क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
121 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 19
श्लो 8 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उस समय त्रिलोकी को पवित्र करनेवाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे । संतजन प्रायः तीर्थयात्रा के बहाने स्वयं उन तीर्थस्थानों को ही पवित्र करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषियों-मुनियों में सत्संग, तप और भक्ति का प्रभाव दिखलाता यह श्लोक ।
सत्संग, तप और भक्ति द्वारा प्रभु का सानिध्य पाने के कारण ऋषि-मुनि इतने पवित्र हो जाते हैं कि वे अपने विचरण से पवित्र तीर्थस्थलों को भी पवित्रता प्रदान करते हैं । तीर्थ भी उन्हें अपने बीच पाकर गौरवान्वित हो जाते हैं ।
प्रभु का सानिध्य हमारे भीतर इतना पावित्र्य भर देता है, हमें इतना निर्मल कर देता है जो अन्य किसी भी साधन से कतई संभव नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 जुलाई 2013 |
122 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(प्रथम स्कंध) |
अ 19
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं आप ब्राह्मणों के चरणों में प्रणाम करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में जन्म लेना पड़े, भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग हो ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा श्री परीक्षितजी ने उक्त कथन अपने अंतिम समय में देवर्षि, ब्रह्मर्षियों एवं राजर्षियों को कहा ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि उन्होंने अपने आने वाले जन्मों में भी प्रभु से प्रीति की इच्छा प्रकट की । प्रभु से प्रीति हो, प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनुराग हो तो ही हमारा जीवन धन्य होता है ।
हम संसार से प्रीति रखते हैं जो गलत है । ऐसा करने पर हम मोह-माया में फंसते चले जाते हैं । संत पुरुष प्रभु से ही प्रीति रखते हैं । प्रभु के श्रीकमलचरण ही उनके परम आश्रय होते हैं ।
अब हम श्रीमद् भागवतजी महापुराण के दूसरे स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के प्रथम स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
मेरी विद्यादात्री भगवती सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं श्री समुद्रदेवजी का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए, इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खण्ड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने का सोच भी पाएं ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : रविवार, 21 जुलाई 2013 |
123 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 1
श्लो 5 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - राजा श्री परीक्षितजी ने दो प्रश्न श्रीव्यासनन्दन प्रभु श्री शुकदेवजी से किए । पहला, जीव को सदा-सर्वदा क्या करना चाहिए और दूसरा यह कि जीवन की अंतिम अवस्था में क्या करना चाहिए ।
प्रभु श्री शुकदेवजी ने दोनों ही प्रश्नों के उत्तर में एक ही बात कही कि उस व्यक्ति को सर्वात्मा यानी सबकी आत्मा स्वरूप सर्वशक्तिमान प्रभु की पुनीत श्रीलीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए ।
उन्होंने कहा कि मानव अपना जीवन काम-धंधों में, रात्रि निद्रा या स्त्री संग में, दिन धन की हाय-हाय या कुटुम्बियों के भरण-पोषण में ही समाप्त कर देता है । उम्र बीतने पर भी सबको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी मनुष्य चेतता नहीं है ।
प्रभु के सानिध्य में जाना ही मनुष्य के कल्याण का सूचक है । इसलिए हमें जीवन में प्रभु सानिध्य पाने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 28 जुलाई 2013 |
124 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 1
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्य जन्म का यही, इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो .... जीवन को ऐसा बना लिया जाए कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऐसा माना गया है कि अंत समय जैसा भाव हमारे अन्तःकरण में होता है वैसी ही गति हमें मिलती है । इसलिए शास्त्रों का मत है कि अंत समय मन प्रभु में ही रमें और ऐसा उपाय करने का आग्रह शास्त्रों में मिलता है ।
इस उपाय का अभ्यास जीवनकाल के आरम्भ या मध्य में करना जरूरी होता है अन्यथा अंतकाल में एकाएक ऐसा हो पाना संभव नहीं है । इसलिए हमें निरंतर एवं नियमित रूप से प्रभु का स्मरण और चिंतन करने का नियम जीवन में बनाना चाहिए ।
प्रभु के लिए जीवन में समय निरंतर बढ़ाते चलना चाहिए जिससे अंत समय जीवन का एक बड़ा भाग प्रभु स्मरण और चिंतन में बीतने लगे और शरीर त्यागते समय प्रभु की स्मृति बनीं रहे और हमें आवागमन से सदैव के लिए मुक्ति मिल जाए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 04 अगस्त 2013 |
125 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 1
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपने कल्याण-साधन की ओर से असावधान रहने वाले पुरुष की वर्षों लम्बी आयु भी अनजाने में ही व्यर्थ बीत जाती है । उससे क्या लाभ !
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मानव जीवन उद्देश्य से पथभ्रष्ट जीव को सचेत करता यह श्लोक ।
हम जीवन में अपने कल्याण साधन से प्रायः अनजान और असावधान रहते हैं । हमारा प्रयास इस दिशा में नहीं होता है । हम व्यर्थ के पचड़ों में उलझे रहते हैं । दुनियादारी, मोह और माया में हमारा जीवन फंसा रहता है ।
हमारी लम्बी आयु इस तरह व्यर्थ ही बीत जाती है । ऐसी आयु और ऐसे मानव जीवन का हमें कोई लाभ नहीं मिलता क्योंकि मानव जीवन मुक्तियोनि यानी आवागमन से सदैव के लिए मुक्त होने की योनि है ।
विवेकी जीव अपने कल्याण के साधन को जीवन में सर्वोपरि महत्व देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 11 अगस्त 2013 |
126 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 1
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा लें । और कर्म की वासनाओं से चंचल हुए मन को विचार के द्वारा रोककर भगवान के मंगलमय रूप में लगाएं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जीवन के अंत के समय यानी बुढ़ापे में हमारी अवस्था क्या होनी चाहिए यह बताता यह श्लोक ।
हमें बुद्धि की सहायता से अपनी इन्द्रियों को, जो की विषयों में आसक्त है, वहाँ से हटाना चाहिए । ऐसा होने पर हमारा मन, जो वासनाओं से चंचल हुआ है, वह शान्त हो जाएगा । शान्त मन को हमें प्रभु के मंगलमय रूप में लगाना चाहिए ।
कितना सुन्दर मार्ग यहाँ दिखाया गया है जिसको हम प्रायः नजरअंदाज कर देते हैं और एक बड़ी चूक जीवन के अंत समय में हमसे हो जाती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 अगस्त 2013 |
127 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 1
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्व और प्रकृति - इन सात आवरणों से घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीर में जो विराट पुरुष भगवान हैं, वे ही धारणा के आश्रय हैं, उन्हीं की धारणा की जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ध्यान और धारणा के मूल में प्रभु होने चाहिए, यह बताता यह श्लोक ।
धारणा के आश्रय प्रभु हैं, धारणा प्रभु की ही की जानी चाहिए । ध्यान के योग्य केवल प्रभु ही हैं । धारणा का स्वरूप प्रभु को ही माना गया है ।
प्रभु के किन्हीं भी श्रीरूप का, प्रभु के किन्हीं भी श्रीअंग का ही ध्यान हमें करना चाहिए । प्रभु के अलावा ध्यान करने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है ।
पर कलियुग में धारणा एवं ध्यान की नई-नई परिभाषाएं सामने आनी लगी है, जो गलत है । अन्यत्र ध्यान एवं धारणा करवा कर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है । पर शास्त्रों का मत है कि धारणा एवं ध्यान के मूल में प्रभु ही होने चाहिए, अन्य कोई नहीं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 अगस्त 2013 |
128 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 1
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान का ही भजन करना चाहिए, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिए । क्योंकि यह आसक्ति जीव के अधःपतन का हेतु है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्लोक में दो तथ्यों का प्रतिपादन मिलता है ।
पहला, कि भजन प्रभु का करना चाहिए क्योंकि वे ही एकमात्र सत्यस्वरूप हैं बाकी सब मिथ्या है । प्रभु ही आनंद के निधि हैं । आनंद के मूल स्त्रोत्र प्रभु ही हैं ।
दूसरा, जगत की किसी भी वस्तु या रिश्ते में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । ऐसी आसक्ति हमारा निश्चित पतन करवाती है क्योंकि जगत में आसक्ति हमें प्रभु से दूर कर देती है । प्रभु से दूर होते ही हमारा पतन निश्चित हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 अगस्त 2013 |
129 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 2 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जीव वहाँ सुख की वासना से स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है, किन्तु उन मायामय लोकों में कहीं भी उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जगत में जीव सुख की इच्छा लेकर सुख के सपने देखता भटकता रहता है । वह अपने हर व्यवहार से सुख की कामना रखता है । अपने हर व्यवहार से उसे सुख की प्राप्ति की अभिलाषा होती है ।
किन्तु माया से प्रभावित इस लोक में उसे सच्चा सुख कहीं भी नहीं मिलता है क्योंकि सच्चा सुख जगत में है ही नहीं । हम गलत जगह सुख की तलाश करते हैं और जीवन भर भटकते हैं ।
सच्चा सुख प्रभु की भक्ति में, प्रभु के सानिध्य में है । भक्तों ने भक्ति में सुख से भी बहुत ऊँची अवस्था का अनुभव किया है और उसे "आनंद" और "परमानंद" का नाम दिया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 सितम्बर 2013 |
130 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 6 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस प्रकार विरक्त हो जाने पर अपने हृदय में नित्य विराजमान, स्वतः सिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान हैं, बड़े प्रेम और आनन्द से दृढ़ निश्चय करके उन्हीं का भजन करें, क्योंकि उनके भजन से जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले अज्ञान का नाश हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के लिए यहाँ छह विशेषणों का प्रयोग किया गया है जो प्रभु के बारे में छह बातें बताते हैं । प्रभु हमारे हृदय में नित्य विराजमान हैं । प्रभु स्वतः सिद्ध हैं । प्रभु हमारी आत्मा के स्वरूप हैं । प्रभु हमारे सबसे परम प्रेमी हैं । प्रभु ही परम सत्य हैं । प्रभु अनन्त हैं ।
दूसरी बात जो श्लोक में बताई गई है वह यह कि बड़े प्रेम और आनंद से भर कर जीवन में दृढ़ निश्चय करके प्रभु का भजन करना चाहिए क्योंकि जगत में आवागमन से मुक्ति का यही एकमात्र साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 सितम्बर 2013 |
131 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 7 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पशुओं की बात तो अलग है, परन्तु मनुष्यों में भला ऐसा कौन है, जो लोगों को इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरकर अपने कर्मजन्य दुःखों को भोगते हुए देखकर भी भगवान का मंगलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत विषय-भोगों में ही अपने चित्त को भटकने देगा ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक व्यंग्य से भरा पर बड़ा प्रेरणादायक श्लोक ।
संसार रूपी नदी में गिरकर अपने पूर्व कर्मों के कारण मिले दुःखों का भोग कौन भोगना चाहेगा ? ऐसा तो पशु ही करते हैं । मनुष्य को तो प्रभु का मंगलमय चिंतन करना चाहिए । मनुष्य को विषय-भोग में अपने चित्त को नहीं भटकने देना चाहिए, जो कि दुःख का कारण है । उसे तो प्रभु के मंगलमय चिंतन से अपने मानव जीवन को सफल करना चाहिए ।
पर अधिकतर लोग कर्मों के भोग या विषय-भोग के कारण दुःख और कष्ट झेलकर अपना मानव जीवन व्यर्थ ही गंवा देते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 सितम्बर 2013 |
132 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब तक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाए, तब तक साधक को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान के उपर्युक्त स्थूल रूप का ही चिन्तन करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ध्यान करने योग्य मात्र प्रभु ही हैं । प्रभु के श्रीअंगों का ध्यान नियमित रूप से करने का अभ्यास हमें करना चाहिए । प्रभु के प्रत्येक श्रीअंग इतने कोमल एवं इतने अलौकिक हैं कि साधक इनका ध्यान करते-करते प्रभु के समीप पहुँचता जाता है । उसके मन में प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम जगता है और वह भक्ति से युक्त हो जाता है ।
एकाग्र होकर मात्र प्रभु का चिंतन और ध्यान करने का अभ्यास जीवन में करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 सितम्बर 2013 |
133 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
योगी लोग "यह नहीं, यह नहीं" - इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना चाहते हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - योगी पुरुष के लिए परमात्मा ही सर्वोपरि हैं । प्रभु के अलावा वे अपने मन को अन्यत्र कहीं भी भटकने नहीं देना चाहते ।
परमात्मा से भिन्न कुछ भी त्याज्य है इसलिए योगी पुरुष अपना चिंतन और मनन प्रभु पर ही केंद्रित करते हैं । वे अपने मन को अन्यत्र नहीं भटकने देते और परमात्मा से भिन्न कुछ भी हो उसे त्याज्य मानते हैं ।
परमात्मा से अन्य सब कुछ त्याज्य है, ऐसी धारणा होना एक बहुत ऊँची अवस्था है । जीवन में इस ऊँचाई तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 सितम्बर 2013 |
134 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संसार-चक्र में पड़े हुए मनुष्य के लिए, जिस साधन के द्वारा उसे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाए, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जीवन में जो भी साधन करें उसका उद्देश्य प्रभु की प्रेममयी भक्ति ही होनी चाहिए ।
संसार चक्र में उलझे जीव के लिए वही साधन एकमात्र उपयोगी है जो हमें प्रभु की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्रदान करे । शास्त्रों में इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी मार्ग को कल्याणकारी मार्ग नहीं माना गया है ।
कल्याणकारी मार्ग वही है जो हमें प्रभु तक ले जाए, इस सिद्धांत का यहाँ प्रतिपादन होता है । प्रभु से अनन्य प्रेममयी भक्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 सितम्बर 2013 |
135 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान ब्रह्मा ने एकाग्र चित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो, वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - धर्म की एक अति सुन्दर व्याख्या यहाँ मिलती है, जो कि एक श्रेष्ठतम व्याख्या है ।
श्री वेदजी का सार एवं प्रभु श्री ब्रह्माजी द्वारा अपनी बुद्धि से निश्चय किया मत यही है कि जिससे प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ।
सभी धर्मों का मूल उद्देश्य परमपिता परमेश्वर से अनन्य प्रेम और भक्ति ही है । यही सभी धर्मों का सार है । धर्म हमें प्रभु से जोड़ने का साधन है । धर्म हमारा प्रभु की तरफ जाने का मार्ग प्रशस्त करता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 सितम्बर 2013 |
136 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 36 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि सब समय और सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के श्रवण, कीर्तन और स्मरण के बारे में बताता यह श्लोक । इस श्लोक में तीन बातें गौर करने योग्य हैं ।
पहली बात, "सब समय", दूसरी बात, "सभी स्थितियों में" और तीसरी बात, "सम्पूर्ण शक्ति से" । हमें प्रभु का श्रवण, कीर्तन और स्मरण "सब समय" करना चाहिए । दैनिक गतिविधि एवं दुनियादारी के बीच भी अन्तःकरण के भीतर प्रभु स्मरण, प्रभु नाम जप चलते रहना चाहिए । संतों ने ऐसी अवस्था जब पाई है तब उनका आन्तरिक जप चलता रहता है चाहे वे बाहर से कोई भी गतिविधि करते दिखते हो । दूसरी बात "सभी स्थितियों में" ऐसा होना चाहिए । अनुकूलता में भूल गए और प्रतिकूलता में याद किया, यह गलत है । एक प्रचलित भजन में इस बात का प्रतिपादन मिलता है - जिस देश में, जिस वेश में, परिवेश में रहो - जिस काल में, जिस चाल में, जिस हाल में रहो - श्रीराधा-रमण, श्रीराधा-रमण, श्रीराधा-रमण कहो । तीसरी बात "सम्पूर्ण शक्ति से" ऐसा होना चाहिए । हम सम्पूर्ण शक्ति धन कमाने में जरूर लगा देते हैं पर प्रभु के श्रवण, कीर्तन और स्मरण में शायद ही लगाते हैं ।
सब समय, सभी स्थितियों में और सम्पूर्ण शक्ति के साथ जो प्रभु का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करते हैं, ऐसे जीव जीवन में धन्यता को पाते हैं और मृत्यु पर मुक्ति को भी पा जाते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 सितम्बर 2013 |
137 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 2
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान की कथा का मधुर अमृत बांटते ही रहते हैं, जो अपने कान के दोनों में भर-भर कर उनका पान करते हैं, उनके हृदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की कथा श्रवण हमें दो लाभ देती है, इस तथ्य का प्रतिपादन यहाँ मिलता है ।
पहला लाभ यह है कि हमारे हृदय से विषयों का विषैला प्रभाव नष्ट हो जाता है । हमारा हृदय विषरूपी विषयों में अटका रहता है । प्रभु की कथा श्रवण से विषरूपी विषयों का प्रभाव नष्ट हो जाता है ।
दूसरा लाभ यह है कि प्रभु की कथा श्रवण हमें प्रभु के श्रीकमलचरणों का सानिध्य प्राप्त करवा देती है ।
इस दोहरे लाभ का चिंतन कर हमें प्रभु की अमृतमयी कथा का श्रवण करने का नियम जीवन में बनाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 सितम्बर 2013 |
138 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
और जो बुद्धिमान पुरुष है - वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओं से युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो - उसे तो तीव्र भक्तियोग के द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान की ही आराधना करनी चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - विभिन्न इच्छाओं के लिए विभिन्न देवताओं की आराधना का विधान बताने के बाद, व्यासनंदन प्रभु श्री शुकदेवजी ने उपरोक्त वचन कहे ।
हमें निष्कामता के लिए, सकामता के लिए एवं मोक्ष के लिए तीव्र भक्ति द्वारा प्रभु की आराधना करनी चाहिए । निष्कामता, सकामता और मोक्ष तीनों के लिए एक ही मार्ग है जो कि भक्ति का मार्ग । भक्ति में भी तीव्रता की बात यहाँ कही गई है ।
तीव्रता से की गई भक्ति निष्काम पुरुषार्थ, सकाम इच्छा और मोक्ष की प्राप्ति करवाने वाला एकमात्र साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 सितम्बर 2013 |
139 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऐसे पुरुषों के सत्संग में जो भगवान की लीला-कथाएं होती हैं, उनसे उस दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिससे संसार-सागर की त्रिगुणमयी तरंगमालाओं के थपेड़े शान्त हो जाते हैं, हृदय शुद्ध होकर आनन्द का अनुभव करने लगता है, इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति नहीं रहती, कैवल्यमोक्ष का सर्वसम्मत मार्ग भक्तियोग प्राप्त हो जाता है । भगवान की ऐसी रसमयी कथाओं का चस्का लग जाने पर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - सत्संग का प्रभाव बताता यह अदभुत श्लोक । सत्संग क्या प्रभाव करता है इसका इससे सुन्दर विवेचन एक जगह नहीं मिलेगा ।
सत्संग से दुर्लभ अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे संसार सागर के थपेड़े शान्त हो जाते हैं । सत्संग के कारण हृदय शुद्ध होकर आनंद का अनुभव करता है । सत्संग के कारण इन्द्रियों की विषयों में आसक्ति खत्म हो जाती है । सत्संग से मोक्ष का सर्वसम्मत मार्ग, जो भक्तियोग का है, वह प्रशस्त होता है । सत्संग के द्वारा प्रभु से प्रेम हो जाता है ।
सत्संग की व्याख्या में भक्तियोग की भी एक व्याख्या छिपी हुई है । सर्वसम्मत मत है कि मोक्ष पाने का केवल एक ही मार्ग है और वह भक्ति का ही मार्ग है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 अक्टूबर 2013 |
140 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसका समय भगवान श्रीकृष्ण के गुणों के गान अथवा श्रवण में व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्यों की आयु व्यर्थ जा रही है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मेरा एक प्रिय श्लोक जो व्यर्थ की दुनियादारी में पड़े व्यक्ति की आयु को नष्ट करने बाबत हमें सचेत करता है ।
हमारी आयु का जो समय प्रभु के सद्गुणों के गान अथवा उसके श्रवण में व्यतीत नहीं होता, वह व्यर्थ नष्ट हो रहा है, ऐसा माना गया है । क्योंकि प्रभु के सद्गुणों का गान अथवा उसके श्रवण में लगी आयु ही हमें फल देती है । इसे ही सच्चा पुरुषार्थ माना गया है । व्यर्थ के पचड़े या दुनियादारी में लगी आयु से हमें कोई लाभ नहीं मिलता ।
स्वधर्म पालन के बाद जो भी समय बचता है उसे हमें प्रभु के सद्गुणों के गान अथवा उसके श्रवण में लगाने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 06 अक्टूबर 2013 |
141 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसके कान में भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा कभी नहीं पड़ी, वह नर पशु, कुत्ते, सूकर, ऊँट और गधे से भी गया बीता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक व्यंग्य भरा श्लोक जो हमें व्यर्थ की दुनियादारी में पड़ने से सचेत करता है क्योंकि हम अपना अधिकतर समय व्यर्थ की दुनियादारी में व्यतीत कर देते हैं ।
श्लोक में कहा गया है कि मानव जीवन पाकर भी अगर कानों से भगवान की श्रीलीला-कथा का श्रवण नहीं किया तो ऐसा मानव जीवन पशुतुल्य है और कुत्ते, सूकर और गधे से भी बदतर है ।
मानव जीवन पाकर उसका सदुपयोग प्रभु की श्रीलीला-कथा के श्रवण में ही है जिससे प्रभु के लिए अनन्य भक्ति हमारे अन्तःकरण में जागृत हो सके । ऐसा नहीं करने वाला पशुतुल्य जीवन जी रहा है, ऐसा शास्त्र मत है ।
हमारा कितना समय व्यर्थ की दुनियादारी, व्यर्थ के पचड़ों में बिता चला जाता है जिसका आभास तक हमें नहीं होता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 अक्टूबर 2013 |
142 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिल के समान हैं । जो जीभ भगवान की लीलाओं का गायन नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान टर्र-टर्र करनेवाली है, उसका तो न रहना ही अच्छा है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक व्यंग्य भरा श्लोक जो मेरा एक प्रिय श्लोक भी है क्योंकि इसकी उपमा अद्वितीय है ।
जो कान प्रभु की मंगल कथा का श्रवण नहीं करते, वे कान बिल के समान होते हैं । जैसे सांप के बिल में सुराख होता है वैसे ही हमारे कानों में भी सुराख होता है जिससे हमें सुनाई देता है । पर अगर हमने उन कानों को प्रभु की श्रीलीला-कथा श्रवण में नहीं लगाया तो वह बिल के सुराख के समान हैं क्योंकि उनके श्रवण की शक्ति का हमने सही उपयोग नहीं किया ।
ऐसे ही अगर हमने अपनी जिह्वा से प्रभु के मंगलमय नाम को नहीं लिया और व्यर्थ की बातों में ही उसका उपयोग किया तो वह मेंढक की टर्र-टर्र करने वाली जीभ के समान ही व्यर्थ है ।
कितनी सटीक उपमा के साथ सही विश्लेषण किया गया है । हमें अपने कानों को प्रभु की श्रीलीला-कथा के श्रवण से एवं अपनी वाणी को प्रभु के मंगलमय नाम से पवित्र करते रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 13 अक्टूबर 2013 |
143 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो सिर कभी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट से युक्त होने पर भी बोझमात्र ही है । जो हाथ भगवान की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोने के कंगन से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक व्यंग्य भरा श्लोक जिसमें दो व्यंग्य किए गए हैं ।
जो सिर प्रभु के श्रीकमलचरणों में नहीं झुकता वह कितना भी सुसज्जित और श्रेष्ठ होने पर भी शरीर का बोझमात्र है । जो सिर प्रभु के सामने नहीं झुकता उसका कोई भी महत्व नहीं है ।
ऐसे ही जो हाथ प्रभु की सेवा में तत्पर नहीं रहते वे सोने के आभूषणों से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ के समान हैं ।
जीवन में हमारा सिर प्रभु के श्रीकमलचरणों में झुकता रहे, ऐसी आदत जीवन में बनानी चाहिए । जीवन में हमारे हाथ प्रभु की सेवा का कार्य करते रहे, ऐसा अभ्यास जीवन में होना चाहिए । तभी हमारा उद्धार संभव है अन्यथा यह दोनों शरीर के अंग हमारे शरीर के बोझ से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 अक्टूबर 2013 |
144 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(दूसरा स्कंध) |
अ 3
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो आँखें भगवान की याद दिलानेवाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदि के दर्शन नहीं करतीं, वे मोरों के पंख में बने हुए आँखों के चिह्न के समान निरर्थक हैं । मनुष्यों के वे पैर चलने की शक्ति रखने पर भी न चलनेवाले पेड़ों जैसे ही हैं, जो भगवान की लीला-स्थलियों की यात्रा नहीं करते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - एक व्यंग्य भरा श्लोक जो मुझे प्रिय है क्योंकि इसमें शरीर के दो महत्वपूर्ण अंगों, आँखों और पैरों पर व्यंग्य किया गया है ।
जो आँखें उन चीजों का दर्शन नहीं करतीं जो प्रभु से जुड़ी है और प्रभु की याद दिलाती हैं जैसे प्रभु की विग्रह-मूर्ति, प्रभु की श्रीलीला-स्थली रूपी तीर्थ इत्यादि, वे आँखें मोर के पंख पर बनी आँखों की तरह हैं जो देख नहीं सकती, इसलिए व्यर्थ हैं ।
जो पैर चलने की शक्ति होने पर भी प्रभु की श्रीलीला-स्थलियों रूपी तीर्थों की यात्रा नहीं करते, प्रभु के मंदिरों के दर्शन करने नहीं जाते, वे पेड़ों जैसे हैं जो स्वभाव से ही अचल हैं ।
हमारी आँखें व्यर्थ की चीजें देखती हैं, हमारे पैर व्यर्थ की दौड़-भाग करते हैं, ऐसा समझकर उन्हें प्रभु की तरफ अविलम्ब मोड़ना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 20 अक्टूबर 2013 |