क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
25 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 5
श्लो 71-73 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस फलभेद का कारण इनके श्रवण का भेद ही है । यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समान रूप से ही किया है, किन्तु इनके (धुंधकारी) जैसा मनन नहीं किया । .... तथा सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था । जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है । इसी प्रकार ध्यान न देने से श्रवण का, संदेह से मंत्र का और चित्त के इधर-उधर भटकते रहने से जप का भी कोई फल नहीं होता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री गोकर्णजी ने प्रभु के पार्षदों से पूछा कि कथा तो सभी ने सुनी पर मुक्ति सिर्फ धुंधकारी की ही हुई, कथा के फल में ऐसा भेद क्यों हुआ ? उत्तर में प्रभु के पार्षदों ने उपरोक्त बात कही ।
यह फल भेद जानना कलियुग में बड़ा जरूरी है क्योंकि इस युग में ऐसा अनेकों बार होता ही रहता है । हम कथा मात्र सुनते हैं, मनन नहीं करते, चिंतन नहीं करते, उसके भाव की गहराई में नहीं उतरते, इसलिए वह दृढ़ता से हमारे अन्तःकरण में स्थित नहीं होती और हमारा उपक्रम व्यर्थ चला जाता है । ठीक वैसे ही, जैसे ज्ञान जो दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ चला जाता है । जो श्रवण ध्यान से नहीं किया गया हो, वह व्यर्थ चला जाता है । जिस मंत्र में विश्वास न हो, वह व्यर्थ चला जाता है । जिस जप में चित्त भटके, वह किया हुआ जप व्यर्थ चला जाता है ।
हम प्रभु की ओर ले जाने वाले अध्यात्म ज्ञान में दृढ़ता नहीं लाते, हम प्रभु की श्रीलीलाओं की कथा में पूरा ध्यान नहीं लगाते, हम मंत्र को पूर्ण विश्वास से नहीं जपते और हम जप के समय चित्त को पूरी तरह प्रभु में स्थित नहीं करते, इसलिए हम विफल हो जाते हैं ।
प्रभु के मार्ग में सफल होने का कितना सुन्दर सूत्र प्रभु के पार्षदों ने श्री गोकर्णजी एवं धुंधकारी की कथा को निमित्त बना कर हमें दिया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 अगस्त 2012 |
26 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 5
श्लो 80,81 एवं 83 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वहाँ भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान प्रकट हुए । सब ओर से खूब जय-जयकार और नमस्कार की ध्वनियाँ होने लगीं । भगवान स्वयं हर्षित होकर अपने पाञ्चजन्य शंख की ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्ण को हृदय से लगाकर अपने ही समान बना लिया । .... उस गाँव में कुत्ते और चांडाल पर्यन्त जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्णजी की कृपा से विमानों पर चढ़ा लिए गए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रद्धापूर्वक कथा वाचन और कथा श्रवण का अदभुत फल देखें कि प्रभु स्वयं उपस्थित हुए और श्री गोकर्णजी को हृदय लगाकर जीव और "शिव" के भेद को मिटा दिया । उस गाँव के कुत्ते और चांडाल पर्यन्त जितने भी जीव थे सभी मुक्ति को प्राप्त हुए ।
पहली कथा जिसमें धुंधकारी मुक्त हुआ था वह भी श्री गोकर्णजी ने कही थी और सभी ने सुनी थी पर पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण ध्यान, पूर्ण विश्वास की कमी के कारण किसी की मुक्ति (धुंधकारी को छोड़कर) नहीं हुई । दुबारा कथा में किसी ने वह गलती नहीं की जो पहले की थी । फलस्वरूप सबकी मुक्ति संभव हुई । गाँव के समस्त पशु योनि और यहाँ तक कि चांडाल तक मुक्त हुए ।
प्रभु के प्रति श्रद्धा, प्रभु के प्रति विश्वास, प्रभु की भक्ति कितनों का उद्धार स्वतः कर देती है यह श्री रामचरितमानसजी के श्री केवटजी के प्रसंग में भी देखने को मिलता है । परम कृपालु और परम दयालु प्रभु ने केवट के साथ उनकी पिछली और अगली पीढ़ियों को स्वतः तार दिया । संतों ने उस दिव्य प्रसंग की व्याख्या करते हुए और प्रभु की करुणा, दया और कृपा के अदभुत दर्शन करते हुए बताया है कि प्रभु की भक्ति के कारण प्रभु ने केवट की 21 पिछली पीढ़ियों और 21 आने वाली पीढ़ियों को तार दिया । श्री केवटजी ने तो सिर्फ यह चाहा था कि जब प्रभु मेरे घाट आए तो मैंने पार उतार दिया, ऐसे ही जब मैं प्रभु के घाट (भवसागर) जाऊँ तो प्रभु भी कृपा दृष्टि डाल कर मुझे पार लगा दें । पर प्रभु ने उसकी पीढ़ियों दर पीढ़ियों को पार कर दिया । सूत्र क्या है ? प्रभु के लिए जितनी श्रद्धा, विश्वास और भक्ति मन में हो प्रभु की कृपा उससे कई-कई गुना बढ़कर जीवन में और जीवन के बाद भी शुभफल देती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 अगस्त 2012 |
27 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
करुणानिधान ! मैं संसार-सागर में डूबा हुआ और बड़ा दीन हूँ । कर्मों के मोहरूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है । आप इस संसार से मेरा उद्धार कीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - कथा-सप्ताह-यज्ञ की विधि में कथा प्रारंभ से पूर्व प्रभु से यह स्तुति करने का प्रावधान है । स्तुति के शब्द कितने सटीक और सार्थक चुने गए हैं ।
हम संसार सागर में डूबे हुए हैं और मानव जीवन के उद्देश्य से विमुख होने के कारण दीन अवस्था में हैं । धन, संपत्ति से हम कितने भी लदे हुए हो फिर भी जीवन उद्देश्य को भूलने के कारण हम दीन हैं ।
संसार के कर्मों के मोहरूपी ग्राह (मगरमच्छ) ने हमें पकड़ रखा है । संसारी कर्मों के मोह ने हमारी लिप्तता धन कमाना, संपत्ति बढ़ाना, परिवार बढ़ाना जैसे संसारी कर्मों में बढ़ा दी है । हमारा हाल भी श्री गजेन्द्रजी की तरह हो गया है, जो जीवन की लड़ाई ग्राह (मगरमच्छ) से हार कर डूबने के कगार पर हैं । प्रभु ने जैसे श्री गजेन्द्रजी का उद्धार किया, प्रभु से हमारा भी वैसा ही उद्धार करने की प्रार्थना की गई है । प्रभु की कृपा, प्रभु की दया के बिना जीव का संसार सागर और कर्ममोह से छूट पाना पूर्णतः असंभव है ।
प्रभु भक्ति के बल पर प्रभु की कृपा एवं प्रभु की दया को जीवन में अर्जित करना चाहिए, तभी हमारी मानव जीवन की सफलता और जीवन पश्चात उद्धार हो सकता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 अगस्त 2012 |
28 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो पुरुष लोक, संपत्ति, धन, घर और पुत्रादि की चिन्ता छोड़कर शुद्धचित्त से केवल कथा में ही ध्यान रखता है, उसे इसके श्रवण का उत्तम फल मिलता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - कितने सार्थक तथ्य जिसकी प्रायः हम अनदेखी करते हैं ।
प्रभु कथा, भजन, कीर्तन, पूजन, मंत्र-जप के समय प्रायः हम लोक, संपत्ति, धन और पुत्रादि की चिंता भूल नहीं पाते और चित्त एकाग्र कर प्रभु को अर्पण नहीं कर पाते, इसलिए हमारा उपक्रम उतना फलदायी नहीं होता ।
आरती के शब्द - "तन-मन-धन सब कुछ है तेरा, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा" - दिन में दो बार हम जरूर गुनगुनाते हैं पर लाभ तभी होगा जब वैसा करें । उपरोक्त श्लोक भी "तन–मन" प्रभु कथा में अर्पण करने का समर्थन करता है और शुद्धचित्त से (यानी चित्त की वासनाएं, अशुद्धियां जैसे द्वेष, मद, लोभ इत्यादि त्याग कर) किए गए श्रवण को ही उत्तम फलदायी माना गया है ।
हम जीवन में जब-जब ऐसा कर पाते हैं तब-तब हमें प्रभु के सानिध्य के, प्रभु की कृपा के, प्रभु की दया के दर्शन जरूर होते हैं । गलती हमारी है कि हम ऐसा कर नहीं पाते और इसलिए प्रभु के सानिध्य, प्रभु की कृपा के, प्रभु की दया से वंचित रह जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 अगस्त 2012 |
29 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 51 एवं 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
धनहीन, क्षयरोगी, किसी अन्य रोग से पीड़ित, भाग्यहीन, पापी, पुत्रहीन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करें । ये सब यदि विधिवत कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फल की प्राप्ति हो सकती है । यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - पतितों के उद्धार के लिए प्रभु के द्वार सदैव खुले रहते हैं, इस तथ्य का समर्थन यहाँ मिलता है । पतितों के लिए संसार के सभी द्वार बंद हो सकते हैं पर प्रभु (परमपिता) के द्वार कभी बंद नहीं होते । प्रभु कभी द्वार बंद नहीं करते, हम ही राह भटक जाते हैं, गलत दिशा में चले जाते हैं और खुद को प्रभु मार्ग से एवं प्रभु से दूर करने का अपराध कर बैठते हैं ।
दूसरी बात, पतितों को अक्षय फल की प्राप्ति की बात कही गई है । संसार से हमें कुछ भी मिलता है वह कभी अक्षय नहीं हो सकता, उसका क्षय होना स्वाभाविक है । अक्षय फल देने का सामर्थ्य तो सिर्फ और सिर्फ परमपिता परमेश्वर में ही है । कितने ही दृष्टान्त श्रीहरि कथाओं में मिलेंगे जब प्रभु ने अपने भक्तों को अक्षयदान दिया है । कितने भक्त चरित्र इसके जीवन्त उदाहरण हैं ।
संतों ने श्री सुदामाजी की कथा की व्याख्या की है कि श्री सुदामाजी की भाग्यरेखा में प्रभु श्री ब्रह्माजी ने लिखा था कि इनके पास "श्री (धन) का क्षय हो" यानी धन कभी रहेगा नहीं, टिकेगा नहीं । श्री सुदामाजी के साथ ऐसा ही होता था कि दिन में दो समय के भोजन की भी व्यवस्था नहीं होती थी, घर पर छत नहीं थी, कपड़े इतनी जगह से फटे रहते थे कि गिनती भी भूल जाएं । पर देखें मेरे प्रभु की कृपादृष्टि का प्रभाव कि प्रभु ने भाग्यरेखा को ही पलट दिया । प्रभु ने ब्रह्मवाक्य में मात्र दो शब्द जोड़ दिए जिससे नया अर्थ बन गया "श्री (धन) का कभी क्षय नहीं हो" । फिर प्रभु की प्रेरणा से प्रभु श्री विश्वकर्माजी ने दिव्य सुदामापुरी का निर्माण किया और जो संपदा, ऐश्वर्य श्री सुदामाजी को मिला उसका कभी क्षय नहीं हुआ ।
यह स्वर्णिम उदाहरण जीवन में सदैव याद रखना चाहिए और साथ में यह भी याद रखना चाहिए कि भक्त श्री सुदामाजी ने इतना सब पाकर क्या किया ? नित्य की तरह प्रभु का भजन, पूजन और सेवा । प्रभु की कृपा को निरंतर बनाए रखने का यही एकमात्र तरीका है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 सितम्बर 2012 |
30 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 83 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलाश और बैकुंठ में भी नहीं है । इसलिए भाग्यवान श्रोताओं ! तुम इसका खूब पान करो, इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - व्यासनंदन प्रभु श्री शुकदेवजी के अनमोल शब्द कि प्रभु कथा का रस मृत्युलोक (पृथ्वी) को छोड़कर कहीं भी नहीं है (इसलिए तो देवतागण भी मृत्युलोक में जन्म पाने के लिए लालायित रहते हैं) ।
पृथ्वी के लोगों को इसलिए "भाग्यवान" की संज्ञा से संबोधित करते हुए प्रभु श्री शुकदेवजी ने कहा है कि प्रभु का गुणगान करने वाली प्रभु की कथा का खूब पान करो, शरीर में जब तक चेतना रहे तब तक बार-बार पान करो । विशेष ध्यान दें इन शब्दों पर "इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो" ।
जीव के हित, जीव के कल्याण के लिए कितना प्रबल आग्रह करके हम पर अनुग्रह किया है आत्मज्ञान के महासागर व्यासनंदन प्रभु श्री शुकदेवजी ने ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 सितम्बर 2012 |
31 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 91 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उस समय शुकदेवजी ने भक्ति को उसके पुत्रों सहित अपने शास्त्र में स्थापित कर दिया । इसी से भागवत का सेवन करने से श्रीहरि वैष्णवों के हृदय में आ विराजते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब व्यासनंदन प्रभु श्री शुकदेवजी श्रीमद् भागवतजी महापुराण का माहात्म्य बता रहे थे तभी श्रीहरि प्रभु अपने पार्षदों सहित प्रकट हुए थे । कथामृत के कारण ही सभी को प्रभु के दुर्लभ दर्शन हुए । सभी लोगों को बड़ा आनंद हुआ था और सभी का सारा मोह नष्ट हो गया था । तब व्यासनंदन प्रभु श्री शुकदेवजी ने सकल जगत के कल्याणार्थ भक्ति माता को अपने पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के साथ इस परम पुनीत महापुराण में सदैव के लिए स्थापित कर दिया । इसलिए श्रीमद् भागवतजी के सेवन से हृदय में भक्ति के अंकुर फूटते हैं, अध्यात्म ज्ञान (सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ) जागृत होता है, संसार के प्रति मोह हटकर वैराग्य भाव आता है और इन सब के कारण हम सच्चे वैष्णव बन जाते हैं । प्रभु तो नित्य वैष्णवों के हृदय में ही वास करते हैं ।
इस तथ्य की पुष्टि एक अन्य प्रसंग में भी होती है । एक बार देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु से पूछा था कि आपके मिलने का निश्चित स्थान (श्रीगोलोक, श्रीसाकेत, श्रीबैकुंठ, क्षीरसागर में से) कौन-सा है ? प्रभु ने उत्तर में कहा था कि मैं भक्तों के हृदय में सदैव ही मिलता हूँ और वहाँ मेरा निश्चित वास सदैव है ।
भक्ति हमें सच्चा वैष्णव बना देती है । हमारे भीतर वैष्णव गुण भर देती है । यही वैष्णव गुण प्रभु को अत्यन्त प्रिय होते हैं । भक्त श्री नरसीजी ने वैष्णवों का सबसे श्रेष्ठ चित्रण अपने अमर भजन "वैष्णव जन तो तेने कहिए" में किया है । जो भी सच्चे वैष्णव
हैं, उनका यह अति प्रिय भजन है । "वैष्णव जन तो तेने कहिए" में वर्णित वैष्णव गुणों पर एक नजर -
वैष्णव वह है -
(1) जो अभिमान रहित होकर परोपकार करे - (क) दूसरों के दुःख को जाने (ख) दुःखी पर उपकार करे (ग) ऐसा करने पर भी मन में अभिमान का भाव नहीं लाए,
(2) जो सकल लोक में किसी की भी निन्दा न करे,
(3) जो अपने वचन और कर्म को निश्छल (छल रहित) रखे,
(4) जो हर जीव और प्राणी को समदृष्टि भाव से देखे,
(5) जो मन से तृष्णा (कामना) का त्याग करे,
(6) जो माता के भाव से परस्त्री को देखे,
(7) जो थकी जिह्वा से भी असत्य नहीं बोले,
(8) जिसका पराए धन पर हाथ जाते ही, जिसको हाथ जलने एवं छाले पड़ने का भाव आए और हाथ छिटक जाए,
(9) जो मोह और माया में अपने मन को नहीं व्यापने (फंसने) दे,
(10) जो दृढ़ वैराग्य अपने मन में रखे,
(11) जो सिर्फ और सिर्फ प्रभु नाम की ताली बजाए (किसी सांसारिक नाम की ताली नहीं),
(12) जो मन को लोभ और कपट से रहित रखे,
(13) जो मन को काम और क्रोध से निवृत्त रखे,
उपरोक्त आचरण रखने वाला -
(क) ऐसा पवित्र हो जाता है जैसे सकल तीर्थ उसके तन में आ बसे हो,
(ख) कुटुम्ब में ऐसा एक भी प्राणी उस कुटुम्ब का पीढ़ियों सहित उद्धार कर देता है,
(ग) ऐसा आचरण युक्त वैष्णव अपनी जन्म देने वाली जननी (माता) की कोख को धन्य-धन्य कर देता है ।
केवल भक्ति में ही इतनी प्रबल और प्रगाढ़ शक्ति होती है कि हमारे भीतर ऐसे स्वर्णिम वैष्णव गुण विकसित कर देती है जो प्रभु को अति प्रिय होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 सितम्बर 2012 |
32 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 92 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग दरिद्रता के दुःख ज्वर की ज्वाला से दग्ध हो रहे हैं, जिन्हें माया-पिशाचिनी ने रौंद डाला है तथा जो संसार-समुद्र में डूब रहे हैं, उनका कल्याण करने के लिए श्रीमद् भागवत सिंहनाद कर रहा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - दरिद्र, दुःखीजन, माया में फंसे, संसार सागर में डूब रहे लोगों को कितना बल प्रदान करता यह श्लोक । ऐसे लोगों का कल्याण करने का सामर्थ्य रखने वाला यह श्रीग्रंथ, एक सिंह की तरह सिंहनाद कर रहा है । शेर के सिंहनाद से (दहाड़ने से) भेड़, बकरी एवं अन्य जीव जैसे भाग खड़े होते हैं, ठीक वैसे ही श्रीमद् भागवतजी के सिंहनाद से दरिद्रता, दुःख, माया भाग जाते हैं ।
हमें जरूरत है मात्र श्रीमद् भागवतजी के शरण में जाने की क्योंकि इस श्रीग्रंथ में वह भव्यता और सामर्थ्य है कि हमारे भीतर की भक्ति को प्रबल कर प्रभु से मिलन का द्वार खोल देती है ।
यहाँ एक शब्द "पिशाचिनी" पर विशेष ध्यान देना चाहिए । माया को पिशाचिनी की संज्ञा दी गई है । पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम इस "पिशाचिनी" के चक्कर में पड़कर अपने मानव जीवन का उद्देश्य ही भूल जाते हैं जो कि प्रभु को भक्ति द्वारा प्राप्त करना है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 सितम्बर 2012 |
33 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 97 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इस कलियुग में भागवत की कथा भवरोग की रामबाण औषधि है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यहाँ दो शब्दों का विशेष महत्व है । पहला शब्द "भवरोग" यानी भवसागर, संसार सागर के सभी रोग । एक-दो रोग, कुछ रोग नहीं, सभी रोग । श्रीमद् भागवतजी भवरोग की रामबाण औषधि है ।
दूसरा शब्द "रामबाण" यानी वह बाण जो कभी विफल हो ही नहीं सकता । जो चला तो लक्ष्य को भेद कर ही आएगा, चाहे लक्ष्य कुछ भी हो ।
कितना सुन्दर मर्म है कि कलिकाल में संसार सागर के समस्त रोगों को नष्ट करने वाली रामबाण औषधि । सभी सांसारिक रोगों पर कभी विफल नहीं होने वाली एक रामबाण औषधि - श्रीमद् भागवतजी महापुराण ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 सितम्बर 2012 |
34 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य) |
अ 6
श्लो 99 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपने दूत को हाथ में पाश लिए देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं - "देखो, जो भगवान की कथावार्ता में मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना, मैं औरों को ही दंड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवों को नहीं" ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - नर्क के डर को एकदम और एकबार में खत्म कर देने वाला यह श्लोक मुझे इसलिए बेहद प्रिय है क्योंकि यह भक्ति के सामर्थ्य को प्रदर्शित करता है ।
प्रभु श्री यमराजजी अपने यमदूतों को सावधान करते हैं कि मैं सबको दंड देने की शक्ति रखता हूँ पर वैष्णवों को नहीं । इसका मर्म क्या है ? प्रभु श्री यमराजजी हमारे अपराध के कारण ही हमें दंड देते हैं, यह प्रावधान है । अगर अपराध नहीं तो दंड नहीं दे सकते । भक्तों के जन्म-जन्मांतर के अपराध प्रभु क्षणभर में भस्म कर देते हैं । श्रीमद् भागवतजी में ऐसी व्याख्या है ।
श्री रामचरितमानसजी में इसी तथ्य का समर्थन मेरे प्रभु श्री रामजी स्वयं अपने श्रीवचनों में श्री विभीषणजी के समक्ष, श्री सुन्दरकाण्डजी की मंगलमय एवं अमर चौपाई "सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं" में करते हैं ।
प्रभु जैसे ही भक्त पर कृपा और दया करके उसके अपराध को भस्म कर देते हैं, उस अपराध के दंड की प्रक्रिया भी वहीं स्वतः ही खत्म हो जाती है । प्रभु श्री यमराजजी का यमदण्ड फिर उस भक्त पर नहीं चल सकता ।
उपरोक्त श्लोक में प्रभु श्री यमराजजी का कथन इसी तथ्य को सत्यापित करता है ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्रथम स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के माहात्म्य तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी भगवती सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं समुद्रदेव का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए । इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो बहुत दूर, किंचित बखान करने का सोच भी पाएं ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सदर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 सितम्बर 2012 |
35 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 1
श्लो 1 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत पदार्थों से पृथक है, जड़ नहीं, चेतन है, परतंत्र नहीं, स्वयंप्रकाश है, जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है, जिसके संबंध में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं, जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जागृत-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - इस मंगलाचरण के श्लोक की कितनी ही बातें मुझे बहुत प्रिय हैं । एक-एक करके नीचे देखेंगे ।
जिनसे जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं यानी अंग्रेजी में GOD शब्द की व्याख्या G= Generator, O= Operator, D= Destroyer
जो जड़ नहीं, चेतन हैं, परतंत्र नहीं, स्वयंप्रकाश हैं यानी प्रभु चेतन रूप में हम सभी जीवों में हैं । पर जीव परतंत्र है, बंधा हुआ है और प्रभु स्वतंत्र हैं, बंधे हुए नहीं हैं । परतंत्र जीव एक-दूसरे को यानी एक परतंत्र दूसरे परतंत्र को मुक्त नहीं कर सकता । स्वतंत्र प्रभु ही परतंत्र जीव को मुक्त कर सकते हैं । प्रभु स्वयंप्रकाश हैं यानी उन्हें किसी के प्रकाश की आवश्यकता नहीं क्योंकि वे ही सभी प्रकाशों के एकमात्र स्त्रोत्र हैं ।
जिसके संबंध में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं यानी बड़े-बड़े विद्वानों की बात तो छोड़ दें जिनके बारे में श्री वेदजी, भगवती सरस्वती माता, देवाधिदेव प्रभु श्री महादेवजी, श्री सनकादि ऋषि भी मोहित होकर नेति-नेति कह कर शान्त हो जाते हैं ।
जिनकी माया के प्रभाव से सृष्टि मिथ्या होने पर भी हमें सत्यवत प्रतीत हो रही है, माया और मायाकार्य से सर्वदा और सर्वथा पूर्णतः मुक्त रहने वाले एकमात्र प्रभु ही हैं, माया से अन्य कोई भी बच नहीं पाया है । देवता, ऋषि, संत, भक्त सभी कभी-न-कभी माया के प्रभाव में फंसे हैं और प्रभु ने ही कृपा और दया करके उन्हें इससे मुक्ति दिलाई है । अगर कोई अपवाद स्वरूप नहीं फंसा है तो वह भी प्रभु कृपा और दया के कारण ही माया से बच पाया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 सितम्बर 2012 |
36 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 1
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पुण्यकीर्ति भगवान की लीला सुनने से हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि रसज्ञ श्रोताओं को पग-पग पर भगवान की लीलाओं में नए-नए रस का अनुभव होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु से सच्चा प्रेम करने वाले की व्याख्या यहाँ मिलती है । जिसे प्रभु की मंगलमयी श्रीलीलाएं सुनने से कभी तृप्ति नहीं होती, वही सच्चा भक्त है । सर्वोच्च उदाहरण भक्त शिरोमणि प्रभु श्री हनुमानजी का है । जब प्रभु श्री रामजी अपनी मर्यादा श्रीलीला को विश्राम दे स्वधाम जाने को हुए, तो प्रभु ने अपने साथ सभी अयोध्यावासियों को अपने धाम ले जाने की तैयारी की पर प्रभु श्री हनुमानजी ने हाथ जोड़कर स्वयं के लिए मृत्युलोक (पृथ्वी) में ही रुके रहना का निवेदन प्रभु से किया । प्रभु ने कारण पूछा तो भक्त शिरोमणि प्रभु श्री हनुमानजी ने कहा कि पृथ्वी पर आपकी कथामृत का रसपान मैं निरंतर करते रहना चाहता हूँ ।
प्रभु श्री हनुमानजी को श्रीरामकथा सुनने से कभी भी तृप्ति नहीं होती जबकि वे स्वयं उस श्रीकथा के सबसे श्रेष्ठ पात्र रहें हैं, कथा में वर्णित घटनाओं को उन्होंने प्रत्यक्ष रूप में देखा है और उसमें पात्र भी रहे हैं पर फिर भी बार-बार प्रभु की श्रीलीलाओं को निरंतर सुनते रहने की लालसा उनके भीतर जागृत है । यही सच्चे भक्त की निशानी है क्योंकि बार-बार प्रभु की श्रीलीलाओं को सुनने से नए-नए रस का अनुभव, नई-नई व्याख्याएं, नए-नए दर्शन भक्त को होते ही रहते हैं । संत पुरुष ऐसा ही किया करते हैं ।
पर साधारण जीव के मन में यह विचार आ जाता है कि कथा तो हम एक-दो बार सुन चुके हैं, कथा तो हमें पता ही है, अब बार-बार समय व्यर्थ क्यों करें ।
जिस जीव के मन में ऐसी भावना हो, उसे कथा की गहराई में उतर कर, भाव के दर्शन करने का प्रयास करना चाहिए । क्योंकि प्रभु कथा भक्तों को परम रोमांचित करती है । रोम-रोम पुलकित हो जाते हैं, हृदय में आनंद के हिलोरे उठते हैं । रोमांचित करने वाला, पुलकित करने वाला, पवित्र करने वाला, आनंदित करने वाला इससे बड़ा कोई साधन है ही नहीं । न पूर्व में इससे बड़ा कोई साधन था और भविष्य में भी इससे बड़ा कोई साधन होना संभव ही नहीं है क्योंकि प्रभुकथा परमानंद की पराकाष्ठा है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 सितम्बर 2012 |
37 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 3 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह श्रीमद् भागवत अत्यन्त गोपनीय, रहस्यात्मक पुराण है । यह भगवत्स्वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्त वेदों का सार है । संसार में फंसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिए आध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भागवतजी का कितना सुन्दर मर्म यहाँ मिलता है ।
कुछ शब्दों की ओर विशेष ध्यान दें । यह महापुराण अत्यन्त गोपनीय और रहस्यात्मक यानी रहस्यों को खोलने वाला है । प्रभु के स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाला महापुराण, समस्त श्रीवेदों का साररूप है । अज्ञानान्धकार यानी अज्ञान के अंधकार से निकालकर अध्यात्म ज्ञान का प्रकाश देने वाला अद्वितीय दीपक है ।
श्लोक का एक-एक शब्द कितना सटीक और सत्य हैं, यह तो सच्चे भाव से इस कथामृत का पान करने से हमें स्वतः ही अनुभव होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 सितम्बर 2012 |
38 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति हो, भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरंतर बनी रहे, ऐसी भक्ति से हृदय आनंदस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भागवत धर्म का सूचक एक अद्वितीय श्लोक । संसार पटल पर धर्म की सबसे श्रेष्ठ व्याख्या यहाँ मिलती है ।
धर्म वह जो प्रभु की भक्ति करा दे, भक्ति भी ऐसी जो निस्वार्थ हो, नित्य-निरंतर हो । ऐसी भक्ति का फल क्या है ? आनंदस्वरूप प्रभु का हृदयपटल पर साक्षात अनुभव, प्रभु का साक्षात दर्शन कराकर मानव जीवन को कृतकृत्य कर देना । प्रभु साक्षात्कार द्वारा जीव और "शिव" का मिलन मानव जीवन की सच्ची पराकाष्ठा है । हमने मानव जीवन में कितना धन कमाया, कितनी प्रतिष्ठा कमाई, यह मानव जीवन को आंकने का बहुत गौण और बहुत बौना मापदंड है, जो कलियुग में प्रचलित है । इसका समर्थन कहीं भी अध्यात्म में नहीं मिलेगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 सितम्बर 2012 |
39 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 7 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की भक्ति से युक्त होते ही, अनन्य प्रेम से अपने चित्त को प्रभु से जोड़ते ही ज्ञान और वैराग्य का अंकुर हमारे भीतर फूट जाता है । ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि प्रभु ने भक्ति माता को "ज्ञान और वैराग्य" पुत्र रूप में दिए हैं ।
इसलिए भक्ति माता जब हमारे जीवन में आती हैं तो अपने पुत्रों "ज्ञान और वैराग्य" को साथ लाती हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 अक्टूबर 2012 |
40 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 8 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - कितनी सटीक व्याख्या जो कलियुग में बहुत प्रासंगिक हैं । हम धर्म अनुष्ठान जैसे यज्ञ, कथा, कीर्तन इत्यादि करते हैं पर अगर उससे हमारे हृदयपटल पर प्रभु के लिए सच्चा अनुराग, सच्ची प्रेमाभक्ति उदित नहीं होती, उन अनुष्ठानों ने हमारे रोम-रोम को पुलकित नहीं किया तो वह मात्र श्रम के अलावा कुछ नहीं । ऐसे अनुष्ठानों का कोई विशेष लाभ नहीं होता ।
धर्म अनुष्ठान को सात्विक रूप से, पवित्र रूप से, प्रभु के लिए प्रेमाभक्ति भाव को प्रधान रखकर करना चाहिए । उसे सिर्फ एक क्रिया के रूप में नहीं करना चाहिए । प्रभु के लिए प्रेमाभक्ति भाव रखकर करने पर ही वह धर्म अनुष्ठान लाभदायक और हितकारी सिद्ध होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 अक्टूबर 2012 |
41 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 10- 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भोग विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन-निर्वाह । जीवन का फल भी तत्वजिज्ञासा है । बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना भी उसका फल नहीं है । तत्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं । उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान के नाम से पुकारते हैं । श्रद्धालु मुनिजन भगवत्-श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्ति से अपने हृदय में उस परमतत्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्तजन कथाश्रवण द्वारा प्राप्त ज्ञान और वैराग्य से युक्त होकर भक्ति द्वारा अपने हृदयपटल पर परमतत्व सच्चिदानंद का अनुभव करते हैं । सच्चिदानंदस्वरूप जिनको हम ब्रह्म, परमात्मा, प्रभु, भगवान आदि अनेक नामों से पुकारते हैं, उन अलौकिक तत्व की जिज्ञासा करके उनका अनुभव करना ही मानव जीवन का फल है । यही मानव जीवन का प्रयोजन भी है । अर्थ द्वारा भोग विलास कर इन्द्रियों को तृप्त करना, बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना मानव जीवन का प्रयोजन नहीं हो सकता ।
मानव जीवन उद्देश्य का कितना सटीक विश्लेषण और स्पष्ट व्याख्या यहाँ मिलती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 अक्टूबर 2012 |
42 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है । विचारवान पुरुष भगवान के चिंतन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं । तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान की लीलाकथा में प्रेम न करे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - पूर्व जन्म एवं इस जन्म में संचित विपरीत कर्मफल को काटने का साधन बताता मेरा यह एक प्रिय श्लोक है । यहाँ पहली बात बताई गई है कि कर्मों की गाँठ बहुत कड़ी होती है । अन्य साधन, अन्य विधि से इसे काटना कतई संभव नहीं है । विवेकीजन इस गाँठ को एकमात्र "प्रभु चिंतन" से काटते हैं ।
इस श्लोक के भाव इन पंक्तियों में मिलेंगे "प्रभु का चिंतन करना मेरा काम, मेरी चिंता करना मेरे प्रभु का काम" । अगर हम प्रभु का सच्चे मन से चिंतन करते हैं तो हमारे वर्तमान की, हमारे भविष्य की एवं हमारे पूर्व संचित विपरीत कर्मफलों को काटने की चिंता का भार प्रभु ले लेते हैं ।
चिंतामुक्त होने का इतना सरल मार्ग श्रीमद् भागवतजी हमें दिखाती है, फिर भी जो मनुष्य इसका अनुसरण न करे, प्रभु का चिंतन न करे, प्रभु की श्रीलीलाओं के कथामृत का दर्शन न करे और सबसे अहम बात प्रेमाभक्ति न करे, वह कर्मों की चिता में जलता रहेगा । ऐसा व्यक्ति कभी भी कर्मबंधन से मुक्त नहीं हो सकता, जिसके कारण उसका जन्म-मरण चलता रहेगा ।
आवागमन से मुक्त होना हो तो कर्मों की गाँठ को "प्रभु चिंतन" से ही काटना होगा । यही एकमात्र उपाय है । इतना बड़ा रहस्य इस श्लोक के द्वारा जनकल्याण के लिए उजागर किया गया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 14 अक्टूबर 2012 |
43 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं । वे अपनी कथा सुननेवालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक अदभुत भगवत् सिद्धांत के दर्शन यहाँ होते हैं । प्रभु के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों हमें पवित्र करते हैं । हृदय पवित्र होता है तो प्रभु हृदय में स्थित हो जाते हैं । प्रभु का वास सभी जीवों में है पर अशुद्ध और अपवित्र विचार, आचरण के कारण प्रभु हमारे भीतर होते हुए भी हमारे लिए अदृश्य रहते हैं । प्रभु के हृदयपटल पर स्थित होते ही अशुभ वासनाएं भाग खड़ी होती हैं और शुभ और पवित्र विचार, आचरण का संचार हमारे भीतर स्वतः हो जाता है ।
एक भगवत् सिद्धांत है कि हमारे हृदय में प्रभु विराजते हैं तो हमारे भीतर अच्छाइयां स्वतः ही जग जाती हैं और हमारे भीतर की बुराइयां स्वतः ही सो जाती है । इसके विपरीत जब हमारे भीतर से प्रभु अदृश्य होते हैं तो अच्छाइयां सो जाती हैं और बुराइयां जग जाती हैं । इस भाव के दर्शन संतों ने मेरे प्रभु श्री कृष्णजी की प्राकट्य श्रीलीला में करवाए है । प्रभु का श्री मथुराजी के कारागार में जैसे ही प्राकट्य हुआ श्री वासुदेवजी और भगवती देवकी माता के बंधन खुल गए, कंस के सैनिक यानी बुराइयां सो गए । प्रभु जैसे ही नंदभवन पहुँचे और श्री वासुदेवजी माया के साथ वापस आए तो बंधन ने पुनः जकड़ लिया और कंस के सैनिक यानी बुराइयां जाग उठे ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 अक्टूबर 2012 |
44 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार भगवान की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियां मिट जाती हैं, हृदय आनंद से भर जाता है, तब भगवान के तत्व का अनुभव अपने आप हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्लोक में कहा गया है कि प्रभु की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियां मिट जाती है, जब हृदय आनंद से भर जाता है, तब प्रभु भक्ति से प्रभु तत्व का अनुभव अपने आप होता है । यहाँ विशेष ध्यान दें कि सांसारिक आसक्तियां मिटाने का माध्यम स्पष्ट रूप से भक्ति को बताया गया है । सांसारिक आसक्तियां मिटाते ही हृदय में आनंद का संचार होना बताया गया है । पर हम सांसारिक आसक्तियों के बीच आनंद तलाशते हैं । जो चीज जहाँ है ही नहीं वह वहाँ कैसे मिलेगी । आनंद और परमानंद सिर्फ और सिर्फ प्रभु के पास जाने पर ही अनुभव होगा ।
संतों से सुनी एक कथा का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक है । प्रभु के श्रीकमलचरणों में सभी सद्गुणों का वास है । प्रभु ने एक बार अपने श्रीकमलचरणों को उठा कर समस्त सद्गुणों को मृत्युलोक (पृथ्वी) भेजा । जगजननी भगवती लक्ष्मी माता पास बैठी थीं, उन्होंने देखा कि प्रभु के श्रीकमलचरणों के नीचे अभी भी कुछ चिपका हुआ है । उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो ज्ञात हुआ कि आनंद और परमानंद आदि प्रभु के श्रीकमलचरणों से चिपके हुए हैं । यानी आनंद और परमानंद तो प्रभु के श्रीकमलचरणों की छत्रछाया में आने पर ही जीव को मिल सकते हैं । पृथ्वी पर जब किसी भी चीज में "आनंद और परमानंद" हैं ही नहीं तो कहाँ से मिलेंगे ? पर मानव गलत जगह यानी पृथ्वी पर इन चीजों को सदैव तलाशता रहा है और भटकता रहा है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 अक्टूबर 2012 |
45 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हृदय में आत्मस्वरूप भगवान का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रंथि टूट जाती है, सारे संदेह मिट जाते हैं और कर्मबंधन क्षीण हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह श्लोक मुझे बहुत प्रिय है । एक के बाद एक रहस्य खोलता यह अदभुत श्लोक है । हृदयपटल पर जब हम अपने आत्मस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करते हैं, तो उसी समय सभी ग्रंथियां टूट जाती है, भ्रांतियां मिट जाती है, सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं, सारे संदेह मिट जाते हैं । सबसे अहम बात कि हमारे किए हुए कर्मों के कर्मबंधन क्षीण हो जाते हैं । हम अपने बल पर कभी अपने कर्मबंधन नहीं काट सकते क्योंकि नित्य नए कर्म करते ही उसका कर्मबंधन उसी समय तैयार हो जाता है ।
ऐसा समझना चाहिए कि कर्म और कर्मबंधन का जन्म एक साथ होता है । कर्म किया कि कर्मबंधन तैयार हुआ । कर्मबंधन में उलझकर हम जन्म दर जन्म लेते रहते हैं । पुराने कर्मों को जन्म ले कर भोगते हैं, उस जन्म में नया कर्म करते हैं और फिर कर्मबंधन तैयार कर लेते हैं अगले जन्म हेतु ।
कर्म करना जीव की प्रवृत्ति है । वह कर्म करे बिना नहीं रह सकता । कर्म करना धर्मसंगत भी है । कहीं भी कर्म करने की मनाही नहीं है, कहीं भी कर्म नहीं करने का उपदेश नहीं मिलेगा । सत्कर्म करना और उस सत्कर्म को भी प्रभु के श्रीकमलचरणों में समर्पित करते हुए करना, यही धर्म में बताया रास्ता है । इससे भी बड़ा जो धर्म का उपदेश है, जिससे हम प्रायः चूक जाते हैं वह यह है कि भक्ति द्वारा प्रभु से बंध जाना, फिर प्रभु के लिए ही कर्म करना । ऐसी अवस्था में पहुँचने के बाद हमारे द्वारा किया कर्म कभी हमें बाँध नहीं सकता । कर्म का बंधन छूटा तो आवागमन यानी जन्म-मरण से उसी क्षण मुक्ति मिल गई ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 अक्टूबर 2012 |
46 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसी से बुद्धिमान लोग नित्य-निरंतर बड़े आनंद से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्लोक में ध्यान देने योग्य बात "बुद्धिमान लोग" की व्याख्या है । किसे बुद्धिमान माना गया है ? जो समस्त संसारी ज्ञान अर्जित कर ले, दुर्लभ खोज या आविष्कार कर ले, किसी विषय का पंडित बन जाए - नहीं ।
बुद्धिमान उसे माना गया है जो नित्य-निरंतर आनंद में डूबकर प्रभु की प्रेमाभक्ति करे जिससे उसे आत्मप्रसादी की प्राप्ति हो सके ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 अक्टूबर 2012 |
47 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रकृति के तीन गुण हैं - सत्व, रज और तम । इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिए एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र - ये तीन नाम ग्रहण करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अंग्रेजी के शब्द GOD की व्याख्या यहाँ मिलती है । G=Generator उत्पत्ति करने वाले प्रभु श्री ब्रह्माजी के रूप में, O=Operator स्थिति रखने वाले प्रभु श्री विष्णुजी के रूप में एवं D=Destroyer प्रलय से विलय करने वाले प्रभु श्री शिवजी रूप में । हम GOD शब्द तो रोज पढ़ते, बोलते एवं सुनते हैं । पर इस शब्द की व्याख्या अगर हमारी बुद्धि में स्थित हो जाए कि बनाने वाले भी प्रभु, चलाने वाले भी प्रभु और मिटाने वाले भी प्रभु तो हमें हमारी औकात पता चल जाती है कि हम कुछ भी नहीं । हमारा सामर्थ्य कुछ भी नहीं । सामर्थ्य का अभिमान ही तो जीव का पतन करवाता है । जब हम मन में दृढ़ कर लेंगे कि हमारा सामर्थ्य कुछ है ही नहीं तो अभिमान कभी पनप ही नहीं सकता । ऐसा मानने वाला जीवन में कितनी भी ऊँचाई पर पहुँच जाएगा तो भी बुलंदी पर उसे प्रभु की शक्ति के ही दर्शन होंगे, खुद की शक्ति के नहीं ।
इसका एक अदभुत दृष्टान्त भक्त शिरोमणि, भक्ति मूरत प्रभु श्री हनुमानजी ने श्री रामचरितमानसजी के श्री सुन्दरकाण्डजी में प्रस्तुत किया है । जब समुद्रदेवजी को लाँघते समय नागमाता सुरसा सामने आई और उन्होंने अपना मुँह 16 योजन का किया तो प्रभु श्री हनुमानजी ने अपना कर्म यानी आकार 32 योजन का किया । जैसे-जैसे सुरसा अपना मुँह बड़ा करती गई, प्रभु श्री हनुमानजी भी अपना कर्म यानी आकार उससे दोगुना करते गए । जब सुरसा ने सौ योजन का मुँह किया तो प्रभु श्री हनुमानजी तुरंत लघु रूप धारण कर सुरसा के मुँह में प्रवेश कर वापस बाहर आ गए । संतों ने बहुत सुन्दर व्याख्या की है कि जब जरूरत पड़ी तो प्रभु श्री हनुमानजी अपना कर्म दोगुना करते गए और फिर लघु रूप होकर मानो सबको नसीहत देकर बता दिया कि यह आकार यानी कर्म को दोगुना-चौगुना करने की शक्ति और सामर्थ्य मेरा नहीं, मेरे प्रभु का है, मेरी क्षमता तो मेरे लघु रूप जितनी लघु मात्र है ।
ऐसा मानने वाला एवं ऐसा करने वाला ही जीवन की सच्ची बुलंदी, सच्ची ऊँचाई पा सकता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 नवम्बर 2012 |
48 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 2
श्लो 26 - 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निंदा तो नहीं करते, न किसी के दोष को देखते हैं .... सत्वगुणी विष्णुभगवान और उनके अंश - कलास्वरूपों का ही भजन करते हैं । परंतु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं, क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन से मिलता-जुलता होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - तीन तरह के प्रधान गुण लिए मानव शरीरधारी जीव की व्याख्या यहाँ मिलती है ।
जिनमें प्रधान गुण सत्वगुण है, वे मानव संसार सागर से पार जाने हेतु मानव शरीर का उपयोग करते हैं । वे न तो अपना समय किसी की व्यर्थ निंदा करके और न ही किसी में दोष देखने में गँवाते हैं । अधिकतर मानवों ने संसार सागर से पार उतरने का लक्ष्य मानव जीवन में नहीं रखा है इसलिए व्यर्थ के पचड़े में पड़े हुए हैं जैसे निंदा करना, दोष देखना, संसार के प्रपंच में पड़े रहना । सत्वगुणी जीव अपना जीवन प्रभु एवं प्रभु के कलास्वरूपों का भजन करने में ही व्यतीत करते हैं क्योंकि यही संसार सागर से पार उतरने का सेतु है । यही आवागमन एवं चौरासी लाख योनियों के चक्रव्यूह से मुक्त होने का सशक्त साधन है ।
जिनका प्रधान स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतान की कामना के लिए उपासना करते हैं और इसकी प्राप्ति में अपना सारा जीवन लगा देते हैं ।
सभी जीवों में तीनों गुण कमोबेश मात्रा में स्थित होते हैं । हमें अपने भीतर के सत्वगुण को निखारने की जरूरत है क्योंकि यही हमें संसार सागर से मुक्ति दिलाने में, भवसागर से पार उतारने में एकमात्र सक्षम है । सत्वगुण को निखारने के लिए भी हमें प्रभु की तरफ बढ़ने की जरूरत है । जैसे-जैसे हम प्रभु की तरफ बढ़ेंगे, सत्वगुण में वृद्धि होगी । वैसे ही जब हम धन, ऐश्वर्य और संसार की तरफ बढ़ेंगे तो हमारा रजोगुण और तमोगुण बढ़ता जाएगा । बढ़ा हुआ रजोगुण और तमोगुण ही हमें धन, ऐश्वर्य और संसार की तरफ ले जाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 नवम्बर 2012 |