श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
241 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 32-33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वही भगवान की अहैतु की भक्ति है । यह मुक्ति से भी बढ़कर है ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में उपरोक्‍त बात कही ।

यहाँ एक तथ्‍य का प्रतिपादन प्रभु करते हैं । प्रभु भक्ति को मुक्ति से भी बड़ा बताते हैं ।

जिसका चित्‍त एकमात्र प्रभु में लग जाए और जिसका मन प्रभु में एकाग्र हो जाए उसमें भक्ति जागृत होती है । भक्ति का स्‍थान सर्वोच्च है और वह मुक्ति से भी कहीं बढ़कर है । मुक्ति को तो भक्ति की दासी माना गया है । सच्‍चे भक्‍त को मुक्ति मांगनी नहीं पड़ती, मुक्ति पर उसका स्‍वतः ही अधिकार हो जाता है । पर सच्‍चे भक्‍त मुक्ति नहीं मांगते, वे तो निरंतर प्रभु की भक्ति ही मांगते हैं क्‍योंकि भक्ति में ही परमानंद है । भक्ति के रसास्‍वादन के लिए भक्‍त मुक्ति को ठुकरा देते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 फरवरी 2015
242 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्‍हें परमपद की प्राप्ति करा देती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में उपरोक्‍त बात कही ।

प्रभु कहते हैं कि मेरा सच्‍चा भक्‍त सिर्फ मेरी भक्ति ही चाहता है । मेरा भक्‍त मोक्ष और परमपद नहीं चाहता । पर भक्ति की महिमा इतनी है कि न चाहने पर भी भक्ति उन्‍हें परमपद की प्राप्ति स्‍वतः ही करवा देती है ।

भक्ति करने वाले को कुछ मांगने की या कुछ चाहत रखने की आवश्‍यकता ही नहीं होती । सब कुछ उसे स्‍वतः ही प्राप्‍त होता है । यह एक शाश्‍वत सिद्धांत है ।

इसलिए जीवन को प्रभु भक्ति में लगाना चाहिए और इस दिशा में हमारा निरंतर प्रयास होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 फरवरी 2015
243 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 38
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्‍मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद और इष्‍टदेव हूँ, वे मेरे ही आश्रय में रहनेवाले भक्‍तजन शान्तिमय बैकुंठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्‍य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्‍हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में उपरोक्‍त बात कही ।

जिन्होंने एकमात्र प्रभु को ही अपना सब कुछ बना लिया हो और जो प्रभु के आश्रय में रहते हैं, वे भक्‍त प्रभु के धाम को जाते हैं । वहाँ उन्‍हें सभी दिव्‍य भोग उपलब्‍ध होते हैं, वे भोगों से रहित नहीं होते । ऐसे भक्‍तों को प्रभु का कालचक्र भी अपना ग्रास नहीं बनाता ।

इसलिए प्रभु को ही अपना सब कुछ बनाने का प्रयास करना चाहिए । प्रभु ही हमारे गुरु, पिता, मित्र, इष्‍ट आदि सब कुछ होने चाहिए । जिन्होंने प्रभु को ही अपना सब कुछ मान लिया ऐसे भक्‍त प्रभु के धाम को जाते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 फरवरी 2015
244 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 39-40
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... शरीर से सम्‍बन्‍ध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्‍यान्‍य संग्रहों को भी छोड़कर अनन्‍य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं, उन्‍हें मैं मृत्युरूप संसार सागर से पार कर देता हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्‍त वचन भगवती देवहूति माता को उपदेश के अन्‍तर्गत कहे ।

जो शरीर, धन, संपत्ति, गृह आदि सभी संग्रहों को छोड़कर प्रभु की अनन्‍य भक्ति और भजन करता है उसे प्रभु मृत्युरूपी संसार सागर से पार उतार देते हैं ।

प्रभु का प्रण है कि भक्ति करने वाले को प्रभु भवसागर से तार देते हैं । इसी सिद्धांत का प्रतिपादन प्रभु ने अपने उपदेश में यहाँ पर किया है ।

प्रभु की अनन्‍य भक्ति ही एकमात्र साधन है जो मृत्युरूपी संसार सागर के पार उतार सकती है । अन्‍यथा फिर जन्‍म-मरण के चक्‍कर में फंसना पड़ता है । अपने कर्म अनुसार किसी भी योनि में जन्‍म लेकर मृत्युलोक में आना पड़ता है । इससे बचने का एकमात्र उपाय प्रभु की अनन्‍य भक्ति करना है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 फरवरी 2015
245 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 41
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश के दौरान उपरोक्‍त बात कही ।

यहाँ एक सिद्धांत का प्रतिपादन मिलता है । मृत्यु महाभय है यह सभी मानते हैं और मृत्यु से सभी भयभीत रहते हैं । प्रभु कहते हैं कि प्रभु का आश्रय लिए बिना मृत्युरूपी इस महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता । अन्‍य कोई उपाय नहीं जिससे हम मृत्युरूपी महाभय से अभय हो पाए ।

प्रभु की भक्ति से मृत्यु का भय चला जाता है क्‍योंकि भक्‍त को पता होता है कि अंतिम समय उसे प्रभु का सानिध्य प्राप्‍त होगा और उसका कल्‍याण होगा ।

इसलिए हमें जीवन काल में प्रभु का आश्रय लेकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 मार्च 2015
246 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 43
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
योगिजन ज्ञान-वैराग्‍ययुक्‍त भक्तियोग के द्वारा शांति प्राप्‍त करने के लिए मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को दिया ।

ज्ञान और वैराग्‍य को भक्ति माता के पुत्र के रूप में माना गया है । इसलिए ज्ञान और वैराग्‍य युक्‍त भक्ति के द्वारा ही सच्‍ची शांति मिलती है । ऐसी शांति प्राप्‍त करने के लिए योगीजन ज्ञान और वैराग्‍य युक्‍त भक्ति के द्वारा प्रभु के निर्भय कर देने वाले श्रीकमलचरणों का आश्रय लेते हैं ।

संतों का मानना है कि शांति का निवास प्रभु के श्रीकमलचरणों में है । हम शांति संसार में खोजते हैं जो वहाँ है ही नहीं ।

भक्ति द्वारा प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेने पर ही शांति मिलती है । यह एक शाश्‍वत सिद्धांत है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 मार्च 2015
247 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 25
श्लो 44
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संसार में मनुष्‍य के लिए सबसे बड़ी कल्‍याण प्राप्ति यही है कि उसका चित्‍त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को दिया ।

प्रभु यहाँ मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के बारे में बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि संसार में मनुष्‍य अपना सबसे बड़ा कल्‍याण तब कर सकता है जब वह तीव्र भक्ति से अपना चित्‍त प्रभु में लगाए ।

प्रभु की भक्ति करके अपना तन-मन-धन प्रभु में लगाना मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । प्रभु इस तथ्‍य का प्रतिपादन उपरोक्‍त श्‍लोक में करते हैं ।

इसलिए जीवन में प्रभु भक्ति करके अपना ध्‍यान प्रभु में केंद्रित करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 मार्च 2015
248 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 26
श्लो 72
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतः भक्ति, वैराग्‍य और चित्‍त की एकाग्रता से प्रकट हुए ज्ञान के द्वारा उस अंतरात्‍मस्‍वरूप क्षेत्रज्ञ को इस शरीर में स्थित जानकर उसका चिंतन करना चाहिए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - भक्ति, वैराग्‍य और चित्‍त की एकाग्रता से प्रकट ज्ञान के द्वारा अपनी अंतरात्मा स्‍वरूप प्रभु को अपने में स्थित जानकर उनका चिंतन करना चाहिए ।

प्रभु का एक वास हमारे भीतर अंतःकरण में है । हमें प्रभु को बाहर नहीं भीतर खोजना चाहिए । प्रभु की खोज में हमें अंतर्मुखी होने की जरूरत है । भक्‍तराज श्री ध्रुवजी को प्रभु ने अंतःकरण में ही सर्वप्रथम दर्शन दिए फिर उन्‍होंने आँखें खोली तो वही स्‍वरूप उन्‍हें बाहर दिखा ।

इसलिए प्रभु को अपने भीतर स्थित जान उनका चिंतन करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 मार्च 2015
249 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 27
श्लो 05
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए बुद्धिमान मनुष्‍य को उचित है कि असन्‍मार्ग यानी विषय-चिन्‍तन में फंसे हुए चित्‍त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्‍य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वश में लाए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में कहे ।

हमारा चित्‍त विषय चिंतन में फंसा होता है । हमारा मन संसार एवं सांसारिक चीजों का चिंतन करता रहता है । प्रभु कहते हैं कि बुद्धिमान मनुष्‍य वह है जो विषय चिंतन से मन को हटा कर प्रभु में लगाए । मन को वश में लाने का साधन है प्रभु की तीव्र भक्ति और संसार से वैराग्‍य । प्रभु कहते हैं कि इस चंचल मन को तीव्र भक्तियोग और वैराग्‍य से ही धीरे-धीरे वश में लाया जा सकता है ।

इसलिए हमें प्रभु की भक्ति करके अपने चित्‍त को प्रभु के चिंतन में लगाना चाहिए । यही मानव जीवन की सफलता की कुंजी भी है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 मार्च 2015
250 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 27
श्लो 09
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वह आत्‍मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने की भांति अपने शुद्ध अंतःकरण द्वारा परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्‍त हो जाता है ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अपने उपदेश के तहत प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्‍त वचन भगवती देवहूति माता से कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो चित्‍त को प्रभु में एकाग्र रखते हैं, जो प्रभु में सच्‍चा भाव रखते हैं, जो प्रभु की कथा का श्रवण करते हैं और जो प्रभु के सिवा किसी दूसरी वस्‍तु को नहीं देखते, ऐसे आत्‍मदर्शी मनुष्‍य अपने शुद्ध अंतःकरण के कारण प्रभु का साक्षात्‍कार प्राप्‍त करते हैं । प्रभु का साक्षात्‍कार प्राप्‍त करके वे अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्‍त होते हैं ।

मनुष्‍य जीवन का अंतिम लक्ष्‍य प्रभु का साक्षात्‍कार होना चाहिए एवं भक्ति के द्वारा हमारा प्रयास इसी दिशा में होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 मार्च 2015
251 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 27
श्लो 26
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उसी प्रकार जिसे तत्‍वज्ञान हो गया है और जो निरंतर मुझमें ही मन लगाए रहता है, उस आत्‍माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश के अन्तर्गत कहे ।

जिसे आत्‍मज्ञान हो गया वह निरंतर प्रभु में मन लगाए रखता है । जैसे सोए हुए पुरुष को स्वप्न में अनुभव किया हुआ, जागने पर उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता, वैसे ही प्रभु कहते हैं कि जिन्होंने प्रभु में मन लगा लिया ऐसे आत्‍माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ।

भक्ति द्वारा प्रभु में मन लगाना सभी प्रतिकूलताओं से बचने का सर्वोच्च उपाय है । हम संसार में मन लगाते हैं और दुःखी रहते हैं । हमें सिर्फ इतना करना है कि मन प्रभु में लगाना है । प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में भी श्री अर्जुनजी से यही कहा है कि अपना मन प्रभु को दे दें ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 मार्च 2015
252 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 28
श्लो 07
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्‍ट चित्‍त को धीरे-धीरे एकाग्र करें, परमात्‍मा के ध्‍यान में लगाएं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने अपने उपदेश के अन्तर्गत उपरोक्‍त वचन भगवती देवहूति माता से कहे ।

प्रभु की पूजा करके, प्रभु की श्रीलीलाओं का चिंतन करके जो अपने चित्‍त को धीरे-धीरे प्रभु में एकाग्र करता है और जो अपने चित्‍त को प्रभु में लगाता है उसका कल्‍याण होता है ।

प्रभु ने मनुष्‍य के चित्‍त को कुमार्गगामी और दुष्‍ट की संज्ञा दी है । मनुष्‍य का चित्‍त वैसा ही है जैसी प्रभु ने उपमा दी है । पर हमें धीरे-धीरे उस चित्‍त को एकाग्र करके प्रभु के ध्‍यान में लगाना चाहिए । प्रभु ने ऐसा उपदेश उपरोक्‍त श्‍लोक में दिया है ।

हमें भक्ति द्वारा अपने चित्‍त को प्रभु में एकाग्र करने का सदैव प्रयास करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 मार्च 2015
253 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 28
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब योग का अभ्‍यास करते-करते चित्‍त निर्मल और एकाग्र हो जाए, तब नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान की मूर्ति का ध्‍यान करें ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में कहे ।

यहाँ पर किसका ध्‍यान करना चाहिए इस तथ्‍य का प्रतिपादन मिलता है । प्रभु कहते हैं कि प्रभु मूर्ति के रूप में हमारे सामने हैं, इस स्‍वरूप का ध्‍यान करना चाहिए । प्रभु के मुखकमल, श्रीनेत्र, शरीर, हस्‍तकमल एवं श्रीकमलचरणों का ध्‍यान करना चाहिए । प्रभु के एक-एक श्रीअंगों का बारी-बारी से ध्‍यान करना चाहिए । प्रभु के एक-एक श्रीअंग इतने मनोहर हैं कि हमें उनका ही ध्‍यान करना चाहिए ।

सूत्र यह है कि ध्‍यान करने योग्‍य सिर्फ प्रभु ही हैं इसलिए योगी या भक्‍त को सिर्फ प्रभु का ही ध्‍यान करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 मार्च 2015
254 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 28
श्लो 17
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी अति सुन्‍दर किशोर अवस्‍था है, वे भक्‍तों पर कृपा करने के लिए आतुर हो रहे हैं । बड़ी मनोहर झांकी है । भगवान सदा सम्‍पूर्ण लोकों से वन्दित हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने अपने उपदेश के अन्तर्गत उपरोक्‍त वचन भगवती देवहूति माता से कहे ।

दो तथ्‍य यहाँ ध्‍यान देने योग्‍य हैं । पहला, प्रभु भक्‍तों पर कृपा करने के लिए आतुर होते हैं । भक्‍तों पर कृपा करना प्रभु का स्‍वभाव है । प्रभु के पास जाने पर प्रभु की कृपा मिलना तय है । जैसे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी का प्रकाश देना तय है वैसे ही प्रभु का कृपा करना तय है । जरूरत है तो बस भक्ति द्वारा प्रभु तक पहुँचने की ।

दूसरा, प्रभु सम्‍पूर्ण जगत में ही नहीं बल्कि सम्‍पूर्ण लोकों में वंदित हैं । प्रभु की वन्‍दना हर लोक में और हर युग में सदा-सदा होती है । एकमात्र प्रभु ही सभी जगह वंदित होते हैं । प्रभु का ऐश्‍वर्य सम्‍पूर्ण लोकों में फैला हुआ है । इसलिए उनकी वन्‍दना हर लोक में निरंतर होती है । हमें भी अपना जीवन प्रभु वन्‍दना करते हुए ही बिताना चाहिए । प्रभु की वन्‍दना की आदत हमें अपने जीवन में बनानी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 मार्च 2015
255 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 28
श्लो 31
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हृदयगुहा में चिरकाल तक भक्तिभाव से भगवान के नेत्रों की चितवन का ध्‍यान करना चाहिए, जो कृपा से और प्रेम भरी मुसकान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्‍तजनों के अत्‍यन्‍त घोर तीनों तापों को शान्‍त करने के लिए ही प्रकट हुई है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में कहे ।

प्रभु के श्रीनेत्रों का ध्‍यान करने की बात कही गई है और प्रभु के श्रीनेत्रों की महिमा बताई गई है । प्रभु के श्रीनेत्र ध्‍यान करने योग्‍य हैं और उनसे कृपा और प्रेम की वर्षा होती है । जैसे-जैसे हम ध्‍यान प्रभु के श्रीनेत्रों का करते हैं वैसे-वैसे उनमें कृपा और प्रेम क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती जाती है । प्रभु के श्रीनेत्रों के दर्शन भक्‍तों के तीनों तापों को शान्‍त करने वाले होते हैं ।

इसलिए ध्‍यान के माध्‍यम से प्रभु के श्रीनेत्रों के दर्शन करना चाहिए । मंदिर में भी दर्शन करने जाते हैं तो भी प्रभु के श्रीनेत्रों के दर्शन करने चाहिए क्योंकि इनका दर्शन सभी प्रकार से मंगलकारी है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 अप्रैल 2015
256 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 28
श्लो 33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इस प्रकार ध्‍यान में तन्‍मय होकर उनके सिवा किसी अन्‍य पदार्थ को देखने की इच्‍छा न करे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्‍त वचन भगवती देवहूति माता को उपदेश में कहे ।

प्रभु का ध्‍यान ऐसा करना चाहिए और उसमें इतना तन्‍मय होना चाहिए कि ध्‍यान के दौरान एवं ध्‍यान के बाद भी प्रभु के सिवा अन्‍य किसी पदार्थ को देखने की इच्‍छा ही न हो । प्रभु की मनोहर छवि हृदयपटल में इस तरह अंकित हो जाए कि अन्‍य कुछ देखने की इच्‍छा ही खत्‍म हो जाए ।

हमारा मन संसार को देखने के लिए लालायित रहता है पर ध्‍यान के माध्‍यम से प्रभु की छवि को हृदयपटल पर उतारा जाए जिससे संसार देखने की लालसा ही खत्‍म हो जाए ।

संसार में देखने और ध्‍यान करने योग्‍य सिर्फ प्रभु ही हैं इसलिए प्रभु के अलावा संसार के अन्‍य किसी भी पदार्थ को देखने की इच्‍छा ही नहीं होनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 अप्रैल 2015
257 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 10
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो व्‍यक्ति पापों का क्षय करने के लिए, परमात्‍मा को अर्पण करने के लिए और पूजन करना कर्तव्‍य है, इस बुद्धि से बिना भेदभाव के पूजन करता है, वह सात्विक भक्‍त है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त उपदेश प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को दिए ।

प्रभु ने तीन प्रकार के भक्‍तों की श्रेणी बताई है । जो व्‍यक्ति क्रोध, हिंसा, दंभ और मात्‍सर्य का भाव रखकर प्रभु से प्रेम करता है वह तामस भक्‍त है । जो व्‍यक्ति विषय, यश और ऐश्‍वर्य की कामना से प्रभु का पूजन करता है वह राजस भक्‍त है ।

पर जो व्‍यक्ति पापों का क्षय करने के लिए और अपना कर्तव्‍य मानकर प्रभु को अर्पण करने के लिए पूजा करता है वह सात्विक भक्‍त यानी श्रेष्‍ठ भक्‍त है । हमें निष्‍काम होकर प्रभु का पूजन करना चाहिए और पूजन हमारा कर्तव्‍य है ऐसा मानकर करना चाहिए और प्रभु के लिए किया यह कर्म प्रभु को अर्पण करके करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 अप्रैल 2015
258 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मुझ पुरुषोत्‍तम में निष्‍काम और अनन्‍य प्रेम होना, यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त बात प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश के अन्तर्गत कही ।

प्रभु कहते हैं कि जैसे श्री गंगाजी का प्रवाह अखण्‍ड रूप से समुद्र की ओर जाता है वैसे ही जो प्रभु के सद्गुणों का श्रवणमात्र करते हैं उनका चित्‍त प्रभु की तरफ आकर्षित होता है । वे प्रभु से निष्‍काम और अनन्‍य प्रेम करने लगते हैं । यही भक्तियोग के लक्षण हैं ।

प्रभु से निष्‍काम और अनन्‍य प्रेम करना भक्ति की श्रेष्‍ठता है । निष्‍काम का मतलब है बिना किसी कामना के प्रभु से प्रेम करना । धन, पुत्र, पौत्र, सुख, संपत्ति की कामना के बिना प्रभु से निष्‍काम भाव से प्रेम करना चाहिए । दूसरा, अनन्‍य प्रेम यानी पूरी तन्मयता से सिर्फ और सिर्फ प्रभु से ही प्रेम करना । सच्‍ची भक्ति होती है तो निष्‍कामता और अनन्‍यता दोनों ही प्रभु प्रेम में आ जाती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 अप्रैल 2015
259 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 13
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऐसे निष्‍काम भक्‍त, दिए जाने पर भी, मेरी सेवा को छोड़कर सालोक्‍य, सार्ष्टि, सामीप्‍य, सारूप्‍य और सायुज्‍य मोक्षतक नहीं लेते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में यह बात कही ।

प्रभु निष्‍काम भक्‍त की श्रेष्‍ठता बताते हैं कि वह प्रभु की सेवा को छोड़कर कुछ भी नहीं चाहता । दिए जाने पर भी वह प्रभु के नित्‍यधाम में निवास लेने से मना कर देता है । दिए जाने पर भी वह प्रभु का ऐश्‍वर्य भोग, प्रभु जैसा सुन्‍दर रूप, यहाँ तक कि मोक्ष को भी अस्‍वीकार कर देता है ।

निष्‍काम भक्ति श्रेष्‍ठतम भक्ति है । वहाँ पहुँचने पर प्रभु से कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ प्रभु से प्रभु ही चाहिए । जिसने भी प्रभु को पाया है वह निष्‍काम भक्ति के बल पर ही ऐसा कर पाया है ।

निष्‍काम भक्‍त सिर्फ प्रभु को चाहता है एवं प्रभु की सेवा करना चाहता है । जिस जीवन में निष्‍काम भक्ति आ जाती है वह जीवन धन्‍य हो जाता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 अप्रैल 2015
260 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 22
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं सबका आत्‍मा, परमेश्‍वर सभी भूतों में स्थित हूँ, ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्‍म में ही हवन करता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने उपरोक्‍त उपदेश भगवती देवहूति माता को दिए ।

पूरा जगत प्रभुमय है । हमें प्रभु के दर्शन हर जीव में, हर प्राणिमात्र में करने चाहिए । श्री तुलसीदासजी ने श्री रामचरितमानसजी में लिखा है कि उन्‍हें पूरा जगत ही राममय प्रतीत होता है । संतों ने जगत में जगतपति के दर्शन किए हैं । श्री प्रह्लादजी ने खंभे में प्रभु के दर्शन किए और प्रभु खंभे से प्रकट हुए । सभी जड़ और चेतन वस्तुओं में प्रभु का वास है ।

प्रभु कहते हैं कि जो ऐसा नहीं मानता और केवल देव प्रतिमा में ही प्रभु को देखता है वह मानो भस्‍म में ही हवन कर रहा है ।

इसलिए हमें सभी तरफ प्रभु की अनुभूति हो तभी हमारी भक्ति सिद्ध हुई है ऐसा मानना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 अप्रैल 2015
261 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 25
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्‍य अपने धर्म का अनुष्‍ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्‍वर की प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में एवं सम्‍पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्‍मा का अनुभव न हो जाए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में कहे ।

प्रभु कहते हैं तब तक धर्म का अनुष्‍ठान एवं प्रतिमा पूजन होना चाहिए जब तक वह जीव ईश्‍वर का दर्शन अपने हृदय में एवं सभी प्राणिमात्र में नहीं करने लगे ।

धर्म का और पूजन का उद्देश्य यह है कि प्रभु के दर्शन अपने हृदय में हों एवं जगत के हर प्राणिमात्र में प्रभु के दर्शन हों । संतों ने प्रभु के दर्शन जड़ और चेतन रूपी प्रत्‍येक कण में किए हैं । पूरा जगत प्रभुमय है और प्रभु का एक वास हमारे हृदय में भी है । जब यह दोनों बातें सिद्ध हो जाए तो जीव धन्‍य हो जाता है । इसलिए प्रभु का अपनी अंतरात्‍मा में दर्शन करना और प्रभु का हर जीव में दर्शन करना यह हमारा लक्ष्‍य होना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 अप्रैल 2015
262 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनमें भी बिना पैर वालों से बहुत से चरणों वाले श्रेष्‍ठ हैं तथा बहुत चरणों वालों से चार चरण वाले और चार चरण वालों से भी दो चरण वाले मनुष्‍य श्रेष्‍ठ हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता से कहे ।

प्रभु सभी तरह के प्राणियों का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि इनमें मनुष्‍य सर्वश्रेष्‍ठ है । उपरोक्‍त श्‍लोक में प्रभु सभी तरह के वृक्षादि एवं सभी तरह के जलचर, थलचर और नभचर एवं विभिन्‍न योनियों के जीव-जंतुओं का वर्णन करते हैं और अंत में कहते हैं कि इन सबमें मनुष्‍य ही श्रेष्‍ठ है ।

मानव जीवन बड़ा दुर्लभ है, ऐसा सभी शास्त्रों का मत है । यहाँ पर प्रभु स्‍वयं इस तथ्‍य का प्रतिपादन करते हैं कि मानव जन्‍म ही श्रेष्‍ठ है । सभी भोग योनियों के बाद मानवरूपी मुक्ति योनि में जन्‍म मिलता है । इसलिए हमें अपने मानव जीवन का उपयोग भक्ति करके प्रभु को पाने के लिए करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 अप्रैल 2015
263 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्‍पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीर को भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोड़कर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्‍ठ हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता से कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो सम्‍पूर्ण कर्म और उन कर्मों के कर्मफल तथा अपने शरीर को भी प्रभु को अर्पण कर प्रभु की उपासना करते हैं वे ही सबसे श्रेष्‍ठ हैं ।

हमें अपने कर्म और कर्मफल प्रभु को अर्पण करना चाहिए नहीं तो वे बंधन का कारण बन जाते हैं । कर्म, कर्मफल और कर्म करने वाला शरीर तीनों प्रभु को अर्पण करना श्रेष्‍ठतम मार्ग है ।

हम अपना शरीर भोगों को अर्पण करते हैं पर हमें अपने शरीर को प्रभु को अर्पण करना चाहिए । जो अपने शरीर को प्रभु की उपासना में लगाते हैं वे ही श्रेष्‍ठ होते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 मई 2015
264 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 29
श्लो 40
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसी के भय से वायु चलती है, इसी के भय से सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्‍द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्‍त वचन प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता से कही ।

प्रभु श्री कपिलजी कहते हैं कि सब कुछ प्रभु के ही नियंत्रण में है । प्रभु के भय के कारण वायु चलती है, प्रभु के भय के कारण श्रीसूर्यदेव ताप देते हैं । प्रभु के भय के कारण श्रीइन्‍द्रदेव वर्षा करते हैं, प्रभु के भय के कारण ही तारे चमकते हैं ।

प्रभु आगे कहते हैं कि प्रभु के भय से वनस्‍पति समय-समय पर फल, फूल और औषधि धारण करती है । प्रभु के प्रताप से नदियां बहती हैं और समुद्र मर्यादा में रहता है । प्रभु के भय से अग्नि प्रज्वलित होती हैं और पर्वतों सहित पृथ्वी जल में नहीं डूबती ।

मूल बात यह है कि सभी कुछ प्रभु के ही नियंत्रण में है एवं प्रभु द्वारा संचालित है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 मई 2015