क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
505 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 02
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसलिए अब मैं सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान की ही शरण लेता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री गजेन्द्रजी नामक हाथी और ग्राह की कथा को हम श्री गजेन्द्र मोक्ष के नाम से जानते हैं । श्री गजेन्द्रजी को जब जल क्रीड़ा करते वक्त ग्राह ने पकड़ा तो उन्होंने अपना पूरा बल लगाया पर छूटने में सर्वथा असमर्थ हो गए । उनके साथ के हाथियों और हथिनियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया ।
उनको अपनी मृत्यु दिखने लगी और उनको स्मरण हुआ कि जो प्रभु की शरण में चला जाता है प्रभु उसे अवश्य बचा लेते हैं । प्रभु सबको आश्रय देने वाले हैं इसलिए श्री गजेन्द्रजी ने प्रभु की शरण ग्रहण की ।
हमें भी विपत्ति काल में या बिना विपत्ति के भी प्रभु की शरण ग्रहण करनी चाहिए क्योंकि प्रभु ही सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रयदाता हैं ।
प्रकाशन तिथि : 27 अक्टूबर 2016 |
506 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 03
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है .... जैसे समस्त नदी-झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं । आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं, अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री गजेन्द्रजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
सभी जीवों के साक्षी के रूप में प्रभु हैं । सभी के सत्ता के रूप में भी प्रभु विराजमान हैं । प्रभु सबके मूल कारण है, प्रभु का कोई कारण नहीं है । जैसे समस्त नदियों और झरनों के आश्रय समुद्रदेवजी हैं वैसे ही समस्त श्रीवेदों और शास्त्रों का परम तात्पर्य प्रभु हैं । समस्त श्रीवेद और शास्त्र प्रभु की स्तुति और प्रभु का ही गुणगान करते हैं । प्रभु मोक्षस्वरूप है यानी मोक्ष प्रदान करने वाले प्रभु ही हैं । समस्त संत और भक्त एकमात्र प्रभु की ही शरण ग्रहण करते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह भी प्रभु की शरणागति ग्रहण करे । प्रभु की शरणागति के अलावा संसार सागर से तरने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 28 अक्टूबर 2016 |
507 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 03
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे जैसे शरणागतों की फांसी काट देते हैं । आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते । आपके चरणों में मेरा नमस्कार है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब श्री गजेन्द्रजी को ग्राह ने पकड़ा और वे अपना पूरा बल लगाने पर भी अपने आपको मुक्त नहीं करा पाए तो उन्होंने प्रभु की स्तुति कर प्रभु को पुकारा और प्रभु की शरण ग्रहण की ।
जैसे एक दयालु पुरुष बंधन में पड़े पशु को बंधनमुक्त कर देता है वैसे ही परमदयालु प्रभु अपने शरणागत के समस्त बंधनों को काट देते हैं । प्रभु परम करुणामय हैं और अपने भक्तों का कल्याण करने में कभी विलंब नहीं करते । प्रभु अपने शरण में आए हुए जीव का सम्पूर्ण दायित्व उठाते हैं और जिसमें उस जीव का हित हो वह कार्य करते हैं ।
प्रभु की शरणागति में रहना सबसे श्रेष्ठ उपाय है और इसलिए हमें प्रभु की अविलम्ब शरण ग्रहण करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 29 अक्टूबर 2016 |
508 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 03
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु की, यहाँ तक कि मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुद्र में निमग्न रहते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री गजेन्द्रजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु के अनन्य प्रेमी भक्तजन प्रभु की शरण में ही रहते हैं । ऐसे भक्तजन किसी भी वस्तु की अभिलाषा प्रभु से नहीं रखते । यहाँ तक कि ऐसे भक्तजन मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं रखते । वे केवल प्रभु की दिव्य मंगलमयी श्रीलीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुद्र में डूबे रहते हैं । सच्चा भक्त निष्काम होता है । निष्काम भक्ति का स्थान इतना ऊँचा है कि मोक्ष भी उसके सामने तुच्छ हो जाता है । प्रभु के सच्चे भक्तों को प्रभु की श्रीलीलाओं के गान में इतना आनंद मिलता है जिसके सामने संसार के सभी सुख फीके पड़ जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह निष्काम होकर प्रभु की भक्ति करे ।
प्रकाशन तिथि : 30 अक्टूबर 2016 |
509 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 03
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... इसलिए जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते । आपकी शक्ति अनंत है । आप शरणागतवत्सल हैं । आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री गजेन्द्रजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं, वे जीव प्रभु को नहीं पा सकते । हम संसार में रहते हैं और हमारी इन्द्रियां संसार में फंसी रहती हैं । माया हमें जो दृश्य दिखती है हमारी इन्द्रियां उससे आकर्षित हो जाती है । इसलिए हमारी सभी इन्द्रियां संसार में रमी रहती है । जब तक हम उन्हें संसार से हटाकर भक्ति के द्वारा प्रभु में नहीं लगाते हैं तब तक प्रभु की प्राप्ति संभव नहीं है । जब हम अपनी समस्त इन्द्रियों को संसार से खींचकर प्रभु में लगाएंगे तभी हमारा मानव जीवन सफल होगा ।
प्रभु की शक्ति अनंत है । प्रभु सर्वशक्तिमान हैं और सब कुछ करने में समर्थ हैं । प्रभु शरणागतवत्सल हैं यानी शरण में आए हुए जीव से प्रभु प्रेम करते हैं और उसे स्वीकार करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 31 अक्टूबर 2016 |
510 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 04
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वास्तव में अविनाशी भगवान ही सर्वश्रेष्ठ कीर्ति से संपन्न हैं । उन्हीं के गुण और मनोहर लीलाएं गान करने योग्य हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब श्री गजेन्द्रजी ने प्रभु को पुकारा तो प्रभु बड़े वेग से आए । संतजन इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि हरि नाम से श्री गजेन्द्रजी ने प्रभु का आह्वान किया था । "ह" शब्द के उच्चारण पर प्रभु दौड़े और "रि" शब्द के उच्चारण से पहले श्री सुदर्शन चक्र से प्रभु ने ग्राह का अंत कर श्री गजेन्द्रजी को मुक्त करा दिया ।
ग्राह का प्रभु के श्रीहाथों अंत होते ही वह श्राप मुक्त हो गया । वह पहले गंधर्व था और श्राप के कारण ग्राह बना था । अब प्रभु की कृपा से वह मुक्त हो गया । वह प्रभु के सुयश का गान करने लगा ।
वास्तव में प्रभु ही एकमात्र हैं जो सर्वश्रेष्ठ कीर्ति से संपन्न हैं । इसलिए प्रभु के ही दिव्य सद्गुणों और मनोहर श्रीलीलाएं गान करने योग्य हैं । भक्तजन प्रभु के दिव्य सद्गुणों और मनोहर श्रीलीलाओं का गान कर परमानंद को प्राप्त करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 01 नवम्बर 2016 |
511 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 04
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु भगवान की आराधना का ऐसा प्रभाव है कि हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गई ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री शुकदेवजी राजा श्री परीक्षितजी को श्री गजेन्द्रजी का पूर्व चरित्र सुनाते हुए कहते हैं कि श्री गजेन्द्रजी पूर्व जन्म में द्रविड़ देश का राजा थे । वे प्रभु के श्रेष्ठ उपासक थे एवं राजपाट छोड़कर तपस्वी वेश धारण कर सर्वशक्तिमान प्रभु की आराधना करते थे । ऋषि श्री अगस्त्यजी के श्राप के कारण उनको अगले जन्म में हाथी की योनी प्राप्त हुई ।
पर उनके द्वारा पूर्व जन्म में की हुई प्रभु की आराधना का ऐसा प्रभाव था कि हाथी होने पर भी उन्हें प्रभु का स्मरण था और अंत समय विपदा की घड़ी में उनके द्वारा प्रभु की दिव्य स्तुति की गई ।
किसी भी जन्म में की गई प्रभु की आराधना कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और जरूरत के समय निश्चित हमारे काम आती है ।
प्रकाशन तिथि : 02 नवम्बर 2016 |
512 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 04
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में जगकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, मृत्यु के समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धि का दान करूंगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री गजेन्द्र मोक्ष स्तुति का महत्व प्रभु ने इस श्लोक में बताया है । जीवन काल में विपत्ति के समय श्री गजेन्द्र मोक्ष का भक्ति भाव से मन लगाकर पाठ करने वाले की विपत्ति दूर होती है । श्री गजेन्द्रजी की स्तुति से प्रसन्न होकर सर्वव्यापक प्रभु ने सब लोगों के सामने यह बात कही कि जो इस श्री गजेन्द्र स्तुति से प्रभु का स्तवन करेगा प्रभु उस जीव को मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करेंगे ।
मृत्यु के समय बुद्धि निर्मल नहीं होती इसलिए अन्यत्र भटकती है । मृत्यु के समय अगर बुद्धि प्रभु में स्थिर हो जाए तो हम प्रभु को पा सकते हैं ।
इसलिए जीवन काल में श्री गजेन्द्र मोक्ष का पाठ करना बड़ा फलदायी है क्योंकि इससे जीवन काल में विपत्ति के समय हमारी रक्षा होती है एवं मृत्यु के समय बुद्धि निर्मल होती है जिससे हम मृत्यु की बेला में प्रभु का स्मरण कर सकते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 04 नवम्बर 2016 |
513 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 05
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवान विष्णु के संपूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु के संपूर्ण सद्गुणों का वर्णन तो वह करे जिसने पृथ्वी के सारे परमाणुओं की गिनती कर ली हो । इसका तात्पर्य यह है कि पृथ्वी के परमाणु को गिनना किसी के लिए भी संभव नहीं है क्योंकि पृथ्वी के परमाणु असंख्य होते हैं । इसी तरह प्रभु के श्रीगुणों की गिनती भी कतई संभव नहीं क्योंकि श्री वेदजी भी प्रभु के सद्गुणों का बखान नहीं कर सकते और "नेति-नेति" कह कर शांत हो जाते हैं । प्रभु के सद्गुणों का वर्णन करना शास्त्र, देवता, ऋषि और संत किसी के लिए भी संभव नहीं है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु के सद्गुणों का गान जीवन में निरंतर करता रहे । यह भक्ति का एक उत्तम साधन है ।
प्रकाशन तिथि : 05 नवम्बर 2016 |
514 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 05
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप भक्तवत्सल भगवान की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुनने के लिए उत्सुक होता जा रहा है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु श्री शुकदेवजी को कहे ।
राजा श्री परीक्षितजी को जब सात दिवस बाद मृत्यु का श्राप मिला तो उनकी सद्गति के लिए प्रभु श्री शुकदेवजी उन्हें श्रीमद भागवतजी की कथा सुनाने के लिए आए । जैसे-जैसे प्रभु श्री शुकदेवजी भक्तवत्सल प्रभु की महिमा का वर्णन करने लगे, वैसे-वैसे राजा परीक्षित का हृदय प्रभु की महिमा सुनने के लिए उत्सुक होता चला गया । यह सच्चे भक्त के लक्षण होते हैं कि उन्हें प्रभु की महिमा सुनने से कभी तृप्ति नहीं होती और वे निरंतर प्रभु का गुणगान सुनते ही रहना चाहते हैं । श्रीमद भागवतजी के महात्म्य में यह प्रश्न आया है कि प्रभु की श्रीलीला कब तक सुननी चाहिए और इसके उत्तर में कहा गया है कि जीवनपर्यंत सुनते रहना चाहिए ।
क्योंकि प्रभु की श्रीलीलाएं इतना परमानंद प्रदान करने वाली हैं इसलिए प्रभु की कथा निरंतर सुनते ही रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 नवम्बर 2016 |
515 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 05
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वही प्रभु इस जीव के हृदय में अंतर्यामी रूप से विराजमान रहते हैं । विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं की आराधना करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु हर जीव के हृदय में अंतर्यामी के रूप में विराजमान हैं । सभी जीव को दृष्टा के भाव से प्रभु देखते हैं । प्रभु से हम कुछ भी छिपा नहीं सकते । जो हम करते हैं और जो हम सोचते हैं वह सब कुछ प्रभु को पता होता है । प्रभु हमारी अंतरात्मा की बात को भी जानते हैं । दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि विचारशील मनुष्य भक्ति के द्वारा प्रभु की आराधना करते हैं । प्रभु तक पहुँचने के लिए सबसे उत्तम और सबसे श्रेष्ठ मार्ग भक्तिमार्ग ही है इसलिए जो विचारशील जीव हैं वे भक्तिमार्ग का ही आश्रय लेते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह भक्तिमार्ग पर आगे बढ़कर प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 07 नवम्बर 2016 |
516 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 05
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जीव अपने पुरुषार्थ से नहीं, उनकी कृपा से ही उन्हें प्राप्त कर सकता है । हम उनके चरणों में नमस्कार करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
इस श्लोक में एक शाश्वत सिद्धांत का प्रतिपादन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने किया है । प्रभु को कोई भी जीव अपने पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं कर सकता अपितु प्रभु की कृपा से ही प्रभु को प्राप्त कर सकता है । हम कितने भी साधन क्यों न कर लें पर उन साधनों से तब तक प्रभु को नहीं पाया जा सकता जब तक प्रभु कृपा नहीं करते । प्रभु को पाने के लिए प्रभु की कृपा का होना अनिवार्य है । प्रभु इतने कृपालु हैं कि जो जीव प्रभु तक पहुँचने के लिए अपने कदम प्रभु की तरफ बढ़ाता है प्रभु उस जीव पर अवश्य कृपा करते हैं ।
जब कोई जीव भक्ति करके प्रभु को पाने का प्रयास करता है तो प्रभु उस जीव पर अवश्य कृपा करते हैं जिससे वह जीव प्रभु को पा लेता है ।
प्रकाशन तिथि : 08 नवम्बर 2016 |
517 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 05
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप समय-समय पर स्वयं ही अपनी इच्छा से अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिए अत्यंत कठिन होता है, उसे आप सहज में ही कर देते हैं । आप सर्वशक्तिमान हैं, आपके लिए इसमें कौन-सी कठिनाई है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु समय-समय पर जरूरत अनुसार स्वयं अपनी इच्छा से अनेक रूप धारण करके अवतार लेते हैं और जो काम अत्यंत कठिन होते हैं उसे सहज में कर देते हैं । क्योंकि प्रभु सर्वशक्तिमान हैं इसलिए कठिन-से-कठिन कार्य करने में भी प्रभु को कोई कठिनाई नहीं होती । जब-जब धर्म की हानि होती है और त्रिलोक विजयी असुर सत्ता में आते हैं तब-तब प्रभु उनके संहार के लिए अवतार ग्रहण करके सरलता से उनका नाश करके धर्म की पुनः स्थापना करते हैं ।
प्रभु सर्वशक्तिमान एवं सर्वसामर्थ्यवान हैं इसलिए प्रभु के लिए कुछ भी कठिन नहीं है और प्रभु हर कार्य बड़ी सहजता से करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 09 नवम्बर 2016 |
518 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 05
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्मभास भी कभी विफल नहीं होता । क्योंकि भगवन जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
जो कर्म प्रभु को समर्पित नहीं किए जाते हैं उनको करने में परिश्रम और क्लेश बहुत होता है और उनका फल बहुत कम निकलता है । परंतु जो कर्म प्रभु को समर्पित किए जाते हैं उनको करते वक्त भी परम सुख मिलता है और वे कर्म कभी विफल नहीं होते । प्रभु जीव के परम हितैषी और परम प्रियतम हैं इसलिए हमें हर कर्म प्रभु को समर्पित करना चाहिए जिससे हमारा परम हित सुनिश्चित हो जाए । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु का समर्पित किया छोटे-से-छोटा कर्म भी कभी विफल नहीं होता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह जीवन में अपने प्रत्येक कर्म को प्रभु को समर्पित करते हुए चले ।
प्रकाशन तिथि : 10 नवम्बर 2016 |
519 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 07
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार भगवान ने पर्वत के ऊपर उसको दबा रखने वाले के रूप में, नीचे उसके आधार कच्छप के रूप में, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूप में, पर्वत में दृढ़ता के रूप में और नेति बने हुए वासुकि नाग में निद्रा के रूप में, जिससे उसे कष्ट न हो, प्रवेश करके सब ओर से सबको शक्ति संपन्न कर दिया । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ तो सभी तरफ प्रभु की शक्तियां ही काम कर रही थी । मंदराचल पर्वत को प्रभु ने ऊपर से दबा कर रखा था और नीचे से श्रीकच्छप अवतार लेकर उस मंदराचल पर्वत को आधार दे रखा था । असुरों में उनकी शक्ति और बल को बढ़ाने के लिए प्रभु ने प्रवेश किया । वैसे ही देवताओं की शक्ति और बल बढ़ाने के लिए प्रभु ने देवरूप में उनमें प्रवेश किया । श्री वासुकि नाग की नेति बनी थी इसलिए प्रभु ने निद्रा रूप में उसमें प्रवेश किया जिससे वह निद्रा में रहे और मथने से उसे कष्ट न हो ।
यह दृष्टांत यह बताता है कि सभी कार्य प्रभु अपनी शक्ति से संपन्न करते हैं । निमित्त कोई भी बने पर हर कार्य को संपादित करने के पीछे शक्ति प्रभु की ही होती है ।
इसलिए हमें अपने कर्म और बल का कभी घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे हर कर्म और बल में शक्ति प्रभु की ही होती है ।
प्रकाशन तिथि : 11 नवम्बर 2016 |
520 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 07
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सारे जगत को बांधने और मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं । इसलिए विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं । क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करने वाले एवं जगद्गुरु हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रजापतियों ने प्रभु श्री शिवजी की स्तुति में कहे ।
जब समुद्र मंथन में सबसे पहले हलाहल नाम का उग्र विष निकला तो देवता और असुर दोनों अत्यंत व्याकुल हो उठे । वह उग्र विष सभी दिशाओं में ऊपर-नीचे सर्वत्र फैलने लगा जिससे जलचर और थलचर सभी व्याकुल हो गए । तब सभी प्रभु श्री शिवजी की शरण में गए और रक्षा करने के लिए प्रार्थना करने लगे । सारे जगत को विपदा से मुक्त करने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । प्रभु शरणागत की पीड़ा को तत्काल नष्ट करने वाले हैं । प्रभु श्री शिवजी आशुतोष हैं एवं अपनी शरण में आए हुए जीवों पर बहुत जल्दी से प्रसन्न होकर उनके कष्ट को हरने वाले हैं ।
इसलिए विवेकी पुरुष विपदा में शरणागत की पीड़ा को नष्ट करने वाले प्रभु की ही शरण ग्रहण करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 12 नवम्बर 2016 |
521 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 07
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान शंकर बड़े कृपालु हैं । उन्हीं की शक्ति से समस्त प्राणी जीवित रहते हैं । उन्होंने उस तीक्ष्ण हलाहल विष को अपने हथेली पर उठाया और भक्षण कर गए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - सबका कल्याण करने के लिए विश्व के जीवनदाता प्रभु श्री शिवजी विषपान करने को सहर्ष तैयार हो गए । प्रभु श्री शिवजी अत्यंत कृपालु हैं । इस अवसर पर उन्होंने ही विषपान करके सभी को नया जीवनदान दिया एवं उन्हीं की शक्ति से समस्त प्राणी जीवित रहे । प्रभु श्री शिवजी ने हलाहल विष को अपनी हथेली पर उठाया और विषपान किया ।
संतजन व्याख्या करते हुए कहते हैं कि क्योंकि प्रभु श्री शिवजी के हृदय में प्रभु का वास है इसलिए उन्होंने उस विष को अपने हृदय तक नहीं पहुँचने दिया जिससे भीतर विराजे प्रभु को कष्ट न हो । प्रभु श्री शिवजी ने इसलिए विष को अपने कंठ में ही स्थान दे दिया जिससे उनका कंठ नीला हो गया और प्रभु श्री शिवजी का एक नाम नीलकंठ पड़ गया ।
प्रभु श्री शिवजी जैसा दयावान कोई नहीं है इसलिए उन्हें देवाधिदेव और देवताओं के आराध्यदेव प्रभु श्री महादेवजी कहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 13 नवम्बर 2016 |
522 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 08
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वास्तव में लक्ष्मीजी के एकमात्र आश्रय भगवान ही हैं । इसी से उन्होंने उन्हीं को वरण किया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब समुद्र मंथन में भगवती लक्ष्मी माता प्रकट हुई तो उन्होंने प्रभु का वरण किया क्योंकि प्रभु में सभी मंगलमय सद्गुण नित्य निवास करते हैं । इसलिए भगवती लक्ष्मी माता के एकमात्र आश्रय प्रभु ही हैं ।
संसार में लोग आज भगवती लक्ष्मी माता का आह्वान करते हैं और प्रभु का साथ में आह्वान नहीं करते और प्रभु को भूल जाते हैं । संसार के लोग सिर्फ भगवती लक्ष्मी माता की ही कृपा चाहते हैं । भगवती लक्ष्मी माता का श्रेष्ठ आह्वान तब होता है जब उनका प्रभु श्री लक्ष्मीनारायणजी के स्वरूप में आह्वान किया जाए । जब माता प्रभु के साथ आती हैं तो वे दोनों जीव पर पूर्ण कृपा करते हैं । इसलिए जीवन में अकेले भगवती लक्ष्मी माता का आह्वान कभी नहीं करना चाहिए ।
जीव को चाहिए कि वह प्रभु श्री लक्ष्मीनारायणजी के स्वरूप की ही आराधना करे ।
प्रकाशन तिथि : 14 नवम्बर 2016 |
523 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 09
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! देखो, देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय एक स्थान पर एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिए एक विचार से एक ही कर्म किया था, परंतु फल में बड़ा भेद हो गया । उनमें से देवताओं ने बड़ी सुगमता से अपने परिश्रम का फल, अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान के चरणकमलों की रज का आश्रय लिया था । परंतु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से वंचित ही रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब समुद्र मंथन में अमृत निकला तो प्रभु ने मोहिनी अवतार लेकर दैत्यों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिला दिया । देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय पर और एक ही स्थान पर अमृत प्राप्त करने के लिए कर्म किया पर उस कर्म के फल में बड़ा भेद हो गया । देवताओं को बड़ी आसानी से उनके कर्म का फल अमृतरूप में मिला क्योंकि उन्होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज का आश्रय लिया था । परंतु प्रभु से विमुख होने के कारण परिश्रम करने के बाद भी दैत्य अमृत से वंचित रहे ।
यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि जब हम प्रभु का आश्रय लेकर और प्रभु को समर्पित करके कोई कर्म करते हैं तो हमें निश्चित ही उसका शुभ फल मिलता है ।
प्रकाशन तिथि : 15 नवम्बर 2016 |
524 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 09
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से उसका तना, टहनियां और पत्ते, सब-के-सब सींच जाते हैं, वैसे ही भगवान के लिए कर्म करने से वे सबके लिए हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब हम प्रभु के लिए कोई कर्म करते हैं तो वह कर्म संसार के लिए भी स्वतः हो जाता है । जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से उसके सभी तनों, टहनियों और पत्तों की सिंचाई हो जाती है वैसे ही प्रभु के लिए कर्म करने से सबके लिए वह कर्म स्वतः ही सिद्ध हो जाता है । वृक्ष की जड़ को पानी से सींचने के बाद उस वृक्ष के तनों, टहनियों और पत्तों को अलग से सींचने की जरूरत नहीं होती क्योंकि वृक्ष की जड़ अपने आप पानी के पोषण को अपने तनों, टहनियों और पत्तों तक पहुँचा देती है । ऐसे ही प्रभु के लिए कर्म करने के बाद और प्रभु की तृप्ति के बाद जगत के लिए अलग से कुछ करने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने कर्म प्रभु के लिए करे और प्रभु को तृप्त करने के लिए करे ।
प्रकाशन तिथि : 16 नवम्बर 2016 |
525 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 10
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ठीक ही है, भगवान की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब समुद्र मंथन के बाद देवासुर संग्राम हुआ तो दैत्यों ने माया की सृष्टि की और देवताओं पर छिपकर प्रहार करने लगे । देवताओं ने उस आसुरी माया का प्रतिकार करने के लिए बहुत उपाय किए पर सब व्यर्थ गए । जब देवताओं को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने विश्व के जीवनदाता प्रभु का ध्यान किया ।
उनकी विनती पर प्रभु तत्काल वहाँ प्रकट हुए और प्रभु के प्रकट होते ही असुरों की माया तुरंत विलीन हो गई । जैसे जगने पर स्वप्न की वस्तु का पता नहीं चलता वैसे ही प्रभु के प्रकट होते ही माया का पता भी नहीं चला और माया विलीन हो गई ।
प्रभु की स्मृति मात्र ही जीव को समस्त विपत्तियों से मुक्त करवा देती है । इसलिए विपत्ति के समय सिर्फ प्रभु को ही पुकारना चाहिए और प्रभु की ही शरण ग्रहण करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 17 नवम्बर 2016 |
526 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 12
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कल्याणकामी महात्मा लोग इस लोक और परलोक दोनों की आसक्ति एवं समस्त कामनाओं का परित्याग करके आपके चरणकमलों की ही आराधना करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जो अपने कल्याण की चाह रखते हैं, ऐसे महात्मा लोग इहलोक और परलोक दोनों की आसक्ति और अपनी समस्त कामनाओं को त्याग कर प्रभु के श्रीकमलचरणों की आराधना करते हैं ।
महात्मा, ऋषि और संत इहलोक और परलोक दोनों की आसक्ति को त्याग देते हैं और अपनी समस्त कामनाओं से रहित होकर प्रभु की आराधना और भक्ति करते हैं । जब तक जीव इहलोक और परलोक की आसक्ति में फंसा हुआ है और कामनाओं से युक्त है तब तक वह प्रभु को नहीं पा सकता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपनी आसक्ति का त्याग करे और कामना रहित होकर प्रभु की आराधना करे ।
प्रकाशन तिथि : 18 नवम्बर 2016 |
527 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 12
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं । आप समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्म का फल देने वाले स्वामी हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं । विश्व की उत्पत्ति प्रभु से होती है । विश्व प्रभु में ही स्थित है । विश्व में प्रलय होने पर विश्व प्रभु में समा जाता है । फिर विश्व की नवीन रूप से उत्पत्ति प्रभु के भीतर से ही होती है ।
दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि समस्त जीवों के शुभ कर्मों का फल देने वाले स्वामी प्रभु हैं । प्रभु ही सभी जीवों को उनके द्वारा किए गए शुभ कर्मों का फल प्रदान करते हैं । हमें कर्म करने का अधिकार है पर उसका फल प्रभु के हाथ है । हमारे सभी कर्मों का फल प्रभु ही हमें देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह शुभ कर्म करता चले और साथ ही अपने शुभ कर्म को प्रभु को समर्पित करता चले ।
प्रकाशन तिथि : 19 नवम्बर 2016 |
528 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 12
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान के गुण और लीलाओं का गान संसार के समस्त क्लेश और परिश्रम को मिटा देने वाला है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जो पुरुष प्रभु के सद्गुण और श्रीलीला का बार-बार श्रवण और कीर्तन करते हैं उनके कर्म कभी भी और कहीं भी निष्फल नहीं होते । प्रभु पवित्रकीर्ति हैं और प्रभु के सद्गुण और श्रीलीला का गान संसार के समस्त क्लेश और परिश्रम को मिटा देने वाला है । इसलिए संतजन नित्य प्रभु की श्रीलीलाओं और सद्गुणों का गान और कीर्तन करते हैं । प्रभु के सद्गुणों और श्रीलीलाओं के गान और कीर्तन का फल कभी निष्फल नहीं होता । जीवन के क्लेशों को मिटाने का यह एक बहुत सफल साधन है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु के सद्गुणों और श्रीलीलाओं का कथा रूप में श्रवण और कीर्तन रूप में गान करे ।
प्रकाशन तिथि : 20 नवम्बर 2016 |