क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
265 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 30
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्य अपने कुटुम्ब का पेट पालने में जो अन्याय करता है, उसका दैवविहित कुफल वह नरक में जाकर भोगता है । उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो सर्वस्व लूट गया हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को दिए ।
प्रभु कहते हैं कि अपना कुटुम्ब पालने हेतु जीव जो अन्याय करता है उसका फल उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है । उसे यातना शरीर मिलता है और उसे नर्क के असंख्य कष्टों के भोगों को भोगना पड़ता है । जो-जो गलत कार्य उसने पृथ्वी पर किए हैं उसका कुफल उसे नर्क यातना के रूप में मिलता है ।
नर्क की यातनाएं उसे इतना व्याकुल कर देती है मानो उसका सर्वस्व ही लूट गया हो । वहाँ पर उसे बचाने के लिए उसका शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन, बन्धु कोई नहीं आता ।
इससे बचने का एकमात्र उपाय प्रभु की भक्ति है क्योंकि सच्चे भक्त को नर्क के दर्शन ही नहीं होते, वह तो सीधे प्रभु के धाम को जाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 मई 2015 |
266 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 30
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्य-जन्म मिलने के पूर्व जितनी भी यातनाएं हैं तथा शूकर-कूकरादि योनियों के जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रम से भोगकर शुद्ध हो जाने पर वह फिर मनुष्य योनि में जन्म लेता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्त उपदेश भगवती देवहूति माता को दिए ।
प्रभु कहते हैं कि पूर्व जन्म में किए पातक के कारण जितने भी नर्क हैं और जितनी भी यातनाएं हैं उन्हें भोगकर और फिर चौरासी लाख जन्मों के बाद जिसमें कूकर-शूकर आदि योनियां भी शामिल हैं, इन सबके बाद फिर मानव जीवन दोबारा मिलता है । विभिन्न नर्क एवं विभिन्न योनियों को भोगने के बाद शुद्ध होने पर फिर मनुष्य योनि में जन्म मिलता है ।
इतना दुर्लभ है मानव जन्म, प्रभु इस तथ्य का संकेत यहाँ पर करते हैं । इसलिए मिले हुए मानव जीवन को हमें व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए और इसका सदुपयोग प्रभु भक्ति करके करना चाहिए ।
प्रभु की सच्ची भक्ति करने वाले को न तो नर्क की यातनाएं भोगनी पड़ती है और न ही दोबारा जन्म ही लेना पड़ता है । इसलिए प्रभु भक्ति सर्वोच्च है जिसका आदर्श जीवन में स्थापित करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 मई 2015 |
267 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 31
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं बड़ा अधम हूँ, भगवान ने मुझे जो इस प्रकार की गति दिखाई है, वह मेरे योग्य ही है । वे अपनी शरण में आए हुए इस नश्वर जगत की रक्षा के लिए ही अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं, अतः मैं भी भूतल पर विचरण करने वाले उन्हीं के निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने गर्भ में पड़े जीव की दशा बताई है जो प्रभु से अरदास करता है कि उसे गर्भ से बाहर निकाले ।
जीव माता के गर्भ में मल-मूत्र के गड्ढे में पड़ा रहता है । वहाँ भूखे कीड़े उसे नोचते हैं । माता के खाए हुए कड़वे, तीखे, गर्म, नमकीन, खट्टे आदि उग्र पदार्थों का स्पर्श उसके शरीर को पीड़ा देता है । उसकी पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं । वह पिंजरे में बंद पक्षी के समान पराधीन और अंगों को हिलाने डुलाने में असमर्थ रहता है । उसका दम घुटता है और अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से वह प्रभु से कृपा की याचना करता है और वहाँ से मुक्ति मांगता है ।
वह प्रभु की शरण लेता है और जीवनभर प्रभु के शरणागत रहने का वचन देता है । फिर प्रभु दया करके उसे माता के गर्भ से मुक्ति देते हैं । बाहर आकर वह प्रभु को भूल जाता है और माया में उलझ जाता है ।
हमें चाहिए कि गर्भ में की गई हमारी प्रभु प्रार्थना को हम याद रखें और अपना जीवन प्रभु सेवा में अर्पित करें ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 मई 2015 |
268 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 31
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतः मैं व्याकुलता को छोड़कर हृदय में श्रीविष्णुभगवान के चरणों को स्थापित कर अपनी बुद्धि की सहायता से ही अपने को बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त यह संसार-दुःख फिर न प्राप्त हो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी कहते हैं कि जीव माता के गर्भ में बड़ी दयनीय स्थिति में रहता है ।
परंतु जब उसकी चिंतन की शक्ति जागृत होती है और अपने पूर्व जन्मों के कर्म उसे याद आते हैं तो वह व्याकुल हो उठता है । फिर व्याकुलता को छोड़कर अपने हृदय को प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थापित करता है और अपनी बुद्धि को भी भगवान में लगाने का संकल्प लेता है जिससे संसाररूपी समुद्र को पार कर सके और अनेक दोषों से युक्त होने पर भी दोबारा संसार सागर में नहीं आना पड़े ।
गर्भ में पड़ा जीव अपने सैकड़ों जन्मों के कर्म को याद कर और गर्भ की यातना को सहने पर अपना हृदय और अपनी बुद्धि प्रभु को समर्पित करने का निश्चय करके गर्भ से बाहर आता है ।
इसलिए गर्भ से बाहर आने पर हमें अपना हृदय और अपनी बुद्धि प्रभु को समर्पित करनी चाहिए तभी हमारा उद्धार संभव है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 मई 2015 |
269 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 31
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्म के सूत्र से बंधा रहने के कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसी के लिए यह तरह-तरह के कर्म करता रहता है, जिनमें बंध जाने के कारण इसे बार-बार संसार-चक्र में पड़ना होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी उपरोक्त उपदेश भगवती देवहूति माता को देते हैं ।
प्रभु कहते हैं कि जीव अपने शरीर के पीछे लगा रहता है और अपने शरीर के लिए नाना साधन करता है । वही शरीर वृद्ध होने पर उसे नाना प्रकार के कष्ट देता है । पर अविद्या और कर्म के सूत्र में बंधा जीव शरीर के पीछे ही लगा रहता है ।
वह जीव उस शरीर के पोषण के लिए नाना प्रकार के कर्म करता है और कर्म बंधन में फंसता है । उसी कर्म बंधन के कारण उसे पुनः जन्म मरण के चक्र में पड़ना पड़ता है । इस तरह वह संसार चक्र में घूमता ही रहता है ।
हमें चाहिए कि हम शरीर के पीछे न लगकर, भक्ति के द्वारा अपने आपको प्रभु को समर्पित करें तभी हम कर्म बंधन से मुक्त होकर संसार चक्र से छूट पाएंगे ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 मई 2015 |
270 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 31
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अहो ! मेरी इस स्त्रीरूपिणी माया का बल तो देखो, जो अपने भृकुटी-विलासमात्र से बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को पैरों से कुचल देती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्त तथ्य भगवती देवहूति माता के समक्ष कहे ।
प्रभु कहते हैं कि स्त्रीरूपी माया का बल तो देखें जो दिग्विजय किए हुए बड़े-बड़े वीरों को पैरों के तले कुचल देती है । एकमात्र प्रभु को छोड़कर ऐसा कौन सा पुरुष हो सकता है जिसकी बुद्धि को स्त्रीरूपिणी माया ने मोहित नहीं की हो ।
तपस्या करते-करते ऋषि श्री विश्वामित्रजी को मेनका ने मोहित किया और उनकी तपस्या भंग की । दिग्विजय किए हुए एवं परम धार्मिक और ज्ञानी राजा श्री दशरथजी को रानी कैकेयी ने मोहित किया और उनके कारण दो वर मांगने पर श्री अयोध्याजी में अनर्थ हुआ ।
काम वासना बड़ी प्रबल है और यह भक्ति द्वारा प्रभु सानिध्य में रहने पर ही काबू में रहती है । प्रभु जिस पर कृपा करते हैं उसे ही इस वासना से छुटकारा मिलता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 मई 2015 |
271 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे अंत में सूर्यमार्ग के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं, जो कार्य कारणरूप जगत के नियंता, संसार के उपादान कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने वाले हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को दिए ।
प्रभु कहते हैं कि जो लोग सकामता से गृहस्थ धर्म का पालन करते हैं और तरह-तरह की कामनाओं से मोहित होते हैं और देवताओं तथा पितरों की उपासना करते है, वे मृत्यु उपरान्त उनके धाम जाकर पुण्य क्षीण होने पर फिर इसी लोक में लौट आते हैं ।
पर जो जीव भोग-विलास का उपभोग नहीं करते और प्रभु की प्रसन्नता के लिए कर्म करते हैं वे शुद्धचित्त हो जाते हैं और अंत में प्रभु को प्राप्त होते हैं जो संसार के नियंता एवं कारण स्वरूप है और संसार की उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने वाले हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि उसके मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य प्रभु प्राप्ति ही होनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 मई 2015 |
272 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए माताजी ! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही चरण-शरण में जाओ, समस्त प्राणियों का हृदय कमल ही उनका मंदिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को कहे ।
प्रभु यहाँ दो बातों का प्रतिपादन करते हैं । पहला, प्रभु कहते हैं कि भक्ति से हमें प्रभु की शरण में जाना चाहिए । भक्ति करते हुए प्रभु की शरणागत होना, यह हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । प्रभु ने सीधा कहा है कि भक्तिभाव से श्रीहरि के चरण-शरण में जाओ ।
दूसरा, प्रभु कहते है कि प्रभु समस्त प्राणियों के हृदय कमल में रहते हैं, वहीं उनका स्थाई मंदिर है । प्रभु प्रत्येक जड़ और चेतन में समाए हुए हैं । प्रत्येक जीव के हृदय कमल में प्रभु का निश्चित वास है । इसलिए संतों ने प्रभु की खोज में अंतर्मुखी होने को कहा है क्योंकि हमारे अंतःकरण में ही प्रभु का वास है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 मई 2015 |
273 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ये लोग अर्थ, धर्म, और काम के ही परायण होते हैं, इसलिए जिनके महान पराक्रम अत्यन्त कीर्तनीय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता से उपरोक्त वचन कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो लोग अर्थ (धन), धर्म, काम (कामना) के पीछे लगे रहते हैं वे अपने जीवन का उपयोग उसी हेतु के लिए करते हैं । वे पराक्रमी एवं भवभयहारी प्रभु जिनका यश अत्यन्त कीर्तनीय है उनके गुणानुवाद यानी प्रभु की कथा और वार्ता से वंचित रह जाते हैं ।
मनुष्य जीवन प्रभु का स्मरण, कीर्तन और गुणानुवाद करने के लिए हमें मिला है । इसे अगर हम सिर्फ धन कमाने, धर्म करने और कामना पूर्ति के लिए उपयोग करते हैं तो इसका लाभ अधिक नहीं होता । धन कमाने से धन हमारे साथ जाने वाला नहीं, धर्म करने से अल्प समय के लिए हमें स्वर्ग का सुख भोगकर फिर मृत्यु लोक में आना होगा और कामना पूर्ति के प्रयास से सभी कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होती ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 जून 2015 |
274 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हाय ! विष्ठा-भोजी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाहने के समान जो मनुष्य भगवतकथामृत को छोड़कर निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं, वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को दिए ।
प्रभु कहते हैं कि जो संसार की विषय वार्ताओं को सुनते हैं वे कुत्ते और सूअर की विष्ठा खाने के बराबर कर्म करते हैं । वे विधाता द्वारा भाग्य के मारे हुए होते हैं यानी मन्द भाग्य के होते हैं ।
जीव को चाहिए कि वह प्रभु की भगवत् कथामृत का पान करे । जीव से यही अपेक्षा होती है कि वह भगवत् चरित्र सुने । पर हम संसार की विषय वार्ताओं में रस लेते हैं ।
सच्चे भाग्यवान वे ही होते हैं जो प्रभु की कथामृत को सुनते हैं और मन्द भाग्य उनके होते हैं जो संसार की विषय वार्ताओं में उलझे रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 जून 2015 |
275 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए माताजी ! जिनके चरण-कमल सदा भजने योग्य हैं, उन भगवान का तुम उन्हीं के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा सब प्रकार से भजन करो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्त उपदेश अपनी माता भगवती देवहूतिजी को दिए ।
प्रभु कहते हैं कि जिनके श्रीकमलचरण सदा भजने योग्य हैं ऐसे प्रभु के सद्गुणों का आश्रय लेकर मन, वाणी एवं शरीर से प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रभु ने यहाँ स्वयं भक्ति का प्रतिपादन किया है और कहा है कि मन, वाणी एवं शरीर को प्रभु भक्ति में लगाना ही श्रेयस्कर है । भक्ति के द्वारा प्रभु का सभी प्रकार से आश्रय लेकर भजन करना चाहिए । भक्ति ही जीव को तारने वाली है इसलिए मानव जन्म लेने पर हमें चाहिए कि हम भक्ति से प्रभु तक पहुँचने का प्रयास करें ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 जून 2015 |
276 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान वासुदेव के प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्कार रूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता से कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु की भक्ति तुरंत ही हमारे भीतर वैराग्य उत्पन्न कर देती है और ब्रह्म साक्षात्कार रूपी ज्ञान प्राप्त करा देती है ।
भक्ति का ही सामर्थ्य है कि वह संसार से वैराग्य उत्पन्न करा देती है अन्यथा जीव संसार में ही लिप्त रहता है । दूसरा, भक्ति का ही सामर्थ्य है कि वह प्रभु साक्षात्कार के लिए जरूरी ज्ञान की प्राप्ति करवाती है अन्यथा जीव सांसारिक ज्ञान में ही उलझा रहता है ।
इसलिए जीवन में अविलम्ब भक्ति का आश्रय लेना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 जून 2015 |
277 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्त वचन अपनी माता भगवती देवहूतिजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि शास्त्रों में भगवत् प्राप्ति के विभिन्न मार्ग बताए हुए हैं पर उन सभी मार्गों से एक ही भगवान की प्राप्ति होती है ।
जैसे एक सरोवर के विभिन्न घाट होते हैं पर हर घाट से उतरने पर एक ही जल की प्राप्ति होती है वैसे ही विभिन्न शास्त्रयुक्त मार्गों से जाने पर एक ही प्रभु की अनुभूति होती है ।
इसलिए शास्त्रयुक्त किसी भी मार्ग का चुनाव करके हम प्रभु तक पहुँच सकते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 जून 2015 |
278 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 32
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
माँ ! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने अपनी माता भगवती देवहूतिजी को दिया ।
प्रभु कहते हैं कि जो जीव प्रभु में अपने चित्त को लगाकर श्रद्धापूर्वक प्रभु के द्वारा दिए उपदेश का श्रवण करेगा और दूसरे भक्त के सामने इसका कथन करेगा वह प्रभु के परमपद को प्राप्त करेगा ।
हमें प्रभु के उपदेश चाहे वह प्रभु श्री कपिलजी द्वारा अपनी माता भगवती देवहूतिजी को दिया हुआ हो अथवा प्रभु श्री कृष्णजी द्वारा श्रीमद् भगवद् गीताजी के माध्यम से श्री अर्जुनजी को दिया हुआ हो, उसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिए और प्रभु भक्तों के बीच इसका कथन भी करना चाहिए ।
जीवन में प्रभु उपदेशों का श्रवण और कथन हो तो जीवन पवित्र और प्रभुमय बनता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 जून 2015 |
279 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 33
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पूजनीय हो सकता है, फिर आपका दर्शन करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाए, इसमें तो कहना ही क्या है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भगवती देवहूति माता ने स्तुति करते हुए प्रभु श्री कपिलजी से उपरोक्त वचन कहे ।
भगवान के नामों का श्रवण और कीर्तन करने वाले की गति उत्तम होती है । भूले-भटके भी कोई प्रभु का वन्दन या स्मरण करता है तो भी वह पूजनीय हो जाता है ।
प्रभु का नाम कैसे भी लिया जाए वह मंगल ही करता है । कंस और रावण ने प्रभु का नाम वैर से लिया, अजामिलजी ने अपने बेटे को पुकारने के लिए प्रभु का नाम लिया और ऋषि श्री वाल्मीकिजी ने प्रभु का नाम उल्टा लिया पर प्रभु के नाम ने सबका मंगल किया ।
प्रभु का नाम कैसे भी लिया जाए वह जीव का मंगल ही करेगा, यह एक अनिवार्य सत्य है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 जुलाई 2015 |
280 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 33
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अहो ! वह चाण्डाल भी इसी से सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है । जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन, सब कुछ कर लिया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी की स्तुति करते हुए भगवती देवहूति माता उपरोक्त वचन कहती हैं ।
एक चाण्डाल जो जाति में सबसे नीचा माना गया है, अगर उसके मुँह से भी प्रभु का नाम निकलता है तो वह भी सर्वश्रेष्ठ बन जाता है । फिर जो श्रेष्ठ जाति में जन्मे हैं, ऐसे लोग जब प्रभु के नाम का उच्चारण करते हैं तब मानो उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचार पालन और वेदाध्ययन सब कुछ कर लिया । सबका फल उन्हें प्रभु के नाम को जपने से ही मिल जाता है ।
प्रभु नाम का उच्चारण हमारे मुँह से निरंतर होता रहे, ऐसा आग्रह शास्त्रों और संतों ने किया है ।
जीवन में प्रभु के नाम को जपने की आदत हमें बनानी चाहिए ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के चतुर्थ स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के तीसरे स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं श्री समुद्रदेवजी का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने की सोच भी पाए ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 जुलाई 2015 |
281 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 01
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी आँखों से कृपा की वर्षा हो रही थी .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब ऋषि श्री अत्रिजी तप करने लगे तब उनके तप से प्रसन्न होकर तीनों देव एक साथ प्रकट हुए ।
ऋषि श्री अत्रिजी ने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और पूजन सामग्री हाथ में लेकर उनका पूजन किया ।
तब ऐसा प्रतीत हुआ मानो तीनों देवों की आँखों से कृपा की वर्षा हो रही थी । प्रभु के श्रीनेत्र सदैव कृपा बरसाते रहते हैं । प्रभु अकारण ही कृपा करते हैं, यह प्रभु का स्वभाव है । जिस भी संत ने प्रभु के दर्शन को पाया है उसने प्रभु की कृपा का स्वयं अनुभव किया है । इसलिए संत प्रभु को कृपालु कहकर संबोधित करते हैं ।
प्रभु कृपा के सागर हैं, ऐसा सभी संतों का अनुभव है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 जुलाई 2015 |
282 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 01
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... और एक संसार का संहार करने वाले तथा जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले भगवान शंकर को दी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री ब्रह्माजी के पुत्र श्री दक्षप्रजापतिजी की सोलह कन्याएं थीं । उनमें से एक भगवती माता सतीजी का विवाह प्रभु श्री महादेवजी से हुआ ।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु श्री महादेवजी के लिए एक विशेषण का प्रयोग किया गया है ।
प्रभु जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले हैं, ऐसा कहा गया है । यह एक शाश्वत सत्य है कि मनुष्य को जन्म-मरण के चक्कर से प्रभु के अलावा कोई भी नहीं छुड़ा सकता है । जीव जन्म-मरण के चक्कर में फंसा रहता है और अनेक योनियों में भटकता रहता है । एकमात्र प्रभु ही हैं जो कृपा करके उसे इस जन्म-मरण के चक्कर से सदैव के लिए छुड़ाते हैं ।
जिसने भी जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति पाई है वह प्रभु कृपा के कारण ही पाई है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 जुलाई 2015 |
283 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 04
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनका "शिव" यह दो अक्षरों का नाम प्रसंगवश एक बार भी मुख से निकल जाने पर मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भगवती सती माता ने उपरोक्त वाक्य श्री दक्षप्रजापतिजी की सभा के मध्य कहे जब उन्होंने देखा कि यज्ञ में प्रभु श्री शंकरजी के लिए कोई भाग नहीं दिया गया है ।
माता कहती हैं कि अकारण या प्रसंगवश भी जिनके मुख से प्रभु के दो अक्षरों का नाम "शिव" निकल जाता है उस मनुष्य के समस्त पाप तत्काल ही समाप्त हो जाते हैं । दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि प्रभु आज्ञा का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता ।
जैसे कपास (रूई) के एक बड़े गोदाम में एक अग्नि की चिंगारी लग जाती है तो कुछ ही समय में पूरा कपास जल जाता है वैसे ही प्रभु का एक सच्चा नाम मुख से निकल जाए तो समस्त पाप जल जाते हैं । इसलिए प्रभु के नाम के जप की आदत जीवन में बनानी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 जुलाई 2015 |
284 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 04
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अरे ! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके चरणकमलों का निरंतर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषों को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भगवती सती माता ने उपरोक्त वचन अपने पिता प्रजापति श्री दक्षजी की सभा में कहे ।
माता कहती हैं कि महापुरुषों का मन ब्रह्मानंद के रस का पान करने की इच्छा से प्रभु श्री शिवजी के श्रीकमलचरणों का निरंतर सेवन करता है । जो सकामता चाहते हैं प्रभु श्री शिवजी के श्रीकमलचरण उनको उनके अभीष्ट भोगों को प्रदान करते हैं ।
प्रभु के श्रीकमलचरण निष्काम पुरुषों को ब्रह्मानंद के रस की प्राप्ति और सकाम पुरुषों को उनकी इच्छाओं की पूर्ति करवाते हैं । अतः दोनों ही अवस्था में प्रभु के श्रीकमलचरणों का नित्य ध्यान और सेवन करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 जुलाई 2015 |
285 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 06
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु शंकरजी बहुत शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, इसलिए तुम लोग शुद्ध हृदय से उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो, उनसे क्षमा मांगो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उपरोक्त बात देवतागण से कही जब प्रभु श्री शंकरजी के रुष्ट होने पर श्री वीरभद्रजी द्वारा यज्ञ का विध्वंस करने पर देवताओं को वहाँ से भागना पड़ा ।
प्रभु श्री ब्रह्माजी कहते हैं कि प्रभु श्री शंकरजी आशुतोष हैं और बहुत जल्दी प्रसन्न होने वाले हैं । इसलिए शुद्ध हृदय से उनके श्रीकमलचरणों को पकड़कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करो ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं अगर हम हृदय की गहराई से अपनी गलती मानते हैं । गलती मानने पर प्रभु हमें तुरंत क्षमा कर देते हैं, यह प्रभु का स्वभाव है ।
इसलिए अगर कोई गलती हो जाए तो जीव को चाहिए कि वह प्रभु से सच्चे मन से क्षमा याचना करे और भविष्य में उस गलती को नहीं दोहराने का संकल्प करे, तब प्रभु उसे तत्काल क्षमा कर देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 अगस्त 2015 |
286 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 06
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे एक कुश आसन पर बैठे थे और अनेकों साधु श्रोताओं के बीच में श्री नारदजी के पूछने से सनातन ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब देवतागण प्रभु श्री शंकरजी से क्षमा मांगने के लिए श्रीकैलाश पर्वत पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि प्रभु श्री शंकरजी वहाँ बैठे हैं और साधुगणों एवं देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को ब्रह्म का उपदेश कर रहे हैं ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि सत्संग का महत्व यहाँ प्रकट होता है । प्रभु स्वयं ब्रह्म चर्चा करते हैं एवं साधुओं को सत्संग का लाभ प्रदान करते हैं । प्रभु यहाँ बताना चाहते हैं कि नित्य सत्संग किया जाना चाहिए ।
जो जीव नित्य सत्संग कर ब्रह्म चर्चा करता है उसने ही मानव जन्म लेकर मानव जीवन का सच्चा लाभ लिया है । हमारे सभी ऋषियों और मुनियों ने सदैव ब्रह्म चर्चा रूपी सत्संग किया है ।
हमें भी चाहिए कि हम नित्य सत्संग में ब्रह्म चर्चा कर अपने मानव जीवन को सफल बनाए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 अगस्त 2015 |
287 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 06
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप शुभ कर्म करने वालों को स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करने वालों को घोर नरकों में डालते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उपरोक्त वचन प्रभु श्री शिवजी से कहे ।
प्रभु शुभकर्म करने वाले को उसकी योग्यता अनुसार स्वर्गलोक या मोक्षपद प्रदान करते हैं और पापकर्म करने वाले को अनेक प्रकार के जो नर्क है उसमें डालते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में शुभकर्म करने का प्रयास करे । हमसे जीवन में शुभकर्म हो इसका निरंतर ध्यान रखना चाहिए ।
हमसे पापकर्म न हो इसका भी विशेष ध्यान रखना चाहिए । श्रीगरुड़ पुराणजी में नर्कों का वर्णन है कि कितने प्रकार के नर्क हैं और कौन-कौन से पापकर्म करने पर किस-किस नर्क में कौन-कौन सी यातना जीवात्मा को झेलनी पड़ती है ।
इसलिए जीवन में पापकर्म से दूर रहना और शुभकर्म करते रहने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 अगस्त 2015 |
288 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(चतुर्थ स्कंध) |
अ 06
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान ! आप सबके मूल हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु श्री शिवजी को कहे ।
इस छोटे से वाक्य में एक बहुत बड़ी बात का प्रतिपादन मिलता है । प्रभु सभी के मूल में स्थित हैं, यह समझना जरूरी है । हर जड़ एवं चेतन के मूल में प्रभु हैं । प्रभु के अलावा इस जग में कुछ है ही नहीं । इसलिए संतों ने पूरे जग को प्रभुमय देखा है । कण कण में भगवान, यह सनातन धर्म का दृष्टिकोण रहा है ।
जब हम सबके मूल में स्थित भगवान के दर्शन हर जगह पर करने लगेंगे तभी हमारा सच्चा कल्याण होगा । यह दृष्टिकोण सिर्फ भक्ति के कारण ही जीवन में आ सकता है । इसलिए जीवन में भक्ति को बढ़ाना चाहिए जिससे कण-कण में प्रभु की अनुभूति हो और प्रभु सबके मूल में हैं यह सिद्धांत जीवन में दृढ़ हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 अगस्त 2015 |