क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
457 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 02
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उशीनर देश के राजा को युद्ध में शत्रुओं ने मार डाला था । उसके मृत शरीर के पास बैठकर उसकी रानियां विलाप कर रही थीं । यह देखकर प्रभु श्री यमराजजी बालक का भेष बनाकर आए और रानियों को उपरोक्त उपदेश दिया ।
प्रभु हमारी रक्षा गर्भ में करते हैं और प्रभु ही हमारी रक्षा जीवन भर करते हैं । जब बच्चा गर्भ में होता है तो उसकी रक्षा प्रभु करते हैं । जरा सोचें कि गर्भ में प्रभु के अलावा अन्य किसी की पहुँच ही नहीं है । रक्षा करने की बात तो दूर, कोई वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता । राजा श्री परीक्षितजी की प्रभु ने ब्रह्मास्त्र से साक्षात गर्भ में जाकर रक्षा की थी ।
इसलिए हमें विश्वास होना चाहिए कि जिन प्रभु ने गर्भ में हमारी रक्षा की है वे ही गर्भ से बाहर आने पर जीवन में हमारी रक्षा करेंगे ।
प्रकाशन तिथि : 08 सितम्बर 2016 |
458 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 03
श्लो 29-30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवन ! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं .... आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं । क्योंकि आप अनादि, अनंत, अपार, सर्वज्ञ और अंतर्यामी हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन हिरण्यकशिपु ने प्रभु श्री ब्रह्माजी की स्तुति करते हुए कहे । हिरण्यकशिपु ने बड़ा कठिन तप किया और उस तपस्या से प्रसन्न होकर जब प्रभु श्री ब्रह्माजी वरदान देने पहुँचे तो हिरण्यकशिपु ने उपरोक्त वचन कहे ।
प्रभु हमारे चित्त के स्वामी हैं । प्रभु ही हमारी चेतना और मन के स्वामी हैं । हमारी इन्द्रियों के स्वामी भी प्रभु ही हैं । प्रभु ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं । प्रभु अनादि हैं और प्रभु ही अनंत हैं । प्रभु अपार हैं यानी प्रभु का कोई पार नहीं पा सकता । प्रभु सर्वज्ञ हैं यानी सब कुछ जानने वाले हैं । प्रभु अंतर्यामी हैं ।
जीव को चाहिए कि प्रभु को भक्ति के द्वारा प्रसन्न करे जिससे प्रभु का अनुग्रह उसे प्राप्त हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 09 सितम्बर 2016 |
459 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 04
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी महिमा का वर्णन करने के लिए अगणित गुणों के कहने सुनने की आवश्यकता नहीं । केवल एक ही गुण, भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी से कहे । उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी के संदर्भ में कहे गए हैं ।
देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि श्री प्रह्लादजी की महिमा का वर्णन करने के लिए उनके अनेक गुणों को कहने सुनने की आवश्यकता नहीं । श्री प्रह्लादजी की महिमा मात्र एक गुण से ही बताई और समझाई जा सकती है कि वे प्रभु के अनन्य भक्त थे । प्रभु के श्रीकमलचरणों में उनका स्वाभाविक और जन्मजात प्रेम था । श्री प्रह्लादजी की महिमा को प्रकट करने के लिए बस इतना ही कहना पर्याप्त है ।
प्रभु की भक्ति करना मानव के सभी गुणों में सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोच्च गुण है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ पर होता है ।
प्रकाशन तिथि : 10 सितम्बर 2016 |
460 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 05
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
गुरुजी ! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान की स्वच्छंद इच्छाशक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने शिक्षक शण्ड और अमर्क से कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते है कि जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं ही खींचा चला आता है वैसे ही प्रभु की इच्छाशक्ति से उनका मन संसार से अलग होकर प्रभु की ओर बरबस खींचा चला जाता है । सच्चे भक्तों के लक्षण यही होते हैं कि उनका मन संसार में रमता ही नहीं, क्योंकि उनके मन के आकर्षण के केंद्र प्रभु होते हैं । भक्त अपने मन को संसार से हटाकर प्रभु में लगाता है । भक्ति की कसौटी यही है कि हमारा मन कहाँ रमता है, अगर वह संसार से हटकर प्रभु में लगता है तो ही हमारी भक्ति सिद्ध हुई है ऐसा मानना चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने मन को संसार से हटाकर प्रभु में केंद्रित करे ।
प्रकाशन तिथि : 11 सितम्बर 2016 |
461 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 05
श्लो 23-24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पिताजी ! विष्णु भगवान की भक्ति के नौ भेद हैं, भगवान के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन । यदि भगवान के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाए, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने पिता हिरण्यकशिपु को कहे जब उनसे पूछा गया कि उनके शिक्षकों ने उन्हें क्या अध्ययन कराया ।
श्री प्रह्लादजी ने नवधा भक्ति का निरूपण किया । नवधा भक्ति की इतनी महिमा है कि सभी प्रमुख शास्त्रों में नवधा भक्ति का प्रतिपादन मिलेगा । संत कहते हैं कि नवधा भक्ति में से किसी एक प्रकार की भी भक्ति सिद्ध हो जाए तो वह जीव तर जाता है । प्रभु श्री रामजी ने भगवती शबरीजी को यही बात कही कि नवधा भक्ति में से किसी भी एक प्रकार की भी भक्ति करने वाला प्रभु को अतिशय प्रिय होता है ।
श्री प्रह्लादजी यहाँ कहते हैं कि प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखते हुए नवधा भक्ति की जाए तो उसी को वे प्रभु को पाने का सबसे उत्तम साधन मानते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 12 सितम्बर 2016 |
462 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 06
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मित्रों ! इस संसार में मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है । इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है । परंतु पता नहीं कब इसका अंत हो जाए, इसलिए बुद्धिमान पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने सहपाठी मित्रों से गुरुकुल में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि इस संसार में मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है । पर इस मनुष्य योनि में जन्म पाने के बाद अगर साधन किया जाए तो परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है । परंतु पता नहीं कब इस मनुष्य जन्म का अंत हो जाए, इसलिए बुद्धिमान जीव जवानी या बुढ़ापे के लिए साधन को नहीं छोड़ते अपितु बचपन से ही प्रभु की प्राप्ति करने वाला साधन करने लगते हैं ।
यह बात एकदम सच्ची है कि हम भक्ति को बुढ़ापे के लिए छोड़ देते हैं । बुढ़ापे में शरीर और स्मृति हमारा साथ नहीं देती और हम भजन नहीं कर पाते । इसलिए जीवन में बचपन से ही प्रभु भक्ति की राह हमें पकड़नी चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सफल हो पाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 13 सितम्बर 2016 |
463 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 06
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस मनुष्य जन्म में श्रीभगवान के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने सहपाठी मित्रों से गुरुकुल में कहे ।
मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है । असंख्य योनियों में भटकने के बाद प्रभु कृपा करके मनुष्य जन्म देते हैं । इस मनुष्य जीवन को पाकर प्रभु के श्रीकमलचरणों में शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है । यहाँ "एकमात्र" शब्द विशेष महत्व रखता है । श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि मनुष्य जीवन की एकमात्र सफलता प्रभु के श्रीकमलचरणों में शरण लेना है । हम मनुष्य जीवन की सफलता अपनी प्रतिष्ठा, धन, व्यापार, सुंदरता में मानते हैं पर सच्चे अर्थ में मनुष्य जीवन की सफलता प्रभु की शरणागति में है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह भक्ति करके प्रभु की शरणागति ग्रहण करे और अपना मानव जीवन सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 14 सितम्बर 2016 |
464 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 06
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन पोषण के लिए अपनी अमूल्य आयु को गंवा देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है । भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने सहपाठी मित्रों से गुरुकुल में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने कुटुम्ब में रम जाता है और उसी के पालन-पोषण में अपनी अमूल्य आयु गंवा देता है वह अपने मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्य को नष्ट कर देता है । मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति है । मानव जीवन हमें "जीव" और "शिव" के मिलन के लिए मिला है । मानव जीवन लेकर हम व्यर्थ की दुनियादारी में उलझ जाते हैं और अपने मानव जीवन के उद्देश्य की पूर्ति से चुक जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह सजग रहे और अपने मानव जीवन के उद्देश्य के प्रति जागरूक रह कर प्रभु भक्ति करके अपने जीवन को सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 15 सितम्बर 2016 |
465 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 06
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे केवल अनुभव स्वरूप, आनन्द स्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं । गुणमयी सृष्टि करने वाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है । इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने सहपाठी मित्रों से गुरुकुल में कहे ।
प्रभु समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं । वे अनुभव होने वाले, आनंद स्वरूप एकमात्र परमेश्वर हैं । माया ने उनका ऐश्वर्य छिपा रखा है । माया की निवृत्ति होते ही हमें प्रभु और प्रभु के ऐश्वर्य के दर्शन हो जाते हैं । माया का काम हमें प्रभु से दूर करना है इसलिए जब तक माया की निवृत्ति नहीं होगी तब तक हम आनंद स्वरूप प्रभु का अनुभव नहीं कर सकते ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु भक्ति करे जिससे माया से निजात पाया जा सके और आनंद स्वरूप प्रभु का अनुभव किया जा सके ।
प्रकाशन तिथि : 16 सितम्बर 2016 |
466 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 06
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आदिनारायण अनंत भगवान के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती ? .... जब हम श्रीभगवान के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने सहपाठी मित्रों से गुरुकुल में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि प्रभु के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है जो दुर्लभ है । प्रभु के प्रसन्न होने पर इच्छित वस्तु इच्छा से पहले ही प्राप्त हो जाती है । हमारे इच्छा करने से पहले ही हमारी इच्छित वस्तु स्वतः ही उपलब्ध हो जाती है । दूसरी बात जो श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि प्रभु के चरणामृत का सेवन करने से और प्रभु के नाम और सद्गुणों का कीर्तन करने से फिर मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है । इन साधनों के फल मोक्ष से भी बड़े हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति से प्रभु को प्रसन्न करे जिससे उसे परमानंद की प्राप्ति हो ।
प्रकाशन तिथि : 17 सितम्बर 2016 |
467 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 06
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम - इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है । आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन, ये सभी वेदों के प्रतिपादित विषय हैं, परंतु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ । अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने अपने सहपाठी मित्रों से गुरुकुल में कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम का वर्णन है । शास्त्रों में आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, तर्कशास्त्र, दण्डनीति और जीविका के विविध साधनों का वर्णन है । परंतु यह सब अगर प्रभु को आत्मसमर्पण करने में सहायक बनते हैं तभी यह सत्य और सार्थक हैं अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं । इसको सिद्धांत के रूप में मानना चाहिए कि कोई भी पुरुषार्थ अगर हमें प्रभु तक नहीं पहुँचाता है तो वह निरर्थक है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह उसी साधन को पकड़े जो उसे प्रभु तक पहुँचा दे । भक्ति ही ऐसा साधन है जो प्रभु के समक्ष हमारा आत्मसमर्पण करवाती है ।
प्रकाशन तिथि : 18 सितम्बर 2016 |
468 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 30-31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ भी मिले वह सब प्रेम से भगवान को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान की आराधना, उनकी कथा-वार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मंदिर मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जिन उपायों से और जैसे सर्वशक्तिमान प्रभु से स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाए, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है । प्रभु से निष्काम प्रेम हो यही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । जो भी साधन हमें प्रभु से प्रेम करवा दे उसी साधन को सर्वश्रेष्ठ साधन मानना चाहिए ।
सद्गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा करने से, अपने को जो कुछ भी मिला वह सब प्रेम से प्रभु को समर्पित करने से, भगवत् प्रेमी महात्माओं के सत्संग से, प्रभु की आराधना से, प्रभु की कथा श्रवण से, प्रभु के सद्गुण और श्रीलीलाओं के कीर्तन से, प्रभु के श्रीकमलचरणों के ध्यान से और मंदिर में प्रभु के दर्शन और पूजन से प्रभु में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ।
उपरोक्त बताए जो भी साधन हमें प्रभु से स्वाभाविक निष्काम प्रेम करवा दे उसी को अपने लिए सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हुए उस साधन को जीवन में करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 20 सितम्बर 2016 |
469 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
काम, क्रोध लोभ, मोह, मद और मत्सर, इन छह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान की साधन भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जो लोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर पर विजय प्राप्त करके भक्तिरूपी साधन करते हैं उन्हें उस भक्ति के फलस्वरूप प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है ।
यह छह शत्रु हैं जो हमारे प्रभु मिलन में हमें बाधा पहुँचाते हैं । यह छह शत्रु हैं कामना, क्रोध, लालच, मोह, अहंकार और मत्सर । इनको जीते बिना प्रभु मिलन संभव नहीं है । इनको जीतने का सबसे उपयुक्त साधन भक्ति है । जैसे-जैसे हमारे जीवन में प्रभु के लिए भक्ति बढ़ेगी इन शत्रुओं का बल क्षीण होता चला जाएगा ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति करे जिससे प्रभु के श्रीकमलचरणों में उसका अनन्य प्रेम भाव जागृत हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2016 |
470 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 34-36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब भगवान के लीला शरीरों से किए हुए अदभुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यंत आनंद के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आंसुओं के मारे कण्ठ गदगद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है, जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हंसता है, कभी करुण-क्रंदन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वंदना करने लगता है, जब वह भगवान में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी सांस खींचता है और संकोच छोड़कर 'हरे ! जगत्पते ! नारायण !!!' कहकर पुकारने लगता है, तब भक्तियोग के महान प्रभाव से उसके सारे बंधन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार भगवन्मय हो जाता है । उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान को प्राप्त कर लेता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु द्वारा अपनी श्रीलीलाओं में किए अदभुत पराक्रम और प्रभु के अनुपम सद्गुणों और चरित्रों का श्रवण करके भक्त के रोम-रोम पुलकित हो जाते हैं, आंसुओं से कण्ठ गदगद हो जाते हैं । ऐसे में भक्त प्रभु में तन्मय हो जाता है ।
ऐसी भक्ति होने पर भक्तियोग के महान प्रभाव से उसके सारे कर्म बंधन कट जाते हैं । भगवत् भावना से ओत-प्रोत उसका हृदय भी भगवत्मय हो जाता है । ऐसे में उसके जन्म-मृत्यु के बीज ही जल जाते हैं और वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । ऐसा भक्त प्रभु को प्राप्त कर लेता है ।
जीवन में भक्ति बढ़ती चली जानी चाहिए तभी जीव अंत में भक्ति के बल पर प्रभु को प्राप्त कर सकता है ।
प्रकाशन तिथि : 22 सितम्बर 2016 |
471 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 38-39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
असुरकुमारों ! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है । वे समान रूप से समस्त प्राणियों के अत्यंत प्रेमी मित्र हैं, और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं । उनको छोड़कर भोग सामग्री इकट्ठी करने के लिए भटकना - राम ! राम ! कितनी मूर्खता है । अरे भाई ! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भांति-भांति की विभूतियां, और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोग सामग्रियां इस क्षणभंगुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं । वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने असुर बालकों को कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि हृदय में विराजमान प्रभु का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम लगता है । प्रभु का भजन करना बेहद आसान है । प्रभु समस्त प्राणियों के प्रेमी मित्र हैं और उनकी आत्मा भी हैं । प्रभु को छोड़कर भोग सामग्री जैसे धन, स्त्री, पुत्र, महल, पृथ्वी, खजाना, विभूतियां के लिए भटकना कितनी मूर्खता है । यह सब भोग सामग्री क्षणभंगुर हैं, नष्ट होने वाली हैं इसलिए ये मनुष्य को सुख नहीं दे सकतीं । सच्चा आनंद तो प्रभु के भजन में ही है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह भोग सामग्री से अपना मन हटा कर प्रभु में केंद्रित करे तभी उसका कल्याण होगा ।
प्रकाशन तिथि : 23 सितम्बर 2016 |
472 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिए अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने असुर बालकों को कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि प्रभु की प्राप्ति के लिए अनन्य भक्ति से प्रभु का भजन करना चाहिए । प्रभु प्राप्ति ही मानव जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य होना चाहिए । मानव जीवन लेकर अगर हमने प्रभु प्राप्ति नहीं की तो हमने मानव जीवन व्यर्थ गंवा दिया । प्रभु प्राप्ति का एकमात्र और सबसे सरल साधन प्रभु की अनन्य भक्ति है । भक्ति के बिना प्रभु प्राप्ति संभव ही नहीं है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अनन्य भाव से प्रभु की भक्ति द्वारा प्रभु को प्राप्त करके अपने मानव जीवन को सफल बनाए ।
प्रकाशन तिथि : 24 सितम्बर 2016 |
473 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 48-49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए निष्काम भाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान श्रीहरि का भजन करना चाहिए । अर्थ, धर्म और काम, सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते । भगवान श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने असुर बालकों को कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि प्रभु समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं, प्रभु ही समस्त प्राणियों की आत्मा हैं और प्रभु ही समस्त प्राणियों के परम प्रियतम हैं । इसलिए निष्काम भाव से प्रभु का ही भजन करना चाहिए । धर्म, अर्थ, कामना और मोक्ष यह चारों पुरुषार्थ प्रभु पर ही आश्रित हैं एवं प्रभु की इच्छा से ही जीव को प्राप्त होते हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाले प्रभु ही हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि या तो वह सकाम भाव से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रभु की भक्ति करे या फिर जो सबसे ऊँची अवस्था है कि निष्काम भाव से प्रभु को पाने के लिए प्रभु की भक्ति करे ।
प्रकाशन तिथि : 25 सितम्बर 2016 |
474 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 52 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दैत्य बालकों ! भगवान को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण, देवता और ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से संपन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक तप और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है । भगवान केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं और सब तो विडम्बना मात्र हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने असुर बालकों को कहे ।
प्रभु केवल निष्काम भाव से की जाने वाली प्रेमाभक्ति से ही प्रसन्न होते हैं । प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण, देवता और ऋषि होना जरूरी नहीं है । प्रभु को प्रसन्न करने के लिए सदाचार, दान, तप, यज्ञ, व्रत करना पर्याप्त नहीं । प्रभु मात्र और मात्र निष्काम भाव से की जाने वाली प्रेमाभक्ति से ही प्रसन्न होते हैं । प्रभु को प्रसन्न करने के लिए निष्काम भाव से प्रभु की भक्ति की जाए और प्रभु से प्रेम किया जाए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने हृदय में प्रभु के लिए प्रेम जगाए और प्रभु की निष्काम भक्ति करे तभी वह प्रभु को प्रसन्न कर पाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 26 सितम्बर 2016 |
475 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 53-54 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए दानव बंधुओं ! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान भगवान की भक्ति करो । भगवान की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गोपालक, अहीर, पक्षी, मृग और बहुत से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गए हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने असुर बालकों को कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि सर्वत्र विराजमान, सबकी आत्मा और सर्वशक्तिमान प्रभु की भक्ति करनी चाहिए । प्रभु की भक्ति के प्रभाव से
पापी-से-पापी जीव को भी भगवत् धाम की प्राप्ति हो जाती है । भक्ति की शक्ति अपार है । भक्ति का प्रभाव इतना है कि राक्षस और नीच-से-नीच जाति वाले को भी प्रभु के श्रीकमलचरणों तक पहुँचा देती है । पापी जीव भी भक्ति पथ पर चलता है तो पाप मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त कर लेता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में भक्ति करके प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 27 सितम्बर 2016 |
476 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 07
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस संसार में मनुष्य शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे । उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओं में भगवान का दर्शन ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भक्तराज श्री प्रह्लादजी ने असुर बालकों को कहे ।
इस संसार में मनुष्य जन्म लेकर आने का सबसे बड़ा प्रयोजन यह है कि जीव प्रभु की अनन्य भक्ति करे । मानव जीवन हमें मिला ही प्रभु भक्ति करने के लिए है । मानव जीवन पाकर हमने सब कुछ किया और प्रभु की भक्ति नहीं की तो हमने अपना मानव जीवन व्यर्थ कर दिया । भक्ति की एक ऊँची अवस्था है कि सर्वदा, सर्वत्र और सब वस्तुओं में प्रभु के दर्शन करना । भक्त को पूरा जगत ही प्रभुमय दिखता है । उसे प्रभु के अलावा जगत में कुछ अन्य नहीं दिखता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मानव जन्म पाकर अनन्य भाव से प्रभु की भक्ति करे ।
प्रकाशन तिथि : 28 सितम्बर 2016 |
477 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 08
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप अनंत हैं । आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता । आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने जब भगवान श्री नृसिंहजी के रूप में अवतार लिया और हिरण्यकशिपु का वध किया तो प्रभु अत्यधिक क्रोध में थे । क्रोध का कारण था कि हिरण्यकशिपु ने प्रभु के भक्त श्री प्रह्लादजी को कष्ट पहुँचाया था । तब उन्हें शांत करने के लिए प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और उपरोक्त वचन कहे ।
प्रभु अनंत हैं यानी प्रभु का पार नहीं पाया जा सकता । प्रभु की शक्ति भी अपार है यानी प्रभु की शक्ति का भी कोई पार नहीं पा सकता । प्रभु का पराक्रम अदभुत है और प्रभु के सभी कर्म अति पवित्र हैं ।
प्रभु भक्तों की सदैव रक्षा करते हैं एवं हर विपत्ति की घड़ी में भक्तों के साथ होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 29 सितम्बर 2016 |
478 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 08
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... स्वामिन ! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते । फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवराज श्री इन्द्रजी ने प्रभु की स्तुति करते वक्त कहे जब प्रभु ने हिरण्यकशिपु का वध किया ।
जो भक्त प्रभु की सेवा चाहते हैं वे मुक्ति को भी ठुकरा देते हैं । प्रभु की सेवा ही भक्त के लिए सर्वोपरि है । भक्त सिर्फ प्रभु की सेवा करना चाहता है । मुक्ति मिलने के बाद प्रभु की सेवा संभव नहीं है इसलिए भक्त मुक्ति नहीं चाहता । भक्त अन्य कोई भी भोगों को प्राप्त करने की इच्छा भी नहीं रखता । प्रभु श्री हनुमानजी की सेवा भक्ति, सेवा का सबसे बड़ा आदर्श है ।
भक्त और भगवान के रिश्ते में प्रभु सेवा का बहुत ऊँचा स्थान है । भक्त को सदैव प्रभु सेवा में उपस्थित रहना चाहिए । भक्त का यह कर्तव्य है कि प्रभु सेवा में अपने तन और मन से निरंतर लगाकर रखे ।
प्रकाशन तिथि : 30 सितम्बर 2016 |
479 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान के कर कमलों का स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गए । तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया । उन्होंने बड़े प्रेम और आनंद में मग्न होकर भगवान के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया । उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनंदाश्रु झरने लगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ने श्री नृसिंहजी अवतार में हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद क्रोध प्रकट किया तो कोई भी प्रभु के पास जाकर उन्हें शांत करने का साहस नहीं कर पाया । तब प्रभु श्री ब्रह्माजी ने भक्तराज श्री प्रह्लादजी को उनके पास भेजा ।
श्री प्रह्लादजी प्रभु के श्रीकमलचरणों में लोट गए । तब प्रभु का हृदय दया से भर गया और प्रभु ने उन्हें उठाकर उनके सिर पर अपना कर कमल रख दिया । प्रभु के कर कमलों के स्पर्श से श्री प्रह्लादजी के सारे अशुभ संस्कार नष्ट हो गए । उन्हें परमात्मा तत्व का साक्षात्कार हो गया । श्री प्रह्लादजी ने आनंद मग्न हो प्रभु के श्रीकमलचरणों को अपने हृदय में धारण किया । उनका शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रभु प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनंद के आंसू टपकने लगे ।
भक्त प्रभु का स्पर्श पाकर रोमांचित हो जाता है । भक्त और भगवान का मिलन बहुत अदभुत होता है ।
प्रकाशन तिथि : 01 अक्टूबर 2016 |
480 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 09
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग, ये सभी गुण परमपुरुष भगवान को संतुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं, परंतु भक्ति से तो भगवान गजेन्द्र पर भी संतुष्ट हो गए थे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री प्रह्लादजी ने प्रभु की गदगद वाणी से स्तुति की और उपरोक्त वचन कहे ।
श्री प्रह्लादजी कहते हैं कि धन, कुल, रूप, तप, विद्या, तेज, बल, बुद्धि और योग यह सभी परमपुरुष परमेश्वर को संतुष्ट करने का सामर्थ्य नहीं रखते । प्रभु जीव के इन गुणों से संतुष्ट नहीं होते । प्रभु को संतुष्ट करने का एकमात्र साधन भक्ति है । श्री प्रह्लादजी ने श्री गजेन्द्रजी का वर्णन करते हुए कहा कि श्री गजेन्द्रजी की भक्ति के कारण प्रभु संतुष्ट हो गए थे जबकि श्री गजेन्द्रजी जाति के हाथी थे और उपरोक्त वर्णित कोई भी गुण उनमें नहीं थे ।
प्रभु मात्र और मात्र भक्ति से ही संतुष्ट होते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की अनन्य भक्ति कर प्रभु को संतुष्ट करने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 02 अक्टूबर 2016 |