क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
385 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 6
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसी प्रकार भगवान दूसरे भक्तों के भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्ति से भी बढ़कर जो भक्तियोग है, उसे सहज में नहीं देते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु भक्तों के अनेकों कार्य करते हैं और उन्हें मुक्ति तक प्रदान कर देते हैं पर भक्ति सहज में नहीं देते । मुक्ति से भी बढ़कर भक्ति है इस सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ मिलता है ।
मुक्ति देने से जीव भी मुक्त हो जाता है और प्रभु भी जीव से मुक्त हो जाते हैं । पर भक्ति देने से प्रभु भक्त के प्रेम बंधन में आ जाते हैं । इसलिए भक्ति अति दुर्लभ है और बिरलों को ही मिलती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की भक्ति पाने का प्रयास करे और इसी दिशा में अग्रसर हो क्योंकि भक्ति का स्थान सर्वोच्च है ।
प्रकाशन तिथि : 28 जून 2016 |
386 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 7
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेम का वेग बढ़ता गया जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शांत हो गया, आनंद के प्रबल वेग से शरीर में रोमांच होने लगा तथा उत्कण्ठा के कारण नेत्रों में प्रेम के आंसू उमड़ आए, जिससे उनकी दृष्टि रुक गई । अंत में जब अपने प्रियतम के अरुण चरणारविन्दों के ध्यान से भक्तियोग का आविर्भाव हुआ, तब परमानन्द से सराबोर हृदयरूप गंभीर सरोवर में बुद्धि के डूब जाने से उन्हें उस नियमपूर्वक की जाने वाली भगवत्पूजा का भी स्मरण न रहा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ऋषभदेवजी के ज्येष्ठ पुत्र श्री भरतजी ने जब राज्य करने के बाद राज्य त्याग कर वनगमन किया तब वे नियमपूर्वक प्रभु की परिचर्या करने लगे ।
प्रभु के प्रति उनका प्रेम अति वेग से बढ़ता गया, हृदय में शांति आ गई । प्रभु प्रेम के कारण परमानंद से उनका शरीर रोमांचित हो गया । उनके नेत्रों में प्रभु के लिए प्रेमाजल भर आया । प्रभु के श्रीकमलचरणों का ध्यान कर वे भक्ति में स्थिर हो गए । वे इतने भाव विभोर हो गए कि उन्हें लौकिक पूजा का स्मरण ही नहीं रहा ।
यह भक्ति की चरम अवस्था होती है जहाँ पहुँचने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता ।
प्रकाशन तिथि : 29 जून 2016 |
387 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 8
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर एकांत और पवित्र वन का आश्रय लिया था । वहाँ रहकर जिस चित्त को मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेव में, निरंतर उन्हीं के गुणों का श्रवण, मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरणादि से सफल करके, स्थिर भाव से पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात एक नन्हे से हिरण शिशु के पीछे अपने लक्ष्य से च्युत हो गया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भरतजी जिन्होंने प्रभु भजन के लिए अपने राज्य और पुत्रों का त्याग कर दिया था, उनका मन वन में आकर एक हिरण के बच्चे में अटक गया । हिरण के बच्चे के लाड़ प्यार में वे ऐसे फंसे कि प्रभु को भूल गए । अंत समय भी उनका चित्त उस मृग में लगा था ।
मृत्यु के बाद उन्हें मृग योनि मिली पर उनकी पूर्व की साधना के कारण उनके पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई । उन्होंने खेद किया कि वे प्रभु मार्ग से पतित क्यों हो गए । धैर्यपूर्वक संसार में आसक्ति छोड़कर उन्होंने प्रभु के सद्गुणों का श्रवण, मनन और कीर्तन करके प्रत्येक पल को प्रभु की आराधना में लगाकर सफल किया था फिर अज्ञान के कारण एक नन्हें हिरण शिशु के पीछे वे अपने लक्ष्य से चूक गए ।
श्री भरतजी की कथा हमें शिक्षा देती है कि प्रभु मार्ग से भटकने के बहुत सारे प्रयोजन हमारे जीवन में आएंगे पर हमें प्रभु मार्ग में चलते रहना चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 30 जून 2016 |
388 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 9
श्लो 03 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्मबंधन को काट देता है, श्रीभगवान के उन युगल चरणकमलों को ही हृदय में धारण किए रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख, अंधे और बहरे के समान दिखाते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री भरतजी ने मृग शिशु से मोह किया और उनकी भक्ति छुट गई । अंत में मृग शिशु का ध्यान करने के कारण उन्हें मृग योनि में जन्म लेना पड़ा । फिर मृग योनि के बाद उनके पूर्व भजन के प्रभाव के कारण एक ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ ।
इस बार वे बड़े सावधान हो गए क्योंकि पूर्व की स्मृति उन्हें याद थी कि कैसे उनका भजन छुट गया था । इस बार वे प्रभु के सद्गुणों का कीर्तन, श्रवण और स्मरण में लग गए जो सभी प्रकार के कर्मबंधन को काट देता है । श्री भरतजी पूरे समय प्रभु के श्रीकमलचरणों को हृदय में धारण किए रहते ।
मानव जीवन में हमें भी सावधानी रखनी चाहिए और भटकना नहीं चाहिए । मानव जीवन को बिना भटके प्रभु भक्ति में लगाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 01 जुलाई 2016 |
389 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 11
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
विषयासक्त मन जीव को संसार के संकट में डाल देता है, विषयरहित होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश श्री जड़भरतजी ने राजा श्री रहूगणजी को दिया ।
विषयों में आसक्त मन जीव को संसार के संकट में डाल देता है । वह संसार चक्र में फंस जाता है जिससे निकलना उसके लिए संभव नहीं होता । पर विषयों से रहित होने पर वही मन हमें शांति के मार्ग में ले जाकर मोक्षपद की प्राप्ति कराने का सामर्थ्य रखता है ।
इसलिए मन को संसार के विषयों में नहीं फंसने देना चाहिए । मन संसार के विषयों में फंसने पर हमारा पतन करवा देता है । मन को संसार में नहीं प्रभु में लगाना चाहिए । प्रभु में लगा मन हमें शांति प्रदान करेगा और अंत में मोक्ष तक पहुँचा देगा । इसलिए जीव को चाहिए कि मन को विषयों से हटाकर प्रभु में लगाए ।
प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2016 |
390 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 12
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्र कीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती । और जब भगवत्कथा का नित्य प्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान वासुदेव में लगा देती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश श्री जड़भरतजी ने राजा श्री रहूगणजी को दिया ।
महापुरुषों के समाज में सदा सर्वदा पवित्र कीर्ति वाले प्रभु के सद्गुणों की चर्चा होती रहती है जिसके कारण उनका मन विषयों की तरफ जाता ही नहीं है । एक सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ होता है कि मन को विषयों से दूर रखना है तो उसे प्रभु की कथाओं के श्रवण, स्मरण और कीर्तन में लगाना चाहिए ।
जब भगवत् कथा का नित्य प्रतिदिन सेवन होता है तो वह हमारी बुद्धि को शुद्ध कर उसे प्रभु में लगा देती है । इसलिए जीवन में यह नियम बनाना चाहिए कि नित्य प्रभु की श्रीलीलाओं का कथारूप में श्रवण किया जाए जिससे हमारा मन प्रभु में लगे और विषयों में नहीं भटके ।
प्रकाशन तिथि : 03 जुलाई 2016 |
391 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 12
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह बंधन को काट डालना चाहिए । फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसार मार्ग को पार करके भगवान को प्राप्त कर सकता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश श्री जड़भरतजी ने राजा श्री रहूगणजी को दिया ।
विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञान रूपी तलवार से मनुष्य को इस संसार के मोह बंधन को काट डालना चाहिए । फिर प्रभु की श्रीलीलाओं के कथन और श्रवण से उनमें भगवत् स्मृति निरंतर बनी रहेगी । इसके कारण वे सुगमता से संसार सागर को पार कर भगवत् प्राप्ति कर लेंगे ।
जीव को चाहिए कि वह सत्संग करे एवं प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण, मनन, स्मरण करें जिससे वह संसार सागर से पार हो प्रभु तक पहुँच पाए । प्रभु तक पहुँचने का यही मार्ग है और संत लोग इसी मार्ग पर चलकर प्रभु की प्राप्ति करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 04 जुलाई 2016 |
392 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 14
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि जिन महानुभावों का चित्त भगवान मधुसूदन की सेवा में अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि में मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश श्री जड़भरतजी ने राजा श्री रहूगणजी को दिया ।
जिनका मन प्रभु की सेवा में लग जाता है उनकी दृष्टि में मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ हो जाता है । प्रभु की भक्ति सर्वोच्च है और इसके सामने मोक्ष भी गौण है । प्रभु की भक्ति करने वाला कभी मोक्ष की चाह नहीं रखता । मोक्ष तो उसके लिए सदा सर्वदा बिन मांगे ही उपलब्ध रहता है । भक्ति करने वाले का मोक्ष पर स्वाभाविक अधिकार स्वतः ही हो जाता है । उसे मोक्ष के लिए अलग से प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं होती ।
पर भक्ति करने वाला मोक्ष को तुच्छ समझता है और उसे लेने से इंकार कर देता है । प्रभु की भक्ति करने वाले को प्रभु की भक्ति में इतना परमानंद मिलता है कि मोक्ष भी उसके आगे फीका पड़ जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 05 जुलाई 2016 |
393 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 17
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उस निर्मल धारा का स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
इस श्लोक में भगवती गंगा माता की महिमा का वर्णन है । जब राजा श्री बलिजी के यहाँ तीन पग भूमि मापने के लिए प्रभु ने अपना श्रीकमलचरण उठाया तो वह श्रीकमलचरण ब्रह्मलोक पहुँच गया । वहाँ जो जल की धारा प्रभु के श्रीकमलचरण को धोने में बही वहीं से भगवती गंगा माता की उत्पत्ति हुई ।
भगवती गंगा माता का निर्मल जल जो अमृततुल्य है उसका स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । पर यह तब संभव है जब भगवती गंगा माता में हमारी पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा और भक्ति हो । भगवती गंगा माता का जल सर्वथा निर्मल ही रहता है । विज्ञान भी इस रहस्य को आज तक समझ नहीं पाया है कि इतने वर्षों पुराना गंगाजल भी कैसे निर्मल बना रह सकता है । यह भगवती गंगा माता का साक्षात एक छोटा-सा चमत्कार है जो हम सब आज भी देख सकते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 06 जुलाई 2016 |
394 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 17
श्लो 17-18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भजनीय प्रभो ! आपके चरणकमल भक्तों को आश्रय देने वाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के परम आश्रय हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की स्तुति में उपरोक्त वचन प्रभु श्री महादेवजी ने कहे ।
प्रभु को भजनीय प्रभो कहकर संबोधित किया गया है यानी जिनका भजन किया जाए उन प्रभु को संबोधित किया गया है । प्रभु के श्रीकमलचरण भक्तों को आश्रय देने वाले हैं । भक्तों ने प्रभु के श्रीकमलचरणों को ही अपना एकमात्र आश्रय माना है । प्रभु सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त हैं । सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का वास प्रभु में है । प्रभु के ऐश्वर्य का दर्शन प्रभु की प्रत्येक श्रीलीला में होता है ।
जीव को चाहिए कि वह प्रभु के ऐश्वर्यों का दर्शन नित्य करे एवं प्रभु के श्रीकमलचरणों का जीवन में आश्रय ले । ऐसा करने से ही उसका मानव जीवन सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 07 जुलाई 2016 |
395 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 18
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनका बार-बार सेवन करने वालों के कानों के रास्ते से भगवान हृदय में प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी प्रकार के दैहिक और मानसिक मलों को नष्ट कर देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के भक्तों का संग करने से प्रभु का पवित्र चरित्र सुनने को मिलता है । प्रभु की कथा का बार-बार सेवन करने से प्रभु हमारे कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करते हैं । बार-बार प्रभु कथा सुनने से प्रभु के स्वभाव और प्रभाव से हमारा परिचय होता है जिसके कारण प्रभु प्रेम जागृत होता है । प्रभु प्रेम के कारण प्रभु का हमारे हृदयपटल में प्रवेश होता है ।
प्रभु के हृदय में प्रवेश होते ही हमारे सभी प्रकार के विकारों का नाश स्वतः ही हो जाता है । हमारे दैहिक और मानसिक मलों का नाश होता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह भगवत् भक्तों का संग करे और प्रभु के पावन श्रीचरित्र को नित्य सुने जिससे उसमें प्रभु प्रेम जागृत हो और वह भक्त प्रभु को अपने हृदयपटल पर अनुभव कर सके ।
प्रकाशन तिथि : 08 जुलाई 2016 |
396 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 18
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस पुरुष की भगवान में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता, धर्म, ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति की महिमा बताता यह श्लोक । प्रभु की निष्काम भक्ति जिस पुरुष में है उसके हृदय में समस्त देवता, धर्म, ज्ञान आदि सम्पूर्ण सद्गुणों सहित निवास करते हैं ।
निष्काम भक्ति की इतनी महिमा है कि समस्त देवता उस व्यक्ति में अंदर निवास करते हैं । निष्काम भक्ति के कारण वह पुरुष धर्म और ज्ञान से परिपूर्ण होता है । निष्काम भक्ति के कारण सम्पूर्ण सद्गुण उसके अंदर वास करते हैं ।
इसलिए जीव को मानव जीवन में प्रभु की निष्काम भक्ति करनी चाहिए । निष्काम भक्ति से बड़ा पुरुषार्थ और कुछ भी नहीं है । इसलिए निष्काम भक्ति करने के लिए जीवन में प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 09 जुलाई 2016 |
397 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 18
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सच्चा पति वही है, जो स्वयं सर्वथा निर्भय हो और दूसरे भयभीत लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर सके । ऐसे पति एकमात्र आप ही हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु जगतपति हैं जो सर्वथा निर्भय हैं और दूसरे भयभीत लोगों की सभी प्रकार से रक्षा करते हैं ।
एकमात्र प्रभु ही ऐसे हैं जो निर्भय हैं जिन्हें किसी का भय नहीं पर जिनके भय से सृष्टि संचालित होती है । प्रभु अभय प्रदान करने वाले हैं । जो प्रभु की शरणागति लेता है उसे प्रभु सभी प्रकार के भयों से अभय प्रदान करते हैं । उस भयभीत व्यक्ति की सभी प्रकार से रक्षा का दायित्व प्रभु उठाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अगर वह किसी डर से डरा हुआ है तो प्रभु की शरणागति ग्रहण करें जिससे प्रभु उसे अभय प्रदान करके सभी प्रकार से उसकी रक्षा करें ।
प्रकाशन तिथि : 10 जुलाई 2016 |
398 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 19
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य, कोई भी हो, उसे सब प्रकार से श्रीराम रूप आपका ही भजन करना चाहिए, क्योंकि आप नर रूप में साक्षात श्रीहरि ही हैं और थोड़े किए को भी बहुत अधिक मानते हैं । आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्य धाम को सिधारे थे, तब समस्त उत्तरकोसल वासियों को भी अपने साथ ही ले गए थे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री रामजी के बारे में इस श्लोक में कहा गया है कि देवता, असुर, वानर और मनुष्य कोई भी हो उन्हें प्रभु का ही भजन करना चाहिए । यह प्रभु का स्वभाव है कि प्रभु बहुत थोड़ा किए हुए को बहुत अधिक मानते हैं ।
प्रभु श्री रामजी आश्रितों को इतना वात्सल्य देने वाले हैं कि जब उन्होंने अपनी श्रीलीला पूर्ण करके स्वधाम गमन किया तो अकेले नहीं गए बल्कि अपने राज्य की पूरी प्रजा को जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त करके अपने साथ अपने धाम लेकर गए ।
जीव को चाहिए कि इतने कृपालु और दयालु प्रभु की भक्ति करे जो कि थोड़ी-सी भक्ति में रीझ जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2016 |
399 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 19
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं - अहा ! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान की सेवा के योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गए हैं ? इस परम सौभाग्य के लिए तो निरंतर हम भी तरसते रहते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
उपरोक्त श्लोक में भारतवर्ष की महिमा का वर्णन है । स्वर्ग के देवता भी भारतवर्ष में जन्में मनुष्यों के भाग्य की सराहना करते हैं । वे कहते हैं कि इस भारत भूमि में मनुष्य का जन्म लेकर प्रभु की सेवा करने का सबसे बड़ा अवसर मिलता है । यह पूर्व जन्मों के पुण्यों के कारण ही संभव हो पाता है अथवा स्वयं प्रभु प्रसन्न होकर ऐसा अवसर प्रदान करते हैं । स्वर्ग के देवता कहते हैं कि हम भी ऐसे अवसर के लिए निरंतर तरसते रहते हैं ।
इसलिए भारतवर्ष में मानव जीवन का सदुपयोग करना चाहिए और प्रभु भक्ति कर इसे सफल बनाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 12 जुलाई 2016 |
400 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 19
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह ठीक है कि भगवान सकाम पुरुषों के मांगने पर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान का वास्तविक दान नहीं है, क्योंकि उन वस्तुओं को पा लेने पर भी मनुष्य के मन में पुनः कामनाएं होती ही रहती हैं । इसके विपरीत जो उनका निष्काम भाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात अपने चरणकमल ही दे देते हैं जो अन्य समस्त इच्छाओं को समाप्त कर देने वाले हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
भगवान की सकाम भक्ति करने वाले को भगवान मांगने पर उसकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं परंतु यह सच्चा दान नहीं है । क्योंकि उन अभीष्ट वस्तुओं को पाने पर भी उस मनुष्य के मन में पुनः नई वस्तुओं को पाने की कामना जागृत होती है ।
पर निष्काम भक्ति करने वाले भक्त को प्रभु अपने श्रीकमलचरणों का ही दान दे देते हैं जिससे उस भक्त की समस्त इच्छाएं ही शांत हो जाती हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की निष्काम भक्ति करे क्योंकि निष्काम भक्ति का स्थान सबसे ऊँचा है । प्रभु के सच्चे भक्तों ने सदैव निष्काम भक्ति ही की है ।
प्रकाशन तिथि : 13 जुलाई 2016 |
401 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 19
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करने वाले का सब प्रकार से कल्याण करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु अपने भजन करने वालों का सब प्रकार से कल्याण करते हैं । यह एक शाश्वत सिद्धांत है । प्रभु की भक्ति करने वाले की पूरी जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं और पग-पग पर उसका मंगल करते हैं ।
इसलिए जो जीव अपना कल्याण चाहता हो उसे प्रभु की भक्ति करनी चाहिए । शास्त्रों ने और संतों ने यह बात बड़ी दृढ़ता से कही है कि प्रभु अपनी भक्ति करने वाले का परम कल्याण करते हैं । यह प्रभु का स्वभाव है कि वे अपने भक्तों का सदैव मंगल-ही-मंगल करते हैं । भक्तों का चरित्र पढ़ने से इस बात का प्रतिपादन हर जगह हमें मिलता है ।
प्रकाशन तिथि : 14 जुलाई 2016 |
402 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 22
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान सूर्य सम्पूर्ण लोकों के आत्मा हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
भारतीय शास्त्रों ने प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को प्रभु का चेतन स्वरूप माना है । श्रीमद् भगवद् गीताजी में प्रभु ने श्री सूर्यनारायणजी को अपनी विभूति बताया है । प्रभु श्री सूर्यनारायणजी सम्पूर्ण लोकों की आत्मा हैं । प्रभु श्री सूर्यनारायणजी के ताप और प्रकाश के बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की स्तुति और पूजन का विधान है । प्रभु ने भी जब मानव रूप में अवतार ग्रहण किया तो नित्य प्रातःकाल उठकर प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की स्तुति और पूजन किया है । प्रभु श्री सूर्यनारायणजी आदिगुरु भी हैं । इसलिए प्रभु श्री सूर्यनारायणजी को चेतन स्वरूप मानते हुए नित्य प्रातःकाल उठकर उनका पूजन करना चाहिए और उन्हें अर्घ्य प्रदान करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 15 जुलाई 2016 |
403 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 24
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान का तो छींकने, गिरने और फिसलने के समय विवश होकर एक बार नाम लेने से भी मनुष्य सहसा कर्म बंधन को काट देता है .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु का नाम किसी भी प्रकार से लिया जाए वह हमारा मंगल ही करता है । जैसे पूजा के समय या भजन के समय लिया प्रभु का नाम फलदायी होता है वैसे ही प्रभु का नाम किसी भी अवस्था में लिया जाए वह फलदायी ही होता है ।
इस श्लोक में कहा गया है कि छींकते समय, गिरते समय, फिसलते समय विवश अवस्था में भी एक बार प्रभु का नाम लिया जाए तो वह मनुष्य के कर्म बंधन को काट देता है । श्री अजामिलजी का चरित्र इसका जीवंत उदाहरण है कि अंत समय पुत्र के निमित्त लिया गया प्रभु का नाम उनका उद्धार कर देता है । इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु नाम लेने की आदत जीवन में बनाए ।
प्रकाशन तिथि : 16 जुलाई 2016 |
404 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 25
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके सुने सुनाए नाम का कोई पीड़ित अथवा पतित पुरुष अकस्मात अथवा हंसी में भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्यों के भी सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, ऐसे शेषभगवान को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु के नाम का कोई पीड़ित अथवा कोई पतित पुरुष अकस्मात अथवा हंसी में भी उच्चारण करता है तो वह अपने सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है । प्रभु के मंगल नाम के उच्चारण का इतना महत्व है कि वह हमारे संचित पापों का तत्काल नाश कर देती है । जैसे अग्नि की एक चिंगारी रुई के गोदाम में लग जाए तो सम्पूर्ण रुई को जला देगी वैसे ही प्रभु के एक नाम में इतनी शक्ति है कि वह हमारे सारे संचित पापों को भस्म कर देती है ।
इसलिए मुमुक्षु पुरुष प्रभु के दिव्य नाम का ही आश्रय ग्रहण करते हैं । जीव को भी चाहिए कि प्रभु के नाम का आश्रय जीवन में ग्रहण करें जिससे उसके पापों का नाश हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 17 जुलाई 2016 |
405 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध) |
अ 25
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह पर्वत, नदी और समुद्रादि से पूर्ण संपूर्ण भूमंडल उन सहस्त्रशीर्षा भगवान के एक मस्तक पर एक रजकण के समान रखा हुआ है । वे अनंत हैं, इसलिए उनके पराक्रम का कोई परिमाण नहीं है । किसी के हजार जीभें हो, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान के पराक्रमों की गणना करने का साहस वह कैसे कर सकता है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
पर्वत, नदी, समुद्र एवं यह संपूर्ण भूमंडल प्रभु के शरीर पर एक रज कण के समान रखा हुआ है । शास्त्र कहते हैं कि प्रभु की रोमावली में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समाए हुए हैं । प्रभु अनंत हैं इसलिए किसी के हजार मुँह हो तो भी उन सर्वव्यापक प्रभु के पराक्रमों की गिनती कौन कर सकता है । श्री वेदजी भी नेति-नेति कहकर प्रभु का गुणगान करते हुए शांत हो जाते हैं ।
प्रभु के पराक्रमों की गिनती करना किसी भी मनुष्य या शास्त्र के लिए संभव नहीं है । किसी मनुष्य को हजार मुँह मिल जाए तो भी इतने अनंत प्रभु का गुणगान हजार मुँह से भी नहीं हो सकता ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के षष्ठम स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के पंचम स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं समुद्रदेवजी का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाएं ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 18 जुलाई 2016 |
406 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 01
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान की शरण में रहने वाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्ति के द्वारा अपने सारे पापों को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरे को ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जीव संसार में आकर पाप करता है और उसे भोगने के लिए नर्क में जाता है । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में कुल 28 प्रकार के प्रधान नर्कों में तरह-तरह की यातनाओं को भोगने के बारे में बताया गया है ।
पर प्रभु की शरण में रहने वाले भक्तजन केवल भक्ति द्वारा अपने सारे पापों को भस्म कर लेते हैं । भक्ति में इतना सामर्थ्य है कि हमारे संचित पापों का नाश कर देती है और हमें इतना पवित्र कर देती है कि नए पापों को करने से हम बच जाते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की भक्ति करें जिससे उसके पूर्व के संचित पापों का क्षय हो और नए पाप करने से बचा जा सके ।
प्रकाशन तिथि : 19 जुलाई 2016 |
407 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 01
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जगत में यह भक्ति का पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है, क्योंकि इस मार्ग पर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
यह मेरा एक प्रिय श्लोक है क्योंकि भक्ति सर्वश्रेष्ठ है इस सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ पर मिलता है । भक्ति को इस श्लोक में सर्वश्रेष्ठ पंथ कहा गया है । प्रभु तक पहुँचने के सभी साधनों में भक्ति को सर्वश्रेष्ठ साधन माना गया है । भक्ति भयरहित और कल्याणस्वरूप साधन है । भक्ति के मार्ग पर गिरने का कोई भय नहीं और भक्ति परम कल्याण करने वाला साधन है ।
भगवत् परायण लोग और साधुजन इसी भक्ति मार्ग पर चलकर प्रभु को प्राप्त करते हैं । प्रभु की प्राप्ति का इससे सुलभ साधन दूसरा कोई नहीं है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह जीवन में भक्ति करके प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करे ।
प्रकाशन तिथि : 20 जुलाई 2016 |
408 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(षष्ठम स्कंध) |
अ 01
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिन्होंने अपने भगवदगुणानुरागी मन मधुकर को भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द मकरन्द का एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिए । वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाशधारी दूतों को नहीं देखते । फिर नरक की तो बात ही क्या है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जिन्होंने प्रभु के गुणगान करने वाले अपने मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगा लिया उन्होंने मानो सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया । उन्हें स्वप्न में भी प्रभु श्री यमराजजी के दूतों के दर्शन नहीं होते । उन्हें नर्क कभी नहीं जाना पड़ता ।
जीव संसार में आकर जाने-अनजाने में पातक करता है जिसको भोगने के लिए 28 प्रकार के प्रधान नर्क हैं । पर जो जीव अपने मन को प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित कर देता है वह अपने सारे पापों का सच्चा प्रायश्चित कर लेता है । उसे फिर पापों को भोगने के लिए नर्क नहीं जाना पड़ता । इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने मन को भक्ति के द्वारा प्रभु के श्रीकमलचरणों में लगाए ।
प्रकाशन तिथि : 21 जुलाई 2016 |