क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
433 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 9
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... संत लोग आपका ही संग्रह करते हैं । संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अंत में आप उन्हें परमानन्द स्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मांतर के कष्ट को हर लेते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
संतजन प्रभु का ही संयोग करते हैं । वे प्रभु को ही पाना चाहते हैं और प्रभु को पाने के लिए ही श्रम करते हैं । संसार के जीव जब घूमते-घूमते थक जाते हैं और प्रभु की शरण में आते हैं तो प्रभु अंत में उन्हें परमानंद रूपी फल देते हैं । शरण में आए हुए जीव के जन्म-जन्मांतर के कष्ट प्रभु हर लेते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु से संयोग करे और प्रभु की शरण में आए जिससे उसे जन्म-जन्मांतर के कष्टों से मुक्ति मिल सके ।
प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2016 |
434 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 9
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देवशिरोमणियों ! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती । तथापि मेरे अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने देवताओं द्वारा स्तुति करने के बाद देवताओं को कहे ।
जिस जीव पर प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं उसके लिए फिर जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता । जगत में कुछ भी ऐसा नहीं है जो प्रभु के प्रसन्न होने पर उस जीव को नहीं मिल सकता । पर प्रभु के अनन्य प्रेमी भक्तजन प्रभु के अतिरिक्त प्रभु से कुछ भी नहीं चाहते ।
सच्ची भक्ति यही है कि प्रभु से कुछ नहीं चाहना, केवल प्रभु से प्रभु को ही चाहना । जो भक्त निस्वार्थ भाव से प्रभु की भक्ति करता है और प्रभु से प्रभु को ही मांगता है प्रभु उसके प्रेम बंधन को स्वीकार करते हैं । इसलिए जीव को निस्वार्थ भक्ति करनी चाहिए जो कि भक्ति की परम अवस्था है ।
प्रकाशन तिथि : 16 अगस्त 2016 |
435 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 9
श्लो 55 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम्हारा कल्याण अवश्यंभावी है, क्योंकि मेरे शरणागतों को कोई सता नहीं सकता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने देवताओं द्वारा स्तुति करने के बाद देवताओं को कहे ।
प्रभु का जो आश्रय लेता है उसका कल्याण अवश्यंभावी होता है । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु का आश्रय लेने वाले का कल्याण निश्चित होता है । इसमें कोई दो मत नहीं है क्योंकि भक्तों के चरित्र में इस सिद्धांत का जीवन्त दर्शन होता है । जिन-जिन भक्तों ने प्रभु का आश्रय लिया उनका कल्याण हुआ है । प्रभु अपने शरणागत की रक्षा स्वयं करते हैं । प्रभु के शरणागत को कोई हरा नहीं सकता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु का आश्रय ले और प्रभु की शरणागति स्वीकार करे जिससे उसका कल्याण निश्चित हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 17 अगस्त 2016 |
436 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 11
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि जिस पक्ष में भगवान श्रीहरि हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन वृत्रासुर ने देवराज श्री इन्द्रजी को कहे ।
जब देवताओं और असुरों का युद्ध होना था तो प्रभु ने देवताओं को ऋषि श्री दधीचिजी की हड्डियों से बना वज्र लेकर युद्ध करने की प्रेरणा दी और देवताओं को आशीर्वाद दिया । यह बात वृत्रासुर जानता था इसलिए उसने देवराज श्री इन्द्रजी को कहा कि जिस पक्ष में भगवान श्रीहरि होंगे उसी पक्ष में विजय, लक्ष्मी और सारे सद्गुण निवास करेंगे । यह एक शाश्वत सिद्धांत है और महाभारत युद्ध भी इसका जीवन्त उदाहरण है । प्रभु पाण्डवों के पक्ष में थे और विपक्ष में बलशाली योद्धा और पाण्डवों से बड़ी सेना होने के बावजूद विजयश्री पाण्डवों को मिली ।
जिस पक्ष में प्रभु होते हैं विजय, लक्ष्मी एवं सारे सद्गुण उसी पक्ष में अपने आप उपस्थित हो जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 18 अगस्त 2016 |
437 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 11
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्राणवल्लभ ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हीं का गान करे और शरीर आपकी सेवा में संलग्न रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का युद्धभूमि में प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने उपरोक्त प्रार्थना की ।
हमारा मन प्रभु के मंगलमय सद्गुणों का स्मरण करता रहे । यह मन की बहुत ऊँची अवस्था होती है कि वह संसार में नहीं रम कर प्रभु के मंगलमय सद्गुणों का स्मरण करे । हमारी वाणी प्रभु के उन्हीं सद्गुणों का गुणगान करे । वही वाणी धन्य होती है जो प्रभु के सद्गुणों का गुणगान करती है । हमारा शरीर प्रभु की सेवा में संलग्न रहे । जो शरीर प्रभु सेवा में लग जाता है वही धन्य होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने मन को प्रभु के सद्गुणों का स्मरण करने में लगाए, अपनी वाणी से प्रभु का गुणगान करे और अपने शरीर से प्रभु की सेवा करे ।
प्रकाशन तिथि : 19 अगस्त 2016 |
438 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 11
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सर्वसौभाग्यनिधे ! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डल का साम्राज्य, रसातल का एकछत्र राज्य, योग की सिद्धियां, यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का युद्धभूमि में प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने उपरोक्त प्रार्थना की ।
वृत्रासुर असुर होने के बावजूद भी जो प्रभु से प्रार्थना करता है वह बड़ी मार्मिक है । वृत्रासुर कहता है कि प्रभु को छोड़कर उसे स्वर्ग, ब्रह्मलोक का राज नहीं चाहिए । प्रभु को छोड़कर उसे भूमण्डल का साम्राज्य और रसातल का एकछत्र राज्य भी नहीं चाहिए । प्रभु को छोड़कर उसे योग से प्राप्त विभिन्न सिद्धियों में से किसी भी तरह की सिद्धियां नहीं चाहिए । और तो और प्रभु को छोड़कर उसे मोक्षपद तक नहीं चाहिए । उसे तो सिर्फ और सिर्फ प्रभु ही चाहिए । यह भाव भक्त के जीवन में आना बड़ा दुर्लभ होता है परंतु यही भाव सच्ची भक्ति की निशानी होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह निष्काम भक्ति करे और प्रभु के अलावा प्रभु से कुछ भी नहीं चाहे और कुछ भी नहीं मांगे ।
प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2016 |
439 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 11
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे अपनी माँ की बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिए आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिए उत्कंठित रहती है, वैसे ही कमलनयन ! मेरा मन आपके दर्शन के लिए छटपटा रहा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का युद्धभूमि में प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने उपरोक्त प्रार्थना की ।
वृत्रासुर कहता है कि जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे जो उड़ना नहीं जानते वे घोंसले में अपनी माँ के लौटने का बेसब्री से इंतजार करते हैं, वैसे ही वह प्रभु के दर्शन का बेसब्री से इंतजार कर रहा है । वृत्रासुर दूसरा दृष्टांत देता है कि जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिए आतुर रहते हैं, वैसे ही प्रभु दर्शन के लिए वृत्रासुर आतुर है । वृत्रासुर तीसरा दृष्टांत देता है कि जैसे एक प्रवासी पति से मिलने के लिए वियोगिनी पत्नी बाट जोहती रहती है, वैसे ही प्रभु दर्शन हेतु वृत्रासुर बाट जोह रहा है ।
हमारे अंदर भी प्रभु सानिध्य पाने के लिए इतनी तड़पन होनी चाहिए तभी प्रभु से मिलन जीवन में संभव हो सकता है ।
प्रकाशन तिथि : 21 अगस्त 2016 |
440 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 11
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! मैं मुक्ति नहीं चाहता । मेरे कर्मों के फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़े, इसकी परवाह नहीं । परंतु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनि में जन्मूं, वहाँ-वहाँ भगवान के प्यारे भक्तजनों से मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे । स्वामिन ! मैं केवल यही चाहता हूँ कि जो लोग आपकी माया से देह-गेह और स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त हो रहे हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकार का भी संबंध न हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का युद्धभूमि में प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने उपरोक्त प्रार्थना की ।
वृत्रासुर कहता है कि उसको अगला जन्म भगवत् प्रेमियों के बीच मिले और भगवत् प्रेमियों से ही उसकी मैत्री हो । वृत्रासुर कहता है कि जो लोग माया के वशीभूत होकर शरीर, स्त्री, पुत्र आदि में आसक्त रहते हैं उनके साथ उसका किसी भी प्रकार का संबंध नहीं हो । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि जैसा होगा संग वैसा चढ़ेगा रंग । इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हमारा संग उन लोगों से ही हो जो भगवत् सानिध्य में रहते हैं । जहाँ प्रभु की कथा, चर्चा, कीर्तन, जप, अनुष्ठान हो हमें वहीं जाना चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह सांसारिक माया में न उलझकर प्रभु के लिए अपना जीवन समर्पित करे तभी उसका जन्म सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 22 अगस्त 2016 |
441 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 12
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! वृत्रासुर रणभूमि में अपना शरीर छोड़ना चाहता था, क्योंकि उसके विचार से इन्द्र पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पाने की अपेक्षा मर कर भगवान को प्राप्त करना श्रेष्ठ था । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
युद्धभूमि में प्रभु का स्मरण और स्तुति करके वृत्रासुर अपना शरीर छोड़ना चाहता था क्योंकि उसके विचार से मर कर प्रभु को प्राप्त करना श्रेष्ठ था । वह देवराज श्री इन्द्रजी पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग का राज पाने की अपेक्षा मर कर प्रभु को प्राप्त करना चाहता था ।
वृत्रासुर ने स्वर्ग के वैभव को भी त्याग कर प्रभु प्राप्ति की प्रबल इच्छा की । जीव को भी चाहिए कि वह सांसारिक इच्छाओं और वैभव को त्याग कर प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयास करे तभी उसका मानव जीवन सफल माना जाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2016 |
442 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 12
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इन्द्र ! जैसे काठ की पुतली और यंत्र का नियंत्रण नचाने वाले के हाथ में होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियों को भगवान के अधीन समझो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन वृत्रासुर ने युद्धभूमि में देवराज श्री इन्द्रजी को कहे ।
प्रभु ही सबका नियंत्रण करते हैं । जैसे काठ की पुतली नचाने वाले के नियंत्रण में होती है वैसे ही समस्त प्राणी प्रभु के नियंत्रण में होते हैं । काठ की पुतली को नचाने वाला जैसा नचाता है वह वैसे ही नाचती है । इसी प्रकार संसार को प्रभु जैसा चाहते हैं संसार वैसा ही व्यवहार करता है ।
संसार के समस्त प्राणी प्रभु के अधीन हैं । प्रभु की सत्ता सर्वव्यापक है । संसार के समस्त प्राणियों को प्रभु की सत्ता स्वीकारनी पड़ती है । संसार में कोई भी स्वतंत्र नहीं है । सभी प्रभु के पराधीन हैं ।
प्रकाशन तिथि : 24 अगस्त 2016 |
443 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 12
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो परम कल्याण के स्वामी भगवान श्रीहरि के चरणों में प्रेममय भक्तिभाव रखता है, उसे जगत के भोगों की क्या आवश्यकता है । जो अमृत के समुद्र में विहार कर रहा है, उसे क्षुद्र गड्ढों के जल से प्रयोजन ही क्या हो सकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन युद्धभूमि में देवराज श्री इन्द्रजी ने दानवराज वृत्रासुर को कहे ।
वृत्रासुर का भगवत् भाव विलक्षण था । उसने प्रभु की अनन्य भाव से भक्ति की थी । भगवत् भक्ति के कारण प्रभु की माया को प्रभु कृपा से उसने पार कर लिया था इसलिए वह सच्चा महापुरुष था । वृत्रासुर परम कल्याण के स्वामी प्रभु के श्रीकमलचरणों में प्रेममय भक्तिभाव रखता था । इसलिए उसका जगत के भोगों की तरफ कोई रुझान नहीं था । जैसे अमृत के समुद्र में विहार करने वाले को गड्ढे के जल से कोई प्रयोजन नहीं होता वैसे ही भक्ति में लीन वृत्रासुर को भोगों से कोई प्रयोजन नहीं था ।
जीव को भी चाहिए कि वह भोगों से विरक्त होकर भक्ति मार्ग पर आगे बढ़े तभी उसका कल्याण सुनिश्चित होगा ।
प्रकाशन तिथि : 25 अगस्त 2016 |
444 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 13
श्लो 19-20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इन्द्र ने उस यज्ञ के द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान की आराधना की, तब भगवान की आराधना के प्रभाव से वृत्रासुर के वध की वह बहुत बड़ी पापराशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदय से कुहरे का नाश हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - वृत्रासुर का युद्ध में वध करने पर देवराज श्री इन्द्रजी को ब्रह्म हत्या लगी । इस ब्रह्म हत्या के निवारण के लिए ऋषियों ने देवराज श्री इन्द्रजी को भगवत् नाम का कीर्तन और भगवत् आराधना करने को कहा ।
ऋषियों ने कहा कि प्रभु की आराधना में इतनी शक्ति होती है कि ब्राह्मण, पिता, माता, गौ, आचार्य आदि की हत्या करने वाला महापापी भी शुद्ध हो जाता है । तत्पश्चात देवराज श्री इन्द्रजी ने पुरुषोत्तम भगवान की आराधना की और भगवत् आराधना के प्रभाव से वृत्रासुर के वध की बहुत बड़ी पापराशि ऐसे भस्म हो गई जैसे सूर्योदय के बाद कुहरे का नाश होता है ।
प्रभु आराधना की शक्ति असीम है और वह बड़ी-से-बड़ी पापराशि को भस्म करने में सक्षम है ।
प्रकाशन तिथि : 26 अगस्त 2016 |
445 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 14
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
महामुने ! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी वैसे शांत चित्त महापुरुष का मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान के ही परायण हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त प्रश्न राजा श्री परीक्षितजी ने प्रभु श्री शुकदेवजी से पूछा ।
संसार में मुक्ति चाहने वाले तो बिरले ही होते हैं । मुक्ति चाहने वाले हजारों में मुक्ति या सिद्धि तो कोई बिरले को ही मिलती है । पर करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी वैसा शांत चित्त महापुरुष मिलना बहुत कठिन है जो एकमात्र प्रभु के ही परायण हो ।
प्रभु की सच्ची भक्ति करने वाला मिलना बहुत ही कठिन है । भक्ति का स्थान मुक्ति या सिद्धि से बहुत ऊँचा है । प्रभु मुक्ति और सिद्धि सहज ही दे देते हैं पर प्रभु की भक्ति मिलना बड़ा दुर्लभ है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह भक्ति पथ पर अग्रसर हो अपना जन्म सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2016 |
446 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 15
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए तुम अपने मन को विषयों में भटकने से रोककर शांत करो, स्वस्थ करो और फिर उस मन के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का विचार करो तथा इस दूषित भ्रम में नित्यत्व की बुद्धि छोड़कर परम शांतिस्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाओ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश ऋषि श्री अंगिराजी ने राजा श्री चित्रकेतुजी को दिया । राजा श्री चित्रकेतुजी के पुत्र की मृत्यु हो गई थी जिस कारण वे शोक से विलाप कर रहे थे । पुत्र शोक के कारण उन्हें विलाप करते देख ऋषि श्री अंगिराजी ने उन्हें उपदेश दिया ।
ऋषि श्री अंगिराजी ने राजा श्री चित्रकेतुजी से कहा कि वे अपने मन को विषयों में भटकने से रोकें । मन को शांत और स्वस्थ करें और अपने मन के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का विचार करें । फिर अपने मन और बुद्धि को शांतिस्वरूप परमात्मा में स्थिर करें ।
सभी शोक, मोह, भय और दुःख का कारण हमारा मन है । इसलिए जीव को चाहिए कि अपने मन और बुद्धि को प्रभु मे लगाए तभी शोक, मोह, भय और दुःख का निवारण संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 28 अगस्त 2016 |
447 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 16
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अहो, आप धन्य हैं ! क्योंकि जो निष्काम भाव से आपका भजन करते हैं, उन्हें आप करुणावश अपने आपको भी दे डालते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु की स्तुति में राजा श्री चित्रकेतुजी ने कहे ।
जो प्रभु का निष्काम भाव से भजन करते हैं, प्रभु उन पर करुणा करके स्वयं को भी उन्हें दे देते हैं । प्रभु भक्त के अधीन हैं और निष्काम भक्ति करने वाले को अपने आप को भी दे देते हैं । इसलिए शास्त्रों और संतों ने कहा है कि प्रभु से कुछ मत मांगें, प्रभु से प्रभु को ही मांग लें ।
प्रभु सच्ची और निष्काम भक्ति करने वाले के बंधन को स्वीकार करके उसके प्रेम बंधन में बंध जाते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की निष्काम भाव से भक्ति करे जिससे प्रभु उस पर अनुग्रह करते हुए स्वयं उसके प्रेम बंधन को स्वीकार कर लें ।
प्रकाशन तिथि : 29 अगस्त 2016 |
448 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 16
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असंभव बात नहीं है क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु की स्तुति में राजा श्री चित्रकेतुजी ने कहे ।
प्रभु के दर्शन मात्र से जीव के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं । प्रभु के नाम के श्रवण से ही हम संसार के बंधन से मुक्त हो जाते हैं । प्रभु के दर्शन, नाम जप और नाम श्रवण में इतनी शक्ति होती है कि वह हमारे पापों को भस्म कर देती है और हमें संसार सागर से मुक्ति प्रदान कर देती है ।
संतों ने इसलिए ही प्रभु दर्शन, नाम जप और नाम श्रवण की इतनी महिमा गाई है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह नित्य प्रभु विग्रह के दर्शन करे, प्रभु के मंगलमय नाम का जप करे और प्रभु के नामों का कीर्तन और श्रवण करे ।
प्रकाशन तिथि : 30 अगस्त 2016 |
449 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 16
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे अनंत ! आप सम्पूर्ण जगत के आत्मा हैं । अतएव संसार में प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु की स्तुति में राजा श्री चित्रकेतुजी ने कहे ।
प्रभु सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं । इसलिए संसार के प्राणी जो कुछ भी करते हैं प्रभु वे सब जानते रहते हैं । प्रभु दृष्टा भाव से आत्मा के रूप में सबके भीतर विराजमान हैं । जीव जो कुछ भी सोचता है, करता है, प्रभु को उसका भान रहता है । हम जो भी सोचते हैं, जो भी करते हैं, प्रभु को सब कुछ ज्ञात होता है । प्रभु से हम कुछ भी छिपा नहीं सकते । इसलिए शास्त्रों ने प्रभु को अंतर्यामी कहा है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह सात्विक विचार और सात्विक कर्म करे क्योंकि प्रभु साक्षी भाव से सभी को देखते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 31 अगस्त 2016 |
450 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 16
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं ही समस्त प्राणियों के रूप में हूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने राजा श्री चित्रकेतुजी को उनकी स्तुति उपरांत कहे ।
इस श्लोक में तीन बातें प्रभु ने कही हैं । पहली, प्रभु ही समस्त प्राणियों के रूप में हैं । दूसरी, प्रभु ही सबकी आत्मा हैं । तीसरी, प्रभु ही सबके पालनकर्ता भी हैं । पूरा जगत प्रभुमय है । जगत में प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । जगत के कण-कण में प्रभु का वास है । प्रभु सभी जीवों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं । सभी जीव चाहे वे किसी भी योनि के हों उनकी आत्मा में प्रभु विराजमान हैं । सभी के पालनकर्ता प्रभु हैं । सभी को पालने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह पालनकर्ता प्रभु के लिए भक्ति भाव रखते हुए प्रभु की भक्ति में तत्पर रहे ।
प्रकाशन तिथि : 01 सितम्बर 2016 |
451 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 16
श्लो 57 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब जीव मेरे स्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपने को अलग मान बैठता है, इसी से उसे संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने राजा श्री चित्रकेतुजी को उनकी स्तुति उपरांत कहे ।
जीवात्मा परमात्मा का अंश है । पर जीव प्रभु के स्वरूप को भूल जाता है और अपने को प्रभु से भिन्न मान बैठता है । तभी उसे संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म और मृत्यु-पर-मृत्यु उसे प्राप्त होती है ।
हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम प्रभु के अंश हैं । अंशी अंश से कभी भिन्न नहीं होता । जब हम अपने को प्रभु से जोड़कर देखते हैं तो हम संसार सागर से मुक्त हो जाते हैं । पर जब हम अपने को प्रभु से भिन्न देखते हैं तो हमें संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और जन्म और मृत्यु के चक्कर में उलझे रहना पड़ता है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने को प्रभु से जोड़कर रखे तभी उसकी मुक्ति संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 02 सितम्बर 2016 |
452 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 16
श्लो 58 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह मनुष्य योनि ज्ञान और विज्ञान का मूल स्त्रोत्र है । जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनि में शांति नहीं मिल सकती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने राजा श्री चित्रकेतुजी को उनकी स्तुति उपरांत कहे ।
मनुष्य योनि में प्रभु ने मनुष्य को बुद्धि और ज्ञान दिया है । जो बुद्धि और ज्ञान पाकर भी अपने आत्म स्वरूप प्रभु को नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनि में शांति नहीं मिल सकती । मनुष्य योनि में जन्म "जीव" और "शिव" के मिलन के लिए हुआ है । जो मनुष्य जन्म लेकर भी इस दिशा में प्रयास नहीं करता उसे विभिन्न योनियों में भटकना पड़ता है और वहाँ भी उसे शांति नहीं मिलती ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मनुष्य योनि में जन्म लेकर प्रभु को पहचाने और भक्ति करके प्रभु को पाने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 03 सितम्बर 2016 |
453 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 18
श्लो 74-75 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग निष्काम भाव से भगवान की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या, मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं । भगवान जगदीश्वर सबके आराध्यदेव और आत्मा ही हैं । वे प्रसन्न होकर अपने आप तक का दान कर देते हैं । भला, ऐसा कौन बुद्धिमान है, जो उनकी आराधना करके विषय भोगों का वरदान मांगे । माताजी ! ये विषय भोग तो नरक में भी मिल सकते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवराज श्री इन्द्रजी ने अपनी मौसी भगवती दितिजी को कहे ।
जो लोग निष्काम भाव से प्रभु की आराधना करते हैं वे मोक्ष तक की इच्छा नहीं रखते । प्रभु ऐसे भक्तों को अपने आप तक का दान कर देते हैं । ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो प्रभु की आराधना करके प्रभु से विषय भोगों की चाह करेगा ।
निष्काम भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा है क्योंकि इसके फलस्वरूप प्रभु स्वयं भक्त को अपने आप का दान कर देते हैं । प्रभु भक्त के प्रेम बंधन में आकर भक्त के प्रेम बंधन को स्वीकार करते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की निष्काम भक्ति करे और प्रभु से विषय भोगों की याचना न करे ।
प्रकाशन तिथि : 04 सितम्बर 2016 |
454 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 19
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आपकी कीर्ति पवित्र है । आप दोनों ही त्रिलोकी के वरदानी परमेश्वर हैं । अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा अभिलाषाएं आपकी कृपा से पूर्ण हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्लोक पुंसवन व्रत की विधि के अंतर्गत प्रभु से निवेदन करने को प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को बताया ।
जो सब प्रकार से अपना मंगल चाहते हैं उन्हें चाहिए कि प्रतिदिन भक्तिभाव से प्रभु की पूजा करे । प्रभु समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं एवं श्रेष्ठ वर देने वाले हैं । प्रभु ही सभी प्राणियों को उनकी इच्छानुसार वर देने वाले हैं । हमारी बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं प्रभु की कृपा से ही पूर्ण होती हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि नित्य प्रतिदिन भक्तिभाव से प्रभु का पूजन करे ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के सप्तम स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के षष्ठम स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं श्री समुद्रदेवजी का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाए ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2016 |
455 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 01
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयों में रहने पर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परंतु मंथन करने पर वह प्रकट हो जाती है, वैसे ही परमात्मा सभी शरीरों में रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते । परंतु विचारशील पुरुष हृदयमंथन करके उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओं का त्याग करके अंततः अपने हृदय में ही अंतर्यामी रूप से उन्हें प्राप्त कर लेते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
काठ में अग्नि व्याप्त होती है पर प्रकट नहीं रहती, उसके मंथन करने पर ही वह प्रकट होती है । वैसे ही प्रभु सभी शरीरों में रहते हैं परंतु विचारशील पुरुषों के हृदयमंथन करने पर ही प्रकट होते हैं । जब हम प्रभु के अतिरिक्त अन्य सभी विषय, वासना और वस्तु को हृदय से निकाल देते हैं तब प्रभु अंतर्यामी रूप से हृदय में प्रकट होते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अन्य सभी चीजों का निषेध करे तभी वह प्रभु को अपने हृदय पटल पर प्रकट करने में सक्षम हो पाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 06 सितम्बर 2016 |
456 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(सप्तम स्कंध) |
अ 01
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन भक्तिभाव से, भय से, स्नेह से अथवा कामना से, कैसे भी हो, भगवान में अपना मन पूर्णरूप से लगा देना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि श्री नारदजी ने राजा श्री युधिष्ठिरजी से कहे ।
शिशुपाल प्रभु से वैर करता था पर अंत समय सबके सामने उसकी ज्योत निकल कर प्रभु में समा गई । राजा श्री युधिष्ठिरजी को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वैर करने वाले को भी प्रभु ने सद्गति दे दी । तब देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उन्हें समझाया कि चाहे वैर से, चाहे भक्तिभाव से, चाहे भय से, चाहे स्नेह से, चाहे कामना से, किसी भी भावना से जो जीव अपने मन को पूर्णरूप से प्रभु में लगा देता है उसकी सद्गति निश्चित है ।
प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं कि किसी भी भाव से जीव अपना मन प्रभु में लगा देता है तो प्रभु उसे सद्गति प्रदान कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 07 सितम्बर 2016 |