श्री गणेशाय नमः
Devotional Thoughts
Devotional Thoughts Read Articles सर्वसामर्थ्यवान एवं सर्वशक्तिमान प्रभु के करीब ले जाने वाले आलेख (हिन्दी एवं अंग्रेजी में)
Articles that will take you closer to OMNIPOTENT & ALMIGHTY GOD (in Hindi & English)
Precious Pearl of Life श्रीग्रंथ के श्लोकों पर छोटे आलेख (हिन्दी एवं अंग्रेजी में)
Small write-ups on Holy text (in Hindi & English)
Feelings & Expressions प्रभु के बारे में उत्कथन (हिन्दी एवं अंग्रेजी में)
Quotes on GOD (in Hindi & English)
Devotional Thoughts Read Preamble हमारे उद्देश्य एवं संकल्प - साथ ही प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर भी
Our Objectives & Pledges - Also answers FAQ (Frequently Asked Questions)
Visualizing God's Kindness वर्तमान समय में प्रभु कृपा के दर्शन कराते, असल जीवन के प्रसंग
Real life memoirs, visualizing GOD’s kindness in present time
Words of Prayer प्रभु के लिए प्रार्थना, कविता
GOD prayers & poems
प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा
CLICK THE SERIAL NUMBER BOX TO REACH THE DESIRED POST
313 314 315 316
317 318 319 320
321 322 323 324
325 326 327 328
329 330 331 332
333 334 335 336
क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
313 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 9
श्लो 17
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आप परमानंदमूर्ति हैं, जो लोग ऐसा समझकर निष्‍कामभाव से आपका निरंतर भजन करते हैं, उनके लिए राज्‍यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्‍चा फल है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन नन्‍हें श्री ध्रुवजी ने प्रभु की स्‍तुति में कहे ।

प्रभु परमानंद की मूर्ति हैं । प्रभु परमानंद प्रदान करने वाले हैं । श्री ध्रुवजी कहते हैं कि जो लोग इस तथ्‍य को समझकर निष्‍काम होकर प्रभु का निरंतर भजन करते हैं वे प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्‍थान पा जाते हैं जो कि भजन का सच्‍चा फल है । श्री ध्रुवजी ने सकाम होकर राज्‍यादि भोगों की अपेक्षा निष्‍काम होकर प्रभु के श्रीकमलचरणों की प्राप्ति को ही भजन का सच्‍चा फल बताया है ।

हमें भी निष्‍काम भाव से प्रभु का भजन करना चाहिए और प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्‍थान मिले ऐसा भाव रखना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 नवम्‍बर 2015
314 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 9
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इससे तू अंत में सम्‍पूर्ण लोकों के वन्‍दनीय और सप्‍तर्षियों से भी ऊपर मेरे निज धाम को जाएगा, जहाँ पहुँच जाने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना होता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने नन्‍हें श्री ध्रुवजी को कहे ।

श्री ध्रुवजी के नहीं मांगने पर भी प्रभु ने उन्‍हें धरती पर उनके पिता का राजसिंहासन पर छत्‍तीस हजार वर्षों का धर्मपूर्वक शासन दिया और अनेक यज्ञ करके प्रभु का भजन करने एवं उत्तम भोग भोगने का वरदान दिया । फिर प्रभु ने उन्‍हें ध्रुवलोक दिया जिसकी महानता इस बात से प्रमाणित होती है कि नक्षत्र उस ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा करते हैं और सभी लोकों का प्रलय में नाश होने पर भी ध्रुवलोक स्थिर रहता है ।

प्रभु की भक्ति का फल था कि श्री ध्रुवजी सम्‍पूर्ण लोकों में वन्‍दनीय हो गए और अंत में प्रभु के निज धाम को प्राप्‍त किया जहाँ से फिर संसार में लौटकर आना नहीं होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 नवम्‍बर 2015
315 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 9
श्लो 34
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिन्‍हें प्रसन्‍न करना अत्यंत कठिन है, उन्‍हीं विश्‍वात्‍मा श्रीहरि को तपस्‍या द्वारा प्रसन्‍न करके मैंने जो कुछ मांगा है, वह सब व्‍यर्थ है, ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुष के लिए चिकित्‍सा व्‍यर्थ होती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन पश्चाताप के रूप में श्री ध्रुवजी के हृदय से निकले ।

प्रभु का दर्शन मात्र छह महीने में पाने के बाद श्री ध्रुवजी ने प्रभु से मुक्ति नहीं मांगी । क्‍योंकि उनके मन के एक कोने में अपनी सौतेली माँ के कटु वचन थे इसलिए पिता की गोद और राजसिंहासन की आकांक्षा उनके हृदय में थी । इसलिए वे निष्‍काम होकर प्रभु से मुक्ति नहीं मांग पाए । प्रभु के द्वारा छत्‍तीस हजार वर्षों का राज्‍य और ध्रुवलोक देने के बाद श्री ध्रुवजी को पछतावा हुआ कि उन्‍होंने नाशवान वस्‍तु की याचना क्‍यों की । संसार बंधन का नाश करने वाले प्रभु से उन्‍होंने संसार क्‍यों मांगा । उनका संसार मांगना वैसे ही व्‍यर्थ रहा जैसे पूर्ण आयु पा चुके व्‍यक्ति को बचाने के लिए की गई चिकित्‍सा व्‍यर्थ रहती है ।

इससे यह तथ्‍य समझना चाहिए कि हमें प्रभु भक्ति में निष्‍काम होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 नवम्‍बर 2015
316 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 9
श्लो 35
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस प्रकार कोई कंगला किसी चक्रवर्ती सम्राट को प्रसन्‍न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी मांगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्‍मानन्‍द प्रदान करने वाले श्रीहरि से मूर्खतावश व्‍यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्‍चपदादि ही मांगे हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन पश्चाताप के रूप में श्री ध्रुवजी के हृदय से निकले ।

श्री ध्रुवजी कहते हैं कि जैसे कोई कंगला किसी चक्रवर्ती सम्राट से चावल के कुछ दाने मांग ले तो वह उसकी मूर्खता है, वैसी ही मूर्खता होती है जब कोई आत्‍मानन्‍द प्रदान करने वाले प्रभु से संसार की मांग करता है । प्रभु से संसार मांगना, सम्‍पन्‍नता मांगनी, उच्‍चपदादि मांगना मूर्खता है क्‍योंकि प्रभु हमें परमानंद, भक्ति और मुक्ति दे सकते हैं पर हम इन अनमोल मोतियों की जगह कंकड़ की याचना कर बैठते हैं ।

इसलिए प्रभु से सदैव निष्‍काम भाव रखना चाहिए और सकाम होकर संसार, संपत्ति, पद, प्रतिष्‍ठा नहीं मांगनी चाहिए क्‍योंकि ये सब अभिमान को बढ़ाने वाले होते हैं और यही अभिमान हमें प्रभु से दूर कर देता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 नवम्‍बर 2015
317 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 9
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो निरंतर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने आप आई हुई सभी परिस्थितियों में संतुष्‍ट रहता है, वे भगवान से उनकी सेवा के सिवा अपने लिए और कोई भी पदार्थ नहीं मांगते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन ऋषि श्री मैत्रेयजी ने श्री विदुरजी से कहे ।

ऋषि श्री मैत्रेयजी कहते हैं कि जो लोग निरंतर प्रभु के श्रीकमलचरण रज का सेवन करते हैं और जिनका मन हर परिस्थिति में संतुष्‍ट रहता है वे भक्‍तजन प्रभु से प्रभु की सेवा के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं मांगते ।

यहाँ समझने की बात यह है कि जो भक्‍त प्रभु सेवा में लगे हुए हैं और जिन्‍होंने संतोष धन पा लिया है ऐसे भक्‍तजन प्रभु से प्रभु सेवा के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं चाहते । सच्‍चा भक्‍त सकाम नहीं होता बल्कि निष्‍काम होता है । उसे संसार की नहीं बल्कि प्रभु की सेवा की ही चाहत होती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 नवम्‍बर 2015
318 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 9
श्लो 47
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसपर श्रीभगवान प्रसन्‍न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब श्री ध्रुवजी का अपने पिता और सौतेली माता द्वारा अपमान हुआ तो वे दुःखी होकर प्रभु के साक्षात्‍कार करने हेतु निकल पड़े । तब उनका अपमान हुआ था ।

पर जब प्रभु ने श्री ध्रुवजी को दर्शन दिया और उनपर कृपा की उसके बाद उनके वही पिता और सौतेली माता उनका स्‍वागत करने रथ, हाथी, घोड़ों के साथ ब्राह्मण, मंत्री और बंधुजन को साथ लेकर वेदध्वनि करते हुए चले । सौतेली माता ने चिरंजीव हो, ऐसा आशीर्वाद देकर उन्‍हें गले से लगाया । पिता ने आनंद से निकले आंसुओं से मानो उन्‍हें नहला दिया ।

जिन्‍होंने उनका अपमान किया था वे ही अब उनका सम्‍मान करने लगे क्‍योंकि प्रभु के प्रसन्‍न होते ही प्रतिकूल संसार भी अनुकूल हो जाता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 नवम्‍बर 2015
319 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 11
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
एकमात्र वही संसार को रचता, पालता और नष्‍ट करता है ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वाक्‍य श्री मनुजी ने श्री ध्रुवजी से कहे ।

संसार की रचना करने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । संसार में जो भी रचना हुई है उसका संरक्षण करने वाले भी एकमात्र प्रभु ही हैं । संसार को प्रलय काल में नष्‍ट करने वाले भी प्रभु ही हैं ।

जब हमें इस तथ्‍य पर पूर्ण विश्‍वास हो जाता है तो हमारा मिथ्‍या अहंकार नष्‍ट हो जाता है कि हमने कुछ रचना की है । हमारा यह भी अहंकार नष्‍ट हो जाता है कि किसी रचना का संरक्षण हम कर रहे हैं क्‍योंकि रचना करने वाले और उस रचना का संरक्षण करने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं । हमें दोनों अहंकार नहीं रखने चाहिए कि हमने कोई रचना की है अथवा किसी रचना का संरक्षण कर रहे हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 दिसम्‍बर 2015
320 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 11
श्लो 27
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे अभक्‍तों के लिए मृत्युरूप और भक्‍तों के लिए अमृतरूप हैं तथा संसार के एकमात्र आश्रय हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री मनुजी ने श्री ध्रुवजी से कहे ।

प्रभु अभक्‍तों के लिए मृत्युरूप हैं और भक्‍तों के लिए अमृतरूप हैं । प्रभु ही संसार के एकमात्र आश्रय हैं यानी संसार एकमात्र प्रभु पर ही आश्रित है ।

जो जैसी भावना रखता है प्रभु उसे उसी रूप में दिखते हैं । श्री रामचरितमानसजी में भगवती सीता माता के स्वयंवर के समय एवं श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु श्री कृष्णजी की पाण्‍डवों द्वारा अग्रपूजा के समय और श्री महाभारतजी में पाण्‍डवों के दूत बन कर गए प्रभु श्री कृष्णजी को दुष्‍ट दुर्योधन द्वारा पकड़ने का प्रयास करने के समय वहाँ उपस्थित दुष्‍ट राजाओं को प्रभु कालरूप में दिखे एवं वहाँ उपस्थित भक्‍तों को प्रभु अमृतरूप में दिखे । एक ही समय दुष्‍ट पक्ष को प्रभु कालरूप में दिखते हैं और भक्‍त पक्ष को प्रभु प्रिय रूप में दर्शन देते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 दिसम्‍बर 2015
321 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 11
श्लो 28-29
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्‍यमुक्‍त परमात्‍मा को अध्‍यात्‍मदृष्टि से अपने अंतःकरण में ढूंढ़ों । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन श्री मनुजी ने श्री ध्रुवजी से कहे ।

प्रभु अद्वितीय हैं, अविनाशी हैं और नित्‍यमुक्‍त हैं । इन विशेषणों के बाद एक बड़ा तथ्‍य उपरोक्‍त श्‍लोक में प्रतिपादित किया गया है ।

आध्यात्मिक दृष्टि से प्रभु को बाहर ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है क्‍योंकि प्रभु हमारे अंतःकरण में विराजमान हैं इसलिए प्रभु की खोज हमारे भीतर होनी चाहिए । प्रभु से जब भी जीव का साक्षात्‍कार होता है वह भीतर होता है, बाहर नहीं । यह बहुत महत्‍वपूर्ण तथ्‍य है । बाहर भटकने से प्रभु नहीं मिलेंगे । अंतःकरण की गहराई में सुदृढ़ प्रेमाभक्ति से प्रभु को खोजेंगे तो प्रभु वहाँ अवश्‍य मिलेंगे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 दिसम्‍बर 2015
322 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 12
श्लो 06
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके चरणकमल ही सबके लिए भजन करने योग्‍य हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश श्री कुबेरजी ने श्री ध्रुवजी को दिए ।

यहाँ ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि धन के देवता श्री कुबेरजी ने धन की नहीं बल्कि भजन की महिमा का बखान किया है । श्री कुबेरजी उपदेश देकर श्री ध्रुवजी को कहते हैं कि प्रभु के श्रीकमलचरण ही सबके लिए भजन करने योग्‍य हैं ।

हम कलियुग में धन के पीछे भागते हैं और भजन करना भूल जाते हैं । यहाँ धन के देवता श्री कुबेरजी भजन करने का उपदेश करते हैं । जीव को यह समझना चाहिए कि मानव जीवन भजन हेतु ही मिला है और इसका सर्वोत्‍तम उपयोग प्रभु का भजन करके ही किया जा सकता है और ऐसा ही किया जाना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 दिसम्‍बर 2015
323 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 12
श्लो 08
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... महामति ध्रुवजी ने उनसे यही मांगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्‍ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्‍य सहज ही दुस्‍तर संसार सागर को पार कर जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन ऋषि श्री मैत्रेयजी ने श्री विदुरजी से कहे ।

यहाँ ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि धन के देवता श्री कुबेरजी ने धन की मांग करने पर नहीं बल्कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लिए हुए जब श्री ध्रुवजी को देखा तो उन्‍होंने कहा कि ऐसा करने वाला अवश्‍य ही वरदान पाने योग्‍य है । तब श्री कुबेरजी ने प्रसन्‍न होकर श्री ध्रुवजी को वर मांगने को कहा । एक सिद्धांत है कि वरदान उसे ही मिलता है जो प्रभु के समीप पहुँचता है ।

श्री ध्रुवजी ने वर में क्‍या मांगा यह भी ध्‍यान देने योग्‍य है । उन्‍होंने धन के देवता श्री कुबेरजी से धन की मांग नहीं की बल्कि मांगा कि उन्‍हें प्रभु की अखण्‍ड स्मृति बनी रहें और उनकी भक्ति निरंतर कायम रहे क्‍योंकि संसार सागर से पार उतरने का यही सबसे सहज साधन है । सच्‍चा भक्‍त माया नहीं बल्कि मायापति प्रभु की कृपा मांगता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 दिसम्‍बर 2015
324 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 12
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्‍णुलोक का अधिकार प्राप्‍त किया है, जो औरों के लिए बड़ा दुर्लभ है .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु के पार्षद श्री सुनन्‍दजी और श्री नन्‍दजी ने श्री ध्रुवजी को कहे ।

जब श्री ध्रुवजी राजसिंहासन अपने पुत्र को सौंपकर श्री बद्रिकाश्रम जाकर अपनी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर प्रभु चिंतन में लीन हो गए तो उन्‍होंने आकाश से दिव्‍य विमान को उतरते देखा । उसमें प्रभु के पार्षद श्री ध्रुवजी को प्रभु के धाम ले जाने के लिए आए थे ।

प्रभु के पार्षदों ने जो कहा वह ध्‍यान देने योग्‍य है । उन्‍होंने श्री ध्रुवजी से कहा कि भक्ति के प्रभाव से आपने प्रभु के लोक का अधिकार प्राप्‍त कर लिया है जो दूसरों के लिए अति दुर्लभ है । एक सिद्धांत है कि प्रभु के समीप जाने का अधिकार, प्रभु के लोक जाने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ प्रभु भक्ति के बल पर ही प्राप्‍त किया जा सकता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 दिसम्‍बर 2015
325 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 12
श्लो 46
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवत् भक्‍त ध्रुवजी के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्‍हें भगवान की भक्ति प्राप्‍त होती है, जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन ऋषि श्री मैत्रेयजी ने श्री विदुरजी से कहे ।

ऋषि श्री मैत्रेयजी कहते हैं कि जो भगवत् भक्‍त के पवित्र चरित्र को बार-बार सुनता है उन्‍हें भगवान की भक्ति प्राप्‍त होती है जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है ।

दो बातें ध्‍यान देने योग्‍य हैं । पहला, भगवत् भक्‍त का चरित्र सुनने से हमारे भीतर प्रभु भक्ति जागृत होती है क्‍योंकि उन भक्‍त पर भक्ति का प्रभाव देखकर हम उन भगवत् भक्‍त की भक्ति का अनुसरण करते हैं । इसलिए श्रीमद् भागवतजी महापुराण में प्रभु के अवतारों के साथ-साथ भगवत् भक्तों के बहुत सारे चरित्रों का समावेश है । दूसरी बात, एक शाश्वत सिद्धांत है कि प्रभु की भक्ति प्राप्‍त होने से सभी दुःखों का स्वतः ही नाश हो जाता है । इसलिए प्रभु भक्तों का पवित्र चरित्र सुनना चाहिए जिससे उनके जीवन के भक्ति भाव को देखकर हमारे भीतर भी प्रभु भक्ति के बीज अंकुरित हों ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 दिसम्‍बर 2015
326 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 12
श्लो 51
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो लोग भगवन्‍मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं, उन्‍हें जो कोई उसे प्रदान करता है, उन दीनवत्‍सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन ऋषि श्री मैत्रेयजी ने श्री विदुरजी से कहे ।

सबसे बड़ी भलाई हम किसी भी जीव की तब करते हैं जब हम उसे प्रभु भक्ति मार्ग की तरफ मोड़ देते हैं । सबसे बड़ा दान भक्ति का दान है ।

उपरोक्‍त श्‍लोक में इसी बात का प्रतिपादन मिलता है । श्‍लोक में कहा गया है कि जो भगवत् मार्ग से अनभिज्ञ हैं उन्‍हें जो भी भगवत् मार्ग पर लाता है उस पर देवता भी अनुग्रह करते हैं । प्रभु से जीव को जोड़ना सबसे बड़ा सत्कर्म है । सभी संतों ने अपने जीवन काल में भक्ति की है और दूसरे जीवों को भी प्रभु भक्ति करने की प्रेरणा देने का प्रयास किया है । इसके फलस्‍वरूप उन्‍होंने अपने जीवन को सफल किया है एवं भगवत् अनुग्रह को प्राप्‍त किया है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 दिसम्‍बर 2015
327 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 13
श्लो 34
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भक्‍त जिस-जिस वस्‍तु की इच्‍छा करता है, श्रीहरि उसे वही-वही पदार्थ देते हैं । उनकी जिस प्रकार आराधना की जाती है उसी प्रकार उपासक को फल भी मिलता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यहाँ दो सिद्धांतों का प्रतिपादन मिलता है । पहला सिद्धांत है कि अगर भक्ति पूर्ण है तो भक्‍त जिस-जिस वस्‍तु की इच्‍छा करता है, प्रभु उसे वह पदार्थ प्रदान करते हैं । प्रभु भक्‍त की हर जरूरत की पूर्ति करते हैं । यह प्रभु का संकल्‍प है कि भक्‍त की पूरी जिम्मेदारी प्रभु उठाते हैं ।

दूसरा सिद्धांत यह है कि जिस प्रकार आराधना की जाती है प्रभु उसी प्रकार उपासक को उसका फल प्रदान करते हैं । आराधना में जितना समर्पण होता है उसका फल उतना ही लाभप्रद होता है । इसलिए हमें प्रभु की आराधना बड़ी तन्‍मयता से करनी चाहिए, तभी आराधना का पूर्ण फल प्राप्‍त होगा ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 जनवरी 2016
328 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 13
श्लो 48
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ठीक वैसे ही जैसे योग का यथार्थ रहस्‍य न जानने वाले पुरुष अपने हृदय में छिपे हुए भगवान को बाहर खोजते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यहाँ एक बड़े भगवत् सिद्धांत का प्रतिपादन मिलता है । धर्मग्रंथों का सच्‍चा रहस्‍य यह है कि प्रभु हमारे अंतःकरण में विराजते हैं और उनकी खोज भीतर होनी चाहिए । प्रभु से जब भी जीव का साक्षात्‍कार होता है वह अंतर्मुखी होने पर ही होता है ।

प्रभु हमारे अंतःकरण में स्थित हैं । पर हम यह जानते हुए भी उनकी खोज बाहर करते हैं । प्रभु की खोज भीतर होनी चाहिए । इसलिए संत एकांत में रहते हैं और अपने भीतर स्थित प्रभु की अनुभूति करने का प्रयास करते हैं । जिन ऋषियों और संतों ने प्रभु का साक्षात्‍कार प्राप्‍त किया है उन्‍होंने अंतर्मुख होकर ही ऐसा किया है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 जनवरी 2016
329 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 15
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... शिष्‍ट पुरुष पवित्र कीर्ति श्रीहरि के गुणानुवाद के रहते हुए तुच्‍छ मनुष्‍यों की स्‍तुति नहीं किया करते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन महाराज श्री पृथुजी ने कहे जो विश्‍व के प्रथम राजा थे ।

जब महाराज श्री पृथुजी की प्रजा उनकी स्‍तुति करने लगी तब उन्‍होंने कहा कि आपको मेरी स्‍तुति करके अपनी वाणी को व्‍यर्थ नहीं करना चाहिए । स्‍तुति योग्‍य तो सिर्फ श्रीहरि प्रभु ही हैं । इसलिए शिष्‍ट पुरुष सिर्फ पवित्र कीर्ति रखने वाले श्रीहरि का ही गुणानुवाद करते हैं और वे तुच्‍छ मनुष्‍यों की स्‍तुति नहीं किया करते ।

यह एक भगवत् सिद्धांत है कि स्‍तुति मात्र और मात्र प्रभु की ही होनी चाहिए । इसलिए भक्‍तों ने, ऋषियों ने और संतों ने सिर्फ प्रभु का ही गुणानुवाद गाया है । प्रभु के अलावा किसी सांसारिक जीव की स्‍तुति करना अपनी वाणी को अपवित्र करने जैसा कृत्‍य है । "वैष्णव जन तो तेने कहिए" भजन में भक्‍त श्री नरसी मेहताजी ने स्‍पष्‍ट कहा है कि ताली सिर्फ श्रीराम नाम की ही बजनी चाहिए, अन्‍य किसी सांसारिक नाम की नहीं, तभी हम सच्‍चे वैष्णव हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 जनवरी 2016
330 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 17
श्लो 32
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप साक्षात सर्वेश्‍वर हैं, आपकी लीलाओं को अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते है ? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय माया से विक्षिप्‍त हो रही है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्‍लोक में बताया गया है कि प्रभु की श्रीलीलाओं को अजितेन्द्रिय लोग नहीं जान सकते । प्रभु की श्रीलीलाओं का मर्म सिर्फ ऋषिगण, भक्‍त और संत ही जान पाते हैं ।

प्रभु अनेक अवतारों में अनेक प्रकार की श्रीलीलाएं करते हैं । उन श्रीलीलाओं का रहस्‍य और मर्म सब नहीं जान पाते । जो भक्‍त नहीं हैं वे प्रभु की श्रीलीलाओं को सुनकर भ्रमित होते हैं क्‍योंकि उनकी बुद्धि माया के द्वारा विक्षिप्‍त होती है ।

इसलिए प्रभु की श्रीलीलाओं का मर्म और रहस्‍य जानने के लिए एक भक्‍त हृदय की जरूरत होती है । भक्‍त प्रभु की श्रीलीलाओं के मर्म तक पहुँच पाते हैं और उन श्रीलीलाओं के माध्‍यम से आनंद का अनुभव भी करते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 जनवरी 2016
331 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 09
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! जो पुरुष किसी प्रकार की कामना न रखकर अपने वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा नित्‍यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्‍त धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु ने महाराज श्री पृथुजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो जीव किसी प्रकार की कामना न रखकर धर्मपूर्वक नित्‍य प्रभु की श्रद्धापूर्वक आराधना करता है, उसका अंतःकरण धीरे-धीरे शुद्ध होता चला जाता है ।

संसार और माया के प्रभाव से हमारा अंतःकरण अशुद्ध होता है पर निष्‍काम होकर जो धर्म आचरण करते हुए प्रभु की श्रद्धापूर्वक आराधना करता है, उस जीव का अंतःकरण धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है । अंतःकरण को शुद्ध करने का इससे सरल उपाय अन्‍य कोई नहीं हो सकता । इसलिए प्रभु की श्रद्धापूर्वक आराधना अंतःकरण की शुद्धि के लिए हमें करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 जनवरी 2016
332 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मुझमें दृढ़ अनुराग रखने वाले बुद्धिमान पुरुष संपत्ति और विपत्ति प्राप्‍त होने पर कभी हर्ष-शोकादि विकारों के वशीभूत नहीं होते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उपरोक्‍त वचन महाराज श्री पृथुजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि प्रभु में दृढ़ विश्‍वास रखने वाला बुद्धिमान पुरुष अनुकूलता और प्रतिकूलता के समय हर्ष और शोक आदि से प्रभावित नहीं होता । क्‍योंकि प्रभु के सानिध्य के कारण विषयों से उसका संबंध नहीं रहता और वह समता में स्थित हो जाता है जिससे उसे परम शान्ति की अनुभूति होती है ।

इसलिए प्रभु में दृढ़ अनुराग रखना, प्रभु के सानिध्य में जीवनयापन करना और प्रभु की भक्ति करना जीवन जीने का सर्वोत्‍तम मार्ग है । इससे हर्ष और शोक हमें प्रभावित नहीं कर पाएंगे और इस कारण हमें परम शांति की सदैव अनुभूति होती रहेगी ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 जनवरी 2016
333 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 21
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रों में जल भर आने के कारण न तो भगवान का दर्शन ही कर सके और न तो कण्‍ठ गदगद हो जाने से कुछ बोल ही सके । उन्‍हें हृदय से आलिंगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्‍यों-के-त्‍यों खड़े रह गए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने जब महाराज श्री पृथुजी को उपदेश दिया तो उसके बाद महाराज श्री पृथुजी ने विश्‍वात्‍मा और भक्‍तवत्‍सल प्रभु का पूजन किया और भक्तिभाव में मग्‍न होकर प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ लिया ।

प्रभु उपदेश देने के बाद जाना चाहते थे पर महाराज श्री पृथुजी के वात्‍सल्‍य भाव ने उन्‍हें रोक लिया । ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि भक्तिभाव के कारण प्रभु को रुकना पड़ता है ।

महाराज श्री पृथुजी के नेत्रों में लगातार जल भर आने के कारण वे प्रभु दर्शन को बाधित करने लगे और कण्‍ठ गदगद होने के कारण वाणी बाधित हो गई । महाराज श्री पृथुजी ने प्रभु को अपने हृदय से आलिंगन कर पकड़े रखा और हाथ जोड़ कर ज्‍यों-के-त्‍यों खड़े रहे । यह भक्ति की एक सर्वोच्च अवस्‍था होती है जब भक्‍त भाव विभोर हो जाता है और उसे अपने शरीर की मर्यादा का भान नहीं रहता ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 जनवरी 2016
334 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 24
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसलिए मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिए, जिनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मेरा एक अत्‍यन्‍त प्रिय श्‍लोक जिसमें एक भक्‍त को प्रभु से क्‍या मांगना चाहिए उसका निरूपण किया गया है ।

जब प्रभु ने महाराज श्री पृथुजी को वरदान मांगने को कहा तो उन्‍होंने कहा कि भोगने योग्‍य विषयों को वे नहीं मांगना चाहते । प्रभु से तुच्‍छ विषय कभी नहीं मांगने चाहिए । महाराज श्री पृथुजी ने मोक्ष लेने से भी मना कर दिया ।

महाराज श्री पृथुजी ने प्रभु को दस हजार कान देने की प्रार्थना की जिससे वे नित्‍य प्रभु के श्रीलीला गुणों को सुन सकें । प्रभु की पवित्र कीर्ति-कथा सुनने का जो परमानंद है उसकी तुलना ब्रह्माण्‍ड में किसी से नहीं हो सकती । प्रभु की कथा प्रभु के सद्गुण, स्‍वभाव, प्रभाव और ऐश्‍वर्य को बताती है और हमारे भीतर प्रभु के लिए प्रेम और भक्ति का निर्माण करती है । इसलिए जीव को जीवन में निरंतर प्रभु की कथा सुनने का प्रयास करते रहना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 जनवरी 2016
335 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 29
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवन ! मुझे तो आपके चरणकमलों का निरंतर चिंतन करने के सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन महाराज श्री पृथुजी ने प्रभु से कहे ।

महाराज श्री पृथुजी कहते हैं कि सत्‍पुरुष प्रभु के श्रीकमलचरणों का निरंतर चिंतन करते हैं । उनका इसके अलावा अन्‍य कोई प्रयोजन नहीं होता । उनका सम्‍पूर्ण जीवन प्रभु के श्रीकमलचरणों के चिंतन में ही व्‍यतीत होता है ।

ऐसे कितने ही श्रेष्‍ठ महात्‍मा हुए हैं जिन्‍होंने जीवन भर प्रभु के श्रीकमलचरणों के अलावा अन्‍य किसी का चिंतन ही नहीं किया । यहाँ तक कि उन महात्‍माओं ने प्रभु के भी श्रीकमलचरणों के अलावा नजर ऊपर उठाकर प्रभु के अन्‍य श्रीअंगों का भी ध्‍यान नहीं किया । पूरा जीवन प्रभु के श्रीकमलचरणों के ध्‍यान और चिंतन में ही व्‍यतीत किया । उन्‍होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों को जीवन भर के लिए पकड़ लिया और उन्हीं में रम कर जीवन काल में परमानंद का अनुभव करते हुए अंतकाल में दिव्‍य गति को प्राप्‍त किया ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 जनवरी 2016
336 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध)
अ 20
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं भी बिना किसी इच्‍छा के आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि "वर मांग" सो आपकी इस वाणी को तो मैं संसार को मोह में डालने वाली ही मानता हूँ .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन महाराज श्री पृथुजी ने प्रभु से कहे ।

महाराज श्री पृथुजी कहते हैं कि मेरा उद्देश्य बिना किसी इच्‍छा के प्रभु का भजन करने का है और प्रभु ने जो वरदान मांगने को कहा है मैं उस वरदान को नहीं लेना चाहता । क्‍योंकि वरदान पाकर मैं फिर संसार के मोह में फंस जाऊँगा ।

सच्‍चे भक्‍त प्रभु से चारों पुरुषार्थ यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की भी कामना नहीं करते । प्रभु के भजन और भक्ति के आगे वे हंसते-हंसते चारों पुरुषार्थों का त्‍याग कर देते हैं । जिसे प्रभु से प्रेम हो जाता है उसके लिए चारों पुरुषार्थ गौण हो जाते हैं । चारों पुरुषार्थों को प्राप्‍त करके भी वह परमानंद नहीं मिलता है जो प्रभु के भजन और भक्ति में मिलता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 जनवरी 2016