क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
193 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अंतःकरणों में स्थित उनके परम हितकारी अंतरात्मा हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु सभी प्राणियों के अंतःकरण में स्थित उनके परम हितकारी अंतरात्मा हैं ।
हमारी अंतरात्मा में प्रभु स्थित हैं जो कि हमारे परम हितकारी हैं एवं सदैव हमारा मार्गदर्शन करते हैं । हम कुछ भी बुरा करने जाते हैं तो हमारी अंतरात्मा की आवाज हमें ऐसा करने से रोकती है । हमें अच्छा करने के लिए हमारी अंतरात्मा की आवाज हमें प्रेरित करती है ।
जब तक हमारे अंदर प्रभु के लिए भक्ति है तब तक हमारी अंतरात्मा की आवाज हमें स्पष्ट सुनाई देती रहती है । जो व्यक्ति अंतरात्मा की आवाज को मान कर चलता है उसका सदैव हित होता है और अहित से वह बचता है । इसलिए अंतरात्मा की आवाज हमें सदैव सुननी और माननी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 अप्रेल 2014 |
194 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता - वह अक्षय हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अपने कर्म को प्रभु को अर्पण करने का महत्व यहाँ बताया गया है ।
जो कर्म प्रभु को अर्पण कर दिया जाता है वह अक्षय हो जाता है । उसका कभी क्षय नहीं होता यानी उसका नाश नहीं होता ।
शास्त्रों में कर्म को प्रभु को अर्पण करने का विधान बनाया गया है । हमें हर कर्म को प्रभु को अर्पण करते हुए चलना चाहिए । कर्म प्रभु को अर्पण किया तो कर्मबंधन हमें बाँधेगा नहीं और कर्म का फल अक्षय हो जाएगा ।
शास्त्रों में सबसे श्रेष्ठ बात यह कही गई है कि हर कर्म प्रभु के लिए ही करना चाहिए । दूसरी श्रेष्ठ बात जो कही गई है वह यह कि जो लौकिक कर्म हमें करने पड़ते हैं उन्हें प्रभु को अर्पण करके करने चाहिए । यह दो नियम जीवन में जो अपना लेता है उसका अहित कभी नहीं होता ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 अप्रेल 2014 |
195 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को सूचित करने वाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अंत समय प्रभु का स्मरण क्या लाभ देता है यह बताता यह श्लोक ।
प्राणत्याग के समय जो जीव प्रभु के अवतार, गुण और कर्म को याद करके प्रभु के नाम का उच्चारण कर लेता है वह अनेक जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर माया आदि आवरणों से रहित ब्रह्मपद की प्राप्ति कर लेता है ।
पर अंत समय ऐसा तभी संभव हो पाता है जब इसका अभ्यास जीवन भर किया जाए । हम अगर यह सोचें कि माया के वशीभूत जीवन जीकर अंत समय सुलभता से प्रभु के अवतार, गुण और कर्म को याद कर प्रभु का नाम उच्चारण कर लेंगे तो यह संभव नहीं । कलियुग में कितने उदाहरण ऐसे हैं जब प्राणत्याग के समय उस जीव का पूरा कुटुम्ब उसे श्रीराम नाम का उच्चारण करवाने का प्रयत्न करता है पर ऐसा उच्चारण उस जीव के कंठ से निकलता ही नहीं ।
इसलिए अगर ऐसा संभव करना हो तो इसका अभ्यास जीवन पर्यन्त किया जाए तभी यह संभव हो पाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 अप्रेल 2014 |
196 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिए कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मों में लगे रहते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - स्वधर्म की एक सुन्दर व्याख्या यहाँ पर मिलती है ।
प्रभु की आराधना ही सभी लोकों में रहने वाले सभी जीवों के लिए सबसे कल्याणकारी स्वधर्म है, इसकी पुष्टि यहाँ मिलती है । पृथ्वी पर चार वर्णों के लिए चार स्वधर्म बताए गए हैं पर सबके लिए सर्वप्रथम सबसे कल्याणकारी स्वधर्म प्रभु की आराधना है ।
पर जीव का दुर्भाग्य है कि इस कल्याणकारी स्वधर्म से उदासीन रहकर सर्वदा इसके विपरीत कर्मों में लगा रहता है ।
इसलिए हमें अपने सर्वप्रथम एवं सबसे कल्याणकारी स्वधर्म को स्पष्ट रूप से पहचान कर उसकी पूर्ति के लिए प्रयास करना चाहिए । प्रभु की आराधना रूपी स्वधर्म हमें जीवन में नई ऊँचाई प्रदान करता है और हमारे मानव जीवन को सफल बनाता है । मानव जीवन की सफलता की कुंजी भी यही है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 अप्रेल 2014 |
197 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
फिर भक्तियुक्त और समाहितचित होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने आपको देखोगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी को कहे ।
भक्तियुक्त होने से हमें सम्पूर्ण लोक में एवं अपने अंदर प्रभु व्याप्त दिखते हैं । प्रभु ने यही बात प्रभु श्री ब्रह्माजी को कही । संतों ने इस तथ्य का अनुभव हर युग में किया है ।
दूसरी बात, भक्तियुक्त होने से हम सम्पूर्ण लोक को एवं स्वयं अपने आपको प्रभु में देखते हैं । इस बात को प्रभु ने भगवती यशोदा माता को अपने श्रीमुख में ब्रह्माण्ड के दर्शन कराते वक्त करके दिखाया । भगवती यशोदा माता ने समस्त लोकों को, श्रीबृजमंडल को और यहाँ तक कि स्वयं को भी प्रभु के श्रीमुख में देखा ।
सिद्धांत स्पष्ट है कि प्रभु का समस्त लोकों में वास है एवं समस्त लोकों का प्रभु में वास है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 अप्रेल 2014 |
198 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 38 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्यारे ब्रह्माजी ! तुमने जो मेरी कथाओं के वैभव से युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपा का फल है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी को कहे ।
प्रभु की हम जो वैभव से युक्त स्तुति करते हैं एवं निष्ठा से अन्य साधन एवं तपस्या करते हैं वे सब प्रभु की कृपा के कारण ही संभव हो पाता है ।
सिद्धांत यह है कि जीव अपने बल पर प्रभु को नहीं पा सकता । प्रभु ही जीव पर कृपा करते हैं तो ही जीव प्रभु तक पहुँच सकता है ।
प्रभु की कृपा प्रसादी के बिना हम प्रभु की भक्ति, स्तुति, तप एवं अन्य साधन नहीं कर सकते । इसलिए अगर हम जीवन में ऐसा कुछ कर पा रहे हैं तो निश्चित ही इसे हमारे ऊपर प्रभु की असीम कृपा माननी चाहिए । जीवन में प्रभु की ऐसी कृपा सदा बनी रहे इसके लिए प्रयत्नशील एवं प्रयासरत होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 अप्रेल 2014 |
199 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 41 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तत्त्ववेत्ताओं का मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनों से प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी को कहे ।
सभी साधनों से प्राप्त होने वाला कल्याणकारी फल क्या है, उसकी व्याख्या यहाँ मिलती है । हम तप, यज्ञ, दान इत्यादि साधन करते हैं । इन सबका कल्याणमय फल क्या है ? प्रभु श्री ब्रह्माजी को प्रभु बताते हैं कि इन सबका कल्याणमय फल प्रभु की प्रसन्नता है ।
दूसरे शब्दों में यह सब कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं । सभी कर्मों का एक ही लक्ष्य होता है, वह प्रभु की प्रसन्नता का लक्ष्य होता है ।
सारांश यह है कि सभी कर्म प्रभु के लिए एवं प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 मई 2014 |
200 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
विधाता ! मैं आत्माओं का भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ । देहादि भी मेरे ही लिए प्रिय हैं । अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु आत्माओं के भी आत्मा हैं और प्रियों के भी प्रिय हैं । जितना हमें अपने स्त्री, पुत्र और देह प्रिय हैं उससे भी प्रिय हमें प्रभु होने चाहिए ।
भक्त को सबसे प्रिय प्रभु होते हैं । श्रीगोपीजन ने प्रभु के लिए ऐसा प्रेम प्रदर्शित किया । श्रीगोपीजन को अपने परिवार और अपने देह से कहीं अधिक प्रभु प्रिय थे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु प्रियों के भी प्रिय हैं इसलिए सर्वाधिक प्रेम प्रभु से करना चाहिए । जिसने जीवन में यह सिद्धांत बना लिया कि मुझे सबसे प्रिय प्रभु हैं और मेरा सर्वाधिक प्रेम मेरे प्रभु के लिए है उसका उसी क्षण कल्याण हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 मई 2014 |
201 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 10
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो भगवान अपना चिंतन करने वालों के समस्त दुःखों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का चिंतन करने वालों के सभी दुःख प्रभु हर लेते हैं । यह एक शाश्वत सिद्धांत है ।
कितने ही भक्तों के उदाहरण हैं जिन्होंने कभी जीवन में चिंता नहीं की, सिर्फ प्रभु का चिंतन किया है । उनके दुःखों को, विपत्तियों को प्रभु ने हर लिया ।
प्रभु का चिंतन करना हमारा काम है और हमारी चिंता करना प्रभु का काम है । चिंतन करने वाले के समस्त दुःखों को हरना प्रभु का काम है ।
कितना सरल मार्ग है कि प्रभु का चिंतन करने से सभी चिन्ताओं का, दुःखों का अंत हो जाता है । पर हमारा दुर्भाग्य है कि इतने सरल मार्ग पर भी हम चल नहीं पाते और जीवन भर चिंता और दुःख की ज्वाला में जलते रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 मई 2014 |
202 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 10
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दुःखरूप विषयों में ही सुख माननेवाले होते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म करने वाले परंतु दुःखरूपी विषयों में ही सुख मानने वाले होते हैं ।
मनुष्य में रजोगुण की प्रधानता होती है इसलिए मनुष्य कर्मशील प्राणी होते हैं । पर हम कर्म करते हुए दुःखरूपी विषयों के पीछे भागते हैं क्योंकि हमें उनमें ही सुख दिखता है । पर यह विषय अंत में हमें दुःख ही देते हैं ।
संसार में क्षणिक सांसारिक सुख हमें मिल सकता है पर सच्चे सुख के शिखर, जिसका नाम आनंद है, वह हमें प्रभु के द्वार पर पहुँचने पर ही मिलता है । इस आनंदरूपी परम सुख को पाने का मार्ग प्रभु की भक्ति है ।
पर जीव का दुर्भाग्य है कि वह संसार के दुःखरूपी विषयों में ही सुख तलाशता है और इस तरह सच्चे सुख को प्राप्त करने में असफल हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 मई 2014 |
203 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 13
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जिन पर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जिन पर प्रभु प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही चला जाता है ।
इस तथ्य से यह पता चलता है कि सारा श्रम प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करना चाहिए । पर मनुष्य श्रम अपनी खुशी के लिए एवं अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए करता है ।
सच्चा संत वही होता है जिसका सारा श्रम प्रभु की प्रसन्नता के लिए होता है । वह हर कार्य प्रभु के लिए करता है, उसके हर कर्म के पीछे प्रभु की प्रसन्नता का हेतु छिपा होता है ।
अपने जीवन में अगर हमने प्रभु को आगे कर दिया और हमारा हर कर्म प्रभु के लिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए होने लगा तो हमारा कल्याण निश्चित हो जाता है । इसके विपरीत जो अपना कर्म प्रभु के लिए नहीं करते एवं जिनके कर्म से प्रभु प्रसन्न नहीं होते उनका सारा श्रम व्यर्थ चला जाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 मई 2014 |
204 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 13
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गई है, क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है । आपकी ही योगमाया के सत्वादि गुणों से यह सारा जगत मोहित हो रहा है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जो प्रभु के कर्मों का पार पाना चाहते हैं उनकी बुद्धि नष्ट हो चुकी है, ऐसा समझना चाहिए क्योंकि प्रभु के कर्मों का कोई पार नहीं पा सकता । प्रभु के कर्म अनन्त हैं, उसका कोई आदि और अंत नहीं है ।
दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि प्रभु के सत्वादि गुणों से यह सारा जगत मोहित हो रहा है । प्रभु के गुण भी प्रभु के कर्मों की तरह अपार हैं, उनका कोई पार नहीं पाया जा सकता है । प्रभु के सद्गुणों से संसार मोहित होता है क्योंकि यह गुण इतने सात्विक एवं इतने दिव्य होते हैं ।
हम माया द्वारा रचित संसार को देखकर मोहित होते हैं पर भक्त प्रभु के सद्गुणों को देखकर मोहित होता है । भक्त प्रभु के गुण देख मोहित हो जाता है और प्रभु उसे प्रिय लगने लगते हैं । जिसके भी साथ ऐसा होता है, वह धन्य होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 मई 2014 |
205 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 13
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है । जो पुरुष उनकी इस मंगलमयी मंजुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान अंतस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के लीलामय श्रीचरित्र अति पावन हैं और उनका चिंतन करने वाली बुद्धि श्रेष्ठ होती है । जो प्रभु की श्रीलीलाओं का चिंतन करते हैं उनके पाप और तापों का नाश होता है ।
जीव पापों के भार से दबा और तापों की ज्वाला से जलता रहता है । इनसे मुक्त होने का सबसे सरल उपाय है प्रभु की श्रीलीला अमृत का चिंतन करना । जो भक्तिभाव से ऐसा करते हैं, भक्तवत्सल प्रभु उस पर शीघ्र प्रसन्न होकर उसके पापों को नष्ट कर देते हैं और उसको तापों के संताप से मुक्त कर देते हैं ।
भक्तों ने प्रभु के लीलामय श्रीचरित्र का चिंतन, वाचन और कीर्तन किया है । प्रभु के लीलामय श्रीचरित्र की मंगल कथा को जो सुनते और सुनाते हैं वे दोनों ही पाप और ताप से मुक्त हो जाते हैं । इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु के लीलामय श्रीचरित्र की कथा का नित्य पाठन या श्रवण करें ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 मई 2014 |
206 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 13
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है ? किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु प्रसन्न होने पर हमारी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं । हमारी कामनाओं को पूर्ण करने का सामर्थ्य प्रभु के अलावा किसी में भी नहीं है । प्रभु के प्रसन्न होने पर संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं, संसार की सभी वस्तुएं और पदार्थ सुलभ हो जाते हैं ।
संसार की तुच्छ कामनाओं की बात ही क्या है, प्रभु तो भक्त से रीझ कर उसे अपना परम पद ही दे देते हैं । प्रभु इतने उदार हैं और इतने भक्तवत्सल हैं कि जो अनन्यभाव से प्रभु का भजन करता है तो अन्तर्यामी प्रभु उसे अपने स्वयं का परम पद दे देते हैं । एक भजन के बोल इसी ओर इंगित करते हैं "जो भजे हरि को सदा सोही परम पद पाएगा" ।
प्रभु को प्रसन्न करना और उनके लिए अनन्य भाव से प्रभु की भक्ति करना, यही जीव का लक्ष्य होना चाहिए क्योंकि इसमें ही जीव का कल्याण छिपा हुआ है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 मई 2014 |
207 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 13
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अरे ! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन को छुड़ा देने वाली भगवान की प्राचीन कथाओं में से किसी भी अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - इस श्लोक में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं ।
श्लोक में कटाक्ष किया गया है कि पशुओं की बात छोड़ दे तो पुरुषार्थ के सार को जानने वाला ऐसा कौन होगा जो प्रभु की कथा का पान न करे । दूसरी बात जो बताई गई है वह यह कि प्रभु की कथा जीवन-मरण यानी आवागमन को छुड़ा देने वाली औषधि है । प्रभु की कथा को अमृतमयी की संज्ञा दी गई है क्योंकि जैसे अमृत जीवन को जन्म-मरण से छुड़ाकर अमर कर देता है वैसे ही प्रभु की कथा भी जीव को आवागमन से मुक्ति देकर अमर कर देती है ।
इसलिए हमें जीवन में प्रभु की अमृतमयी कथाओं का अपने कर्णों से निरंतर पान करते रहना चाहिए । जीवन में प्रभु की कथाएं सुनने का नियम बनाना चाहिए क्योंकि यह आवागमन से मुक्ति देने वाला एक सच्चा पुरुषार्थ है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 जून 2014 |
208 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 14
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देखो, उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्री नारदजी की सुनाई हुई हरि कथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिर पर पैर रखकर भगवान के परमपद पर आरूढ़ हो गया था ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीहरि कथा और हरि भक्ति का प्रभाव देखें कि जब भक्तराज श्री ध्रुवजी को प्रभु के धाम ले जाने के लिए विमान आया तो मृत्यु हाथ जोड़कर उपस्थित हुई । मृत्यु के स्पर्श के बिना कोई भी अब तक इस जगत से नहीं गया था । मृत्यु ने यही बात श्री ध्रुवजी से कही कि मेरा स्पर्श करे बिना कोई भी यहाँ से आज तक नहीं गया है । आज प्रभु ने सीधे आपको अपना परमपद दे दिया है इसलिए मृत्यु ने श्री ध्रुवजी को एक सच्चा हरि भक्त जान निवेदन किया कि आप यानी श्री ध्रुवजी अपना पैर मेरे यानी मृत्यु के सिर पर रख दीजिए । एक हरि भक्त के चरण रज से मैं यानी मृत्यु पवित्र हो जाऊँगी । इस तरह मृत्यु के सिर पर पैर रखकर श्री ध्रुवजी ने मृत्यु को स्पर्श भी किया और भक्तराज श्री ध्रुवजी का स्पर्श पाकर मृत्यु पवित्र भी हो गई ।
प्रभु की कथा और प्रभु की भक्ति की महिमा बड़ी असीम है जो मृत्यु को भी भक्त के सामने झुका देती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 जून 2014 |
209 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 14
श्लो 26 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
विवेकी पुरुष अविद्या के आवरण को हटाने की इच्छा से उनके निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - विवेकी जीव कौन हैं इस बारे में यह श्लोक बताता है ।
अविद्या का आवरण सभी पर होता है । अविद्या सभी को प्रभावित करती है । पर विवेकी पुरुष वे होते हैं जो इस अविद्या के आवरण को हटाने की इच्छा रखते हैं । इस श्लोक में अविद्या को हटाने का साधन भी बताया गया है और वह साधन है प्रभु के निर्मल श्रीचरित्र का गान करना । प्रभु के निर्मल श्रीचरित्र का गान करने से अविद्या का आवरण हटता है क्योंकि हमें सत्य का भान होता है । प्रभु ही एकमात्र सत्य हैं, बाकी सब कुछ मिथ्या है । पर हम बाकी सबको भी सत्य मानते हैं और यही अविद्या है ।
भक्तों ने प्रभु के निर्मल श्रीचरित्र का गान किया है और ऐसा करते हुए अविद्या को हटाकर उस परम सत्य को पाया है । इसलिए विवेकी जीव को चाहिए की वह अविद्या को हटाने के लिए प्रभु के निर्मल श्रीचरित्र का गान करे ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 जून 2014 |
210 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 14
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे सत्पुरुषों के लिए कल्याणकारी एवं दण्ड देने के भाव से रहित हैं, किन्तु दुष्टों के लिए क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की एक विशेषता यहाँ दर्शायी गई है ।
प्रभु सत्पुरुषों के लिए कल्याणकारी हैं और उन्हें दण्ड देने के भाव से रहित हैं । गलती या अपराध सभी से होता है पर जो सत्पुरुष होते हैं, प्रभु उनका निश्छल भाव देखकर उनके अपराधों को क्षमा कर देते हैं । प्रभु के हृदय में उन्हें दण्ड देने का भाव ही नहीं आता । सत्पुरुषों की गलती और अपराध प्रभु नजरअंदाज कर देते हैं क्योंकि सत्पुरुष जानबूझकर कभी गलती नहीं करते एवं उनसे अगर गलती होती भी है तो उन्हें उसका सच्चा पश्चाताप होता है ।
पर दूसरी तरफ प्रभु दुष्टों के लिए क्रोधमूर्ति हैं एवं दण्डपाणि हैं । प्रभु दुष्टों पर क्रोध भी करते हैं और उन्हें उनके अपराधों का उचित दण्ड भी देते हैं । दुष्टों के लिए प्रभु के पास कोई राहत नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 जून 2014 |
211 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 15
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्हीं को होता है, जो अन्य सब प्रकार की कामनाएं छोड़कर केवल भगवच्चरण-शरण की प्राप्ति के लिए ही अपने धर्म द्वारा उनकी आराधना करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - इस श्लोक में प्रभु के धाम श्रीबैकुंठजी का वर्णन है एवं वहाँ पहुँचने का साधन भी बताया गया है ।
श्रीबैकुंठ धाम में सभी जीव प्रभु रूप होकर रहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि जीव के भीतर के चैतन्य तत्व का परम चैतन्य में मिलन होकर सभी प्रभु रूप हो जाते हैं ।
श्रीबैकुंठ धाम में वे ही जीव पहुँच पाते हैं जिन्होंने जीवन से सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग कर दिया हो और जिनके जीवन में भगवत् शरण ही एकमात्र लक्ष्य हो । जो निष्काम होकर प्रभु शरण की प्राप्ति के लिए आराधना करते हैं, वे ही प्रभु के धाम को जाते हैं ।
जीव को जीवन में कामना रहित होकर प्रभु शरणागत होना चाहिए । उसका सम्पूर्ण प्रयास इसी दिशा में होना चाहिए क्योंकि प्रभु की शरणागति उसे प्रभु धाम के द्वार तक पहुँचा देती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 जून 2014 |
212 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 15
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वहाँ विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओं के सहित अपने प्रभु की पवित्र लीलाओं का गान करते रहते हैं, जो लोगों की सम्पूर्ण पापराशि को भस्म कर देने वाली हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीबैकुंठ धाम के एक वन का वर्णन है जहाँ गन्धर्वगण प्रभु की पवित्र श्रीलीलाओं का गान करते हैं ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु की श्रीलीलाओं के गान का फल इस श्लोक में बताया गया है । प्रभु की श्रीलीला का गान जीव की सम्पूर्ण पापराशि को भस्म कर देता है । पापों का अगर पहाड़ भी हो तो जैसे अग्नि की एक चिंगारी रूई के अंबार को भस्म कर देती है वैसे ही प्रभु की श्रीलीला का गान पापों के अंबार को भस्म कर देता है । प्रभु की श्रीलीला के गान का इतना बड़ा सामर्थ्य है कि वह सम्पूर्ण पाप राशि को भस्म कर देता है एवं पाप का लेश मात्र भी बचता नहीं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की श्रीलीलाओं का गान जीवन मे नित्य हो ऐसा साधन करे । पापों के क्षय का यह सबसे सरल एवं सटीक उपाय है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 जून 2014 |
213 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 15
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्ट कर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्लोक में कहा गया है कि जो लोग प्रभु की पापहारिणी लीलाकथा को छोड़कर बुद्धि को नष्ट करने वाली अन्य निन्दित कथाएं सुनते हैं वे लोग अभागे होते हैं ।
जब ये अभागे लोग प्रभु की लीलाकथा को छोड़कर सारहीन बातें सुनते हैं तब उनका पुण्य नष्ट हो जाता है । इतना ही नहीं ऐसा करने पर उन्हें नर्क भोगना पड़ता है ।
प्रभु की लीलाकथा का श्रवण जहाँ हमें श्री बैकुंठधाम पहुँचाता है वही सारहीन बातें सुनना हमें नर्क पहुँचाती है । इसलिए जीव को चाहिए कि वह जीवन में सारहीन बातों से बचें और जीवन में प्रभु की लीलाकथा का रसास्वादन करें जिसके प्रताप से वह प्रभु के समीप पहुँच सकें ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 जून 2014 |
214 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 15
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस मनुष्ययोनि की बड़ी महिमा है, हम देवतालोग भी इसकी चाह करते हैं । इसी में तत्व ज्ञान और धर्म की भी प्राप्ति हो सकती है । इसे पाकर भी जो लोग भगवान की आराधना नहीं करते, वे वास्तव में उनकी सर्वत्र फैली हुई माया से ही मोहित हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मनुष्य योनि की महिमा इतनी है कि देवतागण भी मनुष्य देह पाने की आकांक्षा रखते हैं क्योंकि इसी मनुष्य देह से तत्व ज्ञान और धर्म की प्राप्ति संभव होती है ।
परंतु जो मनुष्य देह पाकर भी प्रभु की आराधना नहीं करते वे प्रभु की सर्वत्र फैली माया से ठगे गए होते हैं । मनुष्य देह पाने पर प्रभु की भक्ति करना ही हमारा परम लक्ष्य होना चाहिए । कुछ सौभाग्यशाली जीव ही ऐसा कर पाते हैं, अन्य लोग माया से मोहित होकर माया के जाल में ही उलझे रहते हैं ।
मनुष्य देह जो इतनी वन्दनीय है जिसको पाने के लिए देवतागण भी आतुर रहते हैं, उसे व्यर्थ नहीं करना चाहिए और उसे प्रभु भक्ति में लगाना चाहिए । ऐसा करने पर ही हमारा मानव जीवन सफल होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 जून 2014 |
215 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 15
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभु समस्त सद्गुणों के आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपा सुधा की वर्षा कर रहे हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु सभी सद्गुणों के आश्रय हैं यानी सभी सद्गुणों का वास प्रभु में है । सभी सद्गुण परछाई की तरह निरंतर प्रभु के साथ रहते हैं । जैसे हम कहीं जाते हैं तो परछाई को साथ जाने के लिए नहीं कहना पड़ता, स्वभाव से परछाई हमारे साथ चिपकी हुई होती है, वैसे ही सभी सद्गुण प्रभु से चिपके हुए रहते हैं ।
दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि प्रभु सभी पर अनवरत कृपा सुधा की वर्षा करते रहते हैं । प्रभु की मुखमुद्रा और प्रभु के कृपा-नेत्र जीव पर कृपा की वर्षा करते हैं । प्रभु जिसे भी देखते हैं कृपा दृष्टि से ही देखते हैं । यह प्रभु का स्वभाव है कि वे सभी पर कृपा बरसाते हैं । इसलिए प्रभु को कृपासिंधु कहा गया है यानी कृपा के सागर । यह जीव की पात्रता पर निर्भर करता है कि वह प्रभु की बरसाई कृपा का कितना हिस्सा ग्रहण कर पाता है । जैसे हमारे पास जितना बड़ा बर्तन होगा वर्षा का उतना जल हम इकट्ठा कर सकते हैं वैसे ही हमारी जितनी पात्रता होगी उतनी प्रभु-कृपा हम ग्रहण कर पाएंगे ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 जुलाई 2014 |
216 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 15
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनीय और सांसारिक दुःखों की निवृत्ति करने वाला है । आपके चरणों की शरण में रहने वाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यंतिक प्रसाद मोक्षपद को भी कुछ अधिक नहीं गिनते ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का सुयश अत्यन्त कीर्तनीय है और सांसारिक दुःखों से मुक्त करने वाला है । प्रभु के सुयश का निरंतर कीर्तन होना चाहिए, इसलिए संतों ने प्रभु के सुयश के पद, भजन लिखे हैं जिससे उनका निरंतर कीर्तन हो सके । यह सांसारिक दुःखों से निजात पाने का अचूक साधन है ।
दूसरी बात, प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण में रहने वालों को महाभाग कहा गया है । सच्चे महाभाग वे होते हैं जो प्रभु की शरणागति में रहते हैं ।
तीसरी बात जो कही गई है वह यह कि प्रभु की कथा के रसिक का इतना महाभाग्य है कि उनके लिए मोक्षपद भी उन्हें तुच्छ जान पड़ता है । संतों ने संसार में रहकर प्रभु के सुयश की कथा श्रवण के आगे मोक्षपद को भी ठुकरा दिया । प्रभु की कथा श्रवण का रस इतना अधिक है कि उसके आगे मोक्षपद भी गौण है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 जुलाई 2014 |