क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
697 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अरे ! उनके संकल्प मात्र से, भौंहों के इशारे से सारे जगत का परम कल्याण हो सकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु के संकल्प मात्र से सारे जगत का परम कल्याण हो जाता है । प्रभु को स्वयं कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि प्रभु के संकल्प करते ही सभी का कल्याण स्वतः ही हो जाता है । प्रभु के भौंहों के इशारे मात्र से जीव और जगत का परम कल्याण सिद्ध हो जाता है । सारे जगत के कल्याण को करने की क्षमता एकमात्र प्रभु ही रखते हैं । प्रभु को अपनी उस क्षमता को उपयोग करने के लिए मात्र संकल्प करने की आवश्यकता है । प्रभु जगत के परम हितैषी हैं और जगत के कल्याण के लिए तत्पर रहते हैं ।
इसलिए जो भी अपना कल्याण चाहता है उसे अपने को भक्ति के द्वारा प्रभु से जोड़ कर रखने की आवश्यकता है ।
प्रकाशन तिथि : 12 मार्च 2017 |
698 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाकचातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहा, क्यों न हो, भूत, भविष्य और वर्तमान काल के जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब प्रभु ने श्रीरास में गोपियों का आह्वान करने के लिए बांसुरी वादन किया तो उसे सुनकर सभी गोपियां प्रभु से मिलने के लिए दौड़कर आ गई । जब प्रभु ने देखा कि गोपियां प्रभु के एकदम समीप आ पहुँची तब प्रभु ने उन्हें मोहित करने के लिए अपने मधुर वचन बोलने प्रारंभ किए । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि भूत, भविष्य और वर्तमान काल में जितने भी वक्ता हुए हैं उनमें प्रभु सर्वश्रेष्ठ हैं । प्रभु के जैसा वाक्चातुर्य किसी अन्य के पास नहीं है । प्रभु की वाणी अपना जादू करके जीव को मोहित कर देती है ।
प्रभु अपने प्रत्येक व्यवहार से जीव को मोहित कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 12 मार्च 2017 |
699 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
गोपियों ने अपने प्यारे श्यामसुंदर के लिए सारी कामनाएं, सारे भोग छोड़ दिए थे । श्रीकृष्ण में उनका अनंत अनुराग, परम प्रेम था । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
गोपियों का प्रभु प्रेम एक आदर्श है । उनके प्रभु प्रेम को समझना भी बहुत कठिन है । प्रभु में उनका इतना अथाह प्रेम है जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते तो शब्दों में बयां करना तो सर्वथा असंभव है । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि गोपियों ने अपने प्यारे प्रभु के लिए अपनी सारी कामनाओं का त्याग कर दिया था । उन्होंने प्रभु के लिए सारे सांसारिक भोगों को ठुकरा दिया था । प्रभु से उनका अत्यंत अनुराग था और परम प्रेम था । गोपियों के लिए प्रभु ही उनके सब कुछ थे । वे मात्र प्रभु के लिए ही अपना जीवन धारण करतीं थीं ।
प्रभु प्रेम की सच्ची ऊँचाइयों को गोपियों ने छुआ था इसलिए गोपियां प्रभु प्रेम की आदर्श हैं ।
प्रकाशन तिथि : 13 मार्च 2017 |
700 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... फिर भी तुम अपनी ओर से, जैसे आदिपुरुष भगवान नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो । हमारा त्याग मत करो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
जब गोपियां प्रभु का बांसुरी वादन सुनकर श्रीरास के लिए आई तो पहले तो प्रभु ने उनको महाभाग्यवती कहकर उनका स्वागत किया पर फिर उन्हें उनके परिवार और सांसारिक कर्तव्य की याद दिलाकर और रात्रि का समय है यह कहकर वापस जाने को कहा । यह सुनते ही गोपियों का मुँह लटक गया, वे चुपचाप खड़ी रही और उनकी आँखें रोते-रोते लाल हो गई । गोपियों ने फिर प्रभु से कहा कि वे सब कुछ छोड़कर केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों से ही प्रेम करतीं हैं । उन्होंने प्रभु से कहा कि जैसे प्रभु अपने भक्तों पर कृपा करते हैं और अपने भक्तों से प्रेम करते हैं वैसे ही प्रेम से प्रभु उन्हें भी स्वीकार लें और उनका त्याग नहीं करें ।
जीव की पात्रता नहीं होती है कि वह प्रभु का प्रेम पा सके पर फिर भी करुणानिधान प्रभु भक्तों पर कृपा करते हैं और इसी कारण पात्रता नहीं होने पर भी जीव प्रभु के प्रेम को पा लेता है ।
प्रकाशन तिथि : 13 मार्च 2017 |
701 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारे विरह-व्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
गोपियां कहतीं हैं कि अब हम अपने पति, पुत्र, भाई, बंधु की जगह प्रभु की ही सेवा करना चाहतीं हैं क्योंकि प्रभु ने उनका चित्त चुरा लिया है । पहले उनका चित्त घर के काम धंधों में लगता था पर अब वह केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही लगता है । वे अब प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा छोड़कर एक पल भी हटने को तैयार नहीं हैं । उनके हृदय में अब तो केवल प्रभु प्रेम और प्रभु मिलन की आस है । अगर प्रभु ने उनके प्रेम और प्रभु मिलन की अभिलाषा को स्वीकार नहीं किया तो वे प्रभु के विरह की आग में अपने शरीर को जला देंगी और ध्यान के माध्यम से प्रभु के श्रीकमलचरणों के सानिध्य को प्राप्त करेंगी ।
गोपियों का प्रभु प्रेम विलक्षण है । उनके प्रभु प्रेम की मिसाल कहीं भी मिलना असंभव है ।
प्रकाशन तिथि : 15 मार्च 2017 |
702 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अब तक के सभी भक्तों ने उस चरण रज का सेवन किया है । उन्हीं के समान हम भी तुम्हारी उसी चरण रज की शरण में आई हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
गोपियां कहतीं हैं कि अब तक के भक्तों ने केवल प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज का सेवन किया है और अपने को धन्य किया है । गोपियां कहतीं हैं कि उन्हीं भक्तों की तरह अब वे भी प्रभु के उन्हीं श्रीकमलचरणों की रज की शरण में आई हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की महिमा अपरंपार है । ऋषि, संत और भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज के सेवन के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा देते हैं । गोपियां भी प्रभु के उन श्रीकमलचरणों की रज की शरण ग्रहण कर उनका सेवन करना चाहतीं हैं ।
अब तक जिसने भी प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ली है और प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज का सेवन किया है उन्हें परमगति प्राप्त हुई है ।
प्रकाशन तिथि : 15 मार्च 2017 |
703 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! अब तक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिए । अब तुम हम पर कृपा करो । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
गोपियां अपने घर, कुटुम्ब सब कुछ छोड़कर प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण की अभिलाषा से आई थीं । प्रभु की शरण में आकर उन्होंने प्रभु से उन्हें स्वीकार करने की प्रार्थना की । उन्होंने प्रभु से कहा कि उन्हें पता है कि अब तक जिसने भी प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ली है उनके सारे कष्ट प्रभु ने मिटा दिए हैं । इसलिए प्रभु कृपा करके उन्हें शरण में लें इसी अभिलाषा से वे आई हैं । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु की शरणागति ग्रहण करते ही उस जीव के सारे पाप, कष्ट और विपदा का प्रभु तत्काल ही अंत कर देते हैं । शरणागति होते ही उस जीव का पूरा दायित्व प्रभु स्वयं उठा लेते हैं । उस जीव की पूरी जिम्मेदारी प्रभु अपने ऊपर ले लेते हैं ।
इसलिए सभी जीवों को चाहिए कि मानव जीवन पाकर प्रभु की शरणागति ग्रहण करें तभी उनका कल्याण है ।
प्रकाशन तिथि : 16 मार्च 2017 |
704 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो । हमें अपनी सेवा का अवसर दो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
गोपियां अपने प्रभु प्रेम के बल पर और शरणागति के कारण प्रभु की सेवा करने का अवसर प्रभु से चाहतीं हैं । वे कहतीं हैं कि प्रभु उन्हें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लें और अपनी सेवा का अवसर प्रदान करें । प्रभु की सेवा करने का भाव जिसके जीवन में जागृत होता है वह धन्य होता है । प्रभु के सेवक बनकर जीवन यापन करना सबसे श्रेष्ठ होता है । प्रभु हमारे स्वामी हैं और हम प्रभु के सेवक हैं यह भाव जीवन में जागृत करना चाहिए । गोपियों ने यही भाव जीवन में जागृत किया है इसलिए दासी रूप में प्रभु से सेवा का अवसर चाहतीं हैं ।
जीव को भी जीवन में प्रभु की सेवा का भाव अपने भीतर जागृत करना चाहिए और स्वयं को प्रभु का दास मानना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 16 मार्च 2017 |
705 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम्हारी ये दोनों भुजाएं, जो शरणागतों को अभयदान देने में अत्यंत उदार हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
गोपियां प्रभु के श्रीअंगों के सौंदर्य और गुणों का वर्णन करती हैं । इस वर्णन में उन्होंने प्रभु की भुजाओं का जो वर्णन किया वह बड़ा हृदयस्पर्शी है । गोपियां कहतीं हैं कि प्रभु की दोनों भुजाएं शरणागतों को अभय प्रदान करने में अत्यंत उदार हैं । बड़ी उदारता के साथ प्रभु की भुजाएं अपने शरणागतों को अभय प्रदान करती हैं । जो भी प्रभु के श्रीकरकमलों की छत्रछाया में आ जाता है प्रभु उसे हर भय से अभय कर देते हैं, उसके विपदा और कष्टों को हर लेते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु के श्रीकरकमलों की छत्रछाया में रहकर प्रभु की शरणागति ग्रहण करे ।
प्रकाशन तिथि : 17 मार्च 2017 |
706 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 29
श्लो 41 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने प्रभु से कहे ।
गोपियां कहती हैं कि यह एक स्पष्ट सिद्धांत है कि प्रभु दीन दुखियों से बड़ा प्रेम करते हैं और उन पर बड़ी कृपा करते हैं । जिसका कोई नहीं होता उसके प्रभु होते हैं । प्रभु का व्रत है कि जो दीन और दुःखी हो, विपदा और कष्ट में हो, भय से पीड़ित हो उन पर प्रभु कृपा करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं । दीन दुखियों के लिए यह कितना बड़ा संबल है कि उनके साथ सदैव प्रभु होते हैं । जगत दीन और दुखियों की अवहेलना करता है पर प्रभु उन पर कृपा करते हैं और उनसे प्रेम करते हैं ।
प्रभु परम कृपालु और परम दयालु हैं और सभी दीन और दुखियों से पिता के भांति करुणा का व्यवहार करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 17 मार्च 2017 |
707 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 30
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्णस्वरूप हो गई और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई "मैं श्रीकृष्ण ही हूँ", इस प्रकार कहने लगी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब गोपियों के मन में लीलावश गर्व आया और वे मान करने लगी कि हम कुछ विशेष हैं तभी प्रभु हमारे साथ विहार कर रहे हैं तो प्रभु उनके बीच से अंतर्ध्यान हो गए । प्रभु सब कुछ सह लेते हैं पर भक्त और प्रेमी का अहंकार बिलकुल भी सहन नहीं करते । प्रभु के अंतर्ध्यान होने के बाद प्रभु प्रेम में मतवाली गोपियां श्रीकृष्णमयी हो गईं । वे अपने आपको भूलकर प्रभु की श्रीलीलाओं का अनुकरण करने लगीं । वे प्रभु का अभिनय करने लगीं और मैं श्रीकृष्णजी हूँ, इस प्रकार कहने लगीं । गोपियां प्रभु से इतना प्रेम करतीं थीं कि प्रभु के अंतर्ध्यान होने पर वे बेहद व्याकुल हो गई ।
प्रभु के लिए प्रेम और भक्ति के साथ अहंकार का कोई स्थान नहीं होता, इस बात से हमें सदैव सतर्क रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 18 मार्च 2017 |
708 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 30
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गए थे । वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं । वे वहीं थे, उन्हीं में थे, परंतु उन्हें न देखकर गोपियां वनस्पतियों से, पेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब प्रभु गोपियों के बीच से अंतर्ध्यान हुए तो गोपियां ऊँचे स्वर में प्रभु के गुणों का गान करने लगीं और मतवाली होकर जगह-जगह प्रभु को ढूँढने लगीं । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु कहीं दूर थोड़े न गए थे, वे तो समस्त जड़ चेतन में एक समान ही स्थित हैं । प्रभु वहीं थे, उन्हीं के बीच में थे पर गोपियों की दृष्टि में प्रकट नहीं हो रहे थे । संतजन इस प्रसंग की व्याख्या करके कहते हैं कि मानो प्रभु गोपियों के प्रेम की परीक्षा ले रहे थे कि प्रभु के अंतर्ध्यान होने पर गोपियों की व्याकुलता कितनी है और गोपियों का अहंकार गला की नहीं ।
प्रभु सदैव अप्रकट रूप से हमारे बीच है और प्रेम भाव और भक्ति से प्रकट होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 18 मार्च 2017 |
709 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 30
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्यारी सखियों ! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिए उस रज को अपने सिर पर धारण करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन गोपियों ने आपस में बातचीत करते हुए कहे ।
जब प्रभु अंतर्ध्यान हुए तो गोपियां प्रभु को ढूँढने के लिए वन में भटकने लगीं । उसी समय उन्हें एक स्थान पर प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीचिह्न दिखे । तब गोपियों ने कहा कि प्रभु के श्रीकमलचरण जहाँ भी रज को स्पर्श कर देते है, वे धन्य हो जाती हैं । उन रज कणों का अहोभाग्य हो जाता है क्योंकि उन्हें देवता, ऋषि, संत और भक्त अपने अशुभ को नष्ट करने के लिए अपने सिर पर धारण करते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की महिमा अपरंपार है । उसे मस्तक पर धारण करने के लिए सभी लालायित रहते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज पुण्य के उदय होने पर प्राप्त होती है और जीव के मंगल का सूचक है ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की महिमा का गान सभी ऋषि, संत और भक्त करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 19 मार्च 2017 |
710 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 30
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परीक्षित ! गोपियों का मन श्रीकृष्णमय हो गया था । उनकी वाणी से कृष्ण चर्चा के अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु के अंतर्ध्यान होने के बाद प्रभु को लगातार वन में ढूँढती गोपियों का मन श्रीकृष्णमय हो गया । उनकी वाणी से प्रभु चर्चा के अलावा अन्य कोई बात नहीं निकलती थी । अपने शरीर से वे प्रभु को पाने के लिए चेष्टाएं कर रही थी । उनका रोम-रोम और उनकी आत्मा प्रभुमय हो गई थी । वे प्रभु के गुण और श्रीलीलाओं का निरंतर गान करती जा रही थी । वे तन्मय होकर प्रभु की श्रीलीलाओं का अनुकरण कर रही थी जिससे उन्हें अपने शरीर की सुध भी नहीं रही थी । गोपियों को न तो अपने परिवार, घर या बच्चों की याद आ रही थी और न ही उन्हें रात्रि का डर सता रहा था । वे बस एक बात की प्रतीक्षा कर रही थी कि प्रभु जल्द-से-जल्द वापस आ जाएं ।
गोपियों जैसा प्रभु प्रेम कहीं भी देखने को नहीं मिलता इसलिए ही प्रभु प्रेम के आदर्श के रूप में गोपियों का नाम आज भी लिया जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 19 मार्च 2017 |
711 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम केवल यशोदानंदन ही नहीं हो, समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहने वाले उनके साक्षी हो, अंतर्यामी हो । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
जब प्रभु अंतर्ध्यान हुए तो विरह की वेदना को गोपियां सह नहीं पाई और विरह गीत के माध्यम से यह वेदना प्रकट हुई । गोपियां प्रभु से कहतीं हैं कि प्रभु सबके हृदय में रहने वाले साक्षी हैं । प्रभु सबके अंतर्यामी हैं । दोनों बातें सिद्धांत के रूप में सत्य हैं । प्रभु सभी चराचर जीवों के हृदय में निवास करते हैं और साक्षी भाव से सब कुछ देखते हैं । प्रभु से कुछ भी छिपा नहीं है । हम जो भी सोचते हैं, करते हैं, बोलते हैं, देखते हैं उसका साक्षी भाव से प्रभु को ज्ञान होता है । प्रभु अंतर्यामी हैं और हमारे अंतःकरण की सभी भावनाओं का ज्ञान प्रभु को होता है ।
प्रभु अंतर्यामी हैं और साक्षी भाव से हमारे भीतर विराजमान हैं, इस तथ्य का जब हम अनुभव करेंगे तो फिर हम जीवन में कुछ भी गलत नहीं करेंगे ।
प्रकाशन तिथि : 20 मार्च 2017 |
712 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछाया में लेकर अभय कर देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
गोपियां कहतीं हैं कि जो लोग जन्म-मृत्यु रूपी संसार के चक्कर से डरकर प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करते हैं उन्हें प्रभु अपने करकमलों की छत्रछाया में लेकर अभय प्रदान कर देते हैं । जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटने का सबसे सरल उपाय प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करना है । पूर्ण शरणागति होने पर प्रभु हमें जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्त कर देते हैं । पूर्ण शरणागति होने पर प्रभु अपने करकमलों की छत्रछाया में लेकर हमें संसार के भय से सदैव के लिए अभय कर देते हैं । प्रभु के अलावा जीव को अभयदान कोई नहीं दे सकता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की पूर्ण शरणागति स्वीकार करे जिससे संसार के आवागमन से उसे मुक्ति मिले और संसार के डर से वह अभय हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 20 मार्च 2017 |
713 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
गोपियां प्रभु से कहतीं हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के शरण में आए हुए जीव के सारे पापों को प्रभु नष्ट कर देते हैं । जो एक बार प्रभु की शरणागत हो जाता है उसके सारे पापों को नष्ट करने का दायित्व प्रभु ले लेते हैं । प्रभु का व्रत है कि वे शरणागत को पाप मुक्त करके उसे निर्मल कर देते हैं । पाप तब तक ही हमारे ऊपर अपना प्रभाव रखते हैं जब तक हम प्रभु की शरण में नहीं आ जाते । प्रभु की शरण में जाते ही प्रभु हमारे पापों को भस्म कर देते हैं एवं मूल से ही उन्हें समाप्त कर देते हैं ।
इसलिए जो जीव पापमुक्त होना चाहता है उसे अनिवार्य रूप से प्रभु की शरण ग्रहण करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 21 मार्च 2017 |
714 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है । बड़े-बड़े विद्वान उसमें रम जाते हैं । उस पर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
गोपियां प्रभु से कहतीं हैं कि प्रभु की वाणी कितनी मधुर है । अपनी वाणी से प्रभु सबका मन मोह लेते हैं । प्रभु द्वारा वाणी से कहा गया एक एक शब्द, एक एक अक्षर मधुरातिमधुर है । बड़े-बड़े ऋषि, संत और भक्त प्रभु की वाणी में रम जाते हैं और प्रभु की वाणी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं । प्रभु अपनी वाणी से सबका हृदय जीत लेते हैं । गोपियां प्रभु की वाणी से इतनी प्रभावित है कि वे अपने तन और मन की सुध भूल जातीं हैं । प्रभु की वाणी का माधुर्य अद्वितीय है । प्रभु की वाणी में जो मिठास है वह अन्यत्र कही भी नहीं मिलेगी ।
इसलिए प्रभु की वाणी से प्रभावित हुए बिना आज तक कोई भी नहीं रह पाया है ।
प्रकाशन तिथि : 21 मार्च 2017 |
715 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृतस्वरूप है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
गोपियां कहतीं हैं कि प्रभु की श्रीलीला और प्रभु की कथा अमृतस्वरूप हैं । बड़े-बड़े ऋषियों, संतों, भक्तों और कवियों ने इसका गान किया है और अपने को धन्य किया है । प्रभु की श्रीलीला और कथा का गान जीव के सभी पाप और ताप को मिटाने वाली होती है । प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण मात्र परम मंगल का सूचक होता है । प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण हमारा परम कल्याण करता है । प्रभु की श्रीलीला और कथा परम मनोहर और परम मधुर है । गोपियां कहतीं हैं कि जो प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण और गान करते हैं वास्तव में भूलोक में वे सबसे बड़े भाग्यवान होते हैं ।
इसलिए प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण और गान जीवन में नित्य करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 22 मार्च 2017 |
716 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुःखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं । .... आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिंतन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियां कट जाती हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
गोपियां प्रभु से कहतीं हैं कि एकमात्र प्रभु ही उनके सारे दुःखों को मिटाने में सक्षम हैं । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि जीव के समस्त दुःखों को मिटाने की क्षमता एकमात्र प्रभु ही रखते हैं । प्रभु के अलावा अन्य कोई नहीं जो हमारे दुःख को मिटा सकता है । दूसरी बात जो गोपियां कहतीं हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरण शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं । प्रभु के अलावा जीव की अभिलाषा को पूर्ण करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है । तीसरी बात जो गोपियां कहतीं हैं कि आपत्ति के समय एकमात्र प्रभु का चिंतन करना सबसे उचित और आपत्तियों से बचने का सबसे श्रेष्ठ साधन है क्योंकि प्रभु के स्मरण मात्र से ही सारी आपत्तियां मिट जाती हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु के शरणागत हो जीवन में एकमात्र प्रभु का ही चिंतन करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 22 मार्च 2017 |
717 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उस समय पलकों का गिरना हमारे लिए भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रों की पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
गोपियां प्रभु से अपनी विरह वेदना कहतीं हैं । गोपियां कहतीं हैं कि जब प्रभु दिन में गौचारण के लिए वन में चले जाते हैं तो प्रभु को बिना देखे उनका एक-एक क्षण युग के समान प्रतीत होता है । जब प्रभु संध्या के समय लौटते हैं तो वे प्रभु की छवि को निरंतर देखना चाहतीं हैं पर उनकी आँखों की पलके बीच-बीच में गिर-गिरकर अदर्शन का कारण बनती हैं । वे नेत्रों के ऊपर पलकों को बनाने के लिए विधाता को उलाहना देती हैं जिस कारण क्षण मात्र के लिए प्रभु दर्शन में अवरोध हो जाता है । पलकों का गिरना क्षण मात्र के लिए होता है पर गोपियां प्रभु का उतने क्षण के लिए भी दर्शन करने से वंचित नहीं रहना चाहतीं हैं ।
गोपियों का प्रभु प्रेम वास्तव में अद्वितीय है और उसकी मिसाल अन्यत्र मिलना संभव नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 23 मार्च 2017 |
718 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 31
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... श्रीकृष्ण ! श्यामसुंदर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त भाव गोपियों ने प्रभु के विरह में गाए गोपी गीत में प्रकट किए ।
यह श्लोक मुझे अत्यंत प्रिय है क्योंकि इसमें गोपियों ने श्रेष्ठ भाव प्रकट किए हैं । जो भाव गोपियां देतीं हैं वह यह है कि उनका जीवन प्रभु के लिए ही है । हम अपना जीवन संसार और परिवार के लिए जीते हैं पर गोपियां अपना जीवन प्रभु के लिए जीती हैं । इससे हमें भी प्रेरणा लेनी चाहिए और अपने जीवन को प्रभु के लिए समर्पित करना चाहिए । गोपियां कहतीं हैं कि वे प्रभु की हैं और प्रभु के लिए ही जीवन जी रही हैं । हमें भी प्रभु के बनकर रहना चाहिए और अपना जीवन प्रभु के लिए ही जीना चाहिए क्योंकि प्रभु से हमारा सनातन रिश्ता है इसलिए प्रभु के लिए ही जीवन धारण करना सबसे श्रेष्ठ होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने जीवन को प्रभु को समर्पित करके जिए ।
प्रकाशन तिथि : 23 मार्च 2017 |
719 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 32
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! भगवान की प्यारी गोपियां विरह के आवेश में इस प्रकार भांति-भांति से गाने और प्रलाप करने लगी । अपने कृष्ण-प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकी, करुणाजनक सुमधुर स्वर में फुट-फुट कर रोने लगी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्रीशुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रभु के अंतर्ध्यान होने के बाद गोपियां निरंतर प्रभु की खोज करती रहीं । वे प्रभु के विरह को विरह गीत के रूप में गाने लगीं । वे प्रभु मिलन के लिए प्रलाप करने लगीं । अपने प्यारे प्रभु की दर्शन की लालसा में वे स्वयं को रोक न सकी और फुट-फुटकर रोने लगीं । गोपियों की विरह की पीड़ा को समझना असंभव है । गोपियों के लिए उनके प्रभु ही सब कुछ हैं इसलिए प्रभु को अपने बीच नहीं पाकर वे विरह वेदना से अति व्याकुल हो उठी ।
प्रभु व्याकुलता से ही मिलते हैं इसलिए गोपियों की व्याकुलता देखकर हमें भी अपने भीतर प्रभु प्राप्ति की व्याकुलता का निर्माण करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 24 मार्च 2017 |
720 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 32
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु जैसे संत पुरुष भगवान के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरी का निरंतर पान करते रहने पर भी तृप्त नहीं थी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
गोपियों की विरह वेदना में रुदन से उनका अहंकार नष्ट होने के कारण और गोपियों की प्रभु मिलन की व्याकुलता के कारण प्रभु गोपियों के बीचों बीच प्रकट हुए । सभी गोपियां एक साथ उठ खड़ी हुई जैसे प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राण का संचार हो उठा हो । उनके शरीर में नवीन चेतना और स्फूर्ति आ गई । पर जैसे संतजन प्रभु के श्रीकमलचरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते वैसे ही गोपियां प्रभु के श्रीमुख के माधुर्य का पान करते हुए तृप्त नहीं हुई । वे नेत्रों के माध्यम से प्रभु की छवि को अपने हृदय में ले गई और आँखें बंद करके अपने हृदय में प्रभु के दर्शन करने लगीं ।
सच्चा भक्त और प्रभु प्रेमी कभी भी प्रभु सानिध्य से तृप्त नहीं होता क्योंकि प्रभु का आकर्षण इतना होता है कि अतृप्ति बनी रहती है ।
प्रकाशन तिथि : 24 मार्च 2017 |