क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
289 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अब भी आपको प्रसन्न करने योग्य मुझमें कोई गुण नहीं है, बस, आप अपने ही उदारतापूर्ण बर्ताव से मुझपर प्रसन्न हों ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वाक्य श्री दक्ष प्रजापतिजी ने बकरे का शीश लगने के बाद स्तुति में प्रभु श्री शंकरजी से कहे ।
श्री दक्ष प्रजापतिजी की प्रभु से द्रोह करने की गलती के कारण श्री वीरभद्रजी ने उनका शीश काट कर यज्ञशाला में डाल दिया था । फिर देवताओं के आग्रह करने पर प्रभु श्री शंकरजी ने उन्हें माफ किया और पुनः नवजीवन दिया ।
तब श्री दक्ष प्रजापतिजी ने स्तुति करते हुए प्रभु से कहा कि प्रभु को प्रसन्न करने वाले कोई गुण यद्यपि उसमें नहीं हैं पर फिर भी प्रभु उदारतापूर्वक उन पर प्रसन्न हों । हमारे भीतर भी प्रभु को प्रसन्न करने के कोई गुण नहीं होते हैं पर फिर भी यह प्रभु की उदारता है कि वे भक्त पर प्रसन्न रहते हैं । प्रभु अपने भक्तों के अनुकूल रहते हैं एवं सदा उन पर प्रसन्न रहते हैं, यह प्रभु का स्वभाव है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 अगस्त 2015 |
290 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित आठ भुजाएं थीं, जो भक्तों की रक्षा के लिए सदा उद्यत रहती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की आठ श्रीभुजाएं हैं और सभी भक्तों की रक्षा के लिए तत्पर रहती हैं ।
भक्त सिर्फ प्रभु पर आश्रित होता है इसलिए भक्त की रक्षा की पूरी जिम्मेदारी प्रभु लेते हैं । प्रभु इस जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हैं और भक्त की रक्षा के लिए हर समय उपलब्ध रहते हैं । भक्त पर विपत्ति पड़ते ही प्रभु भक्त की रक्षा के लिए दौड़ते हैं ।
भक्त को प्रभु अपने बालक के रूप में देखते हैं और जैसे एक पिता अपने पुत्र की रक्षा करता है वैसे ही परमपिता अपने भक्तों की रक्षा सदैव किया करते हैं । प्रभु का प्रण है कि हर परिस्थिति में वे अपने भक्तों की रक्षा और सहायता करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 अगस्त 2015 |
291 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण इस संसार में सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाले हैं, और जिन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वाक्य प्रभु श्री शिवजी ने प्रभु श्री विष्णुजी से कहे ।
प्रभु को वरदायक कहकर संबोधित किया गया है यानी वर देने वाले सिर्फ प्रभु ही हैं ।
प्रभु के श्रीकमलचरण संसार में सकाम पुरुषों की सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति करने वाले होते हैं । जो सकामता के लिए प्रभु से इच्छा करता है प्रभु उसकी वह इच्छा पूरी करते हैं ।
सकामता चाहने वाले भी प्रभु का पूजन करते हैं और निष्कामता चाहने वाले मुनिजन भी प्रभु का ही आदरपूर्वक पूजन करते हैं । सकामता और निष्कामता दोनों ही स्थिति में अनिवार्य रूप से प्रभु का ही पूजन होता है और दोनों को अपना-अपना फल प्राप्त होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 अगस्त 2015 |
292 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... दूसरे लोग वैभव के लिए जिन लक्ष्मीजी की उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवा में लगी रहती हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषियों ने उपरोक्त वाक्य प्रभु श्री विष्णुजी से कहे ।
ऋषि कहते हैं कि वैभव पाने के लिए जिन भगवती लक्ष्मी माता की लोग उपासना करते हैं वे श्रीलक्ष्मी माता स्वयं प्रभु की सेवा में लगी रहती हैं ।
भगवती लक्ष्मी माता प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा निरंतर करती हैं । उन्होंने अपना स्थान प्रभु के श्रीकमलचरणों में रखा हुआ है यानी जो भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकेगा उन पर भगवती लक्ष्मी माता अनुग्रह करेंगी ।
दूसरा, जब हम प्रभु श्री नारायणजी (प्रभु श्री विष्णुजी) की उपासना कर उन्हें प्रसन्न करते हैं तो श्री लक्ष्मीनारायणजी स्वरूप में प्रभु श्री नारायणजी के साथ भगवती लक्ष्मी माता स्वतः आती हैं और चिरकाल तक रहती हैं । पर अकेले भगवती लक्ष्मी माता को बुलाने पर वे प्रभु श्री नारायणजी के साथ नहीं होने के कारण ज्यादा समय नहीं रुकती । इसलिए हमें श्री लक्ष्मीनारायणजी स्वरूप में प्रभु और माता दोनों की ही उपासना करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 अगस्त 2015 |
293 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्ति से आपकी सेवा करते हैं, उनकर भी आप कृपा कीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु भक्तवत्सल हैं और भक्तों पर कृपा करने वाले हैं । यहाँ प्रभु की स्तुति में यही बात कही गई है कि जो प्रभु को स्वामी मानकर अनन्य भक्ति से प्रभु की सेवा करते हैं उन पर प्रभु कृपा करते हैं ।
हमें प्रभु से भक्त और स्वामी का रिश्ता बनाना चाहिए और प्रभु की अनन्य भक्ति करते हुए प्रभु की सेवा करनी चाहिए । ऐसा करने पर निश्चित रूप से प्रभु हम पर कृपा करेंगे ।
स्वामी और भक्त का रिश्ता बड़ा अद्वितीय होता है और भक्ति द्वारा ऐसा रिश्ता बनते ही प्रभु अपने भक्त पर कृपा बरसाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 अगस्त 2015 |
294 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... किन्तु ऐसी अवस्था में भी जो आपके कथामृत का सेवन करता है, वह इस अंतःकरण के मोह को सर्वथा त्याग देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मानव देह पाकर जीव प्रभु की माया से मोहित रहता है और विषयों की लालसा करता है । यह मानव का स्वभाव है कि माया में फँसकर विषयों की लालसा करना ।
पर जो जीव ऐसी अवस्था में भी प्रभु के कथामृत का पान करते हैं वे अपने अंतःकरण के मोह को सर्वथा के लिए त्याग देते हैं । वे माया के प्रभाव से निकल पाते हैं और विषयों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं ।
इसलिए हमें चाहिए कि प्रभु के कथारूपी अमृत का सेवन करते रहें जिससे माया और विषयों के प्रभाव से हम बच सकें ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 अगस्त 2015 |
295 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर और हाथ आदि अंगों में "ये मुझसे भिन्न हैं" ऐसी बुद्धि कभी नहीं रखता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्र को मुझसे भिन्न नहीं देखता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वाक्य में प्रभु कहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य अपने शरीर के अंगों को अपने से भिन्न नहीं मानता, उसी प्रकार प्रभु के सच्चे भक्त जगत को प्रभु से भिन्न नहीं मानते ।
जगत के प्रत्येक प्राणिमात्र में प्रभु का वास है । प्रभु का भक्त हर जीव की आत्मा में स्थित अपने प्रभु के दर्शन करता है । इसलिए भक्त सभी प्राणिमात्र से प्रेम करता है ।
संतों और भक्तों ने जगत को प्रभुमय देखा है और जगत में प्रभु की अनुभूति की है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 सितम्बर 2015 |
296 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 54 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हम - ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर - तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं, अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शांति प्राप्त करता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु उपरोक्त वाक्य में कहते हैं कि प्रभु हर रूप में एक ही हैं । जो प्रभु के विभिन्न रूपों को एकरूप देखता है और उनमें भेद नहीं करता वही शांति प्राप्त करता है ।
प्रभु के विभिन्न रूपों के माध्यम से हम एक ही प्रभु तक पहुँचते हैं । प्रभु अनेक नहीं, एक ही हैं पर भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए विभिन्न रूप धारण करते हैं ।
जिस भक्त की जैसी इच्छा होती है प्रभु वैसा रूप और नाम को धारण करते हैं । पर अंत में किसी भी रूप में की गई प्रभु पूजा, प्रभु सेवा और प्रभु भक्ति एक ही प्रभु तक पहुँचती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 सितम्बर 2015 |
297 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 59 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस प्रकार प्रलयकाल में लीन हुई शक्ति सृष्टि के आरम्भ में फिर ईश्वर का ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्री अम्बिकाजी ने उस जन्म में भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान शंकरजी को ही वरण किया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रलय काल में सारी शक्तियां प्रभु में लीन हो जाती हैं और सृष्टि के आरम्भ में फिर सारी शक्तियां प्रभु का आश्रय लेकर जीवन्त हो उठती हैं । उसी प्रकार भगवती अम्बे माता ने सतीरूपी अपने शरीर का त्याग किया और पार्वतीरूपी शरीर पाकर जन्म से ही अपने प्रियतम प्रभु श्री शंकरजी का एकमात्र आश्रय लिया ।
जीव को भी जन्म से प्रभु का आश्रय लेना चाहिए । भगवती पार्वती माता ने लोक शिक्षा के लिए ऐसा करके दिखाया और बचपन से ही प्रभु को पाने के लिए प्रभु की भक्ति की ।
जीव को भी प्रभु को पाने के लिए प्रभु भक्ति करनी चाहिए तभी उसका मानव जीवन सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 सितम्बर 2015 |
298 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 7
श्लो 61 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्री महादेवजी का यह पावन चरित्र यश और आयु को बढ़ाने वाला तथा पाप पुंजो को नष्ट करने वाला है । जो पुरुष भक्तिभाव से इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशि का नाश कर देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री मैत्रेयजी ने उपरोक्त वचन श्री विदुरजी को कहे ।
प्रभु श्री महादेवजी का पावन चरित्र यश और आयु को बढ़ाने वाला है और पापों का नाश करने वाला है । जो उनके पावन चरित्र को सुनता है उसके पापों का क्षय होता है और कीर्ति और आयु बढ़ती है ।
प्रभु के दिव्य चरित्र का भक्तिभाव से नित्य श्रवण और कीर्तन करना चाहिए । यह पाप को नाश करने का अचूक साधन है ।
प्रभु श्री महादेवजी देवों के देव हैं और आशुतोष है और महामृत्युंजय भी हैं । उनके श्रीचरित्र का भक्तिभाव से श्रवण करने वालों के सभी अभीष्ट की पूर्ति वे करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 सितम्बर 2015 |
299 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसी प्रकार तेरे दादा स्वायम्भुव मनु ने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा अनन्य भाव से उन्हीं भगवान की आराधना की थी, तभी उन्हें दूसरों के लिए अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति हुई ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन माता सुनीतिजी ने नन्हें भक्तराज श्री ध्रुवजी से कहे ।
प्रभु की आराधना करने से दूसरों के लिए अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति होती है । जीवन में मनुष्य को इन तीन चीजों की ही जरूरत होती है । संसार में लौकिक सुख, अंतरात्मा में अलौकिक सुख और जीवन के अंत में मोक्षसुख । इन तीनों की प्राप्ति प्रभु की आराधना से ही संभव है क्योंकि लौकिक सुख की प्राप्ति करवाने वाले भी प्रभु हैं, अलौकिक सुख की प्राप्ति करवाने वाले भी प्रभु हैं और मोक्षसुख को देने वाले भी प्रभु ही हैं ।
इसलिए जीव को अनन्य भाव से प्रभु की आराधना करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 सितम्बर 2015 |
300 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
बेटा ! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान का ही आश्रय ले । जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने की इच्छा करने वाले मुमुक्षु लोग निरंतर उन्हीं के चरणकमलों के मार्ग की खोज किया करते हैं । तू स्वधर्मपालन से पवित्र हुए अपने चित्त में श्रीपुरुषोत्तम भगवान को बैठा ले तथा अन्य सबका चिंतन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन माता सुनीतिजी ने नन्हें भक्तराज श्री ध्रुवजी से कहे ।
हमें भक्तवत्सल प्रभु का ही आश्रय लेना चाहिए क्योंकि वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले हैं । इसलिए मुमुक्षु लोग निरंतर प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही आश्रय लेते हैं ।
हमें प्रभु को अपने चित्त में बैठाकर अन्य सभी का चिंतन छोड़कर केवल प्रभु का ही भजन करना चाहिए । यह बात बहुत महत्वपूर्ण है । पर हम ठीक इसका उल्टा करते हैं । हम अपने चित्त में संसार को बसाते हैं और इस तरह प्रभु को भूल जाते हैं, उनका भजन भूल जाते हैं । अन्य सभी का चिंतन करने पर प्रभु का चिंतन नहीं होगा । अन्य सभी का चिंतन छोड़ने पर ही प्रभु का चिंतन संभव होगा ।
इसलिए हमें अन्य सभी का चिंतन छोड़कर केवल प्रभु का चिंतन और भजन करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 सितम्बर 2015 |
301 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 41 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस पुरुष को अपने लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिए उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने नन्हें श्री ध्रुवजी से कहे ।
धर्म की पूर्ति, अर्थ की पूर्ति, कामनाओं की पूर्ति और मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र उपाय श्रीहरि के श्रीकमलचरणों की सेवा है ।
मनुष्य को भिन्न-भिन्न प्रकार की अभिलाषाएं होती है । किसी को धर्म की, किसी को धन की, किसी को अन्य किसी कामना पूर्ति की अभिलाषा होती है । जीवन के अंत समय में जीव को मोक्ष की अभिलाषा होती है । इन सभी की पूर्ति का बस एक ही उपाय है वह प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा है । इसलिए जीव को प्रभु के श्रीकमलचरणों की मानसिक सेवा नित्य करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 सितम्बर 2015 |
302 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान के नेत्र और मुख निरंतर प्रसन्न रहते हैं, उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिए उद्यत हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने नन्हें श्री ध्रुवजी से कहे ।
प्रभु के श्रीनेत्र और श्रीमुख सदैव प्रसन्न मुद्रा में रहते हैं । यह प्रभु का स्वभाव है । उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे प्रसन्नतापूर्वक भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए तत्पर हैं ।
प्रभु के श्रीनेत्र कृपा की वर्षा करते हैं । संत उन्हें कृपानेत्र कहते हैं जिनका काम ही कृपा की वर्षा करना है । प्रभु जिधर भी देखते हैं उधर ही कृपा बरसाते हैं ।
प्रभु का श्रीमुख हमेशा प्रसन्न मुद्रा में रहता है । इसलिए प्रभु के मंदिर में या चित्र में सदैव प्रभु का श्रीमुख प्रसन्नतापूर्वक मुस्कराते हुए मिलेगा मानो वे प्रसन्नतापूर्वक भक्तों को वर देने के लिए तत्पर हों ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 सितम्बर 2015 |
303 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे प्रणतजनों को आश्रय देनेवाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और दया के समुद्र हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने भक्तराज श्री ध्रुवजी को कहे ।
यहाँ देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु के चार सद्गुणों की चर्चा की है । पहला, प्रभु प्राणियों को आश्रय देने वाले हैं । जीव का अंतिम आश्रय प्रभु ही होते हैं । दूसरा, प्रभु अपार सुखदायक हैं । सुख की पराकाष्ठा जिसे हम परमानंद कहते हैं वह प्रभु के सानिध्य में ही मिलता है । तीसरा, प्रभु शरणागतवत्सल हैं । प्रभु का प्रण है कि वे शरणागत को अभय देते हैं और उसकी रक्षा करते हैं । चौथा, प्रभु दया के समुद्र हैं । दया और कृपा करना प्रभु का स्वभाव है ।
ऐसे सद्गुणों से युक्त प्रभु की भक्ति करने की प्रेरणा देवर्षि प्रभु श्री नारदजी भक्तराज श्री ध्रुवजी के माध्यम से हम सभी को देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 अक्टूबर 2015 |
304 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शांत तथा मन और नयनों को आनंदित करने वाला है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने नन्हें श्री ध्रुवजी को कहे ।
प्रभु का स्वरूप बड़ा दर्शनीय है यानी वह नित्य दर्शन करने योग्य है । प्रभु का स्वरूप बड़ा शांत है जो हमारे मन और नयनों को आनंदित करने वाला है ।
हमारे मन और नयनों को कोई सांसारिक वस्तु आनंदित नहीं कर सकती । शाश्वत सत्य यही है कि उन्हें सिर्फ प्रभु की झांकी ही आनंदित कर सकती है । इसलिए मन और नयन को संसार से हटा कर उन्हें प्रभु पर केंद्रित करना चाहिए । पर हम ठीक इसका उल्टा करते हैं । हम अपने मन और नयन को प्रभु से हटाकर उसे संसार की तरफ भगाते हैं ।
इसलिए भक्ति के द्वारा अपने सभी इन्द्रियों को प्रभु से जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 अक्टूबर 2015 |
305 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग प्रभु का मानस-पूजन करते हैं, उनके अंतःकरण में वे हृदयकमल की कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित करके विराजते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्लोक देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने नन्हें श्री ध्रुवजी को कहे ।
यहाँ मानस पूजा का महत्व बताया गया है । हम घर में, मंदिर में प्रभु विग्रह यानी मूर्ति की या फोटो की पूजा करते हैं । पर जहाँ ऐसा संयोग नहीं हो वहाँ मानस पूजा करने का विधान है । मानस पूजा का एक जीवंत उदाहरण भगवती सीता माता का है जो लंका की अशोक वाटिका में प्रभु की मानस पूजा किया करती थी ।
मानस पूजा करने वाले के हृदय कमल पर प्रभु अपने श्रीकमलचरणों को स्थापित कर वहाँ विराजते हैं । मानस पूजा का इतना बड़ा महत्व है कि बड़े-बड़े ऋषि, मुनि और संतों ने प्रभु की मानस पूजा की है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 अक्टूबर 2015 |
306 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 52 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान की मंगलमयी मूर्ति का इस प्रकार निरंतर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानंद में डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँ से लौटता नहीं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त श्लोक देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने भक्तराज श्री ध्रुवजी को कहे ।
श्लोक में मानस पूजा का महत्व बताया गया है और मानस पूजा में प्रभु की मंगलमयी मूर्ति का हृदय में निरंतर ध्यान करने की बात कही गई है जिससे हमारा मन शीघ्र ही परमानंद में डूब जाएगा और तल्लीन हो जाएगा ।
प्रभु के एक-एक श्रीअंगो का ध्यान मानस पूजा के तहत करना चाहिए और मन को वहाँ एकाग्र करना चाहिए । प्रभु के श्रीअंग इतने मनोहर हैं कि हमारा मन उनमें तल्लीन हो जाएगा और परमानंद की अनुभूति करने लगेगा ।
मन को संसार में नहीं लौटने देने का सबसे सरल उपाय यही है कि उसे प्रभु में लगाए रखना । इससे उसको परमानंद की प्राप्ति भी होगी और उसका कल्याण भी होगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 अक्टूबर 2015 |
307 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 57 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया माया के द्वारा अपनी ही इच्छा से अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करने वाले हैं, उनका मन-ही-मन चिंतन करता रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने नन्हें श्री ध्रुवजी को दिया ।
देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि पुण्यकीर्ति प्रभु अपनी माया के द्वारा अपनी इच्छा से अवतार लेकर मनोहर लीलाएं करते हैं । जीव को चाहिए कि प्रभु के उन दिव्य मनोहर चरित्रों का मन-ही-मन चिंतन करे ।
प्रभु की मंगलकारी लीलाओं का चिंतन करने से हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है और हमारे शुद्ध अंतःकरण में प्रभु की प्रेमाभक्ति जगती है । कलियुग में प्रभु की मनोहर लीलायुक्त कथा श्रवण का बड़ा महत्व है । इसलिए संतजन श्रीहरि चर्चा और सत्संग में प्रभु की मनोहर चरित्र वाली श्रीलीलाओं का चिंतन, कथन और श्रवण करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 अक्टूबर 2015 |
308 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 8
श्लो 59-60 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार जब हृदयस्थित हरि का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छल भाव से भली भांति भजन करने वाले अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष रूप कल्याण प्रदान करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने भक्तराज श्री ध्रुवजी को कहे ।
जब हम अपने हृदय में स्थित प्रभु का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं तो प्रभु ऐसे निश्छलभाव से भक्ति करने वाले भक्त के भक्तिभाव को बढ़ा देते हैं । इसके साथ ही उस भक्त को प्रभु उसके इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का दान भी देते हैं ।
सबसे महत्वपूर्ण बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि निश्छल भाव से भक्ति करने वाले भक्त के भक्तिभाव को प्रभु बढ़ाते हैं । यानी भक्तिमार्ग में आगे चलने का सामर्थ्य भी उसे प्रभु ही देते हैं । इसलिए ही संतों ने सभी साधनों में भक्ति को अग्रणी और श्रेष्ठ बताया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 अक्टूबर 2015 |
309 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 9
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं, आप ही मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोई हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं । मैं आप अंतर्यामी भगवान को प्रणाम करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नन्हें श्री ध्रुवजी ने प्रभु से कहे जब प्रभु उन्हें दर्शन देने आए ।
जब श्री ध्रुवजी ने अपने तप के बाद प्रभु के दर्शन पाए तो वे प्रभु की स्तुति करना चाहते थे पर कर नहीं पाए क्योंकि इतनी छोटी आयु में उन्हें पता नहीं था कि स्तुति कैसे की जाती है । प्रभु उनके मन की बात समझते थे और उन्होंने अपने दिव्य शंख को नन्हें श्री ध्रुवजी के गाल से छुआ दिया । फिर नन्हें श्री ध्रुवजी ने प्रभु की दिव्य स्तुति की ।
तब श्री ध्रुवजी ने अनुभव किया और स्तुति में कहा कि प्रभु सर्वशक्तिसम्पन्न हैं और प्रभु का तेज अंतःकरण में प्रवेश करता है तो वाणी सजीव हो जाती है और हाथ, पैर, कान और त्वचा समेत प्राण एवं सभी इन्द्रियां चेतना पाती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 नवम्बर 2015 |
310 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 9
श्लो 8 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नन्हें श्री ध्रुवजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री ध्रुवजी कहते हैं कि जगत के आरम्भ में प्रभु श्री ब्रह्माजी ने भी प्रभु का आश्रय लिया और सभी मुक्त पुरुष भी प्रभु के श्रीकमलचरणों का ही आश्रय लेते हैं । कोई भी कृतज्ञ पुरुष कभी भी प्रभु को नहीं भूलता है ।
हमें भी प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय जीवन में लेना चाहिए । जो प्रभु के श्रीकमलचरणों के आश्रय में रहेगा वह सदा सुरक्षित और आनंदित रहेगा और वह कभी भय से ग्रस्त नहीं होगा । जीव की सर्वोच्च गति भी यही है कि वह प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय ग्रहण करें । सभी श्रीग्रंथों में इसका प्रतिपादन मिलेगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 नवम्बर 2015 |
311 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 9
श्लो 9 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो लोग इस विषय सुख के लिए लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देने वाले कल्पतरु स्वरूप आपकी उपासना भगवत् प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गई है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नन्हें श्री ध्रुवजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
श्री ध्रुवजी कहते हैं कि जो लोग विषयों के सुख के पीछे भागते हैं और जो भगवान की उपासना विषय सुख प्राप्ति के हेतु से करते हैं उनकी बुद्धि निश्चित ही माया के द्वारा ठगी गई है ।
प्रभु की उपासना जन्म-मरण के बंधन को छुड़ाने के लिए और भगवत् प्राप्ति के लिए की जानी चाहिए । इस उद्देश्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी कारण से की हुई प्रभु उपासना को गौण माना गया है । इसलिए हमें प्रभु की भक्ति जन्म-मरण के चक्कर से सदैव के लिए मुक्त होने के लिए और भगवत् प्राप्ति के लिए ही करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 नवम्बर 2015 |
312 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 9
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप जगत के कारण, अखण्ड, अनादि, अनंत, आनंदमय, निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं । मैं आपकी शरण हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन नन्हें श्री ध्रुवजी ने प्रभु की स्तुति में कहे ।
यहाँ पर प्रभु के लिए छह विशेषण का प्रयोग किया गया है । प्रभु जगत के कारण स्वरूप हैं । जगत की उत्पत्ति, संचालन और विलय प्रभु करते हैं । प्रभु अखण्ड हैं यानी सदा स्थित रहने वाले हैं । प्रभु अनादि हैं यानी प्रभु का कोई आदि नहीं हैं । प्रभु अनंत हैं यानी प्रभु हर जगह हैं । प्रभु आनंदमय हैं यानी आनंद प्रदान करने वाले हैं । प्रभु निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं यानी प्रभु विकार रहित परब्रह्म हैं ।
एक ही श्लोक में इतनी सुन्दर प्रभु की यह दिव्य स्तुति है । हमें सदैव ऐसे प्रभु की शरण में रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 नवम्बर 2015 |