श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
361 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 30
श्लो 19
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिन लोगों के कर्म भगवदर्पण बुद्धि से होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथावार्ताओं में ही बीतता है, वे गृहस्‍थाश्रम में रहें तो भी घर उनके बंधन का कारण नहीं होते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने श्री प्रचेताओं को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो लोग अपना कर्म भगवान को अर्पण करके चलते हैं और जिनका समय प्रभु की कथावार्ता में ही बीतता है, वे लोग गृहस्‍थ आश्रम में रहकर भी कर्म बंधन में नहीं पड़ते ।

हमारा प्रत्‍येक कर्म प्रभु को अर्पण होते हुए होना चाहिए । कर्म बंधन से बचने का यह सबसे सरल मार्ग है । दूसरा, हमारी चर्या ऐसी होनी चाहिए कि हमारा समय प्रभु की कथा और प्रभु के बारे में चर्चा करते हुए बीते । संत ऐसा ही किया करते हैं । गृहस्‍थ आश्रम में रहकर भी जो ऐसा कर पाता है वह कर्म बंधन में नहीं पड़ता । इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपना कर्म प्रभु को अर्पण करें एवं अपना समय प्रभु की कथावार्ता में व्‍यतीत करे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 मई 2016
362 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 30
श्लो 20
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे नित्‍यप्रति मेरी लीलाएं सुनते रहते हैं, इसलिए ब्रह्मवादी वक्‍ताओं के द्वारा मैं ज्ञान स्‍वरूप परब्रह्म उनके हृदय में नित्‍य नया-नया-सा रमता रहता हूँ और मुझे प्राप्‍त कर लेने पर जीवों को न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने श्री प्रचेताओं को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो नित्‍य प्रभु की श्रीलीलाएं सुनते रहते हैं उनके हृदय में प्रभु आकर वास करते हैं और वे जीव प्रभु को प्राप्‍त कर लेते हैं । प्रभु की कथा नित्‍य नए रूप में हमें प्रभु के दर्शन कराती है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की श्रीलीलाओं का नित्‍य श्रवण करने की आदत जीवन में बनाए । इससे प्रभु के प्रति उसका प्रेम बढ़ेगा और वह परब्रह्म का अपने हृदय में नित्‍य नया दर्शन करने लगेगा । प्रभु की श्रीलीला हमारे भीतर प्रभु प्रेम के बीज अंकुरित करती है । प्रभु की प्रेमाभक्ति को प्राप्‍त करने का एक सरल मार्ग है कि प्रभु की श्रीलीलाओं का श्रवण नित्‍य किया जाए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 मई 2016
363 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 30
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जगदीश्‍वर ! आप मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले और स्‍वयं पुरुषार्थ स्वरूप हैं । आप हम पर प्रसन्‍न हैं, इससे बढ़कर हमें और क्‍या चाहिए । बस, हमारा अभीष्‍ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री प्रचेताओं ने प्रभु से कहे ।

प्रभु मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले एवं मोक्ष प्रदान करने वाले हैं । मनुष्‍य जीवन का अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष को माना गया है । प्रभु कृपा से ही हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

प्रभु की प्रसन्‍नता भक्‍तों के जीवन का लक्ष्‍य होती है । प्रभु की प्रसन्‍नता से बढ़कर भक्‍तों की अन्‍य कोई अभिलाषा नहीं होती है । प्रभु हम पर प्रसन्‍न रहें यही भक्‍त की आकांक्षा होती है । भक्त प्रभु से बस यही वर माँगता है कि प्रभु सदैव उस पर प्रसन्न रहें । प्रभु की प्रसन्‍नता के बाद अन्‍य कुछ भी पाने योग्‍य नहीं बचता । सच्‍चा भक्‍त प्रभु की प्रसन्‍नता के लिए अपने जीवन काल में प्रयत्‍न करता रहता है । प्रभु की प्रसन्‍नता ही उसका लक्ष्‍य होता है और उसी लक्ष्‍य की पूर्ति के लिए वह अपना जीवन लगा देता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 मई 2016
364 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 30
श्लो 33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हम आपसे केवल यही मांगते हैं कि जब तक आपकी माया से मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसार में भ्रमते रहें, तब तक जन्‍म-जन्‍म में हमें आपके प्रेमी भक्‍तों का संग प्राप्‍त होता रहे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री प्रचेताओं ने प्रभु से कहे ।

श्री प्रचेताओं ने प्रभु से मांगा कि जब तक जीव प्रभु माया से मोहित होकर अपने कर्म अनुसार संसार में भ्रमण करता है तब तक उसे प्रभु का सत्‍संग प्राप्‍त होता रहे । प्रभु भक्‍तों के द्वारा प्रभु का सत्‍संग हमें सभी बंधन से मुक्‍त कराने वाला होता है ।

भक्‍त क्षणभर के सत्‍संग के आगे स्‍वर्ग और मोक्ष को भी कुछ नहीं समझते, फिर सत्‍संग के आगे मानवीय भोगों की तो गिनती ही नहीं है । भगवत् भक्‍तों के समाज में नित्‍य भगवान की मनोहर कथाएं होती रहती है जिनके श्रवण मात्र से हृदय पवित्र हो जाता है । निष्‍काम भाव से प्रभु की कथा के प्रसंगों का बार-बार गुणगान करते रहना भक्‍तों का एकमात्र आश्रय होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 मई 2016
365 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 30
श्लो 41
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
स्‍वामिन ! आपकी महिमा का पार न पाकर भी स्‍वायम्‍भुव मनु, स्‍वयं ब्रह्माजी, भगवान शंकर तथा तप और ज्ञान से शुद्धचित्‍त हुए अन्‍य पुरुष निरंतर आपकी स्‍तुति करते रहते हैं । अतः हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार आपका यशोगान करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री प्रचेताओं ने प्रभु से कहे ।

प्रभु की महिमा का कोई भी पार नहीं पा सकता । महाराज श्री मनुजी, प्रभु श्री ब्रह्माजी, देवों के देव प्रभु श्री महादेवजी एवं अन्‍य सभी पुरुष जो तप और ज्ञान से शुद्धचित्‍त हो गए हैं वे सभी प्रभु की निरंतर स्‍तुति करते हैं । श्री प्रचेताओं ने कहा कि जैसे अन्‍य शुद्धचित्‍त पुरुष प्रभु की निरंतर स्‍तुति करते हैं वैसे ही वे भी अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के यश का गान करते हैं ।

जीव को चाहिए कि वह अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु की नियमित स्‍तुति करे । स्‍तुति से प्रभु प्रसन्‍न होते हैं । श्रीमद भागवतजी महापुराण, श्री रामचरितमानसजी एवं अन्‍य श्रीपुराणों में ऋषियों, देवताओं, भक्‍तों के द्वारा प्रभु का स्‍तुति गान पढ़ने को मिलता है । जो भी स्‍तुति हमें प्रिय लगे उस स्‍तुति का चयन कर नियमित रूप से उस स्‍तुति का पाठ सुबह और संध्या के समय प्रभु के समक्ष करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 मई 2016
366 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 31
श्लो 09
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजाओं ! इस लोक में मनुष्‍य का वही जन्‍म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्‍मा सर्वेश्‍वर श्रीहरि का सेवन किया जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्री प्रचेताओं को दिया ।

देवर्षि प्रभु श्री नारदजी, जो भक्ति के आचार्य हैं, कहते हैं कि इस लोक में वही मनुष्‍य जन्‍म सफल है जिससे प्रभु की सेवा हो । इस लोक में वही कर्म सफल है जो प्रभु के लिए किया गया हो । इस लोक में वही आयु सफल है जो प्रभु भक्ति में व्‍यतीत हो । इस लोक में वही मन सफल है जो परमात्‍मा में लगा हो । इस लोक में वही वाणी सफल है जिससे प्रभु का गुणगान हो ।

हमें भी अपना मनुष्‍य जन्‍म सफल करना है तो अपने कर्म, आयु, मन और वाणी को प्रभु को समर्पित करना चाहिए । जो ऐसा कर पाता है उसका ही मनुष्‍य जन्‍म सफल होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 मई 2016
367 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 31
श्लो 10-12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके द्वारा अपने स्‍वरूप का साक्षात्‍कार कराने वाले श्रीहरि को प्राप्‍त न किया जाए, उन माता पिता की पवित्रता से, यज्ञोप‍वीत संस्‍कार से एवं यज्ञ दीक्षा से प्राप्‍त होने वाले उन तीन प्रकार के श्रेष्‍ठ जन्‍मों से, वेदोक्‍त कर्मों से, देवताओं के समान दीर्घ आयु से, शास्त्र ज्ञान से, तप से, वाणी की चतुराई से, अनेक प्रकार की बातें याद रखने की शक्ति से, तीव्र बुद्धि से, बल से, इन्द्रियों की पटुता से, सांख्‍य से, संन्‍यास और वेदाध्‍ययन से तथा व्रत वैराग्‍यादि अन्‍य कल्‍याण साधनों से भी पुरुष का क्‍या लाभ है ?


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्री प्रचेताओं को कहे ।

जिस साधन द्वारा प्रभु को प्राप्‍त न किया जा सके, उस साधन का कोई लाभ नहीं होता है । सभी साधनों का उद्देश्य प्रभु प्राप्ति है । साधन प्रभु को प्राप्‍त करने के लिए ही किए जाते हैं । जिस साधन द्वारा प्रभु प्राप्ति नहीं हो वह साधन सार्थक नहीं है ।

देवर्षि प्रभु श्री नारदजी यहाँ बहुत सारे साधनों की बात करके अंत में यही कहते हैं कि वही साधन सार्थक है जो हमें प्रभु की प्राप्ति करवा दे । हमें ऐसे साधन का चयन करना चाहिए जिससे हम प्रभु तक पहुँच सकें । अगर कोई साधन हमें प्रभु तक पहुँचाने में सक्षम नहीं है तो वह व्‍यर्थ है, उसका कोई लाभ नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 मई 2016
368 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 31
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभी का पोषण हो जाता है और जैसे भोजन द्वारा प्राणों को तृप्‍त करने से समस्‍त इन्द्रियां पुष्‍ट होती हैं, उसी प्रकार श्री भगवान की पूजा ही सबकी पूजा है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्री प्रचेताओं को कहे ।

प्रभु के तृप्‍त होते ही पूरा संसार तृप्‍त हो जाता है । जैसे वृक्ष की जड़ को सींचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभी को पोषण मिल जाता है और जैसे भोजन द्वारा हमारी सभी इन्द्रियां तृप्‍त हो जाती हैं वैसे ही प्रभु की पूजा करने से सभी की पूजा हो जाती है ।

प्रभु को पूजा द्वारा तृप्‍त करने से अन्‍य किसी को तृप्‍त करने की आवश्‍यकता ही नहीं होती । इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपना ध्‍यान प्रभु पूजा में केंद्रित करे और प्रभु को अपनी सेवा से तृप्‍त करे । सबकी अलग-अलग तृप्ति के लिए प्रयास करने की कोई आवश्‍यकता नहीं है क्‍योंकि प्रभु की तृप्ति ही संसार की तृप्ति है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 मई 2016
369 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 31
श्लो 19
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे भक्‍तवत्‍सल भगवान समस्‍त जीवों पर दया करने से, जो कुछ मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से तथा समस्‍त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्‍त करके शांत करने से शीघ्र ही प्रसन्‍न हो जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्री प्रचेताओं को कहे ।

देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु के जीवों पर प्रसन्‍न होने के तीन सूत्र यहाँ दिए हैं । जब हम जगत को प्रभुमय मानकर जीवों पर दया करते हैं तो प्रभु प्रसन्‍न होते हैं । जब हम संतोष को धन मानकर जो कुछ भी मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं तो प्रभु प्रसन्‍न होते हैं । जब हम अपनी समस्‍त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्‍त करके शांत कर लेते हैं तो प्रभु प्रसन्‍न होते हैं ।

इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्राणिमात्र पर दया करे, जो कुछ भी मिले उसमें संतुष्ट रहें और अपनी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर प्रभु में लगाए । इन्द्रियों को विषयों से हटाकर प्रभु में लगाना भक्ति का एक स्‍वरूप है जिससे प्रभु अतिशीघ्र प्रसन्‍न होते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 जून 2016
370 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 31
श्लो 20
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पुत्रैषणा आदि सब प्रकार की वासनाओं के निकल जाने से जिनका अंतःकरण शुद्ध हो गया हो, उन संतों के हृदय में उनके निरंतर बढ़ते हुए चिंतन से खींचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्‍ताधीनता को चरितार्थ करते हुए हृदयाकाश की भांति वहाँ से हटते नहीं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने श्री प्रचेताओं को कहे ।

देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि जीव जब अपनी सभी वासनाओं से निवृत्‍त हो जाता है तो उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है । ऐसे शुद्ध अंतःकरण से प्रभु का निरंतर चिंतन होता रहता है जिससे खींचकर प्रभु उस जीव के अंतःकरण में आकर वास करने लगते हैं । भक्ति को चरितार्थ करते हुए फिर प्रभु उस जीव के अंतःकरण से हटते नहीं ।

प्रभु जब जीव का शुद्ध अंतःकरण और भक्तिभाव देखकर उसे एक बार पकड़ लेते हैं तो फिर कभी छोड़ते नहीं । संत कहते हैं कि प्रभु को पकड़ना तो आता है पर छोड़ना नहीं आता । इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपना अंतःकरण शुद्ध करें और भक्तिभाव जागृत करें ।


अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के पंचम स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के चतुर्थ स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी सरस्‍वती माता का सत्‍य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं श्री समुद्रदेवजी का पूरा जल स्‍याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्‍वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्‍या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्‍याय, खण्‍ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाए ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्‍द्रशेखर कर्वा


प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 जून 2016
371 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 01
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनके विधान को कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबल से, न अर्थ या धर्म की शक्ति से और न स्‍वयं या किसी दूसरे की सहायता से ही टाल सकता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने श्री प्रियव्रत को कहे ।

प्रभु के विधान को कोई भी देहधारी जीव किसी भी प्रकार से नहीं टाल सकता । प्रभु के विधान को न तो तप से, न विद्या से, न योगबल से, न बुद्धिबल से टाला जा सकता है । प्रभु के विधान को न अर्थ की, न धर्म की शक्ति से टाला जा सकता है । प्रभु के विधान को न स्‍वयं या किसी दूसरे की सहायता से टाला जा सकता है ।

श्रीमद् भागवतजी महापुराण के साथ-साथ इस सिद्धांत का प्रतिपादन श्री रामचरितमानसजी में भी मिलता है । श्री रामचरितमानसजी में स्‍पष्ट लिखा है कि "होइहि सोइ जो राम रचि राखा" । प्रभु का विधान अंतिम होता है और प्रभु कृपा करते हैं तभी उसमें संशोधन होता है अन्‍यथा उसे टालना किसी के लिए भी संभव नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 जून 2016
372 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 01
श्लो 15
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हमारे गुणों और कर्मों के अनुसार प्रभु ने हमें जिस योनि में डाल दिया है उसी को स्‍वीकार करके, वे जैसी व्‍यवस्‍था करते हैं उसी के अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं । हमें उनकी इच्‍छा का उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधे को आँख वाले पुरुष का ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने श्री प्रियव्रत को कहे ।

हमारे गुणों और कर्मों के हिसाब से प्रभु हमें जिस भी योनि में डालते हैं हमें उसे सहर्ष स्‍वीकार करना पड़ता है । प्रभु जैसी व्‍यवस्‍था हमारे लिए उस योनि में करते हैं उसी अनुसार हमें सुख और दुःख भोगने पड़तें हैं । हमें प्रभु की इच्‍छा का अनुसरण उसी प्रकार करना पड़ता है जैसे एक अंधे को आँख वाले पुरुष का अनुसरण करना पड़ता है ।

प्रभु की सत्‍ता सर्वव्‍यापक है और प्रभु के विधान के हिसाब से जीव को चलना पड़ता है । जीव प्रभु की सत्‍ता और विधान को स्‍वीकार करने के लिए बाध्‍य है क्‍योंकि जीव का अपना कोई अस्तित्‍व ही नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 जून 2016
373 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 01
श्लो 27
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उससे प्राप्‍त हुए अखण्‍ड एवं श्रेष्‍ठ भक्तियोग से उनका अंतःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान का आविर्भाव हुआ ..... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री प्रियव्रतजी के दस पुत्र हुए जिसमें से तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए ।

इन तीनों ने संन्यास आश्रम को स्‍वीकार किया । समस्‍त जीवों के अधिष्‍ठान एवं भवबंधन से डरे हुए लोगों को आश्रय देने वाले प्रभु के परम सुन्‍दर श्रीकमलचरणों का इन्होंने निरंतर चिंतन किया ।

इस कारण प्राप्‍त अखण्‍ड एवं श्रेष्‍ठ भक्ति से उनका अंतःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान का आविर्भाव हुआ । भक्ति श्रेष्‍ठ है क्‍योंकि वह हमारे अंतःकरण को शुद्ध करती है और प्रभु को हमारे अंतःकरण में प्रकट कर देती है ।

प्रकाशन तिथि : 16 जून 2016
374 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 01
श्लो 35
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्‍योंकि वर्ण बहिष्कृत चाण्‍डाल आदि नीच योनि का पुरुष भी भगवान के नाम का केवल एक बार उच्‍चारण करने से तत्‍काल संसार बंधन से मुक्‍त हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।

वर्ण से बहिष्कृत हुआ चाण्डाल आदि नीच योनि का पुरुष भी यदि भगवान के नाम का उच्‍चारण करता है तो वह भी तत्काल संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ।

प्रभु के नाम की इतनी भारी महिमा है कि वह पतितों को भी पावन कर देती है । पतितों के उद्धार की कथाओं से हमारे श्रीग्रंथ भरे पड़े हैं । इसलिए कोई कितना भी पतित हो उसे प्रभु नाम का आश्रय लेना चाहिए । ऐसा करने से ही उसका उद्धार संभव है ।

प्रकाशन तिथि : 17 जून 2016
375 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 01
श्लो 38
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परमाराध्‍य श्रीहरि की कृपा से उनकी विवेकवृत्ति जागृत हो गई .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री प्रियव्रतजी ने एक बार अपनी इन्द्रियों को विषयों में फंसा लिया । विषयरूपी अंधकार में वे गिर पड़े । स्त्री के प्रति उनका आकर्षण हो उठा और स्त्री ने उन्‍हें बंदर की भांति नचाया ।

फिर उन्‍होंने अपने आप को धिक्‍कारा और अपने आप को बहुत बुरा भला कहा । फिर प्रभु की कृपा से उनकी विवेकवृत्ति पुनः जागृत हुई ।

वे अपने राज्‍य को अपने पुत्रों में बांटकर राज्‍यलक्ष्‍मी को छोड़कर वैराग्‍य धारण करके भगवान की श्रीलीलाओं का चिंतन करते हुए देवर्षि प्रभु श्री नारदजी के बताए मार्ग का अनुसरण करने लगे । अगर हम विषयों में फंसे हैं तो प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारी विवेक बुद्धि को जागृत करें जिससे हम प्रभु की तरफ मुड़ पाए ।

प्रकाशन तिथि : 18 जून 2016
376 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 03
श्लो 05
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आपके परम मंगलमय गुण सम्‍पूर्ण जनता के दुःखों का दमन करने वाले हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के मंगलमय गुणों का गुणगान सम्‍पूर्ण जनता के दुःखों का दमन करने वाला है । इसलिए संतों ने आदि काल से ही प्रभु के गुणों को गाया है और अपना और समाज का मंगल किया है ।

प्रभु का गुणगान निश्‍चित ही हमारी प्रतिकूलता को खत्‍म करता है । इसलिए प्रभु के गुण गाने का विधान सभी धर्मों में प्रधानता से है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि जितना हो सके प्रभु का गुणगान करे । संतों ने लोक कल्याण के लिए प्रभु के गुणगान की कितनी ही स्तुतियाँ, कितने ही मंत्र और कितने ही भजन रचे हैं । हमें इनका आश्रय लेकर प्रभु को प्रसन्‍न करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 19 जून 2016
377 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 03
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतः हम आपसे यही वर मांगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जंभाई लेने और संकटादि के समय एवं ज्‍वर और मरणादि की अवस्‍थाओं में आपका स्‍मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमलविनाशक भक्‍तवत्‍सल, दीनबन्‍धु आदि गुणद्योतक नामों का हम उच्‍चारण कर सकें ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - हर अवस्‍था में हमें प्रभु का स्‍मरण एवं प्रभु नाम का उच्‍चारण करना चाहिए । श्‍लोक में प्रभु से यही वर मांगा गया है कि हर अवस्‍था में जीव प्रभु को न भूले और प्रभु नाम का उच्‍चारण जीव द्वारा हो सके ।

हमें प्रभु को अपनी दैनिक दिनचर्या के बीच नहीं भूलना चाहिए और प्रभु नाम का उच्‍चारण मन-ही-मन करते रहना चाहिए । संत ऐसा करते हैं और उस अवस्‍था को प्राप्‍त करते हैं जब उनकी प्रत्‍येक श्‍वास में प्रभु नाम का उच्‍चारण स्‍वतः ही होता रहता है । यह एक उच्च अवस्‍था है पर निरंतर प्रयास से वहाँ पहुँचा जा सकता है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि हर समय प्रभु का स्‍मरण रखें एवं प्रभु के नाम का उच्‍चारण करने की आदत जीवन में बनाए ।

प्रकाशन तिथि : 20 जून 2016
378 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 03
श्लो 15
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देवदेव ! आप भक्‍तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु भक्तों के बड़े-से-बड़े काम करते हैं । अगर भक्त प्रभु को जीवन में आगे करके चलता है तो उस भक्त के बड़े-से-बड़े कार्य करने की जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं ।

प्रभु का आश्रय लेने पर प्रभु भक्त के बड़े-से-बड़े कार्य करते हैं । जैसे एक सांसारिक पिता अपने पुत्र का ख्याल रखता है और उसके कार्य को अपना कार्य समझ कर करता है वैसे ही परमपिता अपने भक्त के कार्य को अपना कार्य समझ कर करते हैं ।

इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु का आश्रय जीवन में ले जिससे उसके बड़े-से-बड़े कार्य करने की जिम्मेदारी प्रभु संभाल लें । भक्तराज श्री नरसी मेहताजी का जीवंत उदाहरण है जिनका कार्य प्रभु ने किया और नानी बाई का मायरा भरने प्रभु स्वयं पधारे ।

प्रकाशन तिथि : 21 जून 2016
379 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 04
श्लो 18
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान ऋषभदेव के शासनकाल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिए किसी से भी अपने प्रभु के दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्‍तु की कभी इच्‍छा नहीं करता था । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा श्री नाभिजी ने प्रभु को प्रसन्न करके प्रभु के जैसा पुत्र चाहा और प्रभु उनकी इच्‍छा पूर्ण करने के लिए श्री ऋषभदेवजी के रूप में उनके पुत्र बनकर अवतरित हुए ।

महाराज श्री ऋषभदेवजी का शासनकाल ऐसा था कि देश का कोई भी नागरिक अपने लिए कुछ भी इच्छा नहीं करता था क्योंकि सभी लोग सभी प्रकार से तृप्‍त थे । सभी लोग केवल प्रभु के दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और कुछ भी नहीं चाहते थे । प्रभु के श्रीकमलचरणों में बढ़ने वाले नित्य प्रति दिन अनुराग के अतिरिक्त किसी को भी अन्‍य किसी वस्‍तु की चाहत ही नहीं थी ।

भारतवर्ष के गौरव का यह वर्णन है जहाँ के नागरिक केवल प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति की आकांक्षा रखते थे ।

प्रकाशन तिथि : 22 जून 2016
380 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 05
श्लो 03
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अथवा मुझ परमात्‍मा के प्रेम को ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हो, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्‍पन्‍न घरों में जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीर निर्वाह के लिए ही प्रवृत्‍त होते हों ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों से कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु प्रेम को ही एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों ऐसे भक्‍त उन्हें सबसे अधिक प्रिय हैं । मनुष्य जन्म विषय भोग भोगने के लिए नहीं मिला है क्योंकि यह विषय भोग तो पशु योनि में पशु भी भोगते हैं ।

इसलिए मनुष्‍य जन्‍म लेकर विषय भोगों से जिसकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्य केवल शरीर निर्वाह करने के लिए ही करता है ऐसे भक्त को प्रभु ने श्रेष्ठ माना है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति करके मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ करें जिससे प्रभु प्रसन्न हों ।

प्रकाशन तिथि : 23 जून 2016
381 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 05
श्लो 06
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अतः जब तक उसको मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होगी, तब तक वह देहबंधन से छूट नहीं सकता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों से कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जब तक जीव की प्रभु में प्रीति नहीं होगी तब तक वह देहबंधन से छूट नहीं सकता । प्रभु में प्रीति होने पर ही देहबंधन से छूटना संभव है ।

जीव जन्म मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ है । वह शरीर पाकर कर्म करता है और फिर उस कर्म के अनुसार दूसरी योनि में जन्म पाता है । इस चक्र से तभी छूटा जा सकता है जब उसकी प्रीति प्रभु में होगी क्योंकि सिर्फ प्रभु ही उसे जन्‍म मृत्यु के चक्र से मुक्‍त कर सकते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु से प्रीति जोड़े जिससे उसे देहबंधन से मुक्ति मिल सके ।

प्रकाशन तिथि : 24 जून 2016
382 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 05
श्लो 10-13
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पुत्रों ! संसार सागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्वगुणविशिष्‍ट पुरुष को चाहिए कि सबके आत्‍मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान में भक्ति भाव रखने से, मेरे परायण रहने से, तृष्‍णा के त्‍याग से, सुख दुःख आदि के सहने से 'जीव को सभी योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है' इस विचार से, तत्‍त्‍वजिज्ञासा से, तप से, सकाम कर्म के त्‍याग से, मेरे लिए कर्म करने से, मेरी कथाओं का नित्‍यप्रति श्रवण करने से, मेरे भक्तों के संग और मेरे गुणों के कीर्तन से, वैरत्‍याग से, समता से, शांति से और शरीर तथा घर आदि में मैं मेरापन के भाव को त्‍यागने की इच्‍छा से, आध्‍यात्‍मशास्त्र के अनुशीलन से, एकांत सेवन से, प्राण, इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और सत्पुरुषों के वचन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, कर्तव्‍यकर्मों में निरंतर सावधान रहने से, वाणी के संयम से, सर्वत्र मेरी ही सत्‍ता देखने से, अनुभवज्ञानसहित तत्‍त्‍वविचार से और योगसाधन से अहंकाररूप अपने लिगंशरीर को लीन कर दे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश प्रभु श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों को दिए ।

प्रभु कहते हैं कि संसार सागर को पार करने के लिए प्रभु में भक्ति भाव रखना अनिवार्य है । प्रभु के परायण रहने से ही हम संसार सागर को पार कर सकते हैं ।

प्रभु के लिए कर्म करना, प्रभु की कथा का नित्य प्रतिदिन श्रवण करना, प्रभु के गुणों का कीर्तन करना, सर्वत्र प्रभु की सत्ता देखना संसार सागर को पार करने के साधन हैं । जीव को चाहिए कि वह उपरोक्‍त बताए कर्मों को करते हुए प्रभु की पूर्ण भक्ति करे जिससे वह संसार सागर से पार उतर सके । उपरोक्त श्लोक में बहुत सारी बातें बताई गई हैं पर प्रधान बात प्रभु भक्ति है । प्रभु की भक्ति करने से ही जीव संसार सागर को आसानी से पार कर सकता है ।

प्रकाशन तिथि : 25 जून 2016
383 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 05
श्लो 18
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो अपने प्रिय संबंधी को भगवत् भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्‍वजन स्‍वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्‍टदेव इष्‍टदेव नहीं है और पति पति नहीं है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो व्‍यक्ति अपने प्रियजनों को भगवत् भक्ति का उपदेश देकर जन्‍म मृत्यु के चक्‍कर से नहीं छुड़ाता वह गुरु गुरु नहीं है, वह स्‍वजन स्‍वजन नहीं है, वह पिता पिता नहीं है, वह माता माता नहीं है और वह पति पति नहीं है ।

एक गुरु, माता, पिता, पति का कर्तव्‍य होता है कि वे अपने स्‍वजन को भगवत् भक्ति का उपदेश देकर उन्‍हें भगवत् मार्ग में बढ़ने के लिए प्रेरित करे जिससे उस स्‍वजन का कल्‍याण हो सके । जीव का परम कल्‍याण भगवत् भक्ति में ही है और उसे इसी ओर अग्रसर होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 26 जून 2016
384 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(पंचम स्कंध)
अ 06
श्लो 13
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अहो ! सात समुद्रों वाली पृथ्वी के समस्‍त द्वीपों और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्‍यभूमि है, क्‍योंकि यहाँ के लोग श्रीहरि के मंगलमय अवतार चरित्रों का गान करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - पृथ्वी लोक पर भारतवर्ष की महिमा को बखान करता श्‍लोक ।

भारत भूमि में जन्‍म लेने के लिए स्‍वर्ग के देवतागण भी लालायित रहते हैं । मानव का शरीर और भारतवर्ष में जन्‍म यह बड़ा दुर्लभ संयोग होता है । भारत भूमि में ही प्रभु ने अनेक अंश अवतार एवं पूर्ण अवतार लिए हैं ।

सात समुद्रों वाली पृथ्वी लोक पर भारतवर्ष को पुण्यभूमि माना गया है । भारतवर्ष के लोगों का सौभाग्‍य है कि वे प्रभु के मंगलमय अवतारों के श्रीचरित्रों का श्रवण और गान करते हैं । प्रभु ने भारत भूमि पर ही अवतार ग्रहण किए हैं और नाना प्रकार के श्रीचरित्र किए हैं जिनका गान एवं श्रवण करके मनुष्‍य भवसागर से पार उतर सकता है ।

प्रकाशन तिथि : 27 जून 2016