क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
145 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 4
श्लो 5 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप ज्यों-ज्यों भगवान की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञान का पर्दा हटता जा रहा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब हम प्रभु की मंगलमयी कथा सुनते हैं तो हमें सत्य का भान होता है । जगत में सत्य सिर्फ प्रभु ही हैं । जब यह ज्ञान हमारे भीतर जागृत होता है तो अज्ञान का पर्दा हट जाता है ।
शरीर, धन, भाई-बन्धु आदि में अज्ञान के कारण जो हमारी ममता दृढ़ हो चुकी होती है, उस ममता का त्याग हम करते हैं । ज्ञान होने पर प्रभु से हमारा जो सनातन संबंध है उसे जीवन में दृढ़ करने का प्रयत्न हम करते हैं ।
इसलिए प्रभु की मंगलमयी कथा हमें निरंतर सुननी चाहिए जिससे हमारे प्रज्ञा-चक्षु खुल जाए और अज्ञान का नाश हो सके ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 अक्टूबर 2013 |
146 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 4
श्लो 7 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे बच्चों के बनाए हुए घरौंदों की तरह ब्रह्माण्डों को कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात-ही-बात में मिटा देते हैं ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के ऐश्वर्य को बताता यह श्लोक हमें प्रभु के ऐश्वर्य के दर्शन कराता है । श्री परीक्षितजी को प्रभु के ऐश्वर्य का ज्ञान था इसलिए उन्होंने यह प्रश्न व्यासनंदन प्रभु श्री शुकदेवजी से किया ।
जैसे बच्चे खेल-खेल में घरौंदों को बनाते है और खेल कर उसे मिटा देते हैं, वैसे ही प्रभु ब्रह्माण्डों को बनाते है और फिर मिटा देते हैं । यह प्रभु का श्रीलीला विलास है जिसके रहस्य को समझ पाना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी संभव नहीं है ।
मूल बात इतनी है कि प्रभु का ऐश्वर्य इतना है कि ब्रह्माण्डों को बनाना और मिटाना प्रभु के लिए बच्चों के खेल की तरह है । जिस सरलता और सहजता से बच्चे घरौंदा बनाते हैं और फिर मिटाते हैं, उसी सरलता और सहजता से प्रभु ब्रह्माण्डों को बनाते और मिटाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 27 अक्टूबर 2013 |
147 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 4
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हम पुनः बार-बार उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषों का दुःख मिटाकर उन्हें अपने प्रेम का दान करते हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्लोक में दो बातें कही गई हैं । पहला, प्रभु सत्पुरुषों का दुःख मिटाते हैं । दूसरा, प्रभु उन्हें प्रेम का दान देते हैं ।
सत्पुरुषों का दुःख मिटाने हेतु प्रभु सदैव तत्पर रहते हैं । सत्पुरुषों के जीवन में भी उनके पूर्व जन्मों के कर्मफल के रूप में दुःख आते हैं पर जब वे प्रभु की शरणागति लेते हैं तो प्रभु उनके दुःख का निवारण करते हैं ।
प्रभु सबसे बड़े दानी हैं । प्रभु बहुत सी चीजों का दान करते हैं पर सबसे बड़ा दान प्रभु अपने प्रेम का करते हैं । जिसे प्रभु के प्रेम का दान मिलता है वही सबसे सौभाग्यशाली होता है ।
हमें भी भक्ति करके प्रभु से प्रेम के दान की याचना करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 नवम्बर 2013 |
148 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 4
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह श्लोक मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि इसमें भक्ति की महिमा बताई गई है ।
श्लोक में दो बातें कही गई है । पहली, प्रभु बड़े ही भक्तवत्सल हैं । दूसरी, भक्तिहीन साधन करने वाले प्रभु की छाया को भी छू नहीं सकते ।
प्रभु बड़े ही भक्तवत्सल हैं । भक्तों को पिता की तरह प्रभु पालने वाले हैं । भक्तों से प्रभु पिता की भांति प्रेम करते हैं । भक्ति की इतनी बड़ी महिमा है । पर जो अभक्त हैं या जो भक्तिहीन साधन करते हैं, वे प्रभु की छाया को भी नहीं छू सकते । इसलिए प्रभु को पाने का भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ एवं एकमात्र साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 नवम्बर 2013 |
149 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 4
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह श्लोक मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि इसमें छह बातों का उल्लेख है जो जीव को प्रभु से जोड़ती है एवं जीव के पापों का तत्काल नाश करती है ।
प्रभु से जुड़ने के यह छह बिंदु हैं । प्रभु के नामों का कीर्तन करना । प्रभु का स्मरण-ध्यान करना । प्रभु के विग्रह के दर्शन करना । प्रभु की स्तुति-वन्दना करना । प्रभु की लीलारूपी कथा का श्रवण करना एवं प्रभु का पूजन करना ।
इन छह बातों का जीवन में आलंबन ले लिया जाए एवं इनका जीवन में अनुसरण किया जाए तो हमारा कल्याण निश्चित है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 नवम्बर 2013 |
150 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 4
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे ही भगवान ज्ञानियों की आत्मा हैं, भक्तों के स्वामी हैं, कर्मकाण्डियों के लिए वेदमूर्ति हैं, धार्मिकों के लिए धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियों के लिए तपःस्वरूप हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक अदभुत श्लोक जो हमें भान कराता है कि विभिन्न साधनों से, विभिन्न मार्गों से एक ही प्रभु तक हमें पहुँचना है ।
सभी मार्ग एक ही प्रभु तक हमें ले जाते हैं । इस बात का प्रतिपादन यहाँ मिलता है । प्रभु ज्ञानियों की आत्मा हैं यानी ज्ञान स्वरूप प्रभु ही हैं । प्रभु भक्तों के स्वामी हैं । प्रभु कर्मकाण्डियों के लिए वेदमूर्ति हैं । प्रभु धर्म के मार्ग पर चलने वालों के लिए धर्ममूर्ति हैं । प्रभु तपस्वियों के लिए तपःस्वरूप हैं ।
सभी साधनों के मूल प्रभु ही हैं । सभी साधनों की पहुँच एकमात्र प्रभु तक ही है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 नवम्बर 2013 |
151 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 5
श्लो 9 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
बेटा नारद ! तुमने जीवों के प्रति करुणा के भाव से भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है, क्योंकि इससे भगवान के गुणों का वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने अपने पिता प्रभु श्री ब्रह्माजी से प्रभु के विषय में प्रश्न पूछे तो प्रभु श्री ब्रह्माजी आनंदित हुए क्योंकि उन प्रश्नों के उत्तर के रूप में उन्हें प्रभु के सद्गुणों का वर्णन करने की प्रेरणा हुई और अवसर मिला ।
एक सूत्र यहाँ से मिलता है कि प्रभु के सद्गुणों के वर्णन का मौका कभी चूकना नहीं चाहिए । प्रभु के सद्गुणों के वर्णन का अवसर सदैव तलाशना चाहिए क्योंकि प्रभु के सद्गुणों का वर्णन करना सर्वदा और सबके लिए कल्याणकारी होता है ।
हमें जीवन में प्रभु के सद्गुणों का वर्णन करने की आदत बनानी चाहिए और ऐसा करने का सदैव प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 नवम्बर 2013 |
152 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 5
श्लो 11 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जैसे सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हीं के प्रकाश से प्रकाशित होकर जगत में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवान के चिन्मय प्रकाश से प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी के समक्ष एक रहस्य को खोला । सभी को प्रकाशित करने वाले प्रभु ही हैं । प्रभु के प्रकाश से ही सभी प्रकाशित होते हैं । प्रभु की शक्ति से सभी का संचालन होता है । सभी के मूल में प्रभु ही हैं ।
श्री सूर्यनारायणदेव, श्री अग्निदेव, श्री चन्द्रदेव, ग्रह, नक्षत्र, तारे और यहाँ तक कि स्वयं प्रभु श्री ब्रह्माजी भी प्रभु की शक्ति से ही अपने कार्य का संपादन करते हैं । सबके मूल स्त्रोत्र प्रभु ही हैं ।
किसी की अपनी कोई शक्ति नहीं है । संसार में एक ही परम शक्ति है वह प्रभु की है । उस परम शक्ति से ही सभी में शक्तियों का संचार होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 नवम्बर 2013 |
153 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 5
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवत्स्वरूप नारद ! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव - वास्तव में भगवान से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से उपरोक्त बात कही । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु श्री ब्रह्माजी, जिनके द्वारा सृष्टि की रचना हुई है, उन्होंने यह रहस्य बताया कि जो कुछ है सब प्रभु ही हैं, प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं है ।
सभी द्रव्य, सभी कर्म, सभी काल, सभी स्वभाव एवं सभी जीव प्रभु में कल्पित हैं । प्रभु से भिन्न यानी प्रभु के अलावा दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं ।
संतों ने सभी जगह प्रभु को अनुभव किया है और "जिधर देखूँ, मुझे तू ही नजर आए" की बात कही है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 नवम्बर 2013 |
154 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 5
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वेद नारायण के परायण हैं । देवता भी नारायण के ही अंगों में कल्पित हुए हैं, और समस्त यज्ञ भी नारायण की प्रसन्नता के लिए ही हैं तथा उनसे जिन लोकों की प्राप्ति होती है, वे भी नारायण में ही कल्पित हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को बताया कि श्री वेदजी प्रभु का परायण करते हैं । देवतागण भी प्रभु के श्रीअंगों में समाए हुए हैं । समस्त वैदिक कर्म, यज्ञ इत्यादि प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं । इन वैदिक कर्म, यज्ञ इत्यादि के फलस्वरूप जिन लोकों की प्राप्ति होती है वे भी प्रभु में ही कल्पित हैं ।
सार यह है कि सभी कुछ प्रभु में समाया हुआ है एवं सभी कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं ।
जब हम प्रभु की प्रभुता को समझने लगते हैं तो हमारा दृष्टिकोण ऐसा हो जाता है कि सभी का सार हमें प्रभु ही प्रतीत होते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 नवम्बर 2013 |
155 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 5
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सब प्रकार के योग भी नारायण की प्राप्ति के ही हेतु हैं । सारी तपस्याएं नारायण की ओर ही ले जाने वाली हैं, ज्ञान के द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं । समस्त साध्य और साधनों का पर्यवसान भगवान नारायण में ही है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को बताया कि सभी प्रकार के योग, चाहे वह कर्मयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग हो, वह सब प्रभु की प्राप्ति हेतु ही होते हैं । सभी योगों का उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति है । सारी तपस्याएं प्रभु की प्राप्ति के लिए ही होती हैं । ज्ञानयोग का ज्ञान प्रभु को जानने के लिए ही है । समस्त साध्य एवं साधनों के हेतु प्रभु ही हैं ।
सार यह है कि सभी साधनों का उद्देश्य प्रभु तक पहुँचना है । सभी साधन प्रभु की प्राप्ति के लिए ही किए जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 दिसम्बर 2013 |
156 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 6
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनके चरणकमल प्राप्त की रक्षा करते हैं और भयों को भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से उपरोक्त बात कही ।
जो हमें प्राप्त हुआ है उसकी रक्षा प्रभु करते हैं । ऐसा समझना चाहिए कि जो हमें प्राप्त होता है वह प्रभु की कृपा के कारण ही होता है और जो प्राप्त हुआ है उसकी रक्षा भी प्रभु ही करते हैं ।
हमारे भय को दूर करने का कार्य भी प्रभु ही करते हैं । क्योंकि जीव का स्वभाव है कि वह चिंताग्रस्त और भयग्रस्त रहता है पर प्रभु ही उसकी चिंता और भय को दूर करते हैं । हमारी समस्त कामनाओं की पूर्ति के स्त्रोत्र भी प्रभु ही हैं । कामनाओं की पूर्ति पुरुषार्थ से नहीं अपितु प्रभु इच्छा से होती है, ऐसा शास्त्र मत है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 दिसम्बर 2013 |
157 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 6
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्यारे नारद ! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कंठित हृदय से भगवान के स्मरण में मग्न रहता हूँ, इसी से मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दिखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियां भी कभी मर्यादा का उल्लंघन करके कुमार्ग में नहीं जाती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से उपरोक्त बात कही । यहाँ एक रहस्य प्रकट होता है, इसलिए यह श्लोक मुझे बहुत प्रिय है ।
मन और वाणी में असत्य का लेप नहीं हो, मन कभी असत्य संकल्प नहीं करे, इन्द्रियां कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करे और पैर कभी कुमार्ग में नहीं जाए, इन सबका एक उपाय क्या है ?
प्रभु श्री ब्रह्माजी अपना व्यक्तिगत उदाहरण देकर कहते हैं कि इनका एक ही उपाय है कि प्रभु का स्मरण जीवन में नित्य किया जाए । प्रभु का स्मरण और चिंतन हमें अनगिनत विकृतियों से बचाता है, यह एक शाश्वत सिद्धांत है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 दिसम्बर 2013 |
158 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 6
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... पहले मैंने बड़ी निष्ठा से योग का सर्वांग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूलकारण परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान सका क्योंकि वे तो एकमात्र भक्ति से ही प्राप्त होते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के स्वरूप को जानने का और प्रभु को प्राप्त करने का एकमात्र साधन भक्ति ही है । इस तथ्य का प्रतिपादन यहाँ मिलता है ।
प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को बताया कि उन्होंने बड़ी निष्ठा से योग के सम्पूर्ण अनुष्ठान किए परंतु प्रभु के स्वरूप को नहीं जान पाए । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि प्रभु को जानने का, प्रभु को पाने का एकमात्र साधन भक्ति ही है ।
प्रभु भक्ति से ही प्राप्त होते हैं । भक्ति का मार्ग हमें सीधा प्रभु तक पहुँचाता है । यह एक शाश्वत सत्य है जिसका अनुमोदन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने यहाँ किया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 दिसम्बर 2013 |
159 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 6
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
नारद ! महात्मा लोग जिस समय अपने अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीर को शान्त कर लेते हैं उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं । परन्तु जब असत्पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु प्रकट एवं अप्रकट कैसे होते हैं उसका भेद यहाँ बताया गया है ।
प्रभु श्री ब्रह्माजी ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी को बताया कि महात्मा लोग जब अपनी इन्द्रियां, अन्तःकरण और शरीर को शान्त कर लेते हैं तो प्रभु प्रकट हो जाते हैं और उन महात्माओं को साक्षात प्रभु का साक्षात्कार होता है ।
पर जब असत्पुरुष प्रभु के विषय में कुतर्क करते हैं तो प्रभु अप्रकट हो जाते हैं यानी ढक जाते हैं और उनके दर्शन नहीं हो पाते ।
सार यह है कि महात्माओं के सामने प्रभु प्रकट अवस्था में रहते हैं और असत्पुरुषों के समक्ष अप्रकट रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 दिसम्बर 2013 |
160 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 7
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपनी प्रतिभा के बल से पृथ्वी के एक-एक धूलि कण को गिन चुकने पर भी जगत में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान की शक्तियों की गणना कर सके .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से कहते हैं कि पृथ्वी के एक-एक धूलि कण को गिनना आसान हो सकता है पर ऐसा करने वाला भी प्रभु की शक्तियों की गणना नहीं कर सकता ।
पृथ्वी के धूलि कण असंख्य होते हैं । किसी के लिए भी उन्हें गिनना सर्वथा असंभव है । पर कल्पना करें कि कोई इसे संभव भी कर लेता है तो भी उसके लिए प्रभु की शक्तियों की गणना करना सर्वथा असंभव होगा क्योंकि प्रभु की शक्तियां अपार है, उसका पार ही नहीं पाया जा सकता है ।
विश्व की सारी शक्तियों के मूल में प्रभु ही हैं । विश्व की सारी शक्तियों के केंद्र बिंदु प्रभु ही हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 दिसम्बर 2013 |
161 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 7
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
समस्त कर्मों के फल भी भगवान ही देते हैं । क्योंकि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार जो शुभकर्म करता है, वह सब उन्हीं की प्रेरणा से होता है .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री ब्रह्माजी ने उपरोक्त तथ्य देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से कहे ।
ध्यान देने योग्य दो बातें हैं । पहली बात, मनुष्य के समस्त कर्मों के फल प्रभु ही देते हैं । मनुष्य कर्म करता है और उस कर्म का फल प्रभु देते हैं । दूसरी बात, मनुष्य जो भी शुभकर्म करता है उसकी प्रेरणा प्रभु ही देते हैं । यह एक शाश्वत सिद्धांत है कि मनुष्य को शुभकर्म करने हेतु प्रेरित करने का कार्य प्रभु ही करते हैं ।
इसलिए जीवन में जो भी शुभकर्म हमारे द्वारा होता है उसे प्रभु का कृपा प्रसाद मानना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 दिसम्बर 2013 |
162 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 8
श्लो 5 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों के भावमय हृदयकमल पर जाकर बैठ जाते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की श्रीलीलाओं का कथारूप में नित्य श्रवण करने का लाभ यहाँ उजागर किया गया है । प्रभु की कथा श्रवण हमें क्या लाभ देती है उसकी व्याख्या यहाँ की गई है ।
जैसे ही प्रभु की कथा हमारे कानों के छिद्रों से हमारे अन्तःकरण तक पहुँचती है, वह प्रभु प्रेम की जागृति कराती है । हृदय प्रभु प्रेम से ओत-प्रोत होता है और भक्त के ऐसे भावमय हृदयकमल में प्रभु आकर विराजते हैं ।
प्रभु की कथा का श्रवण प्रभु को पाने का एक निश्चित एवं सरल उपाय है । इसलिए जीवन में नित्य प्रभु की लीलारूपी कथा के श्रवण की आदत बनानी चाहिए । यह प्रभु को पाने का एक अचूक साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 दिसम्बर 2013 |
163 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 8
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के चरणकमलों को एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ता .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - हमारे हृदय की शुद्धता का मापदंड क्या है, इसको दर्शाता यह श्लोक ।
शुद्ध हृदय में ही प्रभु का वास होता है, यह एक शाश्वत सिद्धांत है । हृदय की शुद्धता का पता कैसे चले ? इसका एक सटीक मापदंड यह है कि हमारा अन्तःकरण प्रभु में कितना रमता है । अगर हमारा अन्तःकरण प्रभु के श्रीकमलचरणों के स्मरण को एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ता, तो हमारा हृदय शुद्ध अवस्था में है, ऐसा मानना चाहिए । क्योंकि शुद्ध हृदय में निरंतर प्रभु का स्मरण और चिंतन चलता ही रहता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 दिसम्बर 2013 |
164 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ब्रह्माजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान विराजमान हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के लिए चार विशेषणों का प्रयोग इस श्लोक में किया गया है ।
पहला, समस्त भक्तों के रक्षक के रूप में प्रभु ही हैं । भक्तों के रक्षण का दायित्व सदैव के लिए प्रभु ने ले रखा है । दूसरा, प्रभु लक्ष्मीपति हैं । इसका अर्थ हम कर सकते हैं कि भगवती लक्ष्मी माता, जो धन की देवी हैं, उनके पति प्रभु हैं । इसलिए धन के अधिपति प्रभु ही हैं । तीसरा, प्रभु यज्ञपति हैं यानी समस्त यज्ञों के केंद्र बिंदु प्रभु ही हैं । सभी प्रकार के यज्ञ प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही किए जाते हैं । चौथा, प्रभु विश्वपति हैं यानी पूरे ब्रह्माण्ड के मालिक प्रभु ही हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 दिसम्बर 2013 |
165 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य - इन छह नित्यसिद्ध स्वरूपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं । उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करती । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक अदभुत श्लोक जो हमें बताता है कि प्रभु छः सद्गुणों से समग्र रूप से नित्य युक्त रहते हैं ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि समग्र रूप यानी पूर्ण रूप से इन सद्गुणों से प्रभु युक्त रहते हैं । ब्रह्माण्ड में जितना भी ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य है वे सब प्रभु में वास करते हैं एवं प्रभु सर्वदा पूर्ण रूप से उनसे युक्त रहते हैं ।
प्रभु के अतिरिक्त यह सभी सद्गुण समग्र रूप से कहीं अन्य निवास नहीं करते । प्रभु के अतिरिक्त यह सभी सद्गुण नित्य रूप से कहीं भी निवास नहीं करते ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 जनवरी 2014 |
166 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ब्रह्माजी ! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम और पर्यवसान मेरे दर्शन में ही है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त कथन प्रभु श्री ब्रह्माजी से किया ।
हम जो भी साधन करते हैं, अंत में उसका क्या परिणाम चाहना चाहिए यह प्रभु ने यहाँ स्पष्ट किया है । प्रभु कहते हैं कि जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम इसी बात में है कि अंत में उसे प्रभु के दर्शन हो जाए ।
प्रभु का दर्शन पाना जीव का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए । शास्त्रों ने और संतों ने आत्म-साक्षात्कार पर बड़ा बल दिया है । अन्तःकरण में विराजे प्रभु के दर्शन मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गई है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 जनवरी 2014 |
167 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान ! आप समस्त प्राणियों के अंतःकरण में साक्षी रूप से विराजमान रहते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त तथ्य प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु से कहा ।
समस्त प्राणियों के अंतःकरण में साक्षी रूप से प्रभु विराजमान रहते हैं । हम कुछ भी प्रभु से छिपकर नहीं कर सकते । सभी कर्मों के साक्षी के रूप में प्रभु विराजमान हैं । इसलिए हमारे समस्त कर्म धर्मसंगत हों, इसका विशेष ध्यान हमें रखना चाहिए ।
प्रभु हमें हमारे पाप-पुण्य का फल बराबर देते हैं क्योंकि अंतःकरण में बैठकर प्रभु साक्षी भाव से दोनों कर्मों को देखते हैं और फिर उसका फल प्रदान करते हैं । हर कर्म को साक्षी रूप से प्रभु देख रहें हैं, यह चिंतन निरंतर मन में रखने से हमें धर्मसंगत कर्म करने की प्रेरणा सदैव मिलती रहेगी ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 जनवरी 2014 |
168 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 9
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बचा रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने प्रभु श्री ब्रह्माजी के समक्ष उपरोक्त तथ्य का प्रतिपादन किया ।
सृष्टि के रूप में जो भी प्रतीत हो रहा है वह प्रभु ही हैं । प्रभु के अतिरिक्त सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है । सृष्टि से पूर्व भी केवल प्रभु ही थे और सृष्टि के बाद भी केवल प्रभु ही होंगे । जहाँ यह सृष्टि नहीं है वहाँ भी प्रभु ही हैं । सृष्टि के बाद जो कुछ बचा रहेगा वह भी प्रभु ही होंगे ।
तात्पर्य यह है कि प्रभु के अतिरिक्त सृष्टि से पूर्व, सृष्टि के दौरान एवं सृष्टि के बाद कुछ भी नहीं था, नहीं है और नहीं होगा । सभी अवस्था में प्रभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, नहीं था और नहीं होगा ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के तीसरे स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के दूसरे स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगजननी मेरी भगवती सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं समुद्रदेव का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने की सोच भी पाए ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 जनवरी 2014 |