानी सबमें व्‍यापने वाले हैं, सभी में स्थित हैं । प्रभु सबके नियंता हैं यानी सबको नियंत्रण करने वाले, सबको निर्मित करने वाले हैं । प्रभु कालरूप हैं यानी काल के रूप में भी प्रभु ही हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 फरवरी 2013
79 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 35-36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना और कर्मों के बंधन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं, उन लोगों के लिए श्रवण और स्‍मरण करने योग्‍य लीला करने के विचार से ही आपने अवतार ग्रहण किया है । भक्‍तजन बार-बार आपके चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्‍मरण करके आनंदित होते रहते हैं, वे ही अविलम्‍ब आपके उस चरणकमल का दर्शन कर पाते हैं, जो जन्‍म-मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिए रोक देता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी को पाप मुक्‍त करने हेतु, धर्म की पुनर्स्थापना हेतु प्रभु अवतार ग्रहण करते हैं । यह व्याख्या सही भी है । परंतु प्रभु संकल्‍प मात्र से भी अपने स्‍वधाम में बैठे-बैठे ऐसा कर सकते हैं । प्रभु के संकल्‍प मात्र से पृथ्वी पाप रहित हो जाती और अधर्म का नाश हो जाता । फिर प्रभु को अवतार लेने की क्‍या जरूरत ?

अवतार ग्रहण का एक सच्‍चा कारण यहाँ मिलता हे । अज्ञानी, कामनाओं से जकड़े हुए और कर्म बंधन में बंधे लोगों के लिए प्रभु की मनोहर श्रीलीलाओं के रसास्‍वादन यानी श्रवण, स्‍मरण, गान एवं कीर्तन हेतु प्रभु अवतार ग्रहण करते हैं । प्रभु अवतार लेकर मधुर श्रीलीलाएं करते हैं जिसका श्रवण, स्‍मरण, गान एवं कीर्तन युगों-युगों तक प्रेमी भक्‍तजन करके अपना उद्धार करते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 फरवरी 2013
80 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 8
श्लो 42
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्रीकृष्ण ! जैसे गंगा की अखण्‍ड धारा समुद्र में गिरती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरंतर प्रेम करती रहे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भगवती कुंतीजी का प्रभु से निवेदन कि जैसे श्रीगंगा धारा समुद्रदेवजी में समाती है वैसे ही हमारी बुद्धि प्रभु में ही समाए । हमारी बुद्धि अन्‍यत्र भटके नहीं । बुद्धि प्रभु में लगे और हम प्रभु से निरंतर प्रेम करते रहें ।

हमारी बुद्धि न जाने कहाँ-कहाँ भटकती है, न जाने किन-किन चीजों में उलझती रहती है । सात्विक बुद्धि वही होती है जो जीवन पर्यन्त प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित रहे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 फरवरी 2013
81 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 9
श्लो 10
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे । अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्‍य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्‍वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भीष्‍म पितामह के प्राण त्‍याग के समय सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षि उनसे ज्ञान लेने और उन्‍हें विदा करने उपस्थित हुए । पर श्री भीष्‍म पितामह प्रभु की बाट जोह रहे थे ।

जब प्रभु पधारे तब उन्‍होंने बाहर श्रीलीला कर रहे श्रीकृष्ण रूप में एवं भीतर अपने हृदय में विराजमान जगदीश्‍वर रूप में, दोनों जगह प्रभु की पूजा की ।

ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि हम हृदय में विराजे प्रभु को अक्सर भूल जाते हैं एवं बाहर ही प्रभु को तलाशते हैं, पूजा करते हैं । यहाँ संकेत है कि हृदय में विराजमान प्रभु को हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 मार्च 2013
82 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 9
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार काल भगवान के अधीन है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भीष्‍म पितामह, जो धर्म का मर्म जानते थे, ने उक्‍त वचन पाण्‍डवों को शरशय्या से कहे ।

कितना सुन्‍दर दृष्टान्त है कि जिस तरह बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही सारा संसार प्रभु के वश में रहता है ।

बादल की अपनी कोई दिशा नहीं होती । वायु का वेग उन्हें जिस दिशा में ले जाता है वे चले जाते हैं । बादल का अस्तित्‍व ही वायु के अधीन है । ठीक वैसे ही संसार का अस्तित्‍व ही प्रभु के अधीन है । संसार प्रभु के दिशा निर्देश पर चलता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 मार्च 2013
83 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 9
श्लो 17
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संसार की ये सब घटनाएं ईश्‍वरेच्‍छा के अधीन हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भीष्‍म पितामह के पाण्‍डवों को उपदेश में कहे गए शब्‍द ।

संसार में घटित सभी घटनाएं ईश्‍वर की इच्‍छा के अनुरूप घटती हैं । वे सभी ईश्‍वर की इच्‍छा के अधीन होती हैं ।

एक कहावत है कि "सब कुछ प्रभु इच्‍छा से होता है" को प्रामाणिकता देता यह श्‍लोक । पत्‍ता हवा के झोंके से हिलता है पर हवा प्रभु की इच्‍छा के अनुरूप चलती है । पत्‍ते को हिलाने की शक्ति भी वायु रूप में प्रभु की ही है । यह तथ्‍य समझना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 मार्च 2013
84 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 9
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवत्‍परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्‍याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर्म के बंधन से छूट जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भीष्‍म पितामह ने जीवन की अंतिम अवस्‍था में क्‍या करना चाहिए, यह उपरोक्‍त श्‍लोक में बताया है । भक्तिभाव से भरकर प्रभु में अपना मन लगाकर और वाणी से प्रभु नाम का कीर्तन करते हुए शरीर छूटे तब कामनाओं और कर्म के बंधन से जीव सदा के लिए मुक्‍त हो जाता है ।

पर अंत समय में एकाएक ऐसा नहीं हो सकता । ऐसा हो उसके लिए तैयारी और अभ्‍यास पहले से ही करना पड़ेगा । यह तैयारी और अभ्‍यास प्रभु में मन लगाने का और प्रभु का नाम जिह्वा पर आने का हमें जीवनकाल में ही करना पड़ेगा तभी अंत समय में ऐसा हो सकेगा ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 मार्च 2013
85 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 9
श्लो 31
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनको शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी, वह तो भगवान के दर्शन मात्र से ही तुरंत दूर हो गई तथा भगवान की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्‍ट हो गए । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उत्‍तरायण का समय आने पर श्री भीष्‍म पितामह ने अपना मन सब ओर से हटा कर अपने सामने स्थित प्रभु में लगा दिया । अपने नेत्रों को प्रभु के श्रीकमलचरणों पर टिका दिया और प्रभु की स्‍तुति करने लगे ।

ऐसा करते ही उनके शरीर में शस्त्रों की चोट के कारण जो पीड़ा थी वह तत्काल खत्‍म हो गई । सबसे महत्‍वपूर्ण बात जो हुई वह यह कि उनके जो अशुभ अभी शेष बचे थे वह स्वतः ही नष्‍ट हो गए ।

जीवन की अंतिम अवस्‍था में प्रभु का किया ध्‍यान हमारी पीड़ा एवं शेष बचे अशुभों को नष्‍ट कर देता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 मार्च 2013
86 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 9
श्लो 37
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोडूंगा, उसे सत्‍य एवं ऊँ‍‍ची करने के लिए उन्‍होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्‍तवत्‍सल प्रभु अपने भक्‍तों के मान को रखने के लिए कहाँ तक जाते हैं इसका प्रतिपादन श्री भीष्‍म पितामह ने उपरोक्‍त श्‍लोक में कराया है ।

श्री भीष्‍म पितामह ने प्रतिज्ञा की थी कि वे प्रभु से युद्ध में शस्त्र उठवाएंगे । उससे पहले ही प्रभु ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि वे युद्धभूमि में शस्त्र नहीं उठाएंगे । दोनों प्रतिज्ञा विरोधाभासी थी जिसके कारण एक का टूटना निश्‍चित था । प्रभु ने अपने भक्‍त का मान रखते हुए उनकी प्रतिज्ञा पूरी करवाई और स्‍वयं की प्रतिज्ञा तोड़ डाली । तभी तो भजन के शब्‍द चरितार्थ हुए "अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा" ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 मार्च 2013
87 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 10
श्लो 3
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान के आश्रय में रहकर वे समुद्रपर्यन्‍त सारी पृथ्वी का इन्‍द्र के समान शासन करने लगे । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री युधिष्ठिरजी ने महाभारत के युद्ध के पश्चात राजसिंहासन पर बैठकर किस तरह राज्‍य किया उसे दर्शाता यह श्‍लोक ।

ध्‍यान देने योग्‍य दो बातें हैं । पहली, उनका राज्‍य समुद्रपर्यन्‍त पूरी पृथ्वी का था जिस पर वे श्री इंद्रदेवजी के समान शासन करते थे । दूसरी, सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि ऐसा करते हुए वे सदैव प्रभु के आश्रय में रहते थे ।

छोटा-सा साम्राज्य या संपदा मिलने पर हमारा अहंकार हमारे सिर चढ़ बोलता है और हम प्रभु को भूल जाते हैं । पर पूरी पृथ्वी का राज्‍य मिलने पर भी श्री युधिष्ठिरजी प्रभु को नहीं भूले एवं सदा उनके आश्रय में रहे । राजा के रूप में उनकी सफलता का यही रहस्‍य था । प्रभु के आश्रय में रहना ही सफलता की कुंजी है क्‍योंकि ऐसा करने से हमारी बुद्धि स्थिर एवं सात्विक रहती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 मार्च 2013
88 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 10
श्लो 11
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वह विचारशील पुरुष भगवान के मधुर-मनोहर सुयश को एक बार भी सुन लेने पर फिर उसे छोड़ने की कल्‍पना भी नहीं करता । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्‍लोक में बताया गया है कि जो प्रभु की मधुर-मनोहर सुयशरूपी कथाएं एक बार सुन लेता है उसे छोड़ने की वह कल्‍पना भी नहीं कर सकता । प्रभु से दूर रहना तो बहुत दूर की बात है, ऐसी कल्‍पना भी वह नहीं कर सकता ।

इसके दो मुख्‍य कारण हैं । पहला, जो आनंद उसे ऐसा करने से प्राप्‍त होता है वह अन्‍यत्र कहीं प्राप्‍त नहीं होता । दूसरा, बार-बार प्रभु के बारे में सुनने से वह प्रभु की प्रेमाभक्ति के बंधन में बंध जाता है ।

इसलिए प्रभु की मधुर-मनोहर सुयशरूपी कथाएं हमें जीवन में बार-बार सुनते रहने का प्रयास करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 मार्च 2013
89 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 10
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वास्‍तव में इन्हीं की भक्ति से अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादि के द्वारा नहीं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - हमारे अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि कैसे हो सकती है इसका उपाय यहाँ बताया गया है ।

योग आदि अन्‍य उपायों से अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि कतई संभव नहीं । यह तो सिर्फ प्रभु की भक्ति से ही संभव है क्‍योंकि भक्ति हमारे अंतःकरण को निर्मल करती जाती है, हमारे विकारों को हटाती चली जाती है ।

सच्‍चा भक्‍त कभी अनैतिक या मर्यादा रहित आचरण नहीं कर सकता क्‍योंकि ऐसा करने से वह "प्रभु का" कहलाने की पात्रता खो देता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 मार्च 2013
90 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 11
श्लो 6
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हम आपके उन चरण कमलों को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जो संसार में परम कल्‍याण चाहनेवालों के लिए सर्वोत्‍त्‍म आश्रय हैं, जिनकी शरण लेने पर परम समर्थ काल भी एक बाल तक बाँका नहीं कर सकता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के श्रीकमलचरणों की महिमा बताता यह श्‍लोक ।

जो जीव संसार में आकर अपना परम कल्‍याण चाहते हैं उनके लिए सर्वोत्‍तम आश्रय प्रभु के श्रीकमलचरण ही हैं । इससे बड़ा आश्रय, इससे बड़ा आधार जगत में और कोई नहीं है ।

दूसरी बात जो बताई गई है वह हमारे अनिष्‍ट के डर को खत्‍म करती है । काल को बड़ा बलवान माना जाता है पर प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने पर ऐसा सामर्थ्‍यवान काल भी हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता । भय भी जिसको भयभीत नहीं कर सकता, काल भी जिसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, ऐसी अदभुत महिमा प्रभु के श्रीकमलचरणों के आश्रय की है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 मार्च 2013
91 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 11
श्लो 7
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप ही हमारे माता, सुहृद, स्‍वामी और पिता हैं, आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्‍यदेव हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जीवन में अगर हम यह पांच रिश्‍ते प्रभु से जोड़ लें तो हमारा परम कल्‍याण हो जाता है ।

हम संसारियों से रिश्‍ता जोड़ते हैं जो दुनियादारी कहलाती है । पर हम प्रभु से रिश्‍ता जोड़ना प्रायः भूल जाते हैं, प्रायः चूक जाते हैं ।

इस श्‍लोक में पांच श्रेष्‍ठ रिश्‍ते जो एक जीव के प्रभु से हो सकते हैं, वह बताए गए हैं । प्रभु हमारी माता, हमारे स्‍वामी एवं हमारे पिता हैं । प्रभु हमारे सद्गुरु एवं हमारे आराध्‍यदेव हैं ।

यह पांच आधारभूत रिश्‍ते हर जीव को प्रभु से बनाने चाहिए तभी उसकी गति है । इसके अलावा भी वह प्रभु से अन्‍य रिश्‍ते बनाने हेतु स्‍वतंत्र है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 अप्रैल 2013
92 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 11
श्लो 26
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनकी भुजाएं लोकपालों को शक्ति देनेवाली हैं । उनके चरणकमल भक्‍त परमहंसों के आश्रय हैं । उनके अंग-अंग शोभा के धाम हैं । भगवान की इस छवि को द्वारकावासी नित्‍य-निरंतर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षण के लिए भी तृप्‍त नहीं होती ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - लोक के पालन हेतु नियुक्‍त लोकपाल को शक्ति देने वाले प्रभु हैं । प्रभु की शक्ति से ही वे अपना कार्य निष्‍पादित करते हैं । उनमें स्‍वयं की कोई शक्ति नहीं ।

प्रभु के श्रीकमलचरण भक्‍तों एवं परमहंसों का आश्रय स्‍थान हैं । सभी भक्‍तों एवं परमहंसों की अंतिम आकांक्षा प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्‍थान पाना है ।

प्रभु के प्रत्‍येक श्रीअंग शोभा के धाम हैं । उनकी शोभा का कितना भी वर्णन करें फिर भी वह प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को दीपक दिखाने जैसा ही होगा । इसलिए प्रभु की छवि को नित्‍य-निरंतर निहारते रहने पर भी भक्‍तों की आँखें एक क्षण के लिए भी तृप्‍त नहीं होती । सच्‍चे भक्‍तों की आँखें सदैव अपने प्रभु की छवि को निहारते ही रहना चाहती हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 अप्रैल 2013
93 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 11
श्लो 29
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
स्‍नेह के कारण उनके स्‍तनों से दूध की धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्ष से विह्वल हो गया और वे आनंद के आंसुओं से उनका अभिषेक करने लगीं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु जब श्रीलीला करने के लिए पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करते हैं तो जिन्‍हें प्रभु के साथ रहने का परम सौभाग्‍य प्राप्‍त होता है वे प्रभु से कितना स्‍नेह करते हैं, इसको दर्शाता यह श्‍लोक ।

प्रभु जब पाण्‍डवों से विदा लेकर श्री द्वारकाजी पधारे और अपनी माता से मिलें तो प्रभु से मिलने के स्‍नेह के कारण उनके स्‍तनों से दूध की धारा स्वतः बहने लगी, उनका हृदय हर्ष से अभिभूत हो उठा और उन्होंने आनंद की अश्रुधारा से प्रभु का अभिषेक कर दिया ।

जितने प्रेम की हम कल्‍पना कर सकते हैं, उस कल्‍पना से भी अधिक प्रेम हमें प्रभु से करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 अप्रैल 2013
94 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 12
श्लो 5-6
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनके पास अतुल संपत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किए थे तथा उनके फलस्‍वरूप श्रेष्‍ठ लोकों का अधिकार प्राप्‍त किया था । उनकी रानियां और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्‍वामी थे और उनकी कीर्ति स्‍वर्ग तक फैली हुई थी । उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिए देवतागण भी लालायित रहते हैं । परन्‍तु जैसे भूखे मनुष्‍य को भोजन के अतिरिक्‍त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्‍हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्‍तु सुख नहीं देती थी ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी के बारे में बताता यह श्‍लोक बड़ा शिक्षाप्रद है ।

हम सोचते हैं कि हमें संपत्ति, परिजन, भोग, कीर्ति इत्‍यादि सुख देगी पर धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी के पास अंत में अतुल संपत्ति, श्रेष्‍ठ लोकों पर अधिकार, अनुकूल परिजन, जम्बूद्वीप का स्‍वामित्‍व, स्‍वर्ग तक फैली कीर्ति थी । भोग की इतनी सामग्री, जिसके लिए देवतागण भी लालायित रहते हैं, उनके पास थी फिर भी उन्‍हें यह सब चीजें सुख नहीं देती थी ।

हम भी सुख की चाह में कहाँ-कहाँ नहीं भटकते, क्‍या-क्‍या नहीं करते पर संसार में कहीं भी सुख नहीं है । प्रभु के सानिध्‍य में ही सच्‍चा आनंद और परमानंद है जो कि सुख से बहुत ऊँ‍‍ची अवस्‍था है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 अप्रैल 2013
95 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 12
श्लो 15-16
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्‍तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिए भगवान विष्‍णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री परीक्षितजी के जन्‍म के समय ब्राह्मणों ने ऐसे वचन धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी को कहे ।

ध्‍यान देने योग्‍य बात है कि प्रभु काल की गति को भी प्रतिकूल से अनुकूल कर देते हैं । अश्‍वत्‍थामा के ब्रह्मास्त्र से काल द्वारा पाण्‍डव वंश को मिटाना तय था पर प्रभु ने स्‍वयं गर्भ में प्रवेश कर अपनी गदा से ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्‍त किया और पाण्‍डवों पर कृपा करते हुए नन्‍हें शिशु श्री परीक्षितजी की रक्षा की ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 अप्रैल 2013
96 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध)
अ 13
श्लो 10
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप जैसे भगवान के प्‍यारे भक्‍त स्‍वयं ही तीर्थस्‍वरूप होते हैं । आप लोग अपने हृदय में विराजमान भगवान के द्वारा तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - धर्मराज श्री युधिष्ठिरजी ने उपरोक्‍त वचन प्रभु के प्रिय भक्‍त श्री विदुरजी को कहे । भक्ति की महिमा बताता यह श्‍लोक ।

प्रभु की भक्ति करने से इतने पुण्य इकट्ठे हो जाते हैं कि भक्‍त स्‍वयं तीर्थस्‍वरूप हो जाता है । पवित्र तीर्थ भी ऐसे भक्‍तों को अपने पास पाकर धन्‍य हो जाते हैं क्‍योंकि ऐसे भक्‍तों के विचरण करने के कारण तीर्थ भी महातीर्थ बन जाते हैं ।

तीर्थों को भी महातीर्थ बना दे, ऐसी महिमा भक्ति के कारण प्रभु भक्त की हो जाती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 अप्रैल 2013