श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
169 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 1
श्लो 9
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
महाराज युधिष्ठिर के भेजने पर जब जगद्‌गुरु भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों की सभा में हित भरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्‍मादि सज्‍जनों को अमृत से लगे, पर कुरुराज ने उनके कथन को कुछ भी आदर नहीं दिया । देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्‍य नष्‍ट हो चुके थे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब व्‍यक्ति के सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं तो उसे प्रभु वचनों में रुचि नहीं रहती, प्रभु द्वारा प्रतिपादित धर्म के प्रति आदर नहीं रहता ।

तात्पर्य यह है कि जब व्‍यक्ति प्रभु वचनों का, धर्म का आदर नहीं करे तो समझना चाहिए कि उसके सारे पुण्य नष्ट हो गए हैं । यह बड़े दुर्भाग्य की स्थिति होती है क्योंकि प्रभु वचनों का आदर करना ही मानव जीवन की सफलता का सार होता है । प्रभु ने जो धर्म का मार्ग दिखाया है, जो सत्कर्म करने को कहा है, जिन सद्गुणों को धारण करने को कहा है, वैसा करना ही सदैव हमारा लक्ष्य होना चाहिए ।

पर जब व्यक्ति इसके विपरीत मार्ग का चयन करता है और उस पर चलता है तो यह मानना चाहिए कि उसके सारे पुण्य नष्ट हो चुके हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 जनवरी 2014
170 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 1
श्लो 29
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जिन्‍होंने राज्‍य पाने की आशा का सर्वथा परित्‍याग कर दिया था किन्‍तु कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने जिन्‍हें फिर से राज्‍य सिंहासन पर बैठाया ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री विदुरजी ने उपरोक्त तथ्य श्री उद्धवजी को कहे ।

पाण्डवों ने राज्‍य पाने की आशा का सर्वथा परित्याग कर दिया था क्योंकि कौरवों ने उन्हें उनका हिस्सा देने से मना कर दिया था । यहाँ तक कि पांच गांव भी देना मना कर दिया था और सूई जितनी भी भूमि भी नहीं देंगे, ऐसी बात कही थी ।

ऐसी अवस्था में प्रभु की कृपा छाया में पाण्डव रहे और प्रभु की कृपा से महाभारतजी का युद्ध जीत कर राज्य सिहांसन पर बैठे । फिर प्रभु कृपा से अश्वमेध यज्ञ करके पृथ्वी के सभी बड़े-बड़े राजाओं को अपने अधीन कर लिया ।

प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि जिनके पास सूई जितनी भूमि भी नहीं थी, वे पाण्डव पूरी पृथ्वी के अधिपति बन गए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 19 जनवरी 2014
171 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 2
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... सौभाग्‍य और सुन्‍दरता की पराकाष्‍ठा थी उस रूप में । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री उद्धवजी ने उक्‍त वचन श्री विदुरजी से कहे ।

प्रभु के श्रीकृष्ण रूप में मानव लीला के बाद स्‍वधाम गमन के बाद प्रभु के बारे में बताते हुए उद्धवजी ने कहा कि प्रभु सौभाग्‍य एवं सुन्‍दरता के पराकाष्‍ठा थे । सौभाग्‍य प्रभु के साथ चलता है । प्रभु जहाँ भी जाते हैं सौभाग्‍य साथ जाता है, यह एक स्‍पष्‍ट सिद्धांत है । आज भी भक्ति के द्वारा प्रभु को जीवन में लाने पर सौभाग्‍य साथ चला आता है ।

प्रभु सुन्‍दरता की भी पराकाष्‍ठा हैं । प्रभु की सुन्‍दरता इतनी है कि उनकी सुन्‍दरता से उनके दिव्‍य आभूषण भी विभूषित हो जाते हैं । श्रीगोपीजन की आँखों की पलकें प्रभु की सुन्‍दरता देख कर गिरना भूल जाती हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 जनवरी 2014
172 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 2
श्लो 20
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
शिशुपाल के ही समान महाभारत युद्ध में जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुख-कमल का मकरन्‍द पान करते हुए, अर्जुन के बाणों से बिंधकर प्राण त्‍याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान के परमधाम को प्राप्‍त हो गए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - अंत समय में भगवान के दर्शन और स्‍मरण का क्‍या लाभ होता है , यह बताता यह श्‍लोक ।

शिशुपाल ने एवं कौरवों के पक्ष में लड़ने वाले अन्‍यों ने जब अंत समय प्रभु के दर्शन करने पर प्राण त्‍याग किए तो वे पवित्र होकर सब-के-सब प्रभु के परमधाम को गए । प्रभु इतने कृपानिधान है कि प्रभु से द्वेष करने वाला शिशुपाल भी अंत समय प्रभु के स्‍मरण एवं दर्शन के कारण प्रभु के परमधाम को गया ।

अंत समय में प्रभु का स्‍मरण, चिंतन एवं ध्‍यान हो जाए तो प्रभु धाम की प्राप्ति और आवागमन से मुक्ति मिल जाती है, यह एक स्‍पष्‍ट सिद्धांत है । पर अंत समय ऐसा तब होता है जब ऐसे स्‍मरण, चिंतन एवं ध्‍यान का अभ्‍यास जीवन में नित्‍य किया जाए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 जनवरी 2014
173 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 2
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पापिनी पूतना ने अपने स्‍तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नीयत से उन्‍हें दूध पिलाया था, उसको भी भगवान ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिए । उन भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्‍त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की दया एवं कृपा की एक अदभुत मिसाल पूतना के उद्धार की कथा है ।

विष पान कराने वाली को परमगति देकर प्रभु ने उसका उद्धार किया । विष पान कराते वक्‍त स्तनपान के कारण माँ की भूमिका में पूतना आ गई । बस इसी कारण माँ की जो गति होती है वह गति पूतना को दे दी, प्रभु इतने कृपालु और दयालु हैं ।

श्‍लोक के अंत में कहा गया है कि प्रभु से दयालु और कौन हो सकता है इसलिए हमें तत्‍काल प्रभु की शरण ग्रहण करनी चाहिए । जिसने एक बार प्रभु की दया और कृपा का आस्‍वादन कर लिया वह जीव निरंतर प्रभु शरण में ही रहना चाहेगा ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 2 फरवरी 2014
174 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 2
श्लो 33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भद्र ! इससे अपना मान भंग होने के कारण जब इन्‍द्र ने क्रोधित होकर बृज का विनाश करने के लिए मूसलधार जल बरसाना आरम्‍भ किया, तब भगवान ने करुणावश खेल-ही-खेल में छत्‍ते के समान गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और अत्‍यन्‍त घबराए हुए बृजवासियों की तथा उनके पशुओं की रक्षा की ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने श्रीगोवर्धन लीला करते हुए अपनी कनिष्ठा अंगुली के नख पर विशाल श्रीगोवर्धन पर्वत को उठाया और अपने भक्‍तों की रक्षा की ।

श्री इन्‍द्रदेवजी अपना पूरा जोर लगा कर मूसलाधार जल बरसा कर भी एक पत्‍ते तक को गीला नहीं कर पाए और पूरे विश्‍व ने देखा कि जब प्रभु रक्षक बन जाते हैं तो कोई देव, ग्रह, नक्षत्र हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाते ।

प्रभु की शरण में जाने पर काल भी हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाता क्‍योंकि सभी प्रभु आज्ञा के अधीन हैं । इसलिए प्रभु की शरणागति ग्रहण करना जीव के लिए निर्भय होने का सबसे सरल मार्ग है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 2 फरवरी 2014
175 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 3
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ये भोग सामग्रियां ईश्‍वर के अधीन हैं और जीव भी उन्‍हीं के अधीन है । जब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्‍य हो गया तब भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करने वाला भक्‍त तो उन पर विश्‍वास ही कैसे करेगा ?


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - संसार की भोग की सामग्रियां ईश्‍वर के अधीन हैं । पर जब प्रभु किसी भक्‍त पर कृपा करते हैं तब उसके जीवन में ऐसी कोई घटना घटती है कि उसका भोग की सामग्रियों से वैराग्‍य हो जाता है ।

श्रीकृष्ण अवतार में भी लीला करते हुए प्रभु को भोग सामग्रियों से वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हुआ । ऐसा प्रभु ने स्‍वयं करके दिखाया क्‍योंकि प्रभु प्राप्ति के लिए भोग सामग्रियों से वैराग्‍य होना जरूरी है ।

सिर्फ भक्ति में इतना सामर्थ्‍य है कि वह भोग सामग्रियों से वैराग्‍य करवा कर प्रभु की प्राप्ति का मार्ग खोल देती है । वैसे भी वैराग्‍य को भक्ति माता के पुत्र रूप में देखा गया है । जहाँ-जहाँ भक्ति जाएगी वैराग्‍य साथ जाएगा, ऐसा सिद्धांत है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 9 फरवरी 2014
176 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 4
श्लो 15
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
स्‍वामिन ! आपके चरण-कमलों की सेवा करने वाले पुरुषों को इस संसार में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - इन चारों में से कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है, तथापि मुझे उनमें से किसी की इच्‍छा नहीं है । मैं तो केवल आपके चरण कमलों की सेवा के लिए ही लालायित रहता हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री उद्धवजी ने उक्‍त वचन प्रभु से कहे ।

प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा से संसार में उपलब्‍ध चारों पदार्थ सरलता से प्राप्‍त किए जा सकते हैं । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्‍त करने का सबसे उत्‍तम एवं सबसे सरल मार्ग प्रभु की सेवा है ।

पर सच्‍चे भक्‍त को इन चारों की अभिलाषा नहीं होती । वह तो निष्‍काम भाव से प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा करता है । सच्‍ची भक्ति द्वारा सकामता धीरे-धीरे खत्‍म हो जाती है । प्रभु की सेवा में जो आनंद है उसका रसपान करने के लिए भक्‍त प्रभु की सेवा हेतु आतुर रहता है । यद्यपि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उसकी मुट्ठी में होते हैं फिर भी भक्‍त उनकी कामना नहीं करता । भक्ति का सामर्थ्‍य इतना ऊँ‍चा है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 9 फरवरी 2014
177 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 7
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्‍त नहीं होता ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री विदुरजी ने उपरोक्‍त वचन परमज्ञानी श्री मैत्रेय मुनि से कहे ।

प्रभु यशस्वियों के मुकुटमणि हैं यानी प्रभु जितना यश जगत में किसी के पास नहीं है । इसलिए प्रभु यशस्वियों के शिरोमणि हैं । प्रभु की हर श्रीलीला प्रभु का यशगान करती है । हर श्रीलीला में प्रभु का यश प्रकट होता है ।

दूसरी बात, प्रभु की लीलामृत का पान करते हुए भक्‍त का मन कभी तृप्‍त नहीं होता । सच्‍चे भक्‍त की पहचान ही यह है कि वह निरंतर प्रभु की श्रीलीला का रसपान करते रहना चाहता है । प्रभु की श्रीलीला उसे अमृत जैसी लगती है इसलिए भक्‍तों ने प्रभु की श्रीलीला को लीलामृत एवं प्रभु की कथा को कथामृत का नाम दिया है । प्रभु की श्रीलीलाओं को जानते हुए भी भक्‍त उसका रसपान बार-बार करना चाहता है क्‍योंकि हर बार उन्हें नई अनुभूति होती है । हर बार नया रहस्‍य भक्‍तों के लिए प्रकट होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 फरवरी 2014
178 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 11
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन तीर्थपाद श्रीहरि के गुणानुवाद से तृप्‍त हो भी कौन सकता है । उनका तो नारदादि महात्‍मागण भी आप जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्‍यों के कर्णरंध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसार चक्र में डालने वाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के गुणानुवाद से कौन तृप्‍त हो सकता है ? सच्‍चे भक्‍त और महात्‍मागण प्रभु की श्रीलीला और सद्गुणों का कीर्तन करते हैं । जब यह कीर्तन कानों के माध्‍यम से हमारे हृदय तक पहुँचता है तो यह वैराग्‍य को उत्‍पन्‍न करता है और यह वैराग्‍य संसार चक्र में डालने वाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालता है ।

जीव निरंतर संसार चक्र में ही फंसा रहता है । घर-गृहस्थी के झंझटों से कभी बाहर नहीं निकल पाता । पर प्रभु की गुणलीला उसे प्रभु से प्रेम करवा देती है और संसार के प्रति उसके मन में वैराग्‍य उत्‍पन्‍न करती है ।

वैराग्‍य को भक्ति माता का पुत्र माना गया है । इसलिए जब संसार से वैराग्‍य होता है तो भक्ति जीवन में प्रवेश करती है । फिर संसार की जगह प्रभु हमें प्रिय लगने लगते हैं, यह भक्ति के द्वारा ही संभव होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 फरवरी 2014
179 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 13
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह भगवत्‍कथा की रुचि श्रद्धालु पुरुष के हृदय में जब बढ़ने लगती है, तब अन्‍य विषयों से उसे विरक्‍त कर देती है । वह भगवच्‍चरणों के निरंतर चिंतन से आनन्‍दमग्‍न हो जाता है और उस पुरुष के सभी दुःखों का तत्‍काल अंत हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री विदुरजी कहते हैं कि भगवत कथाओं में विषयसुखों का उल्‍लेख होता है और विषयों से विरक्‍त कर मनुष्‍य की बुद्धि को प्रभु में लगाने का आग्रह और प्रयत्‍न होता है ।

जब प्रभु कथा में हमारी रुचि बढ़ती है तो हम विषयों से स्‍वतः ही विरक्‍त हो जाते हैं क्‍योंकि प्रभु का चिंतन ही इतना आनन्‍दमय होता है । दूसरा लाभ यह होता है कि प्रभु चिंतन से हमारे सभी दुःखों का तत्‍काल नाश हो जाता है ।

इसलिए शास्त्रों का आग्रह और प्रयत्‍न होता है कि मनुष्‍य को विषयों से हटाकर प्रभु की तरफ मोड़ा जाए । प्रभु की सभी कथाओं का हेतु मनुष्‍य की बुद्धि को विषयसुखों से हटाकर प्रभु में लगाने का होता है क्‍योंकि इसी में जीव का कल्‍याण छिपा होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 फरवरी 2014
180 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हाय ! कालभगवान उनके अमूल्‍य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्‍यर्थ वाद-विवाद, व्‍यर्थ चेष्‍टा और व्‍यर्थ चिंतन में लगे रहते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री विदुरजी कहते हैं कि मुझे उन शोचनीय अज्ञानी मनुष्यों के लिए निरंतर खेद रहता है जो अपने पिछले पापों के कारण से प्रभु के कथामृत और लीलामृत से विमुख रहते हैं ।

समयचक्र यानी काल भगवान हमारे अमुल्‍य जीवन को हर पल काटते रहते हैं । मनुष्‍य हर घड़ी मृत्यु की तरफ बढ़ता जाता है । फिर भी मनुष्‍य अपना अनमोल मानव जीवन प्रभु को समर्पित नहीं करता और अपने तन, मन और वाणी को प्रभु में नहीं लगाकर उसे संसार के वाद-विवाद, व्‍यर्थ चेष्‍टा और व्‍यर्थ चिंतन में लगाता है । इस तरह वह अपने अनमोल मानव जीवन को व्‍यर्थ ही नष्‍ट कर देता है ।

मनुष्‍य को चाहिए कि अपना दुर्लभ और अनमोल मानव जीवन प्रभु को समर्पित करे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 फरवरी 2014
181 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सृष्टि रचना के पूर्व समस्‍त आत्‍माओं के आत्‍मा एक पूर्ण परमात्‍मा ही थे, न दृष्टा था न दृश्य ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - संतों ने संसार को प्रभुमय देखा क्‍योंकि उन्‍हें प्रभु के अतिरिक्‍त कुछ अन्‍य नहीं दिखा ।

इस तथ्‍य का प्रतिपादन यहाँ मिलता है कि सृष्टि रचना के पूर्व समस्‍त आत्‍माओं के आत्‍मा एक पूर्ण परमात्‍मा ही थे । न कोई दृष्टा था यानी देखने वाला और न ही कोई दृश्य यानी दिखने वाली चीज थी । इस दृष्टा और दृश्य को दिखाने वाली शक्ति ही प्रभु की माया है । माया के द्वारा ही इस विश्‍व का निर्माण प्रभु ने किया है ।

इसलिए संतजन जब माया का पर्दा हटाकर देखते हैं तो हर जगह उन्‍हें प्रभु की झांकी ही दिखाई देती है । इसका सबसे जीवन्‍त उदाहरण भक्‍तराज श्री प्रह्लादजी का है जिन्‍हें निर्जीव खंभे में भी प्रभु के दर्शन हुए और इस तथ्‍य को सत्‍य प्रमाणित करने के लिए प्रभु खंभे में से श्री नरसिंहावतार लेकर प्रकट हुए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 2 मार्च 2014
182 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 42
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ईश ! आप संसार की उत्‍पत्ति, स्थिति और संहार के लिए ही अवतार लेते हैं, अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्‍मरण करने वाले भक्‍तजनों को अभय कर देते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवताओं ने प्रभु की वन्‍दना करते हुए उपरोक्‍त बात कही ।

संसार की उत्‍पत्ति, स्थिति और संहार प्रभु के द्वारा होता है । संसार की उत्‍पत्ति प्रभु करते हैं, संसार का पालन प्रभु करते हैं और संसार का विलय भी प्रभु ही करते हैं । इससे प्रमाणित होता है कि संसार में प्रभु की ही एकमात्र सत्ता है ।

दूसरी बात, प्रभु के श्रीकमलचरणों का स्‍मरण करने वाले और उसकी शरण में रहने वाले भक्‍त को प्रभु अभयदान देते हैं । जीवन में अभय होने का यह कितना सरल उपाय है । प्रभु के अलावा अभय करने की शक्ति अन्य किसी में भी नहीं है । भक्‍तों के जीवन में यह अभय देखने को मिलता है । बड़ी-से-बड़ी विपदा में भी भक्‍तजन निर्भय और निडर रहते हैं जिसका एकमात्र कारण प्रभु ही हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 2 मार्च 2014
183 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 45
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देव ! आपके कथामृत का पान करने से उमड़ी हुई भक्ति के कारण जिनका अंतःकरण निर्मल हो गया है, वे लोग, वैराग्‍य ही जिसका सार है, ऐसा आत्‍मज्ञान प्राप्‍त करके अनायास ही आपके बैकुंठधाम को चले जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवताओं ने प्रभु की वन्‍दना करते हुए उपरोक्‍त बात कही ।

हम प्रभु के पास कैसे पहुँच सकते हैं इसका मार्गदर्शन यहाँ पर मिलता है । प्रभु की कथा रूपी अमृत का पान करने से हमारे भीतर भक्ति जागृत होती है । भक्ति के कारण अंतःकरण निर्मल होता है और संसार से वैराग्‍य होता है । भक्ति हमें आत्‍मज्ञान की प्राप्ति भी करवाती है ।

संसार से वैराग्‍य हुआ और आत्‍मज्ञान प्राप्‍त हुआ तो जीव प्रभु तक पहुँचने में सक्षम हो जाता है । ऐसा भक्ति के द्वारा ही संभव होता है क्‍योंकि ज्ञान और वैराग्‍य भक्ति माता के ही पुत्र हैं । इसलिए भक्ति जागृत होने पर आत्‍मज्ञान की जागृति होगी एवं संसार से वैराग्‍य भी होगा ।

प्रभु की भक्ति को जागृत करने का एक सुलभ और सरल साधन प्रभु का लीलारूपी कथामृत है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 9 मार्च 2014
184 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 46
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पर उन्‍हें श्रम बहुत होता है, किन्‍तु आपकी सेवा के मार्ग में कुछ भी कष्‍ट नहीं है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु को पाने के बहुत सारे मार्ग एवं साधन हैं । पर वे दुर्लभ भी हैं और उनमें बहुत श्रम होता है । दूसरी बात, उनमें से बीच में भटकने के अवसर भी होते हैं । इसलिए कलियुग में वे साधन और मार्ग और भी कठिन हो जाते हैं ।

पर प्रभु की भक्ति अथवा सेवा का मार्ग बहुत सरल साधन है । इसमें भटकने का अवसर नहीं होता क्‍योंकि प्रभु का प्रण है कि वे भक्ति मार्ग पर चलने वाले को पथभ्रष्ट नहीं होने देते । भक्ति मार्ग हमें सीधा प्रभु के पास पहुँचाता है । यह मार्ग इतना सरल और सुलभ है कि इसमें कष्‍ट भी नहीं है । इसलिए कलियुग में यह सबसे उपयुक्‍त मार्ग है ।

इसलिए कलियुग में साधक को भक्ति मार्ग का चुनाव करके प्रभु के पास पहुँचने का प्रयास करना चाहिए । भक्ति मार्ग द्वारा प्रभु की सेवा हमारे भीतर प्रभु प्रेम जागृत करके हमें तत्‍काल प्रभु से जोड़ देती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 9 मार्च 2014
185 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 5
श्लो 50
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए ब्रह्माण्‍ड रचना के लिए आप हमें क्रियाशक्ति के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवताओं ने उपरोक्‍त याचना प्रभु से की ।

एक सिद्धांत का प्रतिपादन यहाँ मिलता है । संसार की सभी शक्तियां प्रभु के द्वारा ही प्रदान की जाती है । किसी के पास अपनी कोई शक्ति नहीं है । सारी शक्तियों का केन्‍द्र प्रभु ही हैं । प्रभु के द्वारा ही सभी को जरूरत अनुसार विभिन्‍न शक्तियां प्रदान की जाती हैं ।

देवताओं ने यहाँ प्रभु से ब्रह्माण्‍ड रचना के लिए क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति की याचना की है । ब्रह्माण्‍ड की सभी क्रियाओं के पीछे प्रभु की शक्ति ही काम करती है । यह बात अगर हमारे अंतःकरण में दृढ़ता से बैठ जाती है तो हम हर कार्य के पीछे प्रभु की शक्ति का अनुभव करने लग जाते हैं । संतों ने साक्षात ऐसा अनुभव किया है कि हर क्रिया के पीछे प्रभु की शक्ति है यानी हर कार्य प्रभु की शक्ति से हो रहा है, हर कार्य प्रभु की शक्ति ही करती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 मार्च 2014
186 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 6
श्लो 8
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह विराट पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्‍त जीवों की आत्‍मा, जीवरूप होने के कारण परमात्‍मा का अंश और प्रथम अभिव्‍यक्‍त होने के कारण भगवान का आदि-अवतार है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - हम सब प्रभु के अंश हैं, इस तथ्‍य का प्रतिपादन यहाँ मिलता है ।

सर्वशक्तिमान प्रभु ने अपनी प्रेरणा से विराट पुरुष को उत्‍पन्‍न किया । यह विराट पुरुष ही ब्रह्माण्‍ड का प्रथम जीव हुआ । यह विराट पुरुष परमात्‍मा का अंश था एवं प्रभु का आदि-अवतार था । यही विराट पुरुष समस्‍त जीवों की आत्‍मा हुआ ।

क्‍योंकि विराट पुरुष प्रभु का अंश एवं सभी जीवों की आत्‍मा था, इसलिए हम सब प्रभु के अंश हैं, यह तथ्‍य स्‍थापित होता है ।

प्रभु के अंश रूप होने के कारण हमारा सबसे निकट संबंध प्रभु से ही है । हम संसार से निकट संबंध बनाते हैं जबकि हमें प्रभु से निकट संबंध बनाना चाहिए । वह जीव धन्‍य होता है जिसने अपने जीवन में सबसे निकट संबंध प्रभु से बनाया हो । उसी ने प्रभु अंश होने का सच्‍चा रहस्‍य समझा है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 मार्च 2014
187 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 6
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तथापि प्‍यारे विदुरजी ! अन्‍य व्‍यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुख से सुना है वैसा, श्रीहरि का सुयश वर्णन करता हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री मैत्रेयजी ने उपरोक्‍त बात श्री विदुरजी से कही ।

ऋषि श्री मैत्रेयजी ने कहा कि व्‍यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई वाणी को पवित्र करने के लिए वे श्रीहरि के सुयश का वर्णन करते हैं ।

ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि हमारी वाणी भी व्‍यावहारिक चर्चाएं करती रहती हैं और इस कारण अपवित्र होती जाती है । क्‍योंकि जब संसार की चर्चा वाणी से होती है तो वह वाणी को अपवित्र करती है ।

पर जब प्रभु के सुयश का वर्णन वाणी से होता है तो वह वाणी को धन्‍य और पवित्र करती है । इसलिए संसार की व्‍यर्थ चर्चा को त्‍यागकर हमें अपनी वाणी को प्रभु चर्चा में लगाना चाहिए । वाणी तभी सार्थक होगी जब वह प्रभु चर्चा में लगेगी, यह एक स्‍पष्‍ट सिद्धांत है । कितने ही संतों ने अपनी वाणी को सिर्फ प्रभु चर्चा में लगाकर अपने जीवन को धन्‍य किया है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 मार्च 2014
188 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 6
श्लो 37
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
महापुरुषों का मत है कि पुण्‍यश्‍लोकशिरोमणि श्रीहरि के गुणों का गान करना ही मनुष्‍यों की वाणी का तथा विद्वानों के मुख से भगवत्‍कथामृत का पान करना ही उनके कानों का सबसे बड़ा लाभ है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यहाँ वाणी और कानों के सर्वश्रेष्‍ठ उपयोग और उनके द्वारा अर्जित सर्वश्रेष्‍ठ लाभ की व्‍याख्‍या की गई है ।

वाणी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह श्रीहरि के गुणों का गान करें । हमें देखना चाहिए कि हमारी वाणी प्रभु के सुयश का गान करने में कितनी लगती है । वाणी को व्‍यर्थ की सांसारिक चर्चा से हटाकर प्रभु के गुणों का गान करने में लगाना चाहिए ।

कानों को भी व्‍यर्थ की सांसारिक चर्चा सुनने की जगह प्रभु के कथामृत का पान करने में लगाना चाहिए । वे कर्ण धन्‍य होते हैं जो कि प्रभु के विषय में सुनने के लिए आतुर रहते हैं ।

कान प्रभु के बारे में सुने, वाणी प्रभु के बारे में बोले तो ऐसे भक्‍त का जीवन धन्‍य हो जाता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 मार्च 2014
189 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 7
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशि को शान्‍त कर देता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के सद्गुणों का वर्णन और प्रभु के सद्गुणों का श्रवण हमें क्‍या लाभ देता है यह बताता यह श्‍लोक ।

प्रभु के सद्गुणों का वर्णन और प्रभु के सद्गुणों का श्रवण हमारी अशेष दुःखों की राशि को शान्‍त कर देता है । दुःखों को शान्‍त करने का इससे उत्‍तम उपाय दूसरा नहीं है ।

दुःखों से मुक्ति पाने के अनेक साधन बताए गए हैं पर प्रभु के सद्गुणों का अपने मुँह से वर्णन करना और प्रभु के सद्गुणों का अपने कानों के माध्‍यम से श्रवण करना, इसमें सबसे सर्वश्रेष्‍ठ उपाय है । मूलतः ऐसा करने से हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है और हमारे पापों का क्षय होता है । पापों का क्षय हुआ तो दुःख भी समाप्‍त हो जाते हैं ।

हमें भी अपने जीवन में प्रभु के सद्गुणों का वर्णन करने का और प्रभु के सद्गुणों के श्रवण करने का नियम बनाना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 मार्च 2014
190 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 7
श्लो 19
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इन श्रीचरणों की सेवा से नित्‍यसिद्ध भगवान श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में उत्‍कट प्रेम और आनंद की वृद्धि  होती है, जो आवागमन की यंत्रणा का नाश कर देती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के श्रीकमलचरणों की सेवा प्रभु के लिए उत्‍कट प्रेम की हमारे भीतर वृद्धि करती है । इससे हमारे भीतर आनंद की वृद्धि होती है ।

प्रभु की सेवा में जो आनंद है वह कहीं अन्यत्र मिलने वाला नहीं है । संतों ने ऐसा साक्षात अनुभव किया है और जीवन के सभी सुख भोगने के बाद अंत में प्रभु सेवा के आनंद को सबसे श्रेष्‍ठ माना है ।

प्रभु सेवा का दूसरा लाभ यह है कि वह हमें आवागमन से मुक्ति प्रदान करती है । आवागमन के चक्‍कर में यानी जन्‍म-मृत्यु के चक्र से सभी जीव बंधे हुए हैं । पुनःरूपी जन्‍म, पुनःरूपी मरण का क्रम चलता ही रहता है । पर प्रभु की सेवा करने वाले संसार चक्र से मुक्‍त हो प्रभु के धाम को जाते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 30 मार्च 2014
191 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 9
श्लो 6
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्‍दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्‍धुजनों के कारण प्राप्‍त होने वाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्‍यन्‍त लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं-मेरापन का दुराग्रह रहता है, जो दुःख का एकमात्र कारण है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उपरोक्‍त बात प्रभु से कही ।

संसार में धन, घर, बन्‍धुजनों के कारण भय, शोक, लालसा, दीनता और लोभ हमें सताते रहते हैं, यह एक शाश्‍वत सत्‍य है । संसार को दुःखालय कहा गया है । संसार में भय, शोक, लालसा, दीनता और लोभ का बोलबाला रहता है । इनसे अभय का एकमात्र उपाय है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेना ।

दूसरी बात जो श्‍लोक में बताई गई है वह यह कि दुःख का एकमात्र कारण मैं और मेरापन है । प्रभु का आश्रय लेते ही सब कुछ प्रभु का है और प्रभु से भिन्‍न इस संसार में कुछ नहीं, इस तथ्‍य का ज्ञान हो जाता है । मैं और मेरापन छूटते ही दुःख का मूल कारण ही नष्‍ट हो जाता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 अप्रेल 2014
192 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध)
अ 9
श्लो 11
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप निश्‍चय ही मनुष्‍यों के भक्तियोग के द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमल में निवास करते हैं । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु का निश्‍चित वास भक्‍त के हृदय में है, इस तथ्‍य की पुष्टि यहाँ मिलती है ।

एक बार देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु से पूछा कि आपका वास श्रीगौलोक, श्रीसाकेत लोक, क्षीरसागर, श्रीबैकुंठ लोक इत्‍यादि सभी जगह पर है पर कौन-सी ऐसी जगह है जहाँ निश्‍चित रूप से आपको सदैव पाया जा सकता है । तब भी प्रभु ने यही उत्‍तर दिया था कि मेरा निश्‍चित वास भक्‍तों के हृदय में है ।

यहाँ भी इसी तथ्‍य की पुष्टि होती है कि भक्तियोग से शुद्ध हुए भक्‍त हृदय में प्रभु का निश्‍चित वास है । इससे पता चलता है कि भक्ति की महिमा कितनी असीम है कि वह साक्षात प्रभु को भक्‍त हृदय में लाकर बसा देती है । भक्ति का गौरव है कि प्रभु भक्‍त के हृदय में आकर वास करते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 अप्रेल 2014