क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
553 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 04
श्लो 64 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ब्राह्मण ! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ । इसलिए अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोड़कर मैं न तो अपने आपको चाहता हूँ और न अपनी पत्नी विनाशरहित लक्ष्मी को ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि अपने भक्तों के एकमात्र आश्रय प्रभु ही हैं । भक्त प्रभु पर आश्रित रहते हैं एवं प्रभु को ही अपना सब कुछ मानते हैं । प्रभु पर निर्भर रहने के कारण भक्तों की पूरी जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं । प्रभु कहते हैं कि मैं अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोड़कर न तो अपने स्वयं को चाहता हूँ और न ही अपनी पत्नी भगवती लक्ष्मीजी को चाहता हूँ । भक्त प्रभु के लिए सर्वोपरि हैं । भक्तों से पहले प्रभु किसी को भी स्थान नहीं देते । सबका स्थान भक्तों के बाद है ।
भक्ति की इतनी बड़ी महिमा प्रभु यहाँ प्रकट करते हैं । भक्त प्रभु के प्राण हैं और प्रभु भक्तों के प्राण हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति करके प्रभु को रिझाए और प्रभु का भक्त बनकर अपना मानव जीवन सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 18 दिसम्बर 2016 |
554 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 04
श्लो 65 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक, सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गए हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरु, प्राण, धन, इहलोक और परलोक सब कुछ छोड़कर मेरी शरण में आ जाता है मैं उसे कभी नहीं छोड़ता । सच्चे भक्तों को संसार रिझाता नहीं है क्योंकि वे केवल प्रभु की ही शरण में रहना चाहते हैं । ऐसे भक्तों को प्रभु अपनाते हैं और उन्हें कभी नहीं छोड़ते । जब हम भक्त चरित्र पढ़ते हैं तो यह तथ्य देखने को मिलता है । भगवती मीरा बाई ने और भक्तराज श्री नरसी मेहताजी ने प्रभु के लिए सब कुछ छोड़ दिया । प्रभु ने भी उन्हें अपनाया और सदैव अपनी छत्रछाया में उन्हें रखा ।
जीव को चाहिए कि संसार से विरक्त होकर प्रभु की भक्ति कर प्रभु शरण में रहे ।
प्रकाशन तिथि : 19 दिसम्बर 2016 |
555 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 04
श्लो 66 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे सती स्त्री अपने पतिव्रत्य से सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम बंधन से बांध कर रखने वाले समदर्शी साधु भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने पतिव्रत धर्म के कारण अपने पति को वश में कर लेती है, वैसे ही भक्ति द्वारा अपने हृदय को प्रभु के प्रेम बंधन के बांधकर रखने वाले भक्त प्रभु को अपने वश में कर लेते हैं । भक्ति की महिमा है कि प्रभु भक्ति के द्वारा ही वश में होते हैं । परम स्वतंत्र प्रभु किसी भी अन्य साधन से किसी के वश में कभी नहीं होते । वे मात्र और मात्र भक्ति के कारण ही भक्त के वश में होते हैं । भक्ति की महिमा इतनी बड़ी है कि परम स्वतंत्र प्रभु भी भक्त के प्रेम बंधन को स्वीकार करते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति करके प्रभु को रिझाए और अपना मानव जीवन सार्थक करे ।
प्रकाशन तिथि : 20 दिसम्बर 2016 |
556 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 04
श्लो 67 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे अनन्य प्रेमी भक्त सेवा से ही अपने को परिपूर्ण कृतकृत्य मानते हैं । मेरी सेवा के फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य-सारूप्य आदि मुक्तियां प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते, फिर समय के फेर से नष्ट हो जाने वाली वस्तुओं की तो बात ही क्या है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु के अनन्य प्रेमी भक्त अपनी प्रभु सेवा से ही अपने आपको धन्य मानते हैं । वे प्रभु की सेवा में ही तत्पर रहते हैं । प्रभु की सेवा के फलस्वरूप उन्हें जो मुक्ति के प्रस्ताव मिलते हैं वे उन्हें भी अस्वीकार कर देते हैं । भक्त के लिए प्रभु सेवा ही सर्वोपरि होती है । मुक्ति के बाद प्रभु सेवा संभव नहीं इसलिए भक्त मुक्ति को नहीं चाहते । ऐसे भक्त फिर संसार में नष्ट होने वाली किसी वस्तु की प्रभु से कोई अभिलाषा नहीं रखते । जो मुक्ति को भी त्याग देते हैं ऐसे भक्त के लिए संसार की कोई भी वस्तु स्वतः ही त्याज्य होती है ।
भक्त के लिए प्रभु सेवा ही सब कुछ है । वे उसी में रमते हैं और अपने आपको प्रभु सेवा के लिए नियुक्त पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 21 दिसम्बर 2016 |
557 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 04
श्लो 68 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दुर्वासाजी ! मैं आपसे और क्या कहूं, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ । वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु के प्रेमी भक्त तो प्रभु के हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों के हृदय प्रभु स्वयं हैं । प्रभु अपने भक्तों से और भक्त प्रभु से कितना प्रेम करते हैं यह तथ्य यहाँ देखने को मिलता है । प्रभु आगे कहते हैं कि मेरे भक्त मेरे (प्रभु के) अलावा कुछ नहीं जानते और प्रभु कहते हैं कि मैं (प्रभु) भी उनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानता । प्रभु और भक्त के अगाध प्रेम के दर्शन यहाँ पर होते हैं । भक्त के अतिरिक्त प्रभु के लिए सभी बातें गौण है और भक्त के लिए भी प्रभु के अतिरिक्त अन्य कोई चर्चा का विषय है ही नहीं ।
जीव को चाहिए कि प्रभु से इतना प्रेम करे कि प्रभु के अतिरिक्त उसके जीवन में अन्य कुछ बचे ही नहीं ।
प्रकाशन तिथि : 22 दिसम्बर 2016 |
558 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 05
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके मंगलमय नामों के श्रवणमात्र से जीव निर्मल हो जाता है, उन्हीं तीर्थपाद भगवान के चरणकमलों के जो दास हैं, उनके लिए कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने ऋषि श्री दुर्वासाजी को उनकी रक्षा के लिए अपने भक्त राजा श्री अम्बरीषजी के पास भेजा । राजा श्री अम्बरीषजी ने श्री सुदर्शन चक्र से प्रार्थना की और ऋषि श्री दुर्वासाजी श्री सुदर्शन चक्र की आग से मुक्त हुए और श्री सुदर्शन चक्र शांत हो गए ।
यह देखकर ऋषि श्री दुर्वासाजी ने कहा कि आज मैंने प्रभु के प्रेमी भक्तों के महत्व को जान लिया । उन्होंने कहा कि जिन प्रभु के मंगलमय नामों के श्रवणमात्र से जीव निर्मल हो जाता है उन प्रभु के श्रीकमलचरणों के जो दास हो उनके लिए कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता । प्रभु की भक्ति के कारण जीव के सभी कर्तव्य पूर्ण हो गए ऐसा मानना चाहिए । भक्त के लिए कोई भी सांसारिक कर्तव्य शेष नहीं बचते क्योंकि वह उनसे ऊपर उठ चुका होता है ।
प्रभु के भक्तों के लिए प्रभु की भक्ति ही एकमात्र कर्तव्य होता है ।
प्रकाशन तिथि : 23 दिसम्बर 2016 |
559 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 05
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजा अम्बरीष में ऐसे अनेकों गुण थे । अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान में भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे । उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति भाव के कारण राजा श्री अम्बरीषजी अनेकों गुणों से संपन्न थे । यह एक सिद्धांत है कि जिसमें सच्ची भक्ति होती है उनमें सात्विक गुण स्वतः ही आकर वास करते हैं ।
राजा श्री अम्बरीषजी अपने समस्त कर्मों के द्वारा प्रभु में भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे । हमारे समस्त कर्म भक्ति से युक्त हो और हम प्रभु की भक्ति की अभिवृद्धि करे तभी वे कर्म सफल और सार्थक होंगे । भक्ति के प्रभाव के कारण राजा श्री अम्बरीषजी ने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नर्क के समान समझा । जब उन्होंने ब्रह्मलोक के भोगों को ठुकरा दिया तो सांसारिक भोगों की तो बात ही क्या है ।
जीव को चाहिए कि ऐसे भगवत् भक्तों के दृष्टांत को सुनकर जीवन में भक्ति को लाने का सच्चा और सफल प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 24 दिसम्बर 2016 |
560 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 06
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतः जिसे मोक्ष की इच्छा है, उस पुरुष को चाहिए कि वह भोगी प्राणियों का संग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षण के लिए भी अपनी इंद्रियों को बहिर्मुख न होने दे । अकेला ही रहे और एकांत में चित्त को सर्वशक्तिमान भगवान में ही लगा दे । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री सौभरिजी एक तेजस्वी ऋषि थे पर एक बार जल के अंदर एक मछली की क्रीड़ा को देखकर वे आतुर हो गए । ऋषि श्री सौभरिजी के मन में भी विवाह करने की इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मांधाता की कन्याओं से विवाह करने की इच्छा जताई । वे अपने तप के बल से बूढ़े से युवा बन गए और इतने सुंदर बन गए कि राजा की पचास कन्याओं ने मोहित होकर उनसे विवाह कर लिया ।
वे अपनी पत्नियों के साथ विहार करने लगे और अपनी सारी इंद्रियों को विषयों के सेवन में लगा दिया । फिर एक दिन उन्हें आत्मग्लानि हुई कि उन्होंने अपना ब्रह्मतेज नष्ट कर दिया और वे बहुत दुःखी हुए ।
जिस व्यक्ति को मोक्ष की या प्रभु को पाने की इच्छा हो उसे भोगी प्राणियों का संग छोड़ कर अपनी इंद्रियों को अंतर्मुखी करना चाहिए । उसे एकांत में रहकर अपना चित्त सर्वथा प्रभु में ही लगाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 दिसम्बर 2016 |
561 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 09
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! जब गंगाजल से शरीर की राख का स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गई, तब जो लोग श्रद्धा के साथ नियम लेकर श्रीगंगाजी का सेवन करते हैं, उनके संबंध में तो कहना ही क्या है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भागीरथजी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गंगा माता पृथ्वी पर अवतरण के लिए तैयार हुई । प्रभु श्री शिवजी जो सम्पूर्ण विश्व के हितैषी हैं उन्होंने भगवती गंगा माता को अपने शीश पर धारण किया क्योंकि प्रभु के श्रीकमलचरणों से संपर्क होने के कारण भगवती गंगा माता का जल परम पवित्र था ।
जब श्रीगंगाजल का श्रीसगर के जले हुए पुत्रों की राख से स्पर्श हुआ तो उन्हें तत्काल स्वर्ग की प्राप्ति हो गई । आज भी जो श्रद्धा के साथ नियमपूर्वक भगवती गंगा माता का सेवन करते हैं उनका कल्याण निश्चित है । क्योंकि भगवती गंगा माता प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकली हैं इसलिए श्रद्धा से उनका चिंतन करने मात्र से बड़े-बड़े ऋषि निर्मल हो जाते हैं और प्रभु के सानिध्य को प्राप्त कर लेते हैं ।
भगवती गंगा माता संसार के बंधन को काट देती है और जीव का उद्धार करती है ।
प्रकाशन तिथि : 26 दिसम्बर 2016 |
562 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 09
श्लो 47 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... संसार के सच्चे रचयिता भगवान की भावना में लीन होकर मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हीं की शरण ले रहा हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा श्री खट्वांगजी चक्रवर्ती सम्राट थे और देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने दैत्यों का वध किया था । पर जब उन पराक्रमी राजा को देवताओं के द्वारा यह पता चला कि अब उनकी आयु मात्र दो घड़ी की बची है तब उन्होंने अपने मन को प्रभु में लगा दिया ।
संसार के रचयिता प्रभु की भावना में राजा लीन हो गए और विषयों को छोड़कर प्रभु की शरण ग्रहण कर ली । कैसे दो घड़ी के अंतिम समय में भी प्रभु को पाया जा सकता है, यह राजा श्री खट्वांगजी के दृष्टांत से सीखने वाली बात है । अंतिम समय में जो जीव अपने आपको प्रभु में स्थित कर लेता है वह प्रभु को पा लेता है ।
अंतिम समय में प्रभु का ध्यान हो सके इसका प्रयास जीवन भर करना पड़ता है तभी अंतिम समय में हमारा मन कहीं भटकेगा नहीं और प्रभु में केंद्रित हो सकेगा ।
प्रकाशन तिथि : 27 दिसम्बर 2016 |
563 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 10
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसके बाद भगवान ने उस जटायु का दाह संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबंधन भगवत्सेवारूप कर्म से पहले ही भस्म हो चुके थे । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भागवतजी महापुराण में मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री रामजी का श्रीचरित्र बहुत ही संक्षिप्त में कहा गया है । प्रभु श्री रामजी के श्रीचरित्र का विस्तृत निरूपण श्री वाल्मीकिजी एवं गोस्वामी श्री तुलसीदासजी के श्रीरामायणजी एवं श्री रामचरितमानसजी में मिलता है ।
जगजननी भगवती सीता माता के वियोग के बाद प्रभु वन में माता की खोज में श्रीलीला करते हुए घूम रहे थे । तब उन्हें श्री जटायुजी मिले जिन्होंने प्रभु दर्शन हेतु अपने प्राणों को रोक रखा था । उन्होंने प्रभु का काज किया था इसलिए जाति से गिद्ध होने के बावजूद प्रभु ने उन्हें अपनी गोद में लिटाया और अंतिम समय अपने दर्शन से कृतार्थ कर परमगति प्रदान की । एक पुत्र की भांति प्रभु ने उनका दाह संस्कार किया । श्री जटायुजी के सारे कर्म बंधन प्रभु सेवारूपी कर्म के कारण पहले ही नष्ट हो चुके थे ।
प्रभु इतने दीनदयाल हैं कि पक्षियों में अधम माने जाने वाली गिद्ध जाति के श्री जटायुजी पर इतनी कृपा और इतना उपकार किया जिसकी मिसाल अन्यत्र मिलना असंभव है ।
प्रकाशन तिथि : 28 दिसम्बर 2016 |
564 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 10
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जैसे पुण्यात्मा लोग भोग समाप्त होने पर स्वर्ग से गिर पड़ते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह श्लोक हमें यह बताता है कि जीवन में पुण्यों से भक्ति का स्थान कितना ऊँचा है । जीव जीवन में अनेक पुण्य करता है जिसके कारण उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है । फिर उसे अपने पुण्यों के बदले स्वर्ग का भोग प्राप्त होते हैं । पर जैसे ही उसके पुण्य के भोग को भोगने के बाद उसका पुण्य समाप्त हो जाता है उसे स्वर्ग से गिरा दिया जाता है । फिर उसे संसार में आना पड़ता है ।
पर दूसरी तरफ प्रभु की भक्ति करने वाले को प्रभु की प्राप्ति होती है । अगर उसकी भक्ति में कोई कमी भी रह जाती है तो उसे अगले जन्म में भक्ति मार्ग पर प्रभु वहीं से आगे बढ़ने का लाभ देते हैं । यानी पूर्व जन्म में की गई भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती है । वह अगले जन्म में युवा अवस्था से ही भक्ति पथ पर चलकर उस जन्म में प्रभु को प्राप्त करता है । प्रभु को प्राप्त करने के बाद फिर उसे दोबारा संसार में आवागमन से सदैव के लिए मुक्ति मिल जाती है ।
स्वर्ग में पुण्य भोगने के बाद जीव को दोबारा संसार में जन्म लेना पड़ता है पर भक्ति करने वाला संसार के जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 29 दिसम्बर 2016 |
565 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 10
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... भरतजी केवल गौमूत्र में पकाया हुआ जौ का दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वी पर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएं बढ़ा
रखी हैं, तब वे बहुत दुखी हुए । उनकी दशा का स्मरण कर परम करुणाशील भगवान का हृदय भर आया । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्त और भगवान में कितना प्रेम होता है यह श्री भरतलालजी एवं प्रभु श्रीरामजी के प्रेम को देख कर पता चलता है । भाई-भाई होने के साथ-साथ श्री भरतलालजी एवं प्रभु का रिश्ता भक्त और भगवान का भी था ।
प्रभु के वनवास के बाद श्री भरतलालजी ने श्री अयोध्याजी के राजमहल का त्याग किया और पवित्र श्री सरयूजी के किनारे नंदीग्राम में झोपड़ी में रहने लगे । क्योंकि प्रभु वन में कंद मूल फल खाते थे इसलिए श्री भरतलालजी ने राजभोग का त्याग किया और गौमूत्र में पकाया जौ का दलिया खाने लगे । क्योंकि प्रभु वनवास में वल्कल वस्त्र पहनते थे इसलिए श्री भरतलालजी भी वल्कल वस्त्र पहनने लगे और राजवस्त्रों का त्याग कर दिया । क्योंकि प्रभु वनवास के दौरान पृथ्वी पर सोते थे इसलिए श्री भरतलालजी भी पृथ्वी में गड्ढा खोदकर प्रभु से नीचे के स्थान पर सोने लगे और उन्होंने राजमहल के पलंग का त्याग कर दिया ।
चौदह वर्षों के लिए राजगद्दी मिलने के बाद भी श्री भरतलालजी का त्याग इतना बड़ा था कि उनकी दशा का स्मरण होते ही परम करुणाशील प्रभु का हृदय भर आता था ।
प्रकाशन तिथि : 30 दिसम्बर 2016 |
566 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 10
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... भगवान के नेत्रजल से भरतजी का स्नान हो गया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्त और भगवान का मिलना कितना अदभुत होता है यह दृश्य यहाँ देखने को मिलता है ।
जब प्रभु चौदह वर्षों के वनवास के बाद श्री अयोध्याजी पधारे तो प्रभु के श्रीकमलचरणों की पादुकाएं जो प्रभु ने श्री चित्रकूटजी में प्रदान की थी उसे सिर पर रखकर श्री भरतलालजी प्रभु की आगवानी करने चले । श्री भरतलालजी का हृदय गदगद हो गया, नेत्रों से आंसू छलक पड़े और वे प्रभु के श्रीकमलचरणों मे गिर पड़े । प्रभु ने अपने दोनों हाथों से श्री भरतलालजी को पकड़ कर उठाया और बहुत देर तक अपने हृदय से लगाए रखा । प्रभु के श्रीनेत्रों से नीर की धार बहने लगी और प्रभु के नेत्रजल से ही श्री भरतलालजी का स्नान हो गया ।
प्रभु ने प्रेम के वश में श्रीरामावतार में श्री भरतलालजी के साथ एवं श्रीकृष्णावतार में श्री सुदामाजी के साथ इसी प्रकार का आत्मीय व्यवहार किया । दोनों समय प्रभु ने कुछ नहीं कहा पर प्रभु के श्रीनेत्रों ने सब कुछ कह दिया ।
प्रकाशन तिथि : 31 दिसम्बर 2016 |
567 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 10
श्लो 54 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इंद्रियातीत भगवान श्रीराम के राज्य करते समय किसी को मानसिक चिंता या शारीरिक रोग नहीं होते थे । बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाममात्र के लिए भी नहीं थे । यहाँ तक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री रामजी ने जब राजसिंहासन स्वीकार किया और राजा बने तो उस समय त्रेतायुग था पर प्रतीत ऐसा होता था मानो सतयुग ही हो ।
प्रभु के राज्य में जो रामराज्य की स्थापना हुई उसकी कल्पना मात्र भी करना असंभव है । उस समय वन, नदी, पर्वत, समुद्र सब कामधेनु के समान कामना पूर्ण करने वाले बन गए । रामराज्य में किसी को मानसिक चिंता या शारीरिक रोग नहीं था । बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाममात्र के लिए भी नहीं थे । प्रभु पिता की तरह अपनी प्रजा का पालन करते थे और सम्पूर्ण प्रजा प्रभु को पिता रूप में देखती थी । प्रभु ने सदैव मर्यादा और धर्म का आचरण करके अपनी प्रजा को भी मर्यादा और धर्म को पालन करने की शिक्षा दी ।
रामराज्य जैसा राज्य न कभी हुआ है और न ही कभी होने वाला है । विश्व पटल पर सबसे आदर्श राजा प्रभु श्री रामजी ही हुए हैं ।
प्रकाशन तिथि : 01 जनवरी 2017 |
568 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 11
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देनेवाला है । वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है । आज भी बड़े-बड़े ऋषि महर्षि राजाओं की सभा में उसका गान करते रहते हैं । स्वर्ग के देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं । मैं उन्हीं रघुवंश शिरोमणि भगवान श्री रामचन्द्रजी की शरण ग्रहण करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री रामजी के निर्मल यश का गान समस्त पापों का नाश करने का साधन है । प्रभु श्री रामजी का यश सर्वत्र फैला हुआ है ।
बड़े-बड़े संत, ऋषि, महर्षि राजाओं की सभा में प्रभु के यश का गान करते थे । स्वर्ग के देवता भी प्रभु के यश का गान करते हैं । संसार के लोग प्रभु के यश का गान करते हैं और प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करते हैं । जो भी जीव अपने कानों से प्रभु के सुयश को सुनता है उसका निश्चित कल्याण हो जाता है । प्रभु के यश को सुनने वाला अपने समस्त कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है ।
इसलिए प्रभु के निर्मल यश को सुनने की जीवन में आदत बनानी चाहिए तभी हमारा कल्याण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 02 जनवरी 2017 |
569 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 11
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो पुरुष अपने कानों से भगवान श्रीराम का चरित्र सुनता है, उसे सरलता, कोमलता आदि गुणों की प्राप्ति होती है । परीक्षित ! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बंधनों से मुक्त हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जो जीव अपने कानों से प्रभु श्री रामजी के श्रीचरित्र का भक्ति भाव से श्रवण करता है उसे सरलता, कोमलता आदि सभी सद्गुणों की प्राप्ति होती है । प्रभु के श्रीचरित्र को सुनने वाला समस्त कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है । प्रभु की कथा का नित्य श्रवण करने का आदेश सभी श्रीग्रंथ देते हैं । सभी ऋषि, संत प्रभु की कथा के श्रवण का आग्रह जीव से करते हैं ।
जीव को चाहिए कि जीवन में भक्ति भाव से प्रभु की कथा का नित्य श्रवण करे जिससे उसका परम कल्याण हो सके । प्रभु की कथा जीवन में सद्गुणों और भक्ति को जागृत करती है ।
प्रकाशन तिथि : 03 जनवरी 2017 |
570 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 11
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! उस समय जब प्रजा को मालूम होता कि बहुत दिनों के बाद भगवान श्रीरामजी इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन की लालसा से घर-द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते । वे ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रों से कमलनयन भगवान को देखते हुए उन पर पुष्पों की वर्षा करते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु श्री रामजी राज्य करते समय कभी नगर भ्रमण के लिए निकलते थे और जब प्रजा को मालूम होता था कि बहुत समय बाद प्रभु उधर पधार रहे हैं तब सभी स्त्री-पुरुष प्रभु के दर्शन के लिए घर द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते थे ।
प्रभु से सबका इतना प्रेम था कि प्रभु दर्शन की चाह सबको सदैव बनी रहती थी । इसलिए प्रभु जब आते थे तो वे प्रजावासी ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रों से प्रभु का दर्शन करते और प्रभु पर फूलों की वर्षा करके अपने आपको धन्य मानते ।
प्रभु को अपनी प्रजा अत्यंत प्रिय थी और प्रजा को उनके प्रभु अत्यंत प्रिय थे । प्रभु इतने प्रिय थे कि प्रभु के दर्शन पाकर भी प्रजा अतृप्त ही रहती थी ।
प्रकाशन तिथि : 03 जनवरी 2017 |
571 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 13
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धि को पूर्ण रूप से श्रीभगवान में ही लगा देते हैं और उन्हीं के चरणकमलों का भजन करते हैं । एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा, इस भय से भीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग ही नहीं चाहते, वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जो विचारशील मुनिजन हैं वे अपनी बुद्धि को पूर्ण रूप से प्रभु में लगा देते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि शरीर नश्वर है और एक दिन शरीर छूटना ही है ।
इसलिए वे शरीर से कभी संयोग नहीं चाहते बल्कि मुक्त होना चाहते हैं । इसलिए मुनिजन अपने आपको प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा और प्रभु के भजन में लगा देते हैं । संसारी लोग शरीर को सबसे अधिक महत्व देते हैं जबकि भक्त अपने शरीर का उपयोग अपने साधन को करने मात्र के लिए करता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने शरीर के प्रत्येक अंग को प्रभु सेवा में लगाए ।
प्रकाशन तिथि : 04 जनवरी 2017 |
572 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 15
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - क्षमा करने का महत्व हर धर्म में बताया गया है । सनातन धर्म में भी क्षमा को बहुत बड़ा सद्गुण माना गया है । श्लोक में यह बात कही गई है कि क्षमा करने वाले पर प्रभु सदैव प्रसन्न रहते हैं ।
प्रभु स्वयं क्षमामूर्ति हैं । जीव गलती-पर-गलती करता रहता है पर अगर सच्चा पश्चाताप कर ले तो प्रभु उसे तत्काल क्षमा कर देते हैं । अगर प्रभु जीव को क्षमा नहीं करें तो कोई भी जीव प्रभु तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि जीव के अपराध अनेक होते हैं । ऐसे ही प्रभु की भी अपेक्षा होती है कि जीव भी क्षमा का भाव अपने भीतर रखें । जो जीव क्षमा भाव रखता है प्रभु उससे शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।
इसलिए जीवन में क्षमा के सद्गुण को धारण करना चाहिए जो प्रभु को अत्यंत प्रिय है ।
प्रकाशन तिथि : 04 जनवरी 2017 |
573 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 18
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी इंद्रियों के साथ मन को जोड़कर उसके प्रिय विषयों को भोगा । परंतु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट ययाति की भोगों से तृप्ति न हो सकी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा ययाति ने अपने पुत्र पुरु की जवानी लेकर विषयों का सेवन किया । उनकी इंद्रियों में पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयों का उपभोग करते थे ।
इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी इंद्रियों के साथ अपने मन को जोड़कर विषयों को भोगा । परंतु इतने पर भी उनकी इंद्रियों की भोगों से तृप्ति न हो सकी । उनकी इंद्रियां और भोग चाहती थीं और अतृप्त ही रहती थीं । राजा ययाति का दृष्टांत हमें यह बताता है कि हमारी इंद्रियों का कितना भी पोषण करें वे कभी भी भोगों से तृप्त नहीं होगी । हमारी इंद्रियां और अधिक भोग प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयत्नशील बनी रहती हैं । विषयों को भोगने से भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती ।
इसलिए हमें अपनी समस्त इंद्रियों को भोगों से हटाकर भक्ति द्वारा प्रभु में लगाना चाहिए तभी हमारी इंद्रियों को सही दिशा मिलेगी ।
प्रकाशन तिथि : 05 जनवरी 2017 |
574 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 20
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अंत में सार्वभौम सम्राट भरत ने यही निश्चय किया कि लोकपालों को भी चकित कर देने वाला ऐश्वर्य, सार्वभौम संपत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है । यह निश्चय करके वे संसार से उदासीन हो गए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा दुष्यंत के पुत्र श्री भरतजी चक्रवती सम्राट हुए । उनकी वीरता का गान पृथ्वी के लोग दीर्घकाल तक करते थे । उन्होंने दिग्विजय की और पूरी पृथ्वी पर अपना राज्य कायम किया । उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किए और यज्ञों में अपार धन का दान दिया ।
पर अंत में सम्राट श्री भरतजी ने यही निश्चय किया कि उनका अतुल्य ऐश्वर्य, अपार संपत्ति, अखण्ड शासन और यहाँ तक कि उनका जीवन भी मिथ्या है । सब कुछ अर्जन करने के बाद भी उन्हें सब कुछ मिथ्या प्रतीत हुआ और वे संसार से उदासीन हो गए ।
हम संसार की चकाचौंध से मोहित हो जाते हैं और अपना मानव जीवन उसमें ही व्यतीत कर देते हैं । संतजन संसार से उदासीन होकर भक्ति के द्वारा प्रभु प्राप्ति के लिए अपना जीवन लगा देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 05 जनवरी 2017 |
575 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 21
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! उन्हें भगवान के सिवा और किसी भी वस्तु की इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मन को पूर्णरूप से भगवान में लगा दिया । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा श्री रंतिदेवजी सबमें प्रभु का रूप देखते थे एवं जगत को प्रभुमय देखते थे । इसलिए उन्हें जो भी प्राप्त होता था वे दूसरों को दे देते थे ।
एक बार प्रभु ने अलग-अलग रूपों में आकर उनकी परीक्षा ली और वे परीक्षा में उत्तीर्ण हुए क्योंकि उनके धैर्य की कोई सीमा नहीं थी । तब प्रभु उनके समक्ष प्रकट हुए । राजा श्री रंतिदेवजी ने प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रणाम किया । उन्हें प्रभु से कुछ मांगना तो था नहीं इसलिए उन्होंने अपने मन को प्रभु में तन्मय कर दिया । उन्हें प्रभु की अभिलाषा थी और प्रभु के सिवा और किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं थी ।
जीव को भी प्रभु से कुछ नहीं मांगना चाहिए और पूर्णरूप से अपने मन को प्रभु में लगा देना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 जनवरी 2017 |
576 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 22
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! उस समय कुरुवंश का नाश हो चुका था । अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम भी जल ही चुके थे, परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रभाव से तुम्हें उस मृत्यु से जीता-जागता बचा लिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ और कुरुवंश का नाश हो गया तो उत्तराधिकारी के रूप में भगवती उत्तरा के गर्भ में राजर्षि श्री परीक्षितजी बचे थे । उस समय अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चलाया और गर्भ में श्री परीक्षितजी जलने लगे । तो प्रभु ने भगवती उत्तरा के गर्भ में प्रवेश करके अपने प्रभाव से उस गर्भ में जल रहे बालक को मृत्यु से जीता जागता बचा लिया ।
प्रभु जब बचाते हैं तो मृत्यु के मुँह से भी बचा कर ले आते हैं । जब अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा तो पांचो पांडव कुछ न कर पाए और भगवती उत्तरा ने भी बचाने के लिए उन्हें नहीं पुकारा । भगवती उत्तरा ने विपदा की घड़ी में सिर्फ और सिर्फ प्रभु पर आस्था रख प्रभु को पुकारा ।
जीव को भी विपदा के समय सिर्फ और सिर्फ प्रभु पर ही दृढ़ विश्वास रखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 जनवरी 2017 |