क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
49 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 28-29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है । यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही है । योग श्रीकृष्ण के लिए ही किए जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण ही है । ज्ञान से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है । तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही की जाती है । श्रीकृष्ण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - हर विधि, हर कर्म में प्रभु की प्रधानता को बताता यह मेरा एक प्रिय श्लोक ।
इस श्लोक से सभी भ्रांतियां मिट जाती है और दृष्टिकोण परिपक्व हो जाता है । सभी कर्मों के हेतु प्रभु ही हैं, सभी कर्म प्रभु के लिए किए जाते हैं ।
श्रीवेदों में जो बताया गया है उसका तात्पर्य मात्र प्रभु हैं । यज्ञ का उद्देश्य कुछ पाना नहीं अपितु प्रभु की प्रसन्नता ही है । सभी प्रकार के योग प्रभु के लिए किए जाते हैं । सभी प्रकार के नाना कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं । ज्ञान का उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति है । तपस्या प्रभु को जानने के लिए की जाती है । सभी धार्मिक अनुष्ठान प्रभु के लिए होते हैं ।
जो भी इस उद्देश्य को ले कर चलेगा वही सफल होगा और प्रभु को पा लेगा । जो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ करता है वह अपने स्वार्थ की सिद्धि तो कर लेता है पर प्रभु को पाने से वंचित रह जाता है । उसकी गति वैसी ही है जैसे हम सागर में मोती लेने उतरे और कंकड़ लेकर आ गए ।
इसलिए सभी कर्म प्रभु की प्रसन्नता हेतु करना चाहिए और सभी कर्म प्रभु के श्रीकमलचरणों में अर्पण करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 नवम्बर 2012 |
50 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है । वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान तो एक ही हैं, परंतु प्राणियों की अनेकता से अनेक जैसे जान पड़ते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जैसे अनेक लकड़ियों के अलग-अलग घर्षण से अग्नि प्रकट होती है पर वह अग्नि मूलतः एक ही होती है, वैसे ही अनेक पंथ, अनेक धर्म, अनेक अवतार प्रभु अनेक प्राणियों के लिए ग्रहण करते हैं । प्राणियों की अनेकता के कारण प्रभु अनेक से जान पड़ते हैं पर हैं तो एक ही ।
बस इतना-सा दृष्टिकोण शुद्ध हो जाए तो धर्म के नाम पर श्रेष्ठता, धर्म के नाम पर विभाजन की बात ही खत्म हो जाती है । धर्म सदैव प्रभु से जोड़ने के लिए होता है । सच्चा दृष्टिकोण जग जाए तो हर पंथ, हर धर्म की जय बोलने में, प्रभु के हर चौखट पर सिर झुकाने में कोई परहेज नहीं रहेगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 नवम्बर 2012 |
51 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 3
श्लो 3 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान के उस विराटरूप के अंग प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है, वह भगवान का विशुद्ध सत्वमय श्रेष्ठ रूप है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के ऐश्वर्य को दर्शाता श्लोक । प्रभु के विराट रूप के अंग प्रत्यंग में समस्त लोक समाए हुए हैं । प्रभु के रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समाए हुए हैं ।
ऐश्वर्य देखें मेरे प्रभु का । रोम शरीर का कितना छोटा प्रारूप होता है । ब्रह्माण्ड कितना विस्तृत होता है जिसमें न जाने कितने ग्रह, नक्षत्र, तारामंडल समाए होते हैं । प्रभु के एक-एक रोम में कोटि-कोटि यानी असंख्य ब्रह्माण्ड यानी असंख्य ग्रह, नक्षत्र, तारामंडल के समूह समाए हुए हैं ।
जब हम प्रभु के ऐश्वर्य की ऐसी कल्पना करते हैं तो हमारी कल्पना शक्ति भी हाथ खड़े कर देती है । प्रभु के ऐश्वर्य की कल्पना करना भी हमारे वश में नहीं है ।
जहाँ श्री वेदजी भी बखान करते हुए नेति-नेति कहकर शान्त हो जाते हैं, मेरे प्रभु का ऐसा अनुपम ऐश्वर्य है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 नवम्बर 2012 |
52 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 3
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के अवतारों की महिमा बताता यह श्लोक । जब-जब लोग अत्यधिक अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं, तब-तब मेरे प्रभु उनकी रक्षा करने हेतु अवतार ग्रहण करते हैं ।
इसी भाव को प्रभु ने स्वयं अपने श्रीवचनों में श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रकट किया है कि जब-जब धर्म की हानि होगी, मैं (प्रभु) धर्म की पुनः स्थापना हेतु अवतार लेकर आऊँगा ।
जैसे एक पिता जो परिवार का मुखिया है वह अपने परिवार की रक्षा के लिए तत्पर रहता है, वैसे ही परमपिता प्रभु अपनी संतान की रक्षा हेतु तत्पर रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 नवम्बर 2012 |
53 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 3
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तत्व ज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जीव परमात्मा का अंश है । परमात्मा परमानंद स्वरूप हैं । अंश होने के कारण जीव भी परमानंद स्वरूप ही है पर जीव अपने परमानंद की अवस्था माया के प्रभाव में आकर खो देता है ।
जब तत्वज्ञानी प्रभु कृपा के कारण प्रभु की रची माया से निवृत्त हो जाते हैं तो वे परमानंद को प्राप्त कर लेते हैं यानी अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं ।
माया के प्रभाव से निकलने का फल परमानंद की प्राप्ति है पर यह प्रभु कृपा के बिना संभव नहीं है । अपने बलबूते पर माया से बच निकलना कतई संभव नहीं । इसके लिए प्रभु की शरण में जाना ही एकमात्र उपाय है । प्रभु कृपा से ही जीव माया के प्रभाव से छूटता है और उसे परमानंद की प्राप्ति होती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 नवम्बर 2012 |
54 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 3
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
चक्रपाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं, उनकी कोई थाह नहीं पा सकता । वे सारे जगत के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं । उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरंतर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है, सेवा भाव से उनके चरणों का चिंतन करता रहता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की शक्ति और पराक्रम अनन्त है । उसकी कोई थाह नहीं पा सकता । प्रभु की श्रीलीलाएं भी अनन्त है । उनकी भी कोई थाह नहीं पा सकता ।
कौन प्रभु की श्रीलीलाओं के रहस्य को जान पाता है ? जो प्रभु का चिंतन करता है, प्रभु के श्रीकमलचरणों के अधीन रहता है, उस पर प्रभु प्रसन्न होकर अपना रहस्य प्रकट करते हैं ।
ऐसा वर्णित है कि जिसे प्रभु चाहते हैं कि वह प्रभु को जान पाए, वही भाग्यवान जीव प्रभु को जान पाता है । हमारे चिंतन और सेवा से प्रसन्न होकर प्रभु स्वयं को प्रकट करते हैं, तभी हम प्रभु की श्रीलीलाओं के रहस्य, प्रभु की शक्ति, पराक्रम, ऐश्वर्य को जान पाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 नवम्बर 2012 |
55 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 3
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
शौनकादि ऋषियों ! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से सर्वात्मक आत्मभाव व अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरण रूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - कौन सौभाग्यशाली और धन्य होता है ? संसार के विघ्नों और बाधाओं से कैसे पार पा सकते हैं ? दोनों उत्तर यहाँ मिलते हैं ।
जो समस्त लोकों के स्वामी प्रभु से प्रेम करते हैं, वे ही धन्य और सौभाग्यशाली होते हैं । वे ही संसार के विघ्नों और बाधाओं को पार कर सकते हैं ।
प्रभु से प्रेम करने का एक और फल यहाँ बताया गया है कि उस जीव को फिर जन्म-मरण रूपी संसार के भयंकर चक्र में नहीं फंसना पड़ता ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 2 दिसम्बर 2012 |
56 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 8 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया । मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उक्त कथन प्रभु श्री वेदव्यासजी से कहा । जब प्रभु श्री वेदव्यासजी के चित्त को श्रीवेदों के विभाजन एवं श्री महाभारतजी की रचना के बाद भी तृप्ति नहीं मिली तो देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने कहा कि प्रभु के निर्मल यश का गान किए बिना एवं प्रभु को संतुष्ट किए बिना हम जो भी उद्यम करते हैं वह अधूरा ही रह जाता है ।
प्रभु का यशगान ही प्रभु को और जीव को यानी दोनों को तृप्त करने की क्षमता रखता है । इसलिए प्रभु का यशगान करते ही रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 2 दिसम्बर 2012 |
57 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस वाणी से, चाहे वह रस, भाव, अलंकार आदि से युक्त ही क्यों न हो, जगत को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिए उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का यशगान जिस वाणी ने नहीं किया, उसे अपवित्र माना गया है । कितनी सटीक बात यहाँ कही गई है ।
हम अपनी वाणी से न जाने क्या-क्या बोलते हैं पर प्रभु का यशगान करने का अवसर चूक जाते हैं । इस तरह वाणी पा कर भी हम उसे जीवन पर्यन्त पवित्र नहीं कर पाते ।
वाणी को पवित्र करने का एकमात्र साधन ही प्रभु का यशगान है । कितना सरल उपाय है अपनी वाणी को पवित्र करने का पर हम अक्सर इससे चूक जाते हैं । हमें निरंतर प्रभु का यशगान करके अपनी वाणी को पवित्र बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 9 दिसम्बर 2012 |
58 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इससे विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परंतु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयशसूचक नामों से युक्त है, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है, क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जिसने प्रभु के लिए कुछ कहा हो, लिखा हो, फिर अगर वह सुन्दर शब्दों में न होकर दूषित शब्दों से ही क्यों न लिखा या कहा गया हो, तो भी वह कल्याण ही करता है । प्रभु के यशगान में लिखे दूषित शब्दों के छंद का भी हम जब श्रवण, गान या कीर्तन करते हैं तो भी वह हमारे पापों का नाश करता है ।
तात्पर्य यह है कि कल्याण के लिए प्रभु का यशगान करना ही एकमात्र पर्याप्त और एकमात्र पूर्ण साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 9 दिसम्बर 2012 |
59 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उतनी शोभा नहीं होती । .... वह काम्य कर्म, जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति की असीम महिमा को दर्शाता यह श्लोक । अगर अध्यात्म ज्ञान, जो मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, भी भक्ति से रहित हो तो वह भी शोभा नहीं पाता ।
ज्ञान को भी सफल होने के लिए भक्ति का आश्रय लेना ही पड़ता है । इसका जीवन्त उदाहरण श्री उद्धवजी हैं जो श्रेष्ठ ज्ञानी थे पर प्रभु ने उन्हें श्रीगोपीजन के पास प्रेमाभक्ति का उपदेश लेने हेतु भेजा ।
दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है कि जो कर्म प्रभु को अर्पण न हो वह कर्म कभी शोभा नहीं पाता । श्रीमद् भगवद् गीताजी का भी यही कथन है कि कर्म प्रभु के लिए करना और कर्म प्रभु को अर्पण करके करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 दिसम्बर 2012 |
60 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है । उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है । जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई छोटी नाव को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जो व्यक्ति प्रभु के बारे में बातें करने की इच्छा नहीं करता है, उसके अलावा व्यर्थ की बातें करता है, वह नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है और उसकी बुद्धि चंचल हो उठती है ।
हमारी बुद्धि स्थिर तभी होती है जब वह प्रभु के विषय का निरूपण करती है । प्रभु के विषय में कहने पर ही बुद्धि की शोभा है, बुद्धि की स्थिरता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 दिसम्बर 2012 |
61 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य अपने धर्म का परित्याग करके भगवान के चरण कमलों का भजन-सेवन करता है, भजन परिपक्व हो जाने पर तो बात ही क्या है, यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाए तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है ? परंतु जो भगवान का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मेरा एक प्रिय श्लोक जो प्रभु भजन को स्वधर्म पालन से भी ऊँचा स्थान देता है ।
वस्तुतः लोग स्वधर्म पालन को ही श्रेष्ठ मानते हैं, वैश्य कमाने में लगा हुआ है और उसे ही अपनी पूजा मानता है ।
इस श्लोक में कहा गया है कि जो लोग स्वधर्म का त्याग करके भी प्रभु भजन-सेवा करते हैं और उनका साधन पूर्ण होने से पहले भी छूट जाए तो भी उनका कोई अमंगल नहीं हो सकता । पर जो प्रभु भजन-सेवा नहीं करते सिर्फ स्वधर्म में लगे हैं, उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं मिलता ।
प्रभु भजन और सेवा का स्थान सबसे ऊँचा है, यह बात यहाँ स्पष्ट होती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 दिसम्बर 2012 |
62 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण को नाश करने वाली भक्ति का मेरे हृदय में प्रादुर्भाव हो गया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ मिलता है । भक्ति हमारे चित्त के रजोगुण और तमोगुण का नाश करती है । भक्ति सत्वगुण की वृद्धि करती है ।
सत्वगुण ही हमें जीवन में ऊँचाइयाँ प्रदान करता है । भक्ति में ही सामर्थ्य है कि वह रजोगुण और तमोगुण का नाश कर हमारे जीवन के पतन को रोक देती है और सत्वगुण में वृद्धि कर जीवन में ऊँचाइयाँ प्रदान करती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 दिसम्बर 2012 |
63 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 32, 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र औषधि है, यह बात मैंने आपको बता दी । इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्यों को जन्म-मृत्यु रूपी संसार के चक्र में डालने वाले हैं, तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिए जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भगवद् गीताजी के एक सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ मिलता है । अपने समस्त कर्मों को प्रभु को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों ताप से मुक्त होने की एकमात्र औषधि है । नए कर्मबंधन तैयार नहीं हो इसका साधन भी यही है ।
"तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा", आरती के यह बोल हम रोजाना बोलते हैं पर सावधानी से ऐसा कर पाएं तो उसका फल कितना श्रेष्ठ होगा ।
ऐसा करने से नए कर्मफल तैयार नहीं होंगे एवं जन्म-मृत्यु के संसार चक्र से हम बच जाएंगे । आवागमन से मुक्ति मिल
जाएगी ।
कितना सुलभ उपाय जिसे प्रायः हम नजरअंदाज कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 दिसम्बर 2012 |
64 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 5
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप भगवान की ही कीर्ति का, उनकी प्रेममयी लीला का वर्णन कीजिए । उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है । जो लोग दुःखों के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःख की शांति इसी से हो सकती है, और कोई उपाय नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की कीर्ति, प्रभु की श्रीलीलाओं के वर्णन से बड़े-बड़े ज्ञानियों की जिज्ञासा पूर्ण होती है । जिनको दुःख ने घेर रखा है उनके दुःख की शांति का भी यह अचूक उपाय है ।
अन्य कोई उपाय नहीं जिससे हमारे दुःख की शांति हो सके । एकमात्र साधन प्रभु की कीर्ति का गान, प्रभु की श्रीलीलाओं का गान ही है । यह स्पष्ट संकेत यहाँ मिलता है । प्रभु भजन को इसलिए ही कलियुग में एक बहुत सशक्त साधन माना गया है ।
इसके अलावा दुःख मिटाने के अन्यत्र किसी भी उपाय से पूर्ण रूप से दुःख मिट नहीं सकता, यह सिद्धांत है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 दिसम्बर 2012 |
65 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 6
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी अपने पूर्व जन्म की कथा बताते हैं जब वे एक दासी पुत्र थे । एक दिन उनकी माता को साँप ने डस लिया ।
देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने सोचा कि साँप का क्या दोष, काल की प्रेरणा से ही ऐसा हुआ है और फिर उन्होंने उपरोक्त वाक्य कहे, जो मुझे बहुत प्रिय हैं ।
एक भक्त हर विपदा को अपने प्रभु की अनुकम्पा, अपने प्रभु का अनुग्रह ही मानता है । सच्ची भक्ति यही है कि जो भी हो रहा है, वह मेरे प्रभु की इच्छा से हो रहा है और मेरे प्रभु मेरे सबसे बड़े शुभचिंतक हैं । इसलिए अज्ञानता से मुझे जो प्रतिकूल लग रहा है, वह भी मेरे प्रभु का अनुग्रह है और उसमें भी मेरे लिए अनुकूलता छिपी है । यह एक सच्चे भक्त का दृष्टिकोण होता है जिसे देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने यहाँ दर्शाया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 जनवरी 2013 |
66 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 6
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे । जिनकी वासनाएं पूर्णतया शान्त नहीं हो गई है, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को अपने पूर्व जीवन में दासी पुत्र के रूप में यह बात प्रभु ने कही ।
ध्यान देने योग्य कथन यह है कि प्रभु ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि जब तक जीव की वासनाएं पूर्णतः शान्त नहीं होती, प्रभु से मिलन संभव नहीं है ।
हमने अपने जीवन को अशुभ वासनाओं से, अशुभ कामनाओं से भर रखा है और फिर प्रभु से मिलने का प्रयास करते हैं तो वह प्रयास बेकार यानी विफल हो जाता है ।
वासना रहित, कामना रहित होने पर ही हम प्रभु को पा सकते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 जनवरी 2013 |
67 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 6
श्लो 35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिन लोगों का चित्त निरंतर विषय-भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिए भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी एक भगवत् सिद्धांत बताते हैं कि जो लोग विषय-भोग और कामनाओं से आतुर हैं, उनके लिए संसार सागर को पार करने हेतु जो जहाज है वह प्रभु की श्रीलीलाओं का कीर्तन है ।
प्रभु की श्रीलीलाओं का गान करके हम विषय-भोग और कामनाओं के दलदल से निकल कर भवसागर पार करने जितने सामर्थ्यवान बन जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 जनवरी 2013 |
68 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 6
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
काम और लोभ की चोट से बार-बार घायल हुआ हृदय श्रीकृष्ण सेवा से जैसी प्रत्यक्ष शांति का अनुभव करता है, यम-नियम आदि योग मार्गों से वैसी शांति नहीं मिल सकती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मेरा एक प्रिय श्लोक जो प्रभु सेवा के रहस्य को खोलता है ।
कामनाओं और लोभ से घायल हुआ हृदय प्रभु सेवा से जो शांति का अनुभव करता है वह यम-नियम पालन करने पर एवं अन्य योगमार्ग से भी अनुभव नहीं करता ।
अन्य योगमार्ग की तुलना में प्रभु सेवा द्वारा उत्कृष्ट लाभ होता है, परम शांति का अनुभव जीव कर पाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 जनवरी 2013 |
69 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 7
श्लो 5 एवं 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणों से अतीत होने पर भी अपने को त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यता के कारण होने वाले अनर्थों को भोगता है । इन अनर्थों की शांति का साक्षात साधन है, केवल भगवान का भक्तियोग .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - माया जीव को मोहित करती है, उलझाती है । जीव माया के जाल में मोहित होकर फंस जाता है और उसके दुष्प्रभावों को जीवन पर्यन्त भोगता है । माया उसे कभी तृप्त नहीं होने देती और जीवन भर अशान्त करके रखती है ।
उपरोक्त श्लोक में शांति का एकमात्र साधन, माया के अनर्थों से बचने का एकमात्र साधन प्रभु की भक्ति को बताया है । यहाँ "केवल" शब्द पर विशेष ध्यान दें । केवल भगवान का भक्तियोग कहा गया है और भक्तियोग को सर्वोच्च स्थान दिया गया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 जनवरी 2013 |
70 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 7
श्लो 7 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसके श्रवणमात्र से पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीव के शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भागवतजी महापुराण भक्तियोग का श्रीग्रंथ है । इस महापुराण के श्रवण से प्रभु के लिए प्रेम और भक्ति के बीज अंकुरित होते हैं । सबसे सरलतम मार्ग प्रेम और भक्ति का ही है जिससे प्रभु प्रसन्न होकर जीव पर अनुग्रह करते हैं ।
प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होते ही जीव के शोक, मोह एवं भय नष्ट हो जाते हैं । संसार में सभी जीव शोक, मोह एवं भय से ग्रस्त रहते हैं और इस कारण कष्ट पाते हैं । प्रभु की प्रेममयी भक्ति जीव को इस कष्ट से उबारने का सबसे सरलतम साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 जनवरी 2013 |
71 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 7
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गई है और जो सदा आत्मा में ही रमण करनेवाले हैं, वे भी भगवान की हेतु रहित भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अध्यात्म विद्या के ज्ञानी लोग जिनकी माया रूपी अविद्या मिट गई है, जिनको अपनी आत्मा में परमात्मा तत्व का बोध हो जाता है, वे ही प्रभु की भक्ति के योग्य होते हैं ।
दो बातें यहाँ ध्यान देने योग्य हैं । पहली, ऐसे लोग हेतु रहित भक्ति किया करते हैं । भक्ति का मूल सिद्धांत ही हेतु रहित होना है । अगर हम किसी स्वार्थ सिद्धि के लिए भक्ति करते हैं तो वह भक्ति नहीं होती । निर्मल भक्ति सर्वदा हेतु रहित होती है ।
दूसरी बात, प्रभु के गुण, ऐश्वर्य, श्रीलीलाएं इतनी मधुर होती हैं कि वह स्वतः ही हमें आकर्षित करती है और हमें प्रभु से बांध देती हैं । प्रभु से प्रेम बंधन हो जाए यह जीव का सबसे परम सौभाग्य होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 जनवरी 2013 |
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श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 7
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्रीकृष्ण ! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा हो । तुम्हारी शक्ति अनन्त है । तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो । जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहें हैं, उन जीवों को उससे उबारनेवाले एकमात्र तुम्हीं हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब अश्वत्थामा ने श्री अर्जुनजी पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा और श्री अर्जुनजी के प्राणों पर संकट आया तो श्री अर्जुनजी ने उपरोक्त शब्दों से प्रभु से रक्षा हेतु प्रार्थना की ।
प्रभु सच्चिदानंद हैं और परम आत्मा हैं । प्रभु की शक्ति अनन्त है जिसकी थाह कोई नहीं पा सकता ।
प्रार्थना के दो भावों पर विशेष ध्यान दें । पहला, भक्तों को भय के क्षण में अभय देने वाले प्रभु हैं । अभय देने की शक्ति और सामर्थ्य प्रभु के अलावा किसी के पास नहीं है ।
दूसरी बात, जो संसार रूपी धधकती आग में जल रहे हैं, उन जीव को उबारने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । यहाँ श्री अर्जुनजी ने "एकमात्र" कहकर स्पष्ट किया है कि प्रभु के अलावा कोई भी उबारने वाला नहीं है । श्री अर्जुनजी ने इससे पूर्व प्रभु के विराट रूप में प्रभु के ऐश्वर्य और सामर्थ्य के दर्शन किए हैं इसलिए वे दृढ़ता से "एकमात्र" शब्द का प्रयोग करते हैं । हर विपदा में पाण्डवों को एकमात्र प्रभु ने ही उबारा था, इसका भान श्री अर्जुनजी को भली भांति है इसलिए भी उन्होंने "एकमात्र" शब्द का प्रयोग किया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 जनवरी 2013 |