क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
529 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 12
श्लो 47 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दुष्ट पुरुषों को भगवान के चरणकमलों की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती । वे तो भक्तिभाव से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होते हैं । .... केवल उन्हीं की बात नहीं, चाहे जो भी उनके चरणों की शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएं पूर्ण कर देते हैं । मैं उन प्रभु के चरणकमलों में नमस्कार करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी का कहे ।
दुष्ट पुरुष प्रभु के श्रीकमलचरणों की प्राप्ति कभी नहीं कर सकते । प्रभु के श्रीकमलचरणों को तो केवल सज्जन पुरुष, जो भक्तिभाव से युक्त हैं, वे ही प्राप्त कर सकते हैं । धर्म के मार्ग पर चलने वाले सज्जन पुरुष ही भक्तिभाव से युक्त होकर प्रभु को पा सकते हैं । दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि एक बार जो प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण कर लेता है उसकी समस्त कामनाओं की पूर्ति प्रभु करते हैं । प्रभु की शरण ग्रहण करने के बाद ऐसा कुछ भी नहीं है जो जीव प्राप्त न कर सकता हो ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह भक्तिभाव से युक्त होकर प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ग्रहण करे ।
प्रकाशन तिथि : 21 नवम्बर 2016 |
530 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 16
श्लो 20-21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रिये ! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान, अपने भक्तों के दुःख मिटाने वाले जगद्गुरु भगवान वासुदेव की आराधना करो । वे बड़े दीनदयालु हैं । अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएं पूर्ण करेंगे । मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती । इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन ऋषि श्री कश्यपजी ने अपनी पत्नी और देवताओं की माता भगवती अदितिजी से कहे ।
जब असुरराज श्री बलिजी ने देवलोक पर आक्रमण किया तो देवताओं के गुरु श्री बृहस्पतिजी ने देवताओं को स्वर्ग छोड़कर छिप जाने का आदेश दिया और कहा कि अनुकूल समय की प्रतीक्षा करें । तब दुःखी होकर देवताओं की माता भगवती अदितिजी ने अपने पति से याचना की और अपने पति से देवताओं के पुनरुत्थान का उपाय पूछा । तब ऋषि श्री कश्यपजी ने कहा कि समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान रहने वाले और भक्तों के दुःख को मिटाने वाले प्रभु की आराधना करें । उन्होंने कहा कि प्रभु बड़े दीनदयालु हैं और प्रभु की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती ।
विपत्ति के समय एकमात्र प्रभु ही हैं जो हमारी कामनाओं को पूर्ण करते हैं । विपत्ति के समय प्रभु की शरणागति के अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 22 नवम्बर 2016 |
531 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 16
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप सब प्रकार के वर देने वाले हैं । वर देने वालों में श्रेष्ठ हैं । तथा जीवों के एकमात्र वरणीय हैं । यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याण के लिए आपके चरणों के रज की उपासना करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु सभी प्रकार के वरदान देने वाले हैं । एकमात्र प्रभु ही सभी प्रकार के वरदान देने में सक्षम हैं । वरदान देने वालों में सबसे सर्वश्रेष्ठ अगर कोई है तो वे प्रभु ही हैं । यही कारण है कि विवेकी पुरुष अपने कल्याण के लिए प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की उपासना करते हैं ।
यहाँ पर प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की उपासना की बात कही गई है । प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज का इतना विराट प्रभाव है कि उनकी उपासना से हमारे सारे मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं । इसलिए विवेकी पुरुष प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की ही उपासना करते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्तिपूर्वक प्रभु की उपासना करे क्योंकि प्रभु ही इच्छित फल देने वाले हैं ।
प्रकाशन तिथि : 23 नवम्बर 2016 |
532 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 16
श्लो 61 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनसे भगवान प्रसन्न हों, वे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तव में तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - सभी यम और नियम जिनका हम जीवन में पालन करते हैं उनका उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता होनी चाहिए । सभी प्रकार की तपस्या, सभी प्रकार के दान, सभी प्रकार के व्रत और सभी प्रकार के यज्ञ का एकमात्र उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता होनी चाहिए ।
हम कुछ भी करते हैं तो वह करना तभी सफल होता है जब उससे प्रभु प्रसन्न हों । प्रभु की प्रसन्नता अगर हमारा लक्ष्य नहीं है तो वह उद्यम व्यर्थ चला जाता है । शास्त्रों और संतों ने एकमत से इस बात को कहा है कि सभी कर्मों का एकमात्र उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता है । सभी कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं ।
इसलिए हमारे सभी कर्मों का मूल हेतु प्रभु की प्रसन्नता होनी चाहिए तभी वह कर्म सफल माना जाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 24 नवम्बर 2016 |
533 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 17
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अच्युत ! आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर लोग भवसागर से तर जाते हैं । आपके यश कीर्तन का श्रवण भी संसार से तारने वाला है । आपके नामों के श्रवण मात्र से ही कल्याण हो जाता है । आदिपुरुष ! जो आपकी शरण में आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियों का आप नाश कर देते हैं । भगवन ! आप दीनों के स्वामी हैं । आप हमारा कल्याण कीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती अदितिजी ने प्रभु की स्तुति में कहे जब बारह दिनों का पयोव्रत करने के बाद प्रभु ने उन्हें दर्शन दिए ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेकर जीव भवसागर से तर जाते हैं । प्रभु के यश का कीर्तन और श्रवण जीव को संसार सागर से तारने वाला है । प्रभु के अनुपम नामों के श्रवण मात्र से ही जीव का कल्याण हो जाता है । जो प्रभु की शरण में आता है प्रभु उसकी सारी विपत्तियों का नाश कर देते हैं । प्रभु दीनानाथ हैं यानी दीनों के स्वामी हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेकर प्रभु के नाम और यश का कीर्तन और श्रवण करे जिससे उसकी सारी विपत्तियों का नाश हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 25 नवम्बर 2016 |
534 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 18
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान के चरणकमलों का धोवन परम मंगलमय है । उससे जीवों के सारे पाप ताप धुल जाते हैं । स्वयं देवाधिदेव चंद्रमौली भगवान शंकर ने अत्यंत भक्तिभाव से उसे अपने सिर पर धारण किया था । आज वही चरणामृत धर्म के मर्मज्ञ राजा बलि को प्राप्त हुआ । उन्होंने बड़े प्रेम से उसे अपने मस्तक पर रखा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब दैत्यराज श्री बलिजी अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे तो प्रभु ने श्री वामनजी का अवतार लेकर उनकी यज्ञशाला में प्रवेश किया । प्रभु का तेज देखकर दैत्यराज श्री बलिजी को बड़ा आनंद हुआ और उन्होंने प्रभु का स्वागत किया और प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारा ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारने के बाद जो चरणामृत प्राप्त हुआ वह परम मंगलमय था । उससे जीवों के सारे पाप और ताप नष्ट हो जाते हैं । प्रभु का चरणामृत इतना पावन है कि देवाधिदेव प्रभु श्री महादेवजी उसे अत्यंत भक्तिभाव से अपने मस्तक पर धारण करते हैं । प्रभु का चरणामृत आज दैत्यराज श्री बलिजी को प्राप्त हुआ और उन्होंने बड़े प्रेम के साथ उसे अपने मस्तक पर रखा ।
हमें भी नित्य प्रभु के चरणामृत को मंदिर में लेकर उसको ग्रहण करने की आदत जीवन में बनानी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 26 नवम्बर 2016 |
535 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 21
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! ब्रह्मा के कमंडल का वही जल विश्वरूप भगवान के पांव पखारने से पवित्र होने के कारण उन गंगाजी के रूप में परिणत हो गया, जो आकाश मार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं । ये गंगाजी क्या हैं, भगवान की मूर्तिमान उज्ज्वल कीर्ति ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ने श्री वामनजी के अवतार में राजा श्री बलिजी से तीन पग भूमि का दान मांगा तो राजा श्री बलिजी ने तीन पग भूमि देने का संकल्प किया । प्रभु ने विराट रूप लेकर दो पग में ही सब कुछ नाप लिया और प्रभु के श्रीकमलचरण जब श्री सत्यलोक पहुँचे तो प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उनके श्रीकमलचरणों का प्रक्षालन किया ।
प्रक्षालन के बाद प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उस अमृतमय जल को अपने कमंडल में रखा और वही विश्व को पवित्र करने के लिए भगवती गंगा माता के रूप में परिणत हो गया । भगवती गंगा माता तीनों लोकों को पवित्र करती हैं क्योंकि वे प्रभु की चरणामृत हैं ।
भगवती गंगा माता पतितों को पावन करने वाली हैं और जो श्रद्धा भाव रखता है माता उसके समस्त पापों का नाश करती हैं ।
प्रकाशन तिथि : 29 नवम्बर 2016 |
536 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 22
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप छिपेरूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अतः आप हमारे परम गुरु हैं । जब हम लोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद में अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हमसे छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन दैत्यराज श्री बलिजी ने प्रभु श्री वामनजी को कहे जब प्रभु ने अपने दो श्रीकमलचरणों में ही श्री बलिजी का सब कुछ ले लिया । तब प्रभु ने श्री बलिजी से कहा कि संकल्प करके तीन पग दान नहीं करने पर उन्हें नर्क भोगना पड़ेगा । तब बिना विचलित हुए बड़े धैर्य के साथ श्री बलिजी ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया और प्रभु से आग्रह किया कि अपना तीसरा श्रीकमलचरण उनके सिर पर रख दें ।
राजा श्री बलिजी ने प्रभु से कहा कि समय-समय पर असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा देने के कारण प्रभु उनके परम गुरु हैं । जब-जब असुर लोग धन, बल आदि के मद में अंधे हो जाते हैं तब-तब प्रभु उन वस्तुओं को छीनकर उनका कल्याण करते हैं ।
जीव से भी जब प्रभु उसका धन और बल छीन लेते हैं तो जीव प्रभु की तरफ मुड़ जाता है । इसलिए संतजन ऐसा कहते हैं कि जिनको प्रभु अपने पास बुलाना चाहते हैं और अपना सानिध्य प्रदान करना चाहते हैं उनका धन और बल प्रभु ले लेते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 01 दिसम्बर 2016 |
537 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 22
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्य योनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि के कारण घमंड न हो पाए तो समझना चाहिए कि मेरी बड़ी ही कृपा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री वामनजी ने प्रभु श्री ब्रह्माजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि मेरी बड़ी कृपा से जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है । मनुष्य योनि में जीव को अपने कर्म, कुल, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि का अहंकार हो जाता है । प्रभु कहते हैं कि जिन पर मैं कृपा करता हूँ उनके अहंकार के साधन जैसे धन को मैं छीन लेता हूँ । जो अहंकार रहित हो जाए, ऐसे जीव पर प्रभु की बड़ी कृपा है, ऐसा समझना चाहिए । जो प्रभु के शरणागत होता है वह अहंकार के साधनों से मोहित नहीं होता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की शरणागति को ग्रहण करे जिससे वह अहंकारग्रस्त न हो और अपने मनुष्य जीवन को सफल कर पाए ।
प्रकाशन तिथि : 02 दिसम्बर 2016 |
538 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 23
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करने मात्र की चेष्टा भर की । इसी से मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणों के शरणागत भक्तों को प्राप्त होता है । बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओं पर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ जैसे नीच असुर को सहज ही प्राप्त हो गई ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन दैत्यराज श्री बलिजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु द्वारा पूरा राज्य ले लेने के बाद और अपने गुरुदेव द्वारा श्राप मिलने के बाद भी राजा श्री बलिजी प्रभु की शरणागति में रहे । इससे प्रसन्न होकर प्रभु ने उन्हें सुतल लोक भेज दिया और आगे आने वाले इंद्रदेव के रूप में उन्हें नियुक्त कर दिया । यह सुनकर राजा श्री बलिजी के नेत्रों से आंसू छलक आए और प्रभु की कृपा और दया को देखकर वे गदगद हो गए । उन्होंने कहा कि मैंने तो अभी तक आपको पूर्ण रूप से प्रणाम तक नहीं किया और आपने मुझे वह फल दे दिया जो शरणागत भक्तों को प्राप्त होता है । प्रभु ने देवताओं पर भी ऐसी कृपा कभी नहीं की जो दैत्यराज श्री बलिजी पर सहज ही कर दी ।
प्रभु इतने दयालु और इतने कृपालु हैं और थोडी-सी भक्ति और शरणागति से रीझ जाते हैं और अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 03 दिसम्बर 2016 |
539 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 23
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथ में लिए खड़ा देखोगे । मेरे दर्शन के परमानंद में मग्न रहने के कारण तुम्हारे सारे कर्मबंधन नष्ट हो जाएंगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने भक्तराज श्री प्रह्लादजी को कहे ।
जब प्रभु ने श्री प्रह्लादजी के पौत्र राजा श्री बलिजी को सुतल लोक भेज दिया, तब प्रभु स्वयं सुतल लोक में राजा बलि के द्वारपाल बन गए । तब श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति करते हुए कहा कि असुर तो स्वभाव से ही कुमार्गगामी होते हैं पर फिर भी प्रभु ने इतनी कृपा और अनुग्रह उन पर किया है । तब प्रभु ने कहा कि सुतल लोक में प्रभु द्वारपाल के रूप में नित्य हाथ में गदा लिए खड़े मिलेंगे । प्रभु ने कहा कि प्रभु के दर्शन के परमानंद में मग्न रहने के कारण श्री प्रह्लादजी के सारे कर्मबंधन नष्ट हो जाएंगे ।
प्रभु अपने भक्त पर कितना अनुग्रह करते हैं कि उसकी रक्षा के लिए द्वारपाल तक बनने को स्वतः तैयार हो जाते हैं । प्रभु भक्त श्री अर्जुनजी के लिए सारथी बने और भक्त श्री बलिजी के लिए द्वारपाल बने । इतना अनुग्रह प्रभु के अलावा और कोई कर ही नहीं सकता ।
प्रकाशन तिथि : 04 दिसम्बर 2016 |
540 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 23
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
क्योंकि मंत्रों की, अनुष्ठान पद्धति की, देश, काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नामसंकीर्तन मात्र से सुधर जाती हैं, आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन दैत्यगुरु श्री शुक्राचार्यजी ने प्रभु से कहे ।
जब प्रभु ने राजा श्री बलिजी को सुतल लोक भेजा तो राजा श्री बलिजी ने प्रभु की परिक्रमा की और प्रभु को प्रणाम करके सुतल लोक चले गए । तब प्रभु ने दैत्यगुरु से कहा कि राजा श्री बलिजी जो यज्ञ कर रहे थे उसमें अगर कुछ त्रुटि रह गई है तो उसे पूर्ण कर लें । तब दैत्यगुरु ने कहा कि राजा श्री बलिजी ने अपने समस्त कर्म प्रभु को समर्पित करके किए हैं इसलिए उनके कर्म में कोई त्रुटि नहीं बची । क्योंकि मंत्र, अनुष्ठान आदि की सारी भूल प्रभु के नाम संकीर्तन मात्र से सुधर जाती है । प्रभु का नाम समस्त त्रुटियों को पूर्ण कर देता है ।
प्रभु के नाम जप और नाम संकीर्तन में इतना सामर्थ्य है कि सभी त्रुटियों को वह पूर्ण कर देता है इसलिए जीव को प्रभु नाम जप और प्रभु नाम संकीर्तन जीवन में हर कर्म और हर धार्मिक अनुष्ठान के बाद करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 05 दिसम्बर 2016 |
541 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 23
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मनुष्य के लिए सबसे बड़ा कल्याण का साधन यही है कि वह आपकी आज्ञा का पालन करे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन दैत्यगुरु श्री शुक्राचार्यजी ने प्रभु से कहे ।
मनुष्य का सबसे बड़ा कल्याण इसी में है कि वह प्रभु की आज्ञा की पालना करे । प्रभु की आज्ञा पालन करने वाले पर प्रभु सदैव प्रसन्न रहते हैं । प्रभु की आज्ञा पालन करने वाले का कभी भी अहित नहीं होता । प्रभु की आज्ञा का पालन करने वाले की सम्पूर्ण जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं । प्रभु की आज्ञा श्रीवेदों और शास्त्रों में वर्णित है । इसलिए श्रीवेदों और शास्त्रों में वर्णित आज्ञा को प्रभु की आज्ञा मानकर उसका पालन करना चाहिए । ऋषि, संत और भक्त श्रीवेदों और शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार चलते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने जीवन में प्रभु की आज्ञा, जो की सर्वोपरि होती है, उसका पालन करे ।
प्रकाशन तिथि : 06 दिसम्बर 2016 |
542 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 23
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान के संबंध में मंत्रदृष्टा महर्षि वशिष्ठ ने वेदों में कहा है कि "ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान की महिमा का पार पा सके" ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की श्रीलीलाएं अनंत हैं । प्रभु की श्रीलीलाओं की महिमा अपार है । प्रभु की श्रीलीलाओं का पार पाना वैसा ही है जैसे मानों किसी ने पृथ्वी के परमाणुओं को गिनने का संकल्प कर डाला हो । जैसे पृथ्वी के परमाणुओं को गिनने का संकल्प पूर्ण होने वाला नहीं वैसे ही प्रभु की श्रीलीलाओं का पार पाना असंभव है ।
प्रभु के संबंध में महर्षि श्री वशिष्ठजी ने श्रीवेदों का सार हमें बताया है जहाँ कहा गया है कि जो प्रभु की महिमा का पार पाना चाहता हो ऐसा पुरुष न कभी हुआ है, न है और न ही आगे कभी होगा ।
प्रभु की श्रीलीलाएं अपार हैं इसलिए जीवन में उन्हें नित्य सुनने एवं पढ़ने का संकल्प मन में करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 07 दिसम्बर 2016 |
543 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 24
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! भगवान अपने अनन्य प्रेमी भक्तों से अत्यंत प्रेम करते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को मत्स्यावतार की कथा सुनाते हुए कहे ।
प्रभु जीवों पर अनुग्रह करते हैं । प्रभु शरणागत भक्तों के लिए एकमात्र आश्रय हैं । प्रभु अपने अनन्य प्रेमी भक्तों से अत्यंत प्रेम करते हैं । भक्तों के चरित्र में यह बात स्पष्ट देखने को मिलती है कि प्रभु भक्तों का मान रखते हैं, भक्तों से प्रेम करते हैं और भक्तों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं । जो प्रभु से बहुत प्रेम करता है प्रभु उससे अनंत गुना ज्यादा उस जीव से प्रेम करते हैं । प्रेम के बदले अनंत गुना प्रेम करना प्रभु का स्वभाव है । प्रभु को सिर्फ प्रेमाभक्ति से ही पाया जा सकता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु से निश्छल और अनन्य प्रेम करे और अपना मानव जीवन सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 08 दिसम्बर 2016 |
544 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 24
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे अग्नि में तपने से सोने चांदी के मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवा से जीव अपने अंतःकरण का अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री सत्यव्रतजी ने प्रभु से कहे ।
संसार के जीव आत्मज्ञान से रहित हैं और अविद्या से ढ़के हुए हैं । इसी कारण उन्हें संसार के अनेक क्लेशों को सहना पड़ता है । अनायास ही प्रभु जब जीव पर अनुग्रह करते हैं तो उसके अज्ञानरूपी मल का त्याग होता है । जैसे अग्नि के ताप से सोने चांदी का मल दूर होता है और वे अपने सच्चे स्वरूप में निखर आते हैं वैसे ही प्रभु की सेवा करने से तथा प्रभु के अनुग्रह के कारण जीव के अंतःकरण का अज्ञानरूपी मल नष्ट होता है और जीव अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है ।
इसलिए जीवन में प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने का भक्ति द्वारा प्रयत्न करना चाहिए जिससे हमारे भीतर आत्मज्ञान का उदय हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 09 दिसम्बर 2016 |
545 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 24
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जितने भी देवता, गुरु और संसार के दूसरे जीव हैं, वे सब यदि स्वतंत्र रूप से एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो भी आपकी कृपा के दस हजारवें अंश के अंश की भी बराबरी नहीं कर सकते । प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हैं । मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री सत्यव्रतजी ने प्रभु से कहे ।
राजा श्री सत्यव्रतजी कहते हैं कि जितने भी देवता, जितने भी गुरु और जितने भी संसार के दूसरे जीव हैं वे यदि स्वतंत्र रूप से एक साथ मिलकर भी कृपा करें तो भी वे प्रभु की कृपा की बराबरी नहीं कर सकते । प्रभु जीव पर जितनी कृपा करते हैं उसकी बराबरी कैसे भी नहीं हो सकती । प्रभु का स्वभाव ही जीव पर कृपा करने का है । प्रभु अकारण ही जीव पर कृपा करते हैं । संतजन कहते हैं कि प्रभु भक्त पर कृपा करने का बहाना ढूँढ़ते रहते हैं । संतों के मुँह से दृष्टांत के रूप में एक कथा सुनी । एक बार एक चोर रात को एक शिवालय में चोरी के मानस से गया । वहाँ उसे कुछ नहीं मिला तो श्री शिवलिंगजी के ऊपर जलपात्र दिखा । उस जलपात्र को चोरी करने के मानस से वह कोई साधन ढूँढने लगा जिसपर चढ़कर वह जलपात्र उतार सके । उसे कोई साधन नहीं मिला तो वह श्री शिवलिंगजी पर ही पैर रखकर ऊपर चढ़ गया और जलपात्र उतार लिया । भोले भंडारी प्रभु श्री शिवजी प्रकट हो गए और प्रभु को देखकर वह चोर थर-थर कांपने लगा । पर प्रभु ने कहा कि वरदान मांगो क्योंकि मैं (प्रभु) प्रसन्न हूँ । प्रभु ने कहा कि मैं इसलिए प्रसन्न हूँ कि लोग तो जल, पुष्प, और दूध मेरे शिवलिंग पर चढ़ाते हैं पर तुमने तो अपने स्वयं को ही मेरे ऊपर चढ़ा दिया ।
प्रभु जैसा दयावान और कृपा करने वाला दूसरा इस जगत में कोई भी नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 10 दिसम्बर 2016 |
546 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 24
श्लो 60 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य भगवान के इस अवतार का प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगति की प्राप्ति होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के अवतारों की विभिन्न श्रीलीलाओं का श्रवण करने वाले और उन श्रीलीलाओं का प्रतिदिन कीर्तन करने वाले जीव के सारे संकल्प प्रभु पूर्ण करते हैं । ऐसे जीव को परमगति की प्राप्ति होती है ।
प्रभु के विभिन्न अवतारों की कथा और प्रभु के विभिन्न अवतारों में की गई मधुर श्रीलीलाओं का प्रतिदिन श्रवण और चिंतन करना चाहिए । जो मनुष्य ऐसा करता है वह अपना जीवन सफल करता है । उस मनुष्य के सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं और वह परमगति को प्राप्त होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रतिदिन प्रभु की श्रीलीलाओं का कथा रूप में श्रवण और भजन रूप में कीर्तन करे ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के नवम स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के अष्टम स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं समुद्रदेव का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाएं ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 11 दिसम्बर 2016 |
547 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 2
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वह समस्त प्राणियों का अहैतुक हितैषी एवं सबके प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के द्वारा परम विशुद्ध सर्वात्मा भगवान वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री मनु पुत्रों में एक पृषध्र नाम का पुत्र था । उन्हें गुरु श्री वशिष्ठजी ने गायों की रक्षा के लिए नियुक्त कर रखा था । एक अंधेरी रात को गायों के झुंड में एक बाघ घुस गया । तलवार लेकर पृषध्र बाघ को मारने के लिए लपके पर अंधेरे में गलती से उन्होंने बाघ द्वारा पकड़ी गई गौ-माता का सिर काट दिया ।
गुरु श्री वशिष्ठजी ने यह कृत्य देखकर पृषध्र को श्राप दे दिया । पृषध्र ने श्राप को स्वीकार किया । उन्होंने अपनी वृत्तियां शांत कर ली और इंद्रियों को वश में कर लिया और ब्रह्मचर्य व्रत लेकर भक्ति से युक्त होकर प्रभु के अनन्य प्रेमी बन गए ।
जीवन में किसी भी तरह की विपदा को भेजकर प्रभु हमें अपनी तरफ मुड़ने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । हमें उस अवसर को चूकना नहीं चाहिए और भक्ति से युक्त होकर प्रभु की तरफ मुड़ जाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 12 दिसम्बर 2016 |
548 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 4
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तब भगवान रुद्र ने कहा, तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है । तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो । अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमनु पुत्र नभग का पुत्र था नाभाग । जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लौटा तो उसके भाईयों ने संपत्ति का बंटवारा कर लिया और उनके हिस्से में वृद्ध पिता को दे दिया । पिता ने नाभाग से कहा कि कुछ ब्राह्मण इस समय बड़ा यज्ञ कर रहे हैं पर वे प्रत्येक छठे दिन अपना कर्म भूल जाते हैं । तुम उन्हें जाकर सूत्र बतला दो, बदले में यज्ञ का बचा हुआ सारा धन वे तुम्हें दे देंगे ।
ऐसा ही हुआ पर जब नाभाग धन उठा रहा था तो प्रभु श्री शिवजी प्रकट हो गए और बोले कि यज्ञ में बचा हुआ भाग मेरा होता है । प्रभु ने नाभाग से कहा कि जाकर अपने पिता से पूछकर आओ । पिता ने कहा कि यह बात सत्य है और यज्ञ का बचा हुआ भाग प्रभु श्री शिवजी का ही होता है ।
धर्म के अनुकूल निर्णय देने के कारण और सत्य वचन कहने के कारण प्रभु श्री शिवजी प्रसन्न हो गए और नाभाग को ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान दिया और सारा धन भी दे दिया । प्रभु धर्म के आचरण पर और सत्य पर रीझ जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 13 दिसम्बर 2016 |
549 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 4
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था । उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो सारा विश्व और उसकी समस्त संपत्तियां मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री अम्बरीषजी के विषय में कहे ।
राजा श्री अम्बरीषजी के पास पृथ्वी के सातों द्वीपों का राज्य, अचल संपत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य था । पर वे परम भगवत् भक्त थे । वे जानते थे कि धन वैभव के लोभ में पड़कर जीव घोर नर्क में जाता है । धन वैभव की चांदनी केवल चार दिन की ही होती है । इस कारण उनका प्रभु में परम प्रेम था । प्रभु का प्रेम प्राप्त होने के बाद उन्हें सारा विश्व और उसकी समस्त संपत्ति मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती थी ।
प्रभु में भक्ति के माध्यम से सच्चा प्रेम जग जाए तो जीव की चर्या ही बदल जाती है । जीव भी फिर सांसारिक धन की जगह परम धन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । प्रभु ही परम धन हैं । प्रभु को पाने के बाद सांसारिक धन हमें आकर्षित नहीं कर सकता ।
प्रकाशन तिथि : 14 दिसम्बर 2016 |
550 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 4
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्णचंद्र के चरणारविंद युगल में, वाणी को भगवदगुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरिमंदिर के मार्जन सेवन में और अपने कानों को भगवान अच्युत की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री अम्बरीषजी के विषय में कहे ।
राजा श्री अम्बरीषजी ने अपने मन को प्रभु के युगल श्रीकमलचरणों में लगा रखा था । उन्होंने अपनी वाणी को भगवत् गुणानुवाद करने में यानी प्रभु के सद्गुणों को गाने में लगा रखा था । राजा श्री अम्बरीषजी राजा होते हुए भी अपने महल के मंदिर की सफाई और सेवा अपने हाथों से करते थे । उसके लिए उन्होंने सेवक नियुक्त नहीं किए थे क्योंकि वे स्वयं को ही प्रभु का सेवक मानते थे । राजा श्री अम्बरीषजी ने अपने कानों को प्रभु की दिव्य मंगलमयी कथा श्रवण में लगा रखा था । उन्होंने अपनी जिह्वा को प्रभु को अर्पित प्रसाद ग्रहण करने में लगा रखा था । उन्होंने अपने नेत्रों को प्रभु दर्शन में लगा रखा था । राजा श्री अम्बरीषजी के पैर प्रभु क्षेत्र की पैदल यात्रा करने में लगे रहते थे । उनका सिर प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदा झुका रहता था । एक परम भक्त की तरह उन्होंने अपनी समस्त इंद्रियां प्रभु सेवा में अर्पित कर रखी थी ।
जीव को भी चाहिए कि अपनी समस्त इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़े तभी उसका मानव जीवन सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 15 दिसम्बर 2016 |
551 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 4
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उनकी रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करने वाला एवं भगवत् भक्तों की रक्षा करने वाला है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु अपने भक्तों पर सदा प्रसन्न रहते हैं और अपने भक्तों की रक्षा का दायित्व स्वयं उठाते हैं । राजा श्री अम्बरीषजी के दृष्टांत से हमें यह तथ्य साफ देखने को मिलता है ।
राजा श्री अम्बरीषजी की अनन्य प्रेमाभक्ति से प्रसन्न होकर प्रभु ने उनकी रक्षा के लिए अपने दिव्य श्री सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था । श्री सुदर्शन चक्र विरोधियों को भयभीत करने वाले और उनका नाश करने वाले और भगवत् भक्त की रक्षा करने वाले प्रभु के दिव्य शस्त्र हैं ।
प्रभु सदैव अपने भक्तों की सुरक्षा की चिंता रखते हैं और भक्तों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाते हैं । प्रभु का आश्रय पाकर भक्त इसलिए निश्चिंत हो जाते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति करके प्रभु को प्रसन्न करें फिर उसे अपनी चिंता करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी ।
प्रकाशन तिथि : 16 दिसम्बर 2016 |
552 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(नवम स्कंध) |
अ 4
श्लो 63 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । मुझमें तनिक भी स्वतंत्रता नहीं है । मेरे सीधे सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह मेरा एक बहुत प्रिय श्लोक है क्योंकि इसमें प्रभु ने कहा है कि मैं सर्वथा अपने भक्तों के अधीन हूँ ।
जब ऋषि श्री दुर्वासाजी ने प्रभु भक्त श्री अम्बरीषजी को मारने के लिए कृत्या उत्पन्न की तो प्रभु के श्री सुदर्शन चक्र ने तत्काल उसका नाश कर दिया । श्री सुदर्शन चक्र अब ऋषि श्री दुर्वासाजी के पीछे लग गया । ऋषि श्री दुर्वासाजी को प्रभु श्री ब्रह्माजी और प्रभु श्री शिवजी ने भी शरण नहीं दी और अंत में श्री सुदर्शन चक्र की आग से जलते हुए और कांपते हुए वे प्रभु की शरण में आकर गिर पड़े । तब प्रभु ने कहा कि आपका अपराध मेरे भक्त का है और मैं (प्रभु) सर्वथा अपने भक्तों के अधीन हूँ । परम स्वतंत्र प्रभु ने कहा कि मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ क्योंकि मैं भक्तों के अधीन हूँ । प्रभु ने आगे कहा कि मेरे सरल भक्त मेरे हृदय को अपने पास रखते हैं । प्रभु ने कहा कि मेरे भक्तजन मुझे प्रेम करते हैं और मैं उन्हें प्रेम करता हूँ ।
प्रभु अपने प्रिय भक्तों को कितना प्रेम करते हैं और कितना मान देते हैं यह यहाँ देखने को मिलता है ।
प्रकाशन तिथि : 17 दिसम्बर 2016 |