श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
337 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 32
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... राजन ! तुम्‍हारी मुझमें भक्ति हो । बड़े सौभाग्‍य की बात है कि तुम्‍हारा चित्‍त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है । ऐसा होने पर तो पुरुष सहज में ही मेरी उस माया को पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्‍धन से छूटना अत्‍यन्‍त कठिन है । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उपरोक्‍त वचन महाराज श्री पृथुजी से कहे ।

प्रभु कहते हैं कि महाराज श्री पृथुजी के हृदय में प्रभु के लिए भक्ति है, यह बड़े सौभाग्‍य की बात है । महाराज श्री पृथुजी का चित्‍त प्रभु में लगा हुआ है जिस कारण वे सहज ही माया के बंधन से मुक्‍त हैं अन्‍यथा माया के बंधन से छूटना अत्‍यन्‍त कठिन है ।

प्रभु यहाँ एक सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं कि प्रभु भक्ति के कारण ही जीव प्रभु की माया से छूट सकता है । अन्‍यथा प्रभु की माया सभी को अपने बंधन में जकड़े रखती है । भक्ति के बिना माया से छूट पाना असंभव है । इसलिए जीव को अपने जीवन में प्रभु भक्ति को सर्वोच्च स्‍थान देना चाहिए जिसके कारण वह माया के प्रभाव से सदा के लिए मुक्‍त हो सकता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 फरवरी 2016
338 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो पुरुष मेरी आज्ञा का पालन करता है, उसका सर्वत्र मंगल होता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने महाराज श्री पृथुजी से कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु की आज्ञा का पालन करता है उसका सर्वदा मंगल होता है ।

श्रीवेदों में एवं श्रीपुराणों में प्रभु की आज्ञा का प्रतिपादन मिलता है । हमारे धर्मग्रंथ जैसे श्रीमद् भागवतजी महापुराण, श्रीमद् भगवद् गीताजी एवं श्री रामचरितमानसजी एवं अन्‍य धर्मों के धर्मग्रंथों में प्रभु आज्ञा के निर्देश मिलते हैं । उनका पालन करने वाले जीव का कभी अहित नहीं हो सकता, उसका सर्वदा मंगल-ही-मंगल होगा । इसलिए हमें अपना जीवन प्रभु आज्ञा के अनुसार व्‍यतीत करना चाहिए क्‍योंकि इसी में हमारा हित है । प्रभु आज्ञा के विपरीत हमें कुछ भी नहीं करना चाहिए । सदैव प्रभु आज्ञा का अनुपालन ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 फरवरी 2016
339 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 21
श्लो 32
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जिनके चरणतल का आश्रय लेने वाला पुरुष सब प्रकार के मानसिक दोषों को धो डालता है तथा वैराग्‍य और तत्‍वसाक्षात्‍कार रूप बल पाकर फिर इस दुःखमय संसार चक्र में नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन महाराज श्री पृथुजी ने कहे ।

प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने वाला अपने सभी प्रकार के मानसिक दोषों को भी धो डालता है । वह व्‍यक्ति फिर इस दुःखमय संसार चक्र में नहीं फंसता । प्रभु के श्रीकमलचरणों के आश्रय से हमारी सभी कामनाओं की पूर्ति भी होती है ।

इसलिए ध्‍यान, स्‍तुति, पूजा आदि के द्वारा मानसिक और शारीरिक क्रियाओं से प्रभु को भजना चाहिए । हमें अपना जीवन व्‍यर्थ ही नष्‍ट नहीं करना चाहिए और प्रभु का मन और शरीर से भजन, सेवा और पूजन करना चाहिए । प्रभु भक्ति ही हमारा सबसे ज्‍यादा हित करती है और इसलिए जीव को जीवन में भक्ति को सर्वोच्च स्‍थान देना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 फरवरी 2016
340 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 22
श्लो 20
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्रीमधुसूदन भगवान के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्‍य ही आपकी अविचल प्रीति है । हर किसी को इसका प्राप्‍त होना बहुत कठिन है और प्राप्‍त हो जाने पर यह हृदय के भीतर रहने वाले उस वासना रूप मल को सर्वथा नष्‍ट कर देती है, जो और किसी उपाय से जल्‍दी नहीं छूटता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री सनतकुमारजी ने महाराज श्री पृथुजी से कहे ।

प्रभु के श्रीकमलचरणों के गुणानुवाद में हमारी प्रीति होनी चाहिए । प्रभु का गुण गाना भक्ति का एक बड़ा अंग है । प्रभु के गुणानुवाद करने की प्रेरणा और क्षमता हर किसी को प्राप्‍त होना कठिन है । पर जो ऐसा कर पाता है उसके भीतर रहने वाले विकार और मल सर्वथा के लिए नष्‍ट हो जाते हैं ।

इसलिए प्रभु के गुणानुवाद सुनने का कानों को अभ्‍यास कराना चाहिए । प्रभु के गुणानुवाद का हृदय को चिंतन करने का अभ्‍यास कराना चाहिए । प्रभु के गुणानुवाद कहने का मुँह से प्रयास करना चाहिए । प्रभु के गुणानुवाद करने का लाभ इतना बड़ा है कि वह हमारे विकारों को नष्‍ट कर हमें परम आनंद की अनुभूति करवा देता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 फरवरी 2016
341 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 22
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भक्‍तजनों के कानों को सुख देने वाले श्रीहरि के गुणों का बार-बार वर्णन करने से और बढ़ते हुए भक्तिभाव से मनुष्‍य का कार्य-कारण रूप सम्‍पूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग्‍य हो जाता है और आत्‍मस्‍वरूप निर्गुण परब्रह्म में अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री सनतकुमारजी ने महाराज श्री पृथुजी से कहे ।

प्रभु के सद्गुणों का बार-बार वर्णन करना भक्‍तजनों के कानों को सुख देने वाली एक प्रक्रिया है । प्रभु के सद्गुणों का बार-बार वर्णन करने से हमारे भीतर भक्तिभाव बढ़ता है । भक्तिभाव के बढ़ने पर संसार से वैराग्‍य उत्‍पन्‍न होता है । इससे अनायास ही जीव की प्रभु से प्रीति हो जाती है ।

प्रभु के गुणानुवाद करने का शास्त्रों ने बड़ा महत्‍व बताया है । प्रभु के गुणानुवाद का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वह हमारे भीतर भक्ति के बीज को अंकुरित कर देता है । इसलिए अपने जीवन में प्रभु के गुणानुवाद सुनने की, पढ़ने की और करने की आदत डालनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 फरवरी 2016
342 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 22
श्लो 40
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अतः तुम तो भगवान के आराधनीय चरणकमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्‍तर समुद्र को पार कर लो ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री सनतकुमारजी ने महाराज श्री पृथुजी से कहे ।

इस श्‍लोक में प्रभु की शरणागति का महत्‍व बताया गया है । संसार सागर को पार करने के लिए अनेक साधन हैं पर वे सभी दुष्‍कर हैं और उनके द्वारा संसार सागर के पार पहुँचना कठिन है । इसका कारण यह है कि उन साधनों के मूल में प्रभु नहीं हैं और इसलिए उन साधनों को प्रभु का आश्रय नहीं है ।

पर प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ कर जो संसार सागर पार करता है वह इस दुस्‍तर संसार सागर को बड़े आसानी से पार कर लेता है । इसलिए इस संसार सागर को पार करने के लिए हमें सिर्फ प्रभु की शरणागति स्‍वीकारनी चाहिए । प्रभु की शरणागति लेते ही हमें संसार सागर से पार उतारने का दायित्‍व स्‍वतः प्रभु उठा लेते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 फरवरी 2016
343 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 23
श्लो 02
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अतः अब मुझे अंतिम पुरुषार्थ, मोक्ष के लिए प्रयत्‍न करना चाहिए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री पृथुजी ने अपने जीवन काल में जिस हेतु उन्होंने जन्‍म लिया वह सब कार्य संपादित किया । अंत में जब उनकी अवस्‍था कुछ ढ़ल गई तो वे सचेत हो गए । उन्‍होंने अपने अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष के लिए प्रयत्‍न करना प्रारम्‍भ किया ।

यहाँ ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि हम सभी का अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति है पर हम जीवन की अंतिम अवस्‍था तक इसके लिए प्रयासरत नहीं होते । हम इस लक्ष्‍य को ही भूल जाते हैं और अपने कर्म में ही लगे रहते हैं । धन-संपत्ति, पुत्र-पौत्र, दुनियादारी इत्‍यादि में ही हम रमे रहते हैं ।

एक निश्‍चित अवस्‍था के बाद हमें सब कुछ छोड़कर मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्‍य को लेकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 फरवरी 2016
344 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 23
श्लो 08
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस क्रम से उनकी तपस्‍या बहुत पुष्‍ट हो गई और उसके प्रभाव से कर्ममल नष्‍ट हो जाने के कारण उनका चित्‍त सर्वथा शुद्ध हो गया .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री पृथुजी ने अपनी उत्‍तर अवस्‍था में राज्‍य त्‍याग कर वन में जाकर प्रभु की आराधना करने के लिए उत्‍तम तप किया । उनकी तपस्‍या इतनी पुष्‍ट हो गई कि उसके प्रभाव से उनके कर्ममल नष्‍ट हो गए और उनका चित्‍त सर्वथा शुद्ध हो गया ।

उत्‍तर अवस्‍था में भी की गई प्रभु की भक्ति हमारे कर्ममल को नष्‍ट कर हमारा चित्‍त शुद्ध कर हमें मोक्ष प्राप्ति करवा सकती है । इसलिए जीवन की एक अवस्‍था के बाद संसार से वैराग्‍य हो जाए और मन प्रभु भक्ति में लग जाए तो यह सर्वोत्‍तम उपलब्धि होती है ।

पर हम अंत समय तक परिवार, व्‍यापार में उलझे रहते हैं और अपने मानव जीवन के उद्देश्य के विपरीत कर्म करते रहते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 फरवरी 2016
345 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 23
श्लो 10
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस तरह भगवत् परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचार का पालन करते हुए निरंतर साधन करने से परब्रह्म परमात्‍मा में उनकी अनन्‍य भक्ति हो गई ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री पृथुजी भगवत् परायण हो गए और श्रद्धापूर्वक सदाचार का पालन करते हुए निरंतर साधन करने लगे । इससे परब्रह्म परमात्‍मा में उनकी अनन्‍य भक्ति हो गई ।

जब हम भगवत् परायण होकर श्रद्धाभाव रखते हुए सदाचार का पालन करते हुए निरंतर साधना मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तो परमात्‍मा की अनन्‍य भक्ति हमें प्राप्‍त होती है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि इस दिशा में उसका प्रयास हो और वह प्रभु की अनन्‍य भक्ति प्राप्‍त कर सके । प्रभु भक्ति प्राप्‍त करना उसके जीवन का लक्ष्‍य होना चाहिए और इस दिशा में ही उसका सम्‍पूर्ण प्रयास होना चाहिए जिससे वह इस जीवन काल में ही प्रभु भक्ति प्राप्‍त कर सके ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 मार्च 2016
346 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 23
श्लो 28
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतः जो पुरुष बड़ी कठिनता से भूलोक में मोक्ष का साधनस्‍वरूप मनुष्‍य शरीर पाकर भी विषयों में आसक्‍त रहता है, वह निश्चित ही आत्‍मघाती है, हाय ! हाय ! वह ठगा गया !


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मानव जीवन बड़ी कठिनता से भूलोक में मिलता है । चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह दुर्लभ मानव जीवन हमें प्राप्‍त होता है । मानव शरीर मोक्ष पाने का साधन है । इसी शरीर से हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं ।

ऐसे मानव शरीर को पाकर जो विषयों में आसक्‍त रहता है वह निश्‍चित ही आत्‍मघाती कार्य करता है । वह जीव माया द्वारा ठगा गया होता है ।

इसलिए मानव शरीर पाकर सबसे जरूरी साधन भक्ति करनी चाहिए जो हमें मोक्ष की प्राप्ति करवा देती है । मानव शरीर पाकर विषयों में आसक्‍त नहीं रहना चाहिए क्‍योंकि विषय हमारा पतन करवाते हैं और मानव जीवन के उद्देश्य पूर्ति में बाधक बनते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 मार्च 2016
347 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 24
श्लो 31
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम लोग भगवत् भक्‍त होने के नाते मुझे भगवान के समान ही प्‍यारे हो । इसी प्रकार भगवान के भक्‍तों को भी मुझसे बढ़कर और कोई प्रिय नहीं होता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवाधिदेव प्रभु श्री महादेवजी ने श्री प्राचीनबर्हिजी के पुत्रों जिनका नाम प्रचेता था, उन्‍हें कहे ।

प्रभु श्री महादेवजी कहते हैं कि भगवत् भक्‍त होने के नाते प्रचेता उन्‍हें भगवान के समान ही प्‍यारे हैं । भक्‍त की कितनी महिमा है इसका चित्रण यहाँ मिलता है । स्‍वयं प्रभु श्री महादेवजी कहते हैं कि भक्‍त उन्‍हें भगवान की तरह ही अति प्रिय हैं ।

जितने भक्‍त को भगवान प्रिय होते हैं उतने ही भगवान को भक्‍त प्रिय होते हैं । भक्‍त और भगवान का रिश्ता ही प्रेमाभक्ति से ओत-प्रोत रहता है । भक्‍त के लिए भगवान ही सब कुछ होते हैं और भगवान के लिए भक्‍त का स्‍थान सबसे ऊँ‍चा होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 मार्च 2016
348 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 24
श्लो 52
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके नखों से जो प्रकाश निकलता है, वह जीवों के हृदयान्‍धकार को तत्‍काल नष्‍ट कर देता है । हमें आप कृपा करके भक्‍तों के भयहारी एवं आश्रयस्‍वरूप उसी रूप का दर्शन कराइए । जगद्गुरो ! हम अज्ञानावृत प्राणियों को अपनी प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले आप ही हमारे गुरु हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन स्‍तुति में प्रभु श्री महादेवजी ने प्रभु श्री विष्‍णुजी को कहे । प्रभु श्री महादेवजी ने प्रभु श्री विष्‍णुजी के दर्शन पाने की अभिलाषा से स्‍तुति की ।

प्रभु के श्रीकमलचरणों के श्रीनखों से जो प्रकाश निकलता है वह जीव के हृदय के अंधकार को तत्‍काल ही नष्‍ट कर देता है । इसलिए हमें चाहिए कि हम प्रभु के श्रीकमलचरणों का जीवन में आश्रय लें । यह हमारे हृदय के अंधकार को नष्‍ट करने के साथ-साथ हमें अभय भी प्रदान करते हैं ।

प्रभु ही जगद्‌गुरु हैं क्‍योंकि वे ही हम अज्ञानी प्राणियों को अपनी प्राप्ति का मार्ग बताने वाले हैं । सबसे प्रथम गुरु भी प्रभु ही हैं क्‍योंकि उन्‍होंने ही श्रीवेदों को प्रकट किया और उन्‍होंने ही अपनी प्राप्ति का मार्ग जनकल्‍याण के लिए हमें बताया ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 मार्च 2016
349 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 24
श्लो 54
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इस प्रकार आप सभी देहधारियों के लिए अत्यंत दुर्लभ हैं, केवल भक्तिमान पुरुष ही आपको पा सकते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन स्‍तुति में प्रभु श्री महादेवजी ने प्रभु श्री विष्‍णुजी को कहे ।

भूमंडल पर जितने देहधारी जीव हैं उनके लिए प्रभु अत्यंत दुर्लभ हैं । परंतु प्रभु भक्तिमान पुरुष के लिए अत्‍यन्‍त सुलभ हो जाते हैं । इस श्‍लोक में प्रभु श्री महादेवजी का स्‍पष्‍ट मत है कि प्रभु तक भक्ति के द्वारा ही पहुँचा जा सकता है । इससे भक्ति की महिमा का स्‍पष्‍ट दर्शन होता है कि भक्ति के अलावा प्रभु को पाने का अन्‍य कोई साधन नहीं है । प्रभु को पाने का सबसे सुलभ साधन भक्ति ही है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में भक्ति का आश्रय लेकर प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करे । सच्‍चे मन से की गई भक्ति हमें प्रभु तक पहुँचाने में सक्षम होती है । इसलिए मनुष्‍य जीवन पाकर हमें भक्ति का आश्रय लेना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 मार्च 2016
350 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 24
श्लो 55
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतल के अतिरिक्‍त और कुछ चाहेगा ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन स्‍तुति में प्रभु श्री महादेवजी ने प्रभु श्री विष्‍णुजी को कहे ।

भक्ति से प्रभु को प्रसन्‍न किया जा सकता है । भक्ति के अलावा अन्‍य किसी साधन से यह संभव नहीं है । भक्ति करने वाला जीव प्रभु के श्रीकमलचरणों में आश्रय चाहता है । इसके अलावा उसकी कोई और कामना नहीं होती है ।

भक्‍त सदैव प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्‍थान चाहता है । उन्‍हें इसके अलावा अन्‍य कोई अभिलाषा नहीं होती है । प्रभु के श्रीकमलचरणों में अभय है और परमानंद है । इसलिए भक्‍त की अंतिम अभिलाषा यही होती है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों में उसको स्‍थान मिल जाए और वह संसार के आवागमन से सदैव के लिए मुक्‍त हो जाए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 मार्च 2016
351 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 24
श्लो 58
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आपके चरण सम्‍पूर्ण पापराशि को हर लेने वाले हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन स्‍तुति में प्रभु श्री महादेवजी ने प्रभु श्री विष्‍णुजी को कहे ।

प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने से हमारे सभी संचित पापों का दहन हो जाता है । समस्‍त पापों को नष्‍ट करने का इससे सरल उपाय क्‍या हो सकता है कि हम प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ग्रहण कर लें ।

जीव इतना पाप करने की क्षमता नहीं रखता जितना प्रभु एक क्षण में पाप क्षय करने का सामर्थ्‍य रखते हैं । इसलिए प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय जीव को जीवन में निरंतर लेना चाहिए जिससे उसके पापों का दहन हो सके और वह पापमुक्‍त हो सके । प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय हमारे सभी जन्‍मों के संचित पापों को पल में भस्म करने में एकमात्र सक्षम हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 मार्च 2016
352 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 26
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह यद्यपि स्‍वयंप्रकाश है, तथापि जब तक सबके परमगुरु आत्‍मस्‍वरूप श्री भगवान के स्‍वरूप को नहीं जानता, तब तक प्रकृति के गुणों में ही बंधा रहता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जीव स्‍वयंप्रकाश है पर जब तक उसे प्रभु के स्‍वरूप का भान नहीं होता तब तक वह प्रकृति के गुणों में बंधा रहता है । प्रभु का भान नहीं होने के कारण जीव विषयों का चिंतन करता हुआ तरह-तरह के कर्म करता रहता है और कर्मबंधन में पड़ता है और भिन्‍न-भिन्‍न योनियों में जन्‍म लेता है ।

जीव को प्रभु का भान होना बहुत जरूरी है जिससे वह कर्मबंधन से बच सके । प्रभु परमगुरु और आत्‍मस्‍वरूप हैं और हमें उनके स्‍वरूप को जानना नितान्‍त जरूरी है जिससे हम बंधन में नहीं आएँ ।

इसलिए स्‍वयंप्रकाश होने के कारण जीव को चाहिए कि वह प्रभु के स्‍वरूप का भान रखें और प्रभु के स्‍वरूप का उसको कभी विस्मरण नहीं हो ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 मार्च 2016
353 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! जिस अविद्या के कारण परमार्थस्‍वरूप आत्‍मा को यह जन्‍म-मरण रूप अनर्थ परम्‍परा प्राप्‍त हुई है, उसकी निवृत्ति गुरुस्‍वरूप श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति होने पर हो सकती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को दिया ।

जब तक जीव की अज्ञानरूपी निद्रा नहीं टूटती तब तक जीव को जन्‍म-मरण रूपी इस संसार से मुक्ति नहीं मिलती । परमार्थस्‍वरूप आत्‍मा को अज्ञान के कारण जन्‍म-मरण की परम्‍परा प्राप्‍त हुई है ।

इससे छूटने का एकमात्र साधन प्रभु की सुदृढ़ भक्ति ही है । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी के द्वारा यहाँ भक्ति का प्रतिपादन किया गया है । भक्ति के कारण ही हम इस जन्‍म-मरण के चक्‍कर से सदैव के लिए मुक्‍त हो सकते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि मनुष्‍य जीवन पाकर प्रभु भक्ति के द्वारा अपने जन्‍म-मरण के चक्‍कर को सदा के लिए समाप्‍त कर ले ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 अप्रैल 2016
354 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 37
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान वासुदेव में एकाग्रतापूर्वक सम्‍यक प्रकार से किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्‍य का आविर्भाव कर देता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को दिया ।

प्रभु में एकाग्रतापूर्वक किया गया भक्तिभाव हमारे ज्ञान और वैराग्‍य को प्रकट कर देता है । ज्ञान और वैराग्‍य भक्ति माता के पुत्र हैं । भक्ति के प्रगाढ़ होने पर सच्‍चा ज्ञान और वैराग्‍य जीवन में स्‍वतः ही आता है । जैसे ही हमारी प्रभु भक्ति बढ़ती है हमारे अंदर ब्रह्मज्ञान और संसार के विषयों से वैराग्‍य उत्‍पन्‍न होता है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में भक्ति को स्‍वीकार करे जिससे वह ब्रह्मज्ञान का अधिकारी बने और विषयों और वासनाओं से वैराग्‍य होकर उसका मनुष्‍य जीवन सफल हो ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 अप्रैल 2016
355 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 38
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजर्षे ! यह भक्तिभाव भगवान की कथाओं के आश्रित रहता है । इसलिए जो श्रद्धापूर्वक उन्‍हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को दिया ।

प्रभु की कथा सुनने से हमारे भीतर प्रभु के लिए भक्ति भाव आता है । इसलिए जो श्रद्धापूर्वक प्रभु की कथा नित्‍य सुनते या पढ़ते हैं उन्‍हें बहुत शीघ्र भक्ति भाव की प्राप्ति होती है । प्रभु कथा सुनने से प्रभु के स्‍वभाव और प्रभाव का हमें पता चलता है । प्रभु के करुणामय स्‍वभाव और अतुलनीय प्रभाव को जानने पर प्रभु भक्ति हमारे भीतर जाग्रत होती है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु कथा का नित्य श्रवण करे । नवधा भक्ति में भी श्रवण भक्ति को बहुत ऊँ‍चा स्‍थान दिया गया है । जिस जीव को प्रभु कथा के श्रवण और मनन का अभ्‍यास जीवन में हो जाता है वह अति शीघ्र प्रभु की भक्ति का रसास्वादन करता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 अप्रैल 2016
356 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 40
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग अतृप्‍त चित्‍त से श्रवण में तत्‍पर अपने कर्ण कुहरों द्वारा उस अमृत का छक कर पान करते हैं, उन्‍हें भूख-प्‍यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को दिया ।

जो लोग अतृप्‍त होकर चित्‍त लगाकर प्रभु की कथामृत का अपने कानों से पान करते हैं उन्‍हें सांसारिक भय, शोक, मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते । भय, शोक, मोह मनुष्‍य को जीवन में जकड़ कर रखते हैं । इनसे निवृत्ति का सबसे सरल मार्ग प्रभु की कथामृत का पान करना है ।

प्रभु की कथा हमारे भीतर प्रभु के लिए भक्ति भाव जगाती है । भक्ति का बल आते ही भय, शोक, मोह की निवृत्ति स्वतः ही हो जाती है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की कथामृत का पान जीवन में नित्‍य करने की आदत बनाए । ऐसा करने पर वह भय, शोक, मोह से मुक्‍त रह सकेगा ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 अप्रैल 2016
357 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 49
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वास्‍तव में कर्म तो वही है, जिससे श्रीहरि को प्रसन्‍न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान में चित्‍त लगे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को कहे ।

देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि कर्म वही है जिससे प्रभु को प्रसन्‍न किया जा सके । हम संसार में रह कर विभिन्‍न प्रकार के कर्म करते हैं । इन सांसारिक कर्मों का आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्‍व नहीं है । क्‍योंकि शास्त्र कहते हैं कि कर्म उन्‍हीं को मानना चाहिए जो प्रभु की प्रसन्‍नता के लिए किए गए हैं । शास्त्रों ने विद्या भी उसी को माना है जिसके द्वारा प्रभु में चित्‍त लग जाए । अन्‍य सांसारिक विद्या को अध्यात्म में अधिक महत्‍व नहीं दिया गया है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि भक्तिरूपी कर्म करे जिससे प्रभु प्रसन्‍न हों और आध्यात्मरूपी विद्या का लाभ लें जिससे उसका चित्‍त प्रभु में लगे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 अप्रैल 2016
358 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 50
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्रीहरि सम्‍पूर्ण देहधारियों के आत्‍मा, नियामक और स्‍वतंत्र कारण हैं, अतः उनके चरणतल ही मनुष्‍यों के एकमात्र आश्रय हैं और उन्‍हीं से संसार में सबका कल्‍याण हो सकता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को कहे ।

प्रभु ही सम्‍पूर्ण देहधारी जीवों की आत्‍मा हैं । प्रभु ही उनके नियामक और कारण हैं । प्रभु के श्रीकमलचरण ही देहधारी जीव का एकमात्र आश्रय हैं । प्रभु के द्वारा ही संसार में सबका कल्‍याण और मंगल होता है ।

देहधारी जीव प्रभु के श्रीकमलचरणों में ही विश्राम पाते हैं । संसार के ताप से बचने का एकमात्र उपाय है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लिया जाए । प्रभु ही सबका कल्‍याण और मंगल करते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ले जिससे उसका कल्‍याण और मंगल हो सके । प्रभु का आश्रय लिए बिना हमारा कल्‍याण और मंगल होना संभव ही नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 अप्रैल 2016
359 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 73
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उसी प्रकार सांसारिक वस्‍तुएं यद्यपि असत् हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिंतन करता रहता है, इसलिए जन्‍म-मरणरूप संसार से छुटकारा नहीं हो पाता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को कहे ।

संसार माया द्वारा रचा हुआ है इसलिए संसार की सभी वस्‍तु असत् है । अविद्या के कारण जीव इस मिथ्‍या संसार के असत् वस्‍तुओं का चिंतन करता रहता है । इसलिए जीव के जन्‍म-मरण का चक्र चलता रहता है और वह इस जन्‍म मरणरूपी संसार से छुटकारा नहीं पाता ।

हमारा चिंतन मिथ्‍या सांसारिक वस्‍तुओं का नहीं होना चाहिए अपितु परमात्‍मा का चिंतन होना चाहिए । परमात्‍मा का चिंतन होने पर हम इस जन्‍म-मरण के चक्‍कर से सदैव के लिए मुक्‍त हो सकते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह संसार का चिंतन छोड़कर प्रभु का चिंतन करे जिससे उसे आवागमन से सदैव के लिए मुक्ति मिल सके ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 अप्रैल 2016
360 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 29
श्लो 79
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतएव उस कर्मबंधन से छुटकारा पाने के लिए सम्‍पूर्ण विश्‍व को भगवद् रूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरि का भजन करो .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने राजा श्री प्राचीनबर्हिजी को कहे ।

जीव इंद्रियों के भोगों का चिंतन करते हुए बार-बार उसके लिए कर्म करता है । इन कर्मों के लिए अविद्यावश वह कर्म के बंधन में बंध जाता है । इस कर्मबंधन से छुटकारा पाने के लिए सब प्रकार से प्रभु की शरण में जाना चाहिए ।

कर्मबंधन हमें जन्‍म-मरण के चक्‍कर में डालती है । जब तक हम कर्मबंधन से मुक्‍त नहीं होंगे हमें जन्‍म लेते ही रहना पड़ेगा । कर्मबंधन से छूटने का एकमात्र और सबसे सरल उपाय है कि प्रभु की शरणागति लेकर प्रभु का भजन करना है । एकमात्र प्रभु ही हैं जो हमें कर्मबंधन से छुड़ा सकते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति करके प्रभु की शरणागति ले जिससे कर्मबंधन से छुटकारा मिले और जन्‍म-मरण के चक्‍कर से मुक्ति मिल सके ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 अप्रैल 2016