क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
481 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शंका के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ । इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसार चक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि वे सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु की महिमा का वर्णन कर रहे हैं । क्योंकि प्रभु की महिमा के गान का ऐसा प्रभाव है कि वह महिमा का गान करने वाले जीव को तत्काल पवित्र कर देती है । इसलिए ऋषियों और संतों ने प्रभु की महिमा का सदैव गान किया है । प्रभु की महिमा का गान करके भक्तों ने अपने आपको पवित्र किया है । श्री वेदों ने और शास्त्रों ने भी प्रभु की महिमा का गान किया है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु महिमा का श्रवण करे और अगर संभव हो तो अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु की महिमा का गान भी करे ।
प्रकाशन तिथि : 03 अक्टूबर 2016 |
482 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे स्वामी ! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलाएंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि भक्ति के कारण वे प्रभु के विराट श्री नृसिंहजी रूप से और उनके क्रोध से भयभीत नहीं हैं, वे भयभीत तो केवल इस संसार चक्र में पिसे जाने के कारण हैं । श्री प्रह्लादजी चाहते हैं कि प्रभु प्रसन्न होकर उन्हें अपने श्रीकमलचरणों में बुला लें और अपने श्रीकमलचरणों में आश्रय दे दें । क्योंकि प्रभु के श्रीकमलचरण जीवों के लिए एकमात्र शरण लेने का स्थान है और मोक्ष प्रदायक भी है ।
प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान पाना भक्त की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह भक्ति से प्रभु को प्रसन्न कर प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान पाने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 04 अक्टूबर 2016 |
483 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि माया उन्हें इस संसार चक्र में डालकर पीस रही है । इसलिए वे प्रभु की शरण में आए हैं और प्रभु से निवेदन करते हैं कि उन्हें इस माया से बचाकर अपने सानिध्य में ले लें । जीव को माया के प्रभाव से बचने के लिए प्रभु की शरणागति लेनी पड़ती है । माया से बचने का अन्य कोई उपाय नहीं है । प्रभु की शरणागति लेने वाले जीव पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की शरणागति ग्रहण करे जिससे माया के प्रभाव से बचा जा सके ।
प्रकाशन तिथि : 05 अक्टूबर 2016 |
484 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए मैं ब्रह्मलोक तक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इंद्रिय भोग, जिन्हें संसार के प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यंत शक्तिशाली काल का रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है । इसलिए मुझे आप अपने दासों की सन्निधि में ले चलिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि उन्हें ब्रह्मलोक की भी आयु, धन, ऐश्वर्य और इंद्रिय भोग नहीं चाहिए जिनको पाने के लिए सांसारिक प्राणी लालायित रहते हैं । वे सिर्फ प्रभु को चाहते हैं और प्रभु के दास बनकर रहना चाहते हैं । श्री प्रह्लादजी की इच्छा है कि वे प्रभु के दासों की गिनती में आ जाएं ।
संसार के लोग आयु, धन, ऐश्वर्य और इंद्रिय भोग के पीछे दौड़ते रहते हैं और अपना मानव जीवन इसी में व्यर्थ गंवा देते हैं । श्री प्रह्लादजी ने ब्रह्मलोक की भी आयु, धन, ऐश्वर्य और इंद्रिय भोग लेने से मना कर दिया । प्रभु का दास बनना भक्त के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होती है ।
प्रकाशन तिथि : 06 अक्टूबर 2016 |
485 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दूसरे संसारी जीवों के समान आपमें छोटे बड़े का भेदभाव नहीं है, क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं । फिर भी कल्प-वृक्ष के समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजन से ही प्राप्त होता है । सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि प्रभु छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं करते । प्रभु सिर्फ सेवा और भजन के पीछे चलते हैं । सेवा के अनुसार ही जीवों पर प्रभु कृपा करते हैं । प्रभु जातिगत उच्चता या नीचता नहीं देखते । प्रभु अपने भक्तों से अकारण प्रेम करने वाले हैं । प्रभु कल्पवृक्ष के समान इच्छा पूर्ति करने वाले हैं । प्रभु की कृपा प्रसादी प्राप्त करने के लिए प्रभु की सेवा और प्रभु का भजन करना चाहिए ।
जातिगत और छोटे-बड़े का भेद नहीं होने के कारण सभी जीवों की पहुँच प्रभु तक है । बस शर्त यह है कि वे अपने आपको प्रभु की सेवा और भक्ति में तल्लीन करें ।
प्रकाशन तिथि : 07 अक्टूबर 2016 |
486 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन तथा विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं । इन अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
प्रभु अनेक अवतार लेकर लोकों का पालन करते हैं और विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं । प्रभु अपने विभिन्न अवतारों के द्वारा प्रत्येक युग में धर्म की रक्षा करते हैं । प्रभु का अवतार भक्तों के कल्याण के लिए, दुष्टों के नाश के लिए और धर्म की पुनः स्थापना के लिए होता है । जब-जब धर्म की हानि होती है और आसुरी शक्ति का प्रभाव बढ़ता है तब-तब धर्म की रक्षा के लिए प्रभु अवतार लेते हैं ।
जब-जब धर्म की हानि होती है और घोर निराशा का समय आता है तब-तब आशा का संचार करने के लिए और धर्म की ज्योत को प्रज्वलित रखने के लिए प्रभु अवतार ग्रहण करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 08 अक्टूबर 2016 |
487 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अच्युत ! यह कभी न अघाने वाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती रहती है । जननेन्द्रिय सुंदर स्त्री की ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्श की ओर, पेट भोजन की ओर, कान मधुर संगीत की ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगंध की ओर और ये चपल नेत्र सौंदर्य की ओर मुझे खींचते रहते हैं । इनके सिवा कर्मेन्द्रियां भी अपने-अपने विषयों की ओर ले जाने को जोर लगाती रहती है । मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुष की बहुत सी पत्नियां उसे अपने-अपने शयनगृह में ले जाने के लिए चारों ओर से घसीट रही हों ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी यहाँ संसार में जीव की क्या दशा होती है उसका वर्णन करते हैं । हमारा मन पाप वासनाओं में डूबा रहता है । कामनाओं और चिंताओं के कारण हम व्याकुल रहते हैं । जीभ हमें स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती है । काम हमें सुंदर स्त्री की ओर खींचता है । त्वचा सुकोमल स्पर्श की ओर खींचती है । पेट भोजन की ओर खींचता है । कान मधुर संगीत की ओर खींचते है । नासिका सुगंध की ओर खींचती है । नेत्र सौंदर्य की ओर खींचते है । कर्मेन्द्रियां विषयों की ओर खींचती हैं । हमारी दशा उस पुरुष के जैसी हो जाती है जिसकी बहुत सारी पत्नियां उसे अपने-अपने शयनग्रह की ओर ले जाने के लिए घसीटती हैं ।
इन सबसे बचने का एकमात्र उपाय है कि अपनी सभी इन्द्रियों को और वासनाओं को प्रभु से जोड़ दिया जाए जैसे जीभ को प्रभु का प्रसाद ग्रहण करने में, कान को प्रभु की कथा सुनने में, नेत्र को प्रभु के रूप के दर्शन करने में लगाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 09 अक्टूबर 2016 |
488 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परमात्मन ! इस भव-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के लिए अवश्य ही कठिन है, परंतु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है । क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करने वाली परमामृतस्वरूप हैं । मैं उन मूढ़ प्राणियों के लिए शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मायामय झूठा सुख प्राप्त करने के लिए अपने सिर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि संसारवासियों के लिए इस भव सागर से पार उतरना अत्यंत कठिन है क्योंकि वे प्रभु से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों में फंसे हुए हैं । माया का झूठा सुख पाने के लिए वे अपने सिर पर संसार का भार ढोते रहते हैं । पर श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि उन्हें स्वयं को भव पार उतरने का तनिक भी भय नहीं है क्योंकि उनका मन प्रभु में मग्न रहता है । वे प्रभु की श्रीलीलाओं का गान करते हैं जो कि स्वर्ग के अमृत का भी तिरस्कार करने वाली परमामृत स्वरूप है ।
जीव को चाहिए कि वह अपने तन और मन को प्रभु को समर्पित कर प्रभु की सेवा और भक्ति करे जिससे वह बहुत आसानी से भव सागर को पार कर सके ।
प्रकाशन तिथि : 10 अक्टूबर 2016 |
489 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अनंत प्रभो ! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंच तन्मात्राएं, प्राण, इंद्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत एवं सगुण और निर्गुण, सब कुछ केवल आप ही हैं । और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, प्राण, इंद्रियां, मन, चित्त एवं सम्पूर्ण जगत और सगुण और निर्गुण जो कुछ भी है वह केवल प्रभु ही हैं । प्रभु के अलावा जगत में कुछ भी नहीं है । संतों ने पूरे जगत को प्रभुमय जाना है और जगत के कण-कण में प्रभु के दर्शन किए हैं । स्वयं श्री प्रह्लादजी ने निर्जीव खंभे में भी प्रभु के दर्शन किए और प्रभु अपने भक्त की वाणी को सत्य करने के लिए श्री नृसिंहजी का अवतार लेकर निर्जीव खंभे से प्रकट हुए । मन और वाणी से जो कुछ भी निरूपण किया जाता है वह सब प्रभु ही हैं ।
इसलिए हमें हर जगह प्रभु के दर्शन करने की कला आनी चाहिए और यह भक्ति सिद्ध होने पर ही संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 11 अक्टूबर 2016 |
490 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परम पूज्य ! आपकी सेवा के छह अंग हैं - नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलों का चिंतन और लीला-कथा का श्रवण । इन छह सेवाओं के बिना आपके चरणकमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? और भक्ति के बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि प्रभु की सेवा के छह प्रकार हैं । पहला, प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम करना । दूसरा, प्रभु की स्तुति करना । तीसरा, अपने समस्त कर्मों को प्रभु को समर्पित करना । चौथा, प्रभु की सेवा और प्रभु की पूजा करना । पांचवा, प्रभु के श्रीकमलचरणों का चिंतन करना । छठा, प्रभु की श्रीलीला और कथा का श्रवण करना । इन छह साधनों के बिना प्रभु के श्रीकमलचरणों की भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती और भक्ति के बिना प्रभु की प्राप्ति संभव नहीं है ।
प्रभु की प्राप्ति के लिए भक्ति करना अनिवार्य है और भक्ति के लिए उपरोक्त वर्णित छह साधन साधक को जीवन में अपनाने चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 12 अक्टूबर 2016 |
491 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 54 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला हूँ । इसलिए सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान साधुजन जितेंद्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियों से मुझे प्रसन्न करने का ही यत्न करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री प्रह्लादजी की दिव्य स्तुति से प्रसन्न होकर प्रभु श्री नृसिंहजी ने उपरोक्त वचन कहे ।
प्रभु जीव के समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं । प्रभु के अलावा हमारे मनोरथ को अन्य कोई पूर्ण नहीं कर सकता । संसार निमित्त बनता है पर असल में हमारे सभी मनोरथ प्रभु ही पूर्ण करते हैं । इसलिए जो अपने कल्याण की कामना लिए भाग्यवान साधुजन हैं, वे अपनी समस्त शक्तियों से प्रभु को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं । भक्त प्रभु को प्रसन्न करने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा देता है । मानव जीवन का उद्देश्य ही भक्ति करके प्रभु को प्रसन्न करना है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने जीवन काल में भक्ति के साधन करके प्रभु को प्रसन्न करने का प्रयास करे जिससे उसका मानव जीवन सफल हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 13 अक्टूबर 2016 |
492 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रह्लादजी ने बालक होने पर भी यही समझा कि वरदान मांगना प्रेम-भक्ति में विघ्न है .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री प्रह्लादजी प्रभु के अनन्य प्रेमी भक्त थे । इसलिए बड़े-बड़े लोगों को भी प्रलोभन में डालने वाले वरों से भी श्री प्रह्लादजी को प्रलोभित किए जाने पर भी वे उससे प्रलोभित नहीं हुए और वरों को प्राप्त करने की इच्छा नहीं की ।
श्री प्रह्लादजी ने बालक होने पर भी दृढ़ भक्ति के कारण यही सोचा कि वरदान मांगना प्रभु की प्रेम भक्ति में विघ्न है । सच्चा भक्त प्रभु से कुछ नहीं चाहता है वह तो केवल प्रभु से प्रभु को ही चाहता है । वरदान और सिद्धियां हमें प्रभु से दूर ले जाती है ।
अगर भक्त वरदान भी मांगता है तो उसकी भक्ति निरंतर बढ़ती जाए यही वरदान मांगता है । प्रभु के श्रीकमलचरणों में भक्त का प्रेम निरंतर बढ़ता जाए यही भक्त की अभिलाषा होती है ।
प्रकाशन तिथि : 14 अक्टूबर 2016 |
493 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आपसे जो सेवक अपनी कामनाएं पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं, वह तो लेन-देन करने वाला निरा बनिया है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु से कुछ भी मांगना प्रेमाभक्ति में विघ्न है । इसलिए सच्चा भक्त प्रभु से कुछ भी नहीं मांगता । प्रभु वरदान मांगने के लिए भक्त को प्रेरित कर उसकी परीक्षा लेते हैं पर श्री प्रह्लादजी जैसे निष्काम भक्त कुछ नहीं मांगते । श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि जो सेवक प्रभु से मांग कर अपनी कामनाएं पूर्ण करना चाहता है वह सेवक नहीं बल्कि लेन-देन करने वाला व्यापारी है । भक्त कभी भक्ति को कुछ मांग कर भुनाता नहीं है । सच्चा भक्त केवल निष्काम भक्ति करता है । निष्काम भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा है । सकामता आने पर भक्ति का प्रभाव बहुत कम हो जाता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि निष्काम भाव से प्रभु की भक्ति करे और भक्ति के बदले प्रभु से कुछ नहीं मांगे ।
प्रकाशन तिथि : 15 अक्टूबर 2016 |
494 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे मुंहमांगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिए कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने प्रभु से कहे ।
जब श्री प्रह्लादजी को प्रभु ने वर मांगने को कहा तो श्री प्रह्लादजी ने निष्काम होकर कुछ नहीं मांगा । श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि फिर भी अगर प्रभु उन्हें मुंहमांगा वर देना चाहते हैं तो ऐसा वर दें कि उनके हृदय में कभी भी किसी भी प्रकार की कोई कामना का बीज ही अंकुरित न हो । हमारी कामनाएं और वासनाएं नष्ट हो जाए और हम सदैव के लिए निष्काम हो जाए यह भक्त की एक बड़ी उपलब्धि होती है । भक्ति पथ पर चलते हुए प्रभु से सदैव यही प्रार्थना करनी चाहिए कि हम कामना रहित हो जाएँ ।
जीव को सदैव निष्काम भक्ति ही करनी चाहिए और मन में कामना के बीज अंकुरित न हों इसके लिए प्रभु से नित्य प्रार्थना करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 16 अक्टूबर 2016 |
495 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम अपने हृदय से मुझे देखते रहना और मेरी लीला कथाएं, जो तुम्हें अत्यंत प्रिय हैं, सुनते रहना । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री नृसिंहजी ने भक्तराज श्री प्रह्लादजी को कहे ।
जब श्री प्रह्लादजी ने कामना रहित होकर प्रभु से कुछ नहीं मांगा तो प्रभु ने अपनी तरफ से और अपनी प्रसन्नता के लिए श्री प्रह्लादजी को दैत्याधिपति बनाकर राज्य करने को कहा । यहाँ भक्त कुछ लेना नहीं चाहता पर प्रभु अपनी इच्छा से और अपनी प्रसन्नता के लिए भक्त को राज्य देते हैं । श्री रामचरितमानसजी में भी प्रभु श्री रामजी ने श्री विभीषणजी को अपनी इच्छा से और अपनी प्रसन्नता के लिए लंका का राज्य दिया जबकि श्री विभीषणजी ने इसकी इच्छा नहीं की थी ।
राज करते हुए भोगों के बीच रहकर भी निर्विकारी बने रहने का रास्ता प्रभु ने इस श्लोक में बताया है । श्री प्रह्लादजी से प्रभु कहते हैं कि अपने हृदय में सदैव प्रभु के दर्शन करते रहना और प्रभु की श्रीलीलाएं और कथाएं जो भक्त को अतिप्रिय होती है उनका सदैव श्रवण करते रहना । प्रभु को हृदय में धारण करने वाला जीव और प्रभु की श्रीलीलाओं और कथाओं को सुनने वाला जीव भोगों के बीच रहकर भी निर्विकारी बना रहता है ।
प्रकाशन तिथि : 17 अक्टूबर 2016 |
496 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री नृसिंहजी ने भक्तराज श्री प्रह्लादजी को कहे ।
यह श्लोक भक्त की महिमा को बताता है । देवलोक में देवता भी भक्त की विशुद्ध कीर्ति का गान करते हैं । भक्त का स्थान इतना ऊँचा होता है कि देवलोक में भी वह पूज्य बन जाता है । देवलोक के देवता भी श्री प्रह्लादजी जैसे भक्त की कीर्ति का गान कर आनंदित होते हैं ।
प्रभु अपने भक्त की कीर्ति को फैलते देखना चाहते हैं । इससे प्रभु को भी आनंद मिलता है । इसलिए प्रभु सदैव चाहते हैं कि उनके भक्त की कीर्ति का यशगान सब तरफ हो । भक्ति की महिमा बहुत बड़ी है क्योंकि भक्ति के द्वारा भक्त पूज्य बन जाता है और उसकी कीर्ति चारों दिशाओं में फैल जाती है । भक्ति भक्त को सदैव के लिए अमर बना देती है ।
प्रकाशन तिथि : 18 अक्टूबर 2016 |
497 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
निष्पाप प्रह्लाद ! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गए, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढ़ियों के पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते क्योंकि तुम्हारे जैसा कुल को पवित्र करने वाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री नृसिंहजी ने भक्तराज श्री प्रह्लादजी को कहे ।
श्री प्रह्लादजी ने नम्र होकर प्रभु से प्रार्थना की कि उनके पिता हिरण्यकशिपु ने प्रभु से द्वेष किया फिर भी उनके पिता दोषमुक्त होकर शुद्ध हो जाएँ । तब प्रभु ने कहा कि जिस कुल में श्री प्रह्लादजी जैसा भक्त जन्म लेता है उस कुल की इक्कीस पीढ़ियों में सभी पवित्र होकर तर जाते हैं ।
भक्ति के कारण भक्त का इतना बड़ा सामर्थ्य होता है कि वह अपने साथ अपने कुल का भी उद्धार कर देता है । संतजन प्रभु की इस वाणी की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जिस कुल में प्रभु का सच्चा भक्त जन्म लेता है उसकी पिछली इक्कीस पीढ़ियों और आने वाली इक्कीस पीढ़ियों का स्वतः ही उद्धार हो जाता है । इसलिए हमें अपने बच्चों को ऐसे बाल संस्कार देने चाहिए कि वे भक्ति करके प्रभु के भक्त बनें जिससे उनका और उनके कुल का उद्धार संभव हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 19 अक्टूबर 2016 |
498 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वत्स ! तुम अपने पिता के पद पर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियों की आज्ञा के अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरण में रहकर मेरी सेवा के लिए ही अपने सारे कार्य करो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री नृसिंहजी ने भक्तराज श्री प्रह्लादजी को कहे ।
श्री प्रह्लादजी की इच्छा नहीं होने पर भी प्रभु ने अपनी इच्छा से और अपनी प्रसन्नता के लिए उन्हें राज करने को कहा । राज किस प्रकार करना चाहिए इसका सुंदर प्रतिपादन प्रभु ने यहाँ पर किया है । प्रभु कहते हैं कि श्रीवेदों की आज्ञा अनुसार धर्म परायण होकर राज करना चाहिए । प्रभु में अपने मन को लगाकर और प्रभु की शरण में रहकर और प्रभु की सेवा मानकर राज करना चाहिए । श्री रामचरितमानसजी में भी श्री भरतलालजी ने प्रभु श्री रामजी की श्रीचरण पादुका को राज्य सिंहासन पर विराजमान करके इसी प्रकार प्रभु का सेवक बनकर राज किया ।
हमें भी अपना सांसारिक कार्य करते समय अपना मन प्रभु में लगाकर रखना चाहिए और प्रभु की शरण में रहकर और अपने कार्य को प्रभु की सेवा मानकर ही करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 20 अक्टूबर 2016 |
499 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 10
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हम तो मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं । कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान हम पर प्रसन्न हों ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी को कहे ।
देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि वे मौन, भक्ति और संयम के द्वारा प्रभु की पूजा करते हैं और प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि भक्तवत्सल प्रभु प्रसन्न होकर उनकी पूजा स्वीकार करें । प्रभु की पूजा में अनिवार्य तीन चीजों के बारे में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने यहाँ बताया है । पहला, पूजा करते समय मंत्रोच्चारण के अलावा संसार से हमें मौन हो जाना चाहिए । दूसरा, पूजा करते समय पूर्ण भक्ति से पूजा करनी चाहिए । तीसरा, पूजा के दिन हमें संयम रखना चाहिए एवं एकदम पवित्र अवस्था में पूजा करनी चाहिए ।
विधि विधान से की गई पवित्र अवस्था में भक्तिपूर्ण पूजा प्रभु स्वीकार करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 21 अक्टूबर 2016 |
500 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 12
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यद्यपि भगवान स्वरूपतः सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता, फिर भी अग्नि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियों में अपने आश्रित जीवों के साथ वे विशेष रूप से विराजमान हैं । इसलिए उन पर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी को कहे ।
प्रभु सर्वत्र स्थित हैं । प्रभु को इसलिए कहीं प्रवेश करने की या कहीं से निकलने की आवश्यकता नहीं होती । प्रभु कण-कण में विराजमान हैं । प्रभु समस्त प्राणियों की आत्मा में विशेष रूप से विराजमान हैं । इसलिए हर जीव की प्रभु पर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिए ।
हमें प्रभु का आभास सदैव होना चाहिए । प्रभु कण-कण में हैं इसलिए हर समय हमारा ध्यान प्रभु पर केंद्रित होना चाहिए । हमारा चिंतन सदैव प्रभु के लिए होना चाहिए । यह भक्ति का लक्षण है कि प्रभु का हमें सदैव आभास हो, प्रभु पर ध्यान केंद्रित हो और प्रभु का निरंतर चिंतन हो ।
प्रकाशन तिथि : 22 अक्टूबर 2016 |
501 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 14
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
युधिष्ठिर ! पात्र निर्णय के प्रसंग में पात्र के गुणों को जानने वाले विवेकी पुरुषों ने एकमात्र भगवान को ही सत्पात्र बतलाया है । यह चराचर जगत उन्हीं का स्वरूप है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी को कहे ।
पात्रता का निर्णय करने वाले विवेकी पुरुषों ने प्रभु को ही सत्पात्र बतलाया है । इसलिए अग्रपूजा के लिए प्रभु को ही पात्र समझा गया है । प्रभु सारे चराचर जगत के स्वरूप हैं । असंख्य जीवों से भरपूर इस ब्रह्माण्ड के मूल में एकमात्र प्रभु ही हैं । इसलिए प्रभु की पूजा से समस्त जीवों की आत्मा की तृप्ति हो जाती है । जब हम अपनी पूजा से प्रभु को तृप्त करते हैं तो समस्त जगत की तृप्ति स्वतः ही हो जाती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपनी पूजा, सेवा और भक्ति से प्रभु को तृप्त करे ।
प्रकाशन तिथि : 23 अक्टूबर 2016 |
502 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 15
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसा होने पर भी यदि उन नियमों के द्वारा भगवान के ध्यान-चिंतन आदि की प्राप्ति नहीं होती तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी को कहे ।
शास्त्रों में जितने भी नियम संबंधी आदेश हैं उन नियमों के द्वारा अगर प्रभु का ध्यान और चिंतन नहीं होता तो वे नियम मात्र श्रम के अलावा कुछ भी नहीं हैं । शास्त्रों के नियमों के पालन करने का सीधा मतलब है कि उन नियमों के द्वारा प्रभु का ध्यान और चिंतन हो । शास्त्रों का सीधा आदेश है कि प्रभु का ध्यान, प्रभु का चिंतन और प्रभु की भक्ति हो । इसी के लिए शास्त्रों ने नियम बनाए हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह शास्त्रों के नियमों का पालन करे और प्रभु का ध्यान और चिंतन करे ।
प्रकाशन तिथि : 24 अक्टूबर 2016 |
503 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 15
श्लो 68 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण की कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियों से पार हो गए हो और उन्हीं के चरणकमलों की सेवा से समस्त भूमण्डल को जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किए हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी को कहे ।
पाण्डवों ने प्रभु की कृपा और प्रभु की सहायता से बड़ी-बड़ी विपत्तियों को पार किया । जिन पाण्डवों को कौरवों ने सभी कुछ से वंचित कर दिया था उन्होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा से समस्त भूमण्डल का राज प्राप्त किया और बड़े-बड़े राजसूय यज्ञ किए । प्रभु की कृपा जीवन में कैसे काम करती है यह पाण्डवों के जीवन को देख कर हमें पता चलता है । पाण्डवों ने सब कुछ गंवा दिया था पर प्रभु को नहीं गंवाया और इसी कारण वापस सब कुछ पा लिया ।
हमें भी जीवन में कभी भी और किसी भी सूरत में प्रभु को नहीं गंवाना चाहिए । प्रभु साथ होंगे तो हम भी हर विपत्ति को पार कर सकेंगे ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के अष्टम स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के सप्तम स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं समुद्रदेवजी का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाए ।
जो भी हो पाया प्रभु के कृपा की बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सदर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 25 अक्टूबर 2016 |
504 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(अष्टम स्कंध) |
अ 01
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वही परमात्मा विश्वरूप हैं । उनके अनंत नाम हैं । वे सर्वशक्तिमान सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मनुजी ने प्रभु की स्तुति के वक्त कहे ।
प्रभु विश्वरूप हैं । विश्व में जो कुछ भी है वह प्रभु ही हैं । प्रभु के अलावा विश्व में अन्य कुछ है ही नहीं । प्रभु के अनंत नाम हैं । जीव जिस भी रूप और नाम से प्रभु का आह्वान करता है प्रभु उसी रूप और नाम को धारण करते हैं । प्रभु सर्वशक्तिमान हैं इसलिए सब कुछ करने में समर्थ हैं । प्रभु सत्य हैं यानी प्रभु के अलावा जो कुछ भी हमें माया दिखलाती है वह मिथ्या है । प्रभु स्वयंप्रकाश हैं यानी स्वयं को एवं सभी को प्रकाशित करने वाले प्रभु ही हैं । प्रभु अजन्मा हैं यानी प्रभु का कभी जन्म नहीं हुआ इसलिए प्रभु सदैव से हैं । प्रभु पुराणपुरुष हैं यानी पुराणों में जिनका वर्णन है वे प्रभु ही हैं ।
हमें भी प्रभु के अनंत नामों और रूपों में जो भी नाम और रूप प्रिय लगे उसमें लीन होकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 26 अक्टूबर 2016 |