क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
625 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 10
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे । हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें । हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाएं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन स्तुति में श्री कुबेरजी के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव ने प्रभु से कहे ।
हमारी वाणी प्रभु के मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे । वाणी की सार्थकता इसी में है कि वह संसार की व्यर्थ बातों का वर्णन नहीं करके प्रभु का गुणानुवाद करे । हमारे कान प्रभु की रसमयी कथा के श्रवण में लगे रहें । वे ही कान धन्य होते हैं जो प्रभु की कथा और प्रभु के गुणानुवाद का श्रवण करते हैं । हमें अपने कानों से संसार की व्यर्थ बातें नहीं सुननी चाहिए । हमारे हाथ प्रभु की सेवा में लगे रहें । वही हाथ धन्य होते हैं जो प्रभु के सेवा कार्य में लगे रहते हैं । हमारा मन प्रभु के श्रीकमलचरणों में रमा रहे । मन को संसार से हटाकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगा लिया तो वह मन पवित्र और निर्मल हो जाता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपनी वाणी, अपने कान, अपने हाथ और अपने मन को प्रभु को समर्पित करे ।
प्रकाशन तिथि : 03 फरवरी 2017 |
626 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 11
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
एक दिन कोई फल बेचने वाली आकर पुकार उठी - फल लो फल ! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओं के फल देने वाले भगवान अच्युत फल खरीदने के लिए अपनी छोटी-सी अंजुलि में अनाज लेकर दौड़ पड़े ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु कितने कृपालु और दयालु हैं यह यहाँ इस प्रसंग में देखने को मिलता है ।
एक बार एक फल बेचने वाली फल बेचते हुए श्री नंदजी के भवन के सामने से गुजरी । वह आवाज लगा रही थी कि फल लो, फल लो । संतजन ऐसी व्याख्या करते हैं कि प्रभु ने जानबूझकर सुना कि फल दो, फल दो । यह सुनते ही समस्त कर्मों और उपासनाओं के फल देने वाले प्रभु ने उसे फल देने का निर्णय किया । प्रभु अपनी छोटी-सी अंजुलि में अनाज लेकर दौड़ पड़े । प्रभु की छोटी-सी अंजुलि का अनाज रास्ते में ही गिर गया । पर फल बेचने वाली ने फिर भी प्रभु को फल दिया । प्रभु इसी बात से रीझ गए कि बदले में कुछ नहीं मिलने पर भी फल वाली ने प्रभु प्रेम के वश में होकर प्रभु के दोनों हाथ फलों से भर दिए । फिर क्या था प्रभु ने भी संकल्प किया और उसके फल रखने वाली टोकरी को रत्नों से भर दिया । प्रभु ने फल वाली को इतना दिया कि जीवन में दोबारा उसे फल बेचने की जरूरत ही नहीं पड़ी । प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं ।
हम भी बदले में कोई आस नहीं रख कर जब प्रभु की भक्ति करते हैं तो प्रभु रीझ जाते हैं और अपना सर्वस्व दे देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 03 फरवरी 2017 |
627 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 11
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भाइयों ! अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - बृजवासियों का प्रभु से कितना अधिक प्रेम है इस बात का प्रतिपादन यहाँ पर मिलता है ।
श्री गोकुलजी में अनिष्टकारी उत्पात हो रहे थे । पहले पूतना आई, फिर शकटासुर आया, फिर तृणावर्त आया और फिर यमलार्जुन के वृक्ष गिरे । इसलिए प्रभु सुखी रहें और उन पर कोई विपत्ति न आए इस कारण समस्त बृजवासियों ने एक मत से श्री गोकुलजी को छोड़कर श्री वृंदावनजी नाम के एक वन में जाकर बसने का निर्णय लिया । निर्णय के केंद्र में प्रभु की मंगलकामना थी । प्रभु के लिए ऐसा किया जा रहा था कि अपने बसे बसाए घरों को त्याग कर नई जगह जाकर पूरे गोकुलवासियों ने एक मत से बसने का मानस बनाया । यह उनका प्रभु से लगाव एवं प्रभु के प्रति प्रेम को दर्शाता है ।
जीव को भी इसी प्रकार प्रभु से प्रेम करना चाहिए और प्रभु के लिए जीवन में किसी भी वस्तु को त्यागने से झिझकना नहीं चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 04 फरवरी 2017 |
628 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 11
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुँह से निकल कर हमारे पास आ गए हैं, तब उन्हें ऐसा आनंद हुआ, मानो प्राणों के संचार से इंद्रियां सचेत और आनंदित हो गई हो । सबने भगवान को अलग-अलग गले लगाया । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ग्वाल बालकों का प्रभु के प्रति प्रेम को दर्शाता यह प्रसंग है ।
बक नाम का एक असुर बगुले का रूप लेकर आया और प्रभु को लीलावश निगल गया । जब ग्वाल बालकों ने देखा कि असुर प्रभु को निगल गया तो उनकी ऐसी दशा हुई जो प्राण जाने के बाद इंद्रियों की होती है । प्रभु उन सभी के प्राण धन थे । प्रभु ने बाहर निकल कर उस बगुले की चोंच को पकड़ कर खेल-खेल में उसे चीर डाला और उस असुर का उद्धार कर दिया । जब ग्वाल बालकों ने देखा कि प्रभु बगुले का उद्धार कर वापस आ रहे हैं तो उन्हें ऐसा आनंद हुआ मानो प्राणों के संचार से इंद्रियां सचेत हो आनंदित हो उठती है । उन्होंने बारी-बारी से प्रभु को गले लगाया । प्रभु के लिए उनके मन में कितना प्रेम था यह इस दृष्टांत से पता चलता है ।
जीव को भी प्रभु से अपार प्रेम करना चाहिए । प्रभु जीव से एकमात्र प्रेम चाहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 04 फरवरी 2017 |
629 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 11
श्लो 54 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदर से श्रीकृष्ण को निहारने लगे । उनके नेत्रों की प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तृप्ति न होती थी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब बकासुर के उद्धार की घटना ग्वाल बालकों ने अपने-अपने घर जाकर गोप गोपियों को बताई तो वे सब-के-सब आश्चर्यचकित हो गए ।
वे प्रभु के पास आए और बड़ी उत्सुकता के साथ प्रभु को निहारने लगे । उनके हृदय में प्रभु के लिए प्रेम उमड़ पड़ा । प्रभु ने इतने असुरों का उद्धार किया था इसलिए उनके मन में प्रभु के लिए आदर का भाव भर आया । वे प्रभु को बार-बार टकटकी लगा कर निहारते ही जा रहे थे । उनके नेत्रों की प्यास प्रभु दर्शन के लिए बढ़ती ही जा रही थी । प्रभु के दर्शन होने के बावजूद भी उनका हृदय तृप्त नहीं हो पा रहा था ।
प्रभु से कितना अपार प्रेम होना चाहिए यह गोप गोपियों से सीखने योग्य बात है ।
प्रकाशन तिथि : 05 फरवरी 2017 |
630 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 12
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... दास्यभाव से युक्त भक्तों के लिए वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जो प्रभु में स्वामी भाव रखता है और दास बनकर रहता है ऐसे भक्तों के लिए प्रभु उनके आराध्यदेव हैं एवं परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं । प्रभु से हम अपना रिश्ता बहुत सारे तरह से जोड़ सकते हैं । प्रभु से जो भी रिश्ता हम जोड़ना चाहते हैं प्रभु उसे स्वीकार करते हैं और उसके अनुरूप ही हमारे साथ व्यवहार करते हैं और उस रिश्ते को निभाते हैं । परंतु प्रभु के साथ स्वामी और दास का रिश्ता एक अदभुत रिश्ता है । प्रभु श्री हनुमानजी इस रिश्ते के परम आचार्य हैं । उन्होंने स्वामी और दास का रिश्ता निभा कर संसार के सामने एक मिसाल कायम की है ।
प्रभु का दास बनकर और प्रभु को अपना सर्वस्व स्वामी मानकर हमें भक्ति द्वारा प्रभु से अपना रिश्ता जोड़ना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 05 फरवरी 2017 |
631 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 12
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही । इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुंदर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हंसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक बार जब ग्वाल बालकों के साथ प्रभु वन में थे तो अघासुर नाम का दैत्य आ गया । उसने अजगर का रूप धारण किया और बड़ा-सा मुँह फैला कर मार्ग में बैठ गया ।
उसका फैला मुँह मानो गुफा की तरह लग रहा था और ग्वाल बालकों को भ्रम हो गया कि यह एक गुफा ही है । उन्होंने उत्सुकतावश गुफा में जाने की सोची । तभी कुछ ग्वाल बालकों ने कहा कि यह अजगर सा प्रतीत होता है । कहीं यह सचमुच का अजगर हुआ तो हमें निगल जाएगा । तब ग्वाल बालकों ने जो कहा वह ध्यान देने योग्य है । उन्होंने कहा कि अगर यह सचमुच का अजगर भी हुआ तो हमारा कन्हैया हमारी रक्षा करेगा और इसे छोड़ेगा नहीं । इस तरह कहते हुए और प्रभु पर विश्वास रखते हुए वे हंसते-हंसते उस गुफा रूपी अजगर के मुँह में घुस गए ।
ग्वाल बालकों को प्रभु पर कितना अडिग विश्वास था । जो जीव अपनी रक्षा का दायित्व प्रभु पर छोड़ देता है वह निश्चिंत हो जाता है क्योंकि उसकी चिंता करने का भार फिर प्रभु उठा लेते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 06 फरवरी 2017 |
632 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 12
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गए । क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई संदेह है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ग्वाल बालकों और बछड़ों को बचाने के लिए अजगर रूपी अघासुर के मुँह में गए । भीतर प्रवेश करके प्रभु ने अपने रूप को इतना बड़ा किया कि अघासुर छटपटाने लगा और उसके प्राण निकल गए ।
अघासुर के शरीर से एक ज्योति निकली और वह ज्योति देखते-ही-देखते प्रभु में समा गई । प्रभु के स्पर्श मात्र से जीव के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उस जीव को मुक्ति प्राप्त होती है । प्रभु तो अघासुर के मुँह में प्रवेश कर गए थे तो फिर उसकी सद्गति होना तो निश्चित थी क्योंकि उसने अपने अंत समय में प्रभु का सानिध्य और स्पर्श पा लिया था ।
प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं कि असुरों को भी सद्गति देते हैं और उन्हें भी मुक्ति प्रदान करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 06 फरवरी 2017 |
633 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 13
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
रसिक संतों की वाणी, कान और हृदय भगवान की लीला के गान, श्रवण और चिंतन के लिए ही होते हैं, उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
संतजनों की वाणी प्रभु की श्रीलीलाओं के गान में लगी रहती है । वे अपनी वाणी का उपयोग संसार की व्यर्थ बातों में नहीं करते । वे अपनी वाणी से प्रभु की श्रीलीलाओं का गान करते हैं । संतजनों के कान प्रभु की कथा के श्रवण में लगे रहते हैं । वे अपने कानों से संसार की व्यर्थ बातें नहीं सुनते । अपने कानों का उपयोग प्रभु कथा के श्रवण के लिए ही करते हैं । संतजनों का हृदय प्रभु की श्रीलीलाओं के चिंतन में लगा रहता है । उनका यह स्वभाव होता है कि वे अपने हृदय में क्षण-क्षण प्रभु की श्रीलीलाओं के अपूर्व रस का नित्य नूतन अनुभव करते हैं ।
हमें भी अपनी वाणी, कान और हृदय का उपयोग प्रभु की श्रीलीलाओं के गान, श्रवण और चिंतन के लिए ही करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 07 फरवरी 2017 |
634 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 13
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार ब्रह्माजी ने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाश से यह सारा चराचर जगत प्रकाशित हो रहा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ग्वाल बालकों के साथ वन में भोजन कर रहे थे तो प्रभु श्रीब्रह्माजी ने सोचा कि मनुष्य बने प्रभु की कोई और मनोहर महिमामयी श्रीलीला देखनी चाहिए ।
तब प्रभु श्रीब्रह्माजी ने ग्वाल बालकों और बछड़ों को ले जाकर अपने लोक में छिपा दिया । प्रभु सर्वसमर्थ हैं । वे रहस्य जान गए और चाहते तो चुराए हुए ग्वाल बालकों और बछड़ों को वापस ला सकते थे । पर संतजन कहते हैं कि बालकों की माताएं और गौ-माताएं यह कामना करती रहती थी कि कभी हम भी अपना वात्सल्य पान प्रभु को कराएं । इसलिए उनकी कामना पूर्ति के लिए प्रभु हू-ब-हू उतने ही ग्वाल बालक और बछड़ें बन गए । प्रभु श्रीब्रह्माजी ने जब एक वर्ष बाद पृथ्वी पर आकर अपनी ज्ञानदृष्टि से देखा तो उन्हें श्रीबृज के सभी ग्वाल बालकों और बछड़ों में प्रभु का स्वरूप दिखा । इस प्रकार प्रभु ने ग्वाल बालकों की माताओं को और गौ-माताओं को वात्सल्य सुख प्रदान किया ।
सत्यनिष्ठ भाव से हम प्रभु से जो भी कामनाएं रखते हैं प्रभु उसकी अवश्य पूर्ति करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 07 फरवरी 2017 |
635 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 13
श्लो 57 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परीक्षित ! भगवान का स्वरूप तर्क से परे है । उनकी महिमा असाधारण है । वह स्वयंप्रकाश, आनंदस्वरूप और माया से अतीत है । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु का स्वरूप तर्क से परे है । जीव कभी भी तर्क बुद्धि से प्रभु को नहीं जान सकता । तर्क बुद्धि रखकर प्रभु तक नहीं पहुँचा जा सकता । ज्ञानियों में तर्क की प्रधानता होती है और भक्तों में भाव की प्रधानता होती है । इसलिए प्रभु ज्ञानियों से भी ज्यादा भक्तों को सुलभ हैं । प्रभु की महिमा असाधारण है । प्रभु की महिमा अपार है, उसका कोई पार नहीं पा सकता । श्री वेदजी भी प्रभु की महिमा का वर्णन करने में असमर्थ हैं । प्रभु स्वयंप्रकाश हैं यानी स्वयं प्रकाशित होते हैं । प्रभु आनंदस्वरूप हैं । प्रभु का स्वरूप ही आनंदप्रद है । प्रभु माया से अतीत हैं । एकमात्र प्रभु ही हैं जिन पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती क्योंकि प्रभु मायापति हैं ।
प्रभु के सद्गुणों का वर्णन सुनकर हमारी प्रभु के प्रति आस्था, भक्ति और प्रेम बढ़नी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 08 फरवरी 2017 |
636 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 13
श्लो 62 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंस पर से कूद पड़े और सोने के समान चमकते हुए अपने शरीर से पृथ्वी पर दण्ड की भांति गिर पड़े । उन्होंने अपने चारों मुकुटों के अग्रभाग से भगवान के चरण-कमलों का स्पर्श करके नमस्कार किया और आनंद के आंसुओं की धारा से उन्हें नहला दिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की प्रभुता देखने के बाद प्रभु श्री ब्रह्माजी अपने वाहन हंस से कूद पड़े और अपने शरीर से पृथ्वी पर दण्ड की भांति गिर पड़े । साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए उन्होंने अपना पूरा समर्पण प्रभु को कर दिया ।
उन्होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्पर्श करके प्रभु को प्रणाम किया और अपने आनंद के आंसुओं से प्रभु के श्रीकमलचरणों को नहला दिया । प्रभु ने जो महिमा दिखाई थी उसका स्मरण करते हुए वे प्रभु के श्रीकमलचरणों पर गिरते, फिर उठते और फिर गिर पड़ते । ऐसा उन्होंने बार-बार किया । वे भाव विभोर हो गए और बहुत देर तक वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही पड़े रहे ।
प्रभु के लिए भाव कैसे प्रकट किया जाए यह इस दृष्टांत में देखने को मिलता है । हमें भी अपने जीवन में भाव के साथ प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम करते रहने की आदत बनानी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 08 फरवरी 2017 |
637 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! एकमात्र आप ही स्तुति करने योग्य हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति की शुरुआत ही इस बात से की कि जगत में एकमात्र स्तुति करने योग्य सिर्फ प्रभु ही हैं । ऐसा कौन कह रहा है यह देखना जरूरी है । यहाँ जगत की रचना करने वाले प्रभु श्री ब्रह्माजी ऐसा कह रहे हैं इसलिए इस कथन का महत्व बहुत है ।
सभी श्रीग्रंथों में विभिन्न देवताओं, ऋषियों, संतों और भक्तों द्वारा की गई प्रभु स्तुति मिलेगी । क्योंकि विश्व पटल पर एकमात्र स्तुति योग्य प्रभु ही हैं । प्रभु सभी के परमपिता हैं और संसार की उत्पत्ति, संचालन और प्रलय प्रभु के द्वारा ही होते हैं । संसार में प्रभु के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । प्रभु का ऐश्वर्य असीम है । प्रभु सर्वशक्तिमान हैं । प्रभु सभी के ऊपर दया और कृपा की दृष्टि रखते हैं । सभी जीवों का पालन-पोषण प्रभु के द्वारा ही होता है ।
उपरोक्त सभी तथ्यों का चिंतन करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि जगत में स्तुति करने योग्य केवल प्रभु ही हैं ।
प्रकाशन तिथि : 09 फरवरी 2017 |
638 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्रभो ! यद्यपि आप पर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आप पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेम के अधीन हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
जो सत्संग करते हैं और प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण करते हैं और अपने शरीर, वाणी और मन को प्रभु को समर्पित करते हैं वे प्रभु को जीत लेते हैं । जो प्रभु की कथा, श्रीलीला और सत्संग को ही अपना जीवन बना लेते हैं और उसके बिना जी नहीं सकते वे प्रभु को जीत लेते हैं । वैसे प्रभु पर त्रिलोकी में कोई भी विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य नहीं रखता पर प्रेमाभक्ति के अधीन ऐसे भक्त प्रभु को जीत लेते हैं ।
सिर्फ प्रेम और भक्ति के वश पर ही प्रभु जीव के अधीन हो जाते हैं । शास्त्रों में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जहाँ पर भक्त की प्रेमाभक्ति से रीझकर प्रभु ने स्वयं को भक्त पर न्यौछावर कर दिया ।
प्रकाशन तिथि : 09 फरवरी 2017 |
639 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आपकी भक्ति सब प्रकार के कल्याण का मूल स्त्रोत्र एवं उद्गम है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु की भक्ति सभी प्रकार के कल्याण का मूल स्त्रोत है । प्रभु की भक्ति सभी प्रकार के कल्याण का उद्गम है । सभी प्रकार के कल्याण के मूल में प्रभु की भक्ति है । प्रभु की भक्ति से ही जीव के कल्याण का आरम्भ होता है । अगर हम अपना कल्याण चाहते हैं तो भक्ति के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है । जीव का कल्याण करने में भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा और सबसे श्रेष्ठ है । दूसरे अर्थ में कहा जाए तो भक्ति के बिना जीव का कल्याण संभव ही नहीं है । अन्य किसी भी साधन से जीव का उतना कल्याण नहीं हो सकता जितना भक्ति के द्वारा होता है ।
इसलिए जो जीव अपने कल्याण की आकांक्षा रखता है उसे अपने जीवन में भक्ति को सिद्ध करना चाहिए तभी उसका कल्याण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 10 फरवरी 2017 |
640 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपकी लीला कथा से उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त हुई । उस भक्ति से ही आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमता से आपके परमपद की प्राप्ति कर ली ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु की श्रीलीला और कथा के श्रवण से प्रभु के लिए भक्ति और प्रेम का निर्माण हृदय में होता है । जब हम प्रभु के स्वभाव, प्रभाव, ऐश्वर्य और करुणा के दर्शन प्रभु की श्रीलीला और कथा में करते हैं तो प्रभु के लिए भक्ति भाव जागृत होता है । भक्ति से प्रभु के स्वरूप का ज्ञान हमें प्राप्त होता है जिस कारण बड़ी सुगमता से प्रभु के परमपद की प्राप्ति जीव कर सकता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की श्रीलीला और कथा का नित्य श्रवण करे और प्रभु के लिए भक्ति भाव अपने भीतर जागृत करे । प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण प्रभु के लिए भक्ति भाव जागृत करने का एक अचूक माध्यम है । प्रभु के लिए भक्ति भाव जागृत होने पर ही अंत में परमपद की प्राप्ति संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 10 फरवरी 2017 |
641 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनंत गुणों को गिन सके ? प्रभो ! आप केवल संसार के कल्याण के लिए ही अवतीर्ण हुए हैं । सो भगवन ! आपकी महिमा का ज्ञान तो बड़ा ही कठिन है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु श्री ब्रह्माजी कहते हैं कि समर्थ पुरुष अनेक जन्मों के परिश्रम के बाद पृथ्वी के एक-एक परमाणु और चमकने वाले नक्षत्र और तारों को शायद गिन सकते हैं पर वे भी प्रभु के अनंत सद्गुणों को गिनने की कल्पना भी नहीं कर सकते । प्रभु के सद्गुण अनंत हैं और श्री वेदजी, शास्त्र, ऋषि, संत और भक्त कोई भी इन्हें गिनने का सामर्थ्य नहीं रखते । प्रभु के सद्गुणों को गिनना असंभव है । प्रभु केवल संसार के कल्याण के लिए ही अवतार लेते हैं । प्रभु के अवतार का एकमात्र हेतु सबका कल्याण करना है । प्रभु की महिमा का ज्ञान होना भी बड़ा कठिन है । प्रभु की महिमा अपार है । उसका ज्ञान होना प्रभु की कृपा के बिना संभव नहीं है ।
जीव को प्रभु के सद्गुणों का चिंतन जीवन में निरंतर करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 11 फरवरी 2017 |
642 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो प्रेमपूर्ण हृदय, गदगद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता रहता है, इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परमपद का अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की संपत्ति का पुत्र !
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
जो जीव क्षण-क्षण प्रभु की कृपा का भली भांति अनुभव करता है और प्रेमपूर्ण हृदय से, गदगद वाणी एवं पुलकित शरीर से स्वयं को प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित कर देता है वह परमपद का अधिकारी हो जाता है । ऐसा करने वाला जीव परमपद का वैसे ही स्वाभाविक अधिकारी होता है जैसे एक पुत्र अपने पिता की संपत्ति का स्वाभाविक अधिकारी होता है । इसलिए प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्वयं को समर्पित करने का बहुत बड़ा महत्व हैं । ऋषि, संत और भक्तजन सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्वयं को समर्पित करके प्रभु के श्रीकमलचरणों के आश्रय में ही रहते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने आपको प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित करके जीवन यापन करे ।
प्रकाशन तिथि : 11 फरवरी 2017 |
643 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपके एक-एक रोम के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
इस श्लोक में प्रभु के ऐश्वर्य का दर्शन है । प्रभु की एक-एक रोमावली में अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते रहते हैं जैसे खिड़की से आने वाली प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की धूप की किरणों से रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखते हैं । जब हम खिड़की से धूप की रोशनी को देखते हैं तो हमें छोटे-छोटे अगणित रज के कण उड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं । वैसे ही प्रभु की एक-एक रोमावली में अगणित ब्रह्माण्ड उड़ते रहते हैं । इससे प्रभु के विराट स्वरूप और ऐश्वर्य का भान हमें होता है । प्रभु का स्वरूप इतना विराट है कि प्रभु के रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समाए हुए हैं ।
प्रभु के विराट स्वरूप और असीम ऐश्वर्य का भान हमें होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 12 फरवरी 2017 |
644 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमंड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु सारे जगत के स्वामी हैं । प्रभु विधाता हैं । सत्पुरुषों और भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए प्रभु अनेक योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं । दूसरा प्रयोजन यह होता है कि दुष्टों का घमंड़ को तोड़ देने के लिए प्रभु अनेक योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं । संतों ने माना है कि मुख्यतया सत्पुरुषों और भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए ही प्रभु अवतार ग्रहण करते हैं । अनुग्रह करने के लिए प्रभु को स्वयं आना पड़ता है । दुष्टों का घमंड़ तोड़ने या दुष्टों का संहार करने का काम तो प्रभु अपने धाम में बैठे ही संकल्प मात्र से भी कर सकते हैं । पर सत्पुरुषों और भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए प्रभु को स्वयं ही पधारना पड़ता है । प्रभु जब आते हैं तो लगे हाथ दुष्टों का भी विनाश करके उनका उद्धार करके जाते हैं ।
प्रभु अवतार का मुख्य प्रयोजन भक्तों पर अनुग्रह करना ही है ।
प्रकाशन तिथि : 12 फरवरी 2017 |
645 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपनी आत्मा पर लोग आपको पराया मानते हैं । और शरीर आदि हैं पराए किंतु उनको आत्मा मान बैठते हैं और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूँढ़ने लगते हैं । भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु हमारे भीतर स्थित आत्मा हैं और हम प्रभु को पराया मान कर बैठे हैं । हमारा शरीर पराया है और नष्ट होने वाला है उसे हम अपना मान बैठते हैं । प्रभु सर्वदा हमारे भीतर स्थित रहते हैं और हम प्रभु को पराया मान कर बाहर ढूँढ़ते हैं । जीव अज्ञानी है और यह कितना बड़ा अज्ञान है कि हम भीतर स्थित प्रभु को नहीं पहचान पाते । प्रभु जो हमारे भीतर स्थित हैं और हमारे अपने हैं उन्हें हम पराया मानते हैं जबकि हमारा शरीर जो विनाशी है और पराया है उसे हम अपना मानते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने भीतर स्थित प्रभु का अनुभव करे और ऐसा करना भक्ति के द्वारा ही संभव है । भक्ति हमें हमारे भीतर स्थित प्रभु की अनुभूति करवाती है ।
प्रकाशन तिथि : 13 फरवरी 2017 |
646 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे अनंत ! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं । इसलिए संतलोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूँढ़ते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु सबके अंतःकरण में विराजमान हैं । इसलिए संतजन प्रभु के अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीत हो रहा है उसे मिथ्या मानकर उसका परित्याग करते हैं । संत प्रभु के अलावा किसी को भी सत्य नहीं मानते । शास्त्रों का भी यही मत है कि प्रभु के अलावा सब कुछ असत्य है । सभी दृश्य प्रभु की माया के द्वारा खड़े किए गए हैं । इसलिए ऋषि, संत और भक्त सिर्फ प्रभु के सानिध्य में ही रहते हैं एवं अन्य जो भी दृष्टि से प्रतीत होता है उसका परित्याग करते हैं । वे प्रभु को अपने भीतर ढूँढ़ते हैं । प्रभु को पाना है तो हमें भी अंतर्मुखी होना पड़ेगा क्योंकि प्रभु बाहर नहीं अपितु हमारे भीतर स्थित हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति के द्वारा प्रभु की अपने भीतर अनुभूति करने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 13 फरवरी 2017 |
647 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है, वही आपकी सच्चिदानंदमयी महिमा का तत्त्व जान सकता है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु की महिमा को जान पाना असंभव है । किसी भी साधन से बहुत काल तक अनुसंधान और प्रयत्न करने पर भी प्रभु की महिमा का ज्ञान नहीं हो सकता । प्रभु की महिमा को जानने का एक ही उपाय है । जो पुरुष प्रभु के युगल श्रीकमलचरणों का आश्रय लेकर प्रभु की कृपा और अनुग्रह प्राप्त कर लेता है वो ही प्रभु की महिमा को जान सकता है । प्रभु के अनुग्रह बिना प्रभु की महिमा को जान पाना असंभव है । इसलिए संतजन अपना पूरा जीवन प्रभु की कृपा और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए लगा देते हैं ।
जीव को चाहिए कि प्रभु की कृपा और अनुग्रह अपने जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न करे ।
प्रकाशन तिथि : 14 फरवरी 2017 |
648 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दशम स्कंध) |
अ 14
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए भगवन ! मुझे इस जन्म में, दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की सेवा करूं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु श्री ब्रह्माजी कहते हैं कि इस जन्म में अथवा दूसरे जन्म में अथवा पशु-पक्षी के योनि में भी जन्म मिलने पर उन्हें ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि वे प्रभु के दासों में कोई दास बन जाएं और प्रभु की श्रीकमलचरणों की सेवा करें । प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा से बड़ा सौभाग्य इस संसार में कुछ भी नहीं है । प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करने पर ही जीव का जन्म सफल होता है । इसलिए ऋषि, संत और भक्त प्रभु से मुक्ति नहीं मांगते अपितु प्रभु की सेवा करने का अवसर मांगते हैं । प्रभु की सेवा का सौभाग्य कुछ बिरलों को ही मिलता है ।
इसलिए जीवन को उसी दिन धन्य मानना चाहिए जब प्रभु सेवा का सौभाग्य जीवन में मिलने लगे । दास बनकर प्रभु की सेवा करने से बड़ा सौभाग्य अन्य कुछ भी नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 14 फरवरी 2017 |