क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
1081 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 29
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्व को प्राप्त कर लें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो विवेकी और चतुर जीव है उनकी बुद्धि की पराकाष्ठा इसीमें है कि वे अपने विनाशी और असत्य मानव शरीर से प्रभु को प्राप्त कर लें । जीव संसार में जन्म लेता है और बहुत कुछ प्राप्त करने का प्रयास करता है । वह अपने प्रयासों से सांसारिक चीजें प्राप्त कर भी लेता है पर यह सब निरर्थक होता है क्योंकि वह प्रभु प्राप्ति के चूक जाता है । वह अपने जीवन काल में प्रभु प्राप्ति हेतु प्रयास भी नहीं करता । मानव जीवन हमें प्रभु की प्राप्ति करने के लिए ही मिला है ।
इसलिए प्रभु प्राप्ति का प्रयास करना हमारे जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 06 नवम्बर 2017 |
1082 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 29
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस समय मनुष्य समस्त कर्मों का परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्व से छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु को अपना आत्मसमर्पण कर देता है उस पर प्रभु विशेष प्रसन्न होते हैं । प्रभु उसे सभी बंधनों से मुक्त कर मोक्ष की प्राप्ति करवा देते हैं । प्रभु कहते हैं कि ऐसा जीव प्रभु से मिलकर प्रभु से एकाकार हो जाता है । प्रभु की शरणागति और प्रभु के समक्ष आत्मसमर्पण का बहुत बड़ा महत्व है । जब हम प्रभु पर आश्रित और समर्पित हो जाते हैं तो प्रभु हमें अपना लेते हैं । प्रभु की शरणागति और प्रभु के समक्ष आत्मनिवेदन भक्ति की पराकाष्ठा है । जीव को सदैव भक्ति करते हुए इस पराकाष्ठा तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की शरणागति ग्रहण करें और अपना आत्मनिवेदन प्रभु को करें ।
प्रकाशन तिथि : 06 नवम्बर 2017 |
1083 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 29
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकांत में विचारपूर्वक अनुभव करते रहना । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु ने जो श्री उद्धवजी को विस्तृत उपदेश दिया उसको सुनने के बाद श्री उद्धवजी ने प्रभु को हाथ जोड़कर और प्रभु के श्रीकमलचरणों में गिरकर पूछा कि अब उनके लिए प्रभु की क्या आज्ञा है । तो प्रभु ने उन्हें कहा कि वे बद्रिकाश्रम में जाकर प्रवास करें और प्रभु की दी हुई शिक्षा का वहाँ एकांत में रहकर विचारपूर्वक चिंतन करें और अनुभव करें । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु के उपदेशों का एकांत में चिंतन और मनन करना चाहिए । हम भी प्रभु का उपदेश श्रीमद् भगवद् गीताजी में एवं अन्य शास्त्रों में सुनते हैं पर सुनने के बाद उसका विस्मरण कर देते हैं । प्रभु के उपदेशों का एकांत में मनन और चिंतन करना अति आवश्यक है तभी वे अपना प्रभाव दिखाकर हमारा कल्याण करते हैं ।
जीव को चाहिए कि प्रभु के उपदेशों को मात्र सुनने हेतु नहीं सुने अपितु उनका एकांत में चिंतन और मनन करें ।
प्रकाशन तिथि : 08 नवम्बर 2017 |
1084 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 31
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गई ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु ने अपनी श्रीलीला के संपूर्ण कार्य पूर्ण करने के बाद स्वधाम गमन करने का निश्चय किया । प्रभु ने जब पृथ्वीलोक से प्रस्थान किया तो प्रभु के साथ सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्री भी चली गई । इस तथ्य से एक बात प्रतिपादित होती है कि जहाँ प्रभु रहते हैं वहीं समस्त सद्गुण रहते हैं । इसलिए अगर हमें जीवन में सद्गुण लाने हैं तो उनके लिए हमें अपने जीवन में प्रभु को लाना होगा । जब भक्ति से प्रभु हमारे जीवन में आएंगे तो प्रभु के साथ बिन बुलाए ही प्रभु की परछाई के रूप में समस्त सद्गुण भी आ जाएंगे । उन सद्गुणों को लाने के लिए अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होगी ।
इसलिए जीवन में एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि भक्ति द्वारा प्रभु हमारे जीवन में आ जाएं ।
अब हम श्रीमद् भागवतमहापुराण के द्वादश स्कंध में प्रभु कृपा के बल पर मंगल प्रवेश करेंगे । हमारा धन्य भाग्य है कि एकादश स्कंध में प्रभु श्रीकृष्णजी और श्रीउद्धवजी के दिव्य संवाद जिसे श्रीउद्धवगीता भी कहते हैं उसका रसास्वादन हमने किया ।
श्रीमद् भागवतमहापुराण के एकादश स्कंध तक की इस यात्रा को प्रभु के पावन और पुनीत श्रीकमलचरणों में सादर अर्पण करता हूँ ।
जगतजननी मेरी सरस्वती माता का सत्य कथन है कि अगर पूरी पृथ्वीमाता कागज बन जाए एवं समुद्रदेव का पूरा जल स्याही बन जाए, तो भी वे बहुत अपर्याप्त होंगे मेरे प्रभु के ऐश्वर्य का लेशमात्र भी बखान करने के लिए - इस कथन के मद्देनजर हमारी क्या औकात कि हम किसी भी श्रीग्रंथ के किसी भी अध्याय, खंड में प्रभु की पूर्ण महिमा का बखान तो दूर, बखान करने की सोच भी पाएं ।
जो भी हो पाया प्रभु की कृपा के बल पर ही हो पाया है । प्रभु की कृपा के बल पर किया यह प्रयास मेरे (एक विवेकशून्य सेवक) द्वारा प्रभु को सादर अर्पण ।
प्रभु का,
चन्द्रशेखर कर्वा
प्रकाशन तिथि : 08 नवम्बर 2017 |
1085 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 02
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे साधु-सज्जन पुरुषों के धर्म की रक्षा के लिए, उनके कर्म का बंधन काटकर उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी के पूछने पर कलियुग का विस्तृत वर्णन किया । कलियुग इतना बड़ा भार बन जाएगा क्योंकि न तो कलियुग में धर्म रहेगा और न ही सद्गुण रहेंगे । ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा करने के लिए और सद्गुणों की रक्षा करने के लिए प्रभु अवतार ग्रहण करेंगे । प्रभु सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं । प्रभु ही चराचर के रक्षक और सच्चे स्वामी हैं । इसलिए साधु और सज्जन पुरुषों के धर्म की रक्षा के लिए और उनके कर्मों के बंधन को काटकर उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने के लिए प्रभु अवतार ग्रहण करेंगे ।
प्रभु सदैव धर्म की रक्षा के लिए आते हैं क्योंकि धर्म प्रभु पर ही आश्रित है ।
प्रकाशन तिथि : 09 नवम्बर 2017 |
1086 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 02
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब तक लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे, तब तक कलियुग पृथ्वी पर अपना पैर न जमा सका ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
जब तक प्रभु श्री कृष्णजी के श्रीकमलचरण पृथ्वी का स्पर्श करते थे तब तक कलियुग पृथ्वी पर नहीं आ पाया । जब प्रभु फिर कलियुग में श्री कल्किजी का अवतार लेंगे तो कलियुग समाप्त हो जाएगा और सत्ययुग का प्रारंभ हो जाएगा । इससे इस सिद्धांत का प्रतिपादन होता है कि जब तक प्रभु पृथ्वीलोक पर रहते हैं तब तक कलियुग अपना प्रभाव नहीं डाल सकता । यही सिद्धांत हमारे जीवन में भी लागू होता है कि जब तक हम प्रभु के सानिध्य में रहेंगे कलियुग के दोष अपना प्रभाव हम पर नहीं डाल पाएंगे । प्रभु का सानिध्य छूटा तो तत्काल कलियुग के दोषों का प्रभाव हम पर पड़ेगा ।
इसलिए जीवन में कलियुग के दोषों से बचना हो तो प्रभु के सानिध्य में रहना अनिवार्य है ।
प्रकाशन तिथि : 09 नवम्बर 2017 |
1087 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान श्रीकृष्ण का गुणानुवाद समस्त अमंगलों का नाश करने वाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं । जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेममयी भक्ति की लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरंतर भगवान के दिव्य गुणानुवाद का ही श्रवण करते रहना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु का गुणानुवाद समस्त अमंगलों का नाश करने वाला होता है । इसलिए प्रभु का गुणगान करके बड़े-बड़े संत और महात्मा अपनी वाणी को पवित्र करते हैं । प्रभु का गुणगान करने से जीव का परम कल्याण होता है । जो प्रभु के श्रीकमलचरणों में अनन्य प्रेममयी भक्ति की लालसा रखते हैं, उन्हें चाहिए कि नित्य-निरंतर प्रभु के दिव्य गुणानुवाद का कथन और श्रवण करें । प्रभु के गुणों का गान करना कलियुग के दोषों से बचने का एक अचूक साधन है । जब हमारे हृदय में प्रभु के लिए भक्ति जागृत होती है तो हमारे मन को स्वतः ही प्रभु के गुणानुवाद में रस आने लगता है ।
जीव को चाहिए कि वह अपने दैनिक जीवन में प्रभु का गुणानुवाद करने का और प्रभु के गुणानुवाद के श्रवण करने का क्रम बनाएं ।
प्रकाशन तिथि : 10 नवम्बर 2017 |
1088 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! श्रीभगवान ही चराचर जगत के परम पिता और परम गुरु हैं । इंद्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलों में अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं । उनका ऐश्वर्य अनंत है और वे एकरस अपने स्वरूप में स्थित हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु ही समस्त चराचर जगत के परम पिता हैं । प्रभु ही समस्त चराचर जगत के परम गुरु हैं । प्रभु के श्रीकमलचरणों में सभी अपना सर झुकाकर अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित करते हैं । जीव अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित करके धन्य हो जाता है । प्रभु का ऐश्वर्य अनंत है । हम प्रभु के ऐश्वर्य की कल्पना भी नहीं कर सकते । इसलिए ऐसे ऐश्वर्य संपन्न परमपिता और परमगुरु के समक्ष हमें अपना सर्वस्व समर्पित कर देना चाहिए । पर हमारे भीतर भक्ति जागृत होने के बाद ही हम ऐसा कर पाएंगे ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने हृदय में प्रभु के लिए भक्ति को जागृत करके अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित करें ।
प्रकाशन तिथि : 10 नवम्बर 2017 |
1089 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्य मरने के समय आतुरता की स्थिति में अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान के किसी एक नाम का उच्चारण कर लें, तो उसके सारे कर्मबंधन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी प्रभु के नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि मृत्यु के समय अथवा किसी विवश स्थिति में अगर जीव प्रभु के किसी भी नाम का उच्चारण कर लें तो उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती हैं । मृत्यु के समय अगर जीव प्रभु के नाम का उच्चारण कर लेता है तो वह अपने सारे कर्म बंधनों से मुक्त होकर उत्तम गति को प्राप्त करता है । पर ऐसा करने के लिए प्रभु के नाम का उच्चारण का अभ्यास आरंभ से करना होगा । ऐसा संभव नहीं है कि एकाएक मृत्यु बेला पर प्रभु के नाम का उच्चारण जीव से हो पाए । पर जो आरंभ से ही प्रभु के नाम के उच्चारण का अभ्यास करता है उसके लिए ऐसा करना संभव हो जाता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने आरंभिक जीवन काल से ही प्रभु के नाम उच्चारण करने का अभ्यास करें जिससे अंत समय ऐसा करने में उसे सफलता मिल सकें ।
प्रकाशन तिथि : 11 नवम्बर 2017 |
1090 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु जब पुरुषोत्तम भगवान हृदय में आ विराजते हैं, तब उनके सानिध्य मात्र से ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
कलियुग में अनेकों दोष हैं । कलियुग में स्थान दोष है, वस्तु दोष है और सबसे ज्यादा जीव के अंतःकरण के दोष की प्रधानता है । पर जब प्रभु हृदय में भक्ति के द्वारा आ विराजते हैं तो प्रभु के सानिध्य के प्रभाव से सभी दोष तत्काल नष्ट हो जाते हैं । प्रभु के रूप, गुण, लीला और नाम के श्रवण, कीर्तन, ध्यान और पूजन से प्रभु जीव के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं । ऐसा होने पर कलियुग के सारे दोषों से वह जीव निवृत्त हो जाता है । साथ ही एक-दो जन्मों के पापों की तो बात ही क्या है, जीव के हजारों जन्मों के पापों का ढेर भी प्रभु क्षणभर में भस्म कर देते हैं । प्रभु के हृदय में विराजमान होते ही जीव के लिए कलियुग के सभी अशुभ संस्कार सदैव के लिए मिट जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति का आश्रय लेकर प्रभु को अपने हृदय में लाकर विराजमान करें ।
प्रकाशन तिथि : 11 नवम्बर 2017 |
1091 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियों के प्रति मित्र भाव, तीर्थ स्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधन से मनुष्य के अंतःकरण की वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान पुरुषोत्तम के हृदय में विराजमान हो जाने पर होती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि विद्या अर्जन से, तपस्या, प्राणायाम, तीर्थसेवन, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधन से जीव के हृदय की वैसी शुद्धि नहीं होती है जैसी प्रभु के हृदय में विराजमान होने पर स्वतः ही हो जाती है । प्रभु को हृदय में विराजमान करने का सबसे सरल साधन प्रभु की भक्ति है । जब भक्ति के कारण प्रभु जीव के हृदय में विराजमान हो जाते हैं तो उस जीव के अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि हो जाती है । प्रभु के सभी भक्तों का हृदय शुद्ध होता है क्योंकि वे भक्ति का आश्रय लेकर प्रभु को हृदय में विराजमान करने में सफल हो जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु को अपने हृदय में भक्ति द्वारा विराजमान करने का प्रयास जीवन में करें ।
प्रकाशन तिथि : 12 नवम्बर 2017 |
1092 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! अब तुम्हारी मृत्यु का समय निकट आ गया है । अब सावधान हो जाओ । पूरी शक्ति से और अंतःकरण की सारी वृत्तियों से भगवान श्रीकृष्ण को अपने हृदय सिंहासन पर बैठा लो । ऐसा करने से अवश्य ही तुम्हें परमगति की प्राप्ति होगी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
श्रीमद् भागवतजी महापुराण के सात दिवस का उपदेश देने के बाद फिर प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी से कहा कि अब वे सावधान हो जाएं क्योंकि उनकी मृत्यु की बेला निकट आ रही है । प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहा कि वे पूरी शक्ति से अपने अंतःकरण की सारी वृत्तियों को प्रभु को समर्पित कर दें और प्रभु को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर लें । प्रभु श्री शुकदेवजी ने कहा कि अगर राजा श्री परीक्षितजी ऐसा करेंगे तो उन्हें अवश्य ही परमगति प्राप्त होगी ।
अंतिम बेला पर प्रभु का स्मरण जितना लाभकारी और कल्याणकारी है उतना अन्य कुछ भी नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 12 नवम्बर 2017 |
1093 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 50 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्यारे परीक्षित ! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान अपना ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु सबके परम आश्रय और सबकी आत्मा हैं । प्रभु अपने ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं । प्रभु अपने ध्यान करने वाले को अपना स्वरूप ही प्रदान कर देते हैं । प्रभु का जो नित्य ध्यान करता है वह प्रभु से एकाकार हो जाता है । इसलिए शास्त्रों में इस तथ्य का प्रतिपादन होता है कि प्रभु का ध्यान अत्यंत मंगलकारी और परम लाभकारी है । प्रभु के स्वरूप का ध्यान करना भक्ति का एक अंग है और ऋषियों, संतों और भक्तों ने ऐसा करके अपने आपको धन्य किया है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु का नित्य ध्यान करने का अभ्यास जीवन में करें ।
प्रकाशन तिथि : 13 नवम्बर 2017 |
1094 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 03
श्लो 51 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! यों तो कलियुग दोषों का खजाना है, परंतु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है । वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान श्रीकृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी आसक्तियां छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
कलियुग वैसे तो बड़े दोषों से युक्त है । पर कलियुग की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि कलियुग में प्रभु की प्राप्ति का साधन बहुत ही सरल है । कलियुग में मात्र प्रभु के नाम के संकीर्तन से प्रभु की प्राप्ति हो जाती है । ऐसा इसलिए कि कलियुग के दोषों के बीच प्रभु का ध्यान, यज्ञ और सेवा पूजा करना अत्यंत कठिन है इसलिए मात्र और मात्र प्रभु के नाम के संकीर्तन से ही वह फल मिल जाता है जो अन्य युगों में बड़े-बड़े साधन करने पर मिलता है । सतयुग में प्रभु प्राप्ति के लिए प्रभु का ध्यान करने का साधन था, त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा प्रभु की आराधना करने का साधन था और द्वापर में विधिपूर्वक की गई प्रभु की सेवा और पूजा ही प्रभु प्राप्ति का साधन था ।
इसलिए कलियुग में जन्म मिलने पर इस युग के सरल साधन को अपनाकर प्रभु की प्राप्ति करने का लक्ष्य जीवन में रखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 13 नवम्बर 2017 |
1095 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 04
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हे कुरुश्रेष्ठ ! विश्वविधाता भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं । जो कुछ मैंने संक्षेप में कहा है, वह सब उन्हीं की लीला-कथा है । भगवान की लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु ही समस्त प्राणियों के आश्रय हैं । प्रभु ही समस्त शक्तियों के भी आश्रय हैं । प्रभु की श्रीलीला कथा का पूर्ण वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है । कोई भी देवता या शास्त्र प्रभु की श्रीलीला का पूर्ण वर्णन करने में सक्षम नहीं हैं । प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि श्रीमद् भागवतजी महापुराण में उन्होंने प्रभु की श्रीलीला कथा बड़े संक्षेप रूप से कही है क्योंकि प्रभु की श्रीलीला कथा का वर्णन करना पूर्ण रूप से उनके लिए भी संभव नहीं है । प्रभु की श्रीलीलाएं अनंत है इसलिए शास्त्रों में जो भी उनका वर्णन मिलता है वह केवल संक्षिप्त वर्णन ही मिलता है ।
इसलिए हमें अपने हृदय में यह बात दृढ़ रूप से बैठा लेनी चाहिए कि प्रभु की श्रीलीलाएं अनंत हैं और जो हम श्रवण करते हैं वह उनका संक्षिप्त वर्णन मात्र है ।
प्रकाशन तिथि : 14 नवम्बर 2017 |
1096 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 04
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग अत्यंत दुस्तर संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकार के दुःख-दावानल से दग्ध हो रहे हैं, उनके लिए पुरुषोत्तम भगवान की लीला-कथा रूप रस के सेवन के अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है । वे केवल लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा श्री परीक्षितजी को कहे ।
प्रभु श्री शुकदेवजी कहते हैं कि जो जीव इस अत्यंत भयंकर संसार सागर को पार करना चाहते हैं उनके लिए प्रभु की श्रीलीला कथा के श्रवण के अतिरिक्त अन्य कोई नौका नहीं है । जो लोग संसार में रहकर अनेक प्रकार के दुःख की अग्नि में दग्ध हो रहे हैं उनके लिए भी प्रभु की श्रीलीला कथा के श्रवण के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है । जीव अपने सारे मनोरथ प्रभु की श्रीलीला कथा के सेवन से पूर्ण कर सकता है । प्रभु की श्रीलीला कथा के श्रवण से हितकारी साधन अन्य कुछ भी नहीं है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की श्रीलीला कथा का श्रवण नित्य करता रहे ।
प्रकाशन तिथि : 14 नवम्बर 2017 |
1097 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 68 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप समस्त देवताओं में श्रेष्ठ हैं । जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधि से आप की उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःख के बीजों को आप भस्म कर देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन ऋषि याज्ञवल्क्यजी ने प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की आराधना करते हुए कहे ।
प्रभु श्री सूर्यनारायणजी श्रेष्ठतम देवता हैं । प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की उपासना बड़ी फलदाई है । जो लोग प्रतिदिन प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की उपासना करते हैं उनके सारे पापों और दुःखों को प्रभु भस्म कर देते हैं । जगत में जितने चराचर प्राणी है वे प्रभु श्री सूर्यनारायणजी द्वारा ही प्रकाशित हैं । प्रभु श्रीसूर्यनारायण जीव के परम गुरु हैं और प्रभु की एक विभूति हैं । प्राचीन काल से ही ऋषियों और संतों ने प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की उपासना की है क्योंकि शास्त्रों में ऐसा करने का स्पष्ट विधान है ।
प्रभु श्री सूर्यनारायणजी नित्य दर्शन देने वाले प्रत्यक्ष देव है इसलिए उनकी नित्य उपासना करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 15 नवम्बर 2017 |
1098 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इस कथा में भगवान नारायण की महिमा है । जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री सूतजी ने श्री शौनकादि ऋषियों को कहे ।
जिस भी कथा में प्रभु की महिमा का बखान होता है उसका गान करना चाहिए । हर वह कथा जिसमें प्रभु की महिमा प्रकट होती है उसका श्रवण करना चाहिए । प्रभु की महिमा का गान और श्रवण कलिकाल के समस्त दोषों और पापों से निवृत्त होने का अचूक साधन है । इसलिए ऋषियों और संतों ने जिस भी कथा से प्रभु की महिमा प्रकट होती है उसको शास्त्र मानकर उसके श्रवण और गान का विधान जनमानस के कल्याण के लिए बनाया है । हमारे जीवन का उद्देश्य यही होना चाहिए कि जितना हो सके हमें प्रभु की महिमा का गुणगान करना चाहिए ।
इसलिए हर उस कथा में हमारी श्रद्धा होनी चाहिए जिसमें प्रभु की महिमा का गान होता है ।
प्रकाशन तिथि : 16 नवम्बर 2017 |
1099 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनका अंग-अंग भगवान के सामने झुका जा रहा था । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यहाँ पर श्री मार्कण्डेय मुनि को प्रभु के दर्शन होने की अवस्था का वर्णन है ।
जब श्री मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि उनसे प्रसन्न होकर प्रभु उन्हें दर्शन देने पधारे हैं तब वे आदर भाव से खड़े हो गए और धरती पर लेटकर प्रभु को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया । प्रभु के दिव्य दर्शन से उन्हें इतना आनंद हुआ कि उनका रोम-रोम और सारी इंद्रियां प्रफुल्लित हो उठी । उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी जिससे उनकी दृष्टि अवरुद्ध हो गई । उन्होंने अपने अंग-अंग को प्रभु के समक्ष झुका लिया और गदगद वाणी से प्रभु का स्वागत किया । उन्होंने प्रभु को आसन पर बैठाया, प्रभु के श्रीकमलचरणों को पखारा और प्रभु की पूजा की । ऐसा करते वक्त उन्हें प्रतीत हो रहा था मानो प्रभु उन पर अपनी कृपा प्रसादी की वर्षा कर रहे हो ।
प्रभु का दर्शन जिस भी ऋषि, संत और भक्त को हुआ है उन सबका ऐसा ही अद्वितीय अनुभव रहा है ।
प्रकाशन तिथि : 17 नवम्बर 2017 |
1100 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप अपना भजन करने वाले भक्तों के प्रेम-बंधन में बंधे हुए हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मार्कण्डेय मुनि ने प्रभु की स्तुति करते वक्त कहे ।
प्रभु अपने भजन करने वाले भक्तों के प्रेम बंधन में बंधे हुए हैं । प्रभु को हम अन्य किसी भी बंधन में नहीं बांध सकते । प्रभु केवल और केवल प्रेम और भक्ति के बंधन में बंधते हैं । हम प्रभु को वैभव से, ऐश्वर्य से नहीं बांध सकते । प्रभु सिर्फ एक ही बंधन स्वीकार करते हैं और वह बंधन है प्रेम का बंधन । जितने भी भक्तों का चरित्र हम देखेंगे तो एक बात हम सबमें समान रूप से पाएंगे कि सबने प्रभु से अत्यंत प्रेम किया है । जिन्होंने भी प्रभु से निश्चल और निष्काम प्रेम किया है प्रभु ने उनके प्रेम बंधन को स्वीकार किया है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु से निर्मल और निष्काम प्रेम करें ।
प्रकाशन तिथि : 18 नवम्बर 2017 |
1101 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वेद के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्ति के लिए निरंतर आपका स्तवन, वंदन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मार्कण्डेय मुनि ने प्रभु की स्तुति करते वक्त कहे ।
वेदों के मर्मज्ञ ऋषि, मुनि प्रभु की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रभु का वंदन, पूजन और ध्यान किया करते हैं । ऋषि मुनियों से ज्ञानी अन्य कोई भी नहीं होता क्योंकि वे वेदों और शास्त्रों के मर्म को जानते हैं । सब कुछ के ज्ञाता होने पर भी उनका एक ही उद्देश्य और लक्ष्य होता है कि अपने जीवन में प्रभु की प्राप्ति की जाए । प्रभु प्राप्ति को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बनाकर वे प्रभु की वंदना, पूजन और ध्यान करने में अपना जीवन लगा देते हैं । उनसे हमें भी शिक्षा लेनी चाहिए कि मानव जन्म पाकर हमें भी प्रभु प्राप्ति को ही अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाना चाहिए ।
हमारे प्राचीन ऋषियों और संतों ने जो किया वह हमारा मार्गदर्शन करने के लिए हम पर उपकार किया है ।
प्रकाशन तिथि : 19 नवम्बर 2017 |
1102 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... ऐसी अवस्था में आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने के अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शांति का उपाय हमारी समझ में नहीं आता, क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मार्कण्डेय मुनि ने प्रभु की स्तुति करते वक्त कहे ।
जीव के चारों ओर भय-ही-भय का बोलबाला है । ऐसी अवस्था में प्रभु के श्रीकमलचरणों की शरण ग्रहण करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई भी परम कल्याण और सुख शांति का उपाय नहीं है । प्रभु समस्त जीवों के परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्यस्वरूप हैं । प्रभु मोक्षस्वरूप भी हैं । प्रभु की शरण के अतिरिक्त सांसारिक क्लेश और ताप से बचने का अन्य कोई साधन ही नहीं है । इसलिए ही शास्त्रों में प्रभु की शरणागति को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है । प्रभु की शरणागति ग्रहण करना जीव के लिए परम हितकारी और लाभकारी है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अविलंब प्रभु की शरणागति ग्रहण कर अपने जीवन में निश्चिंत हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 20 नवम्बर 2017 |
1103 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 47 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवन ! आप अंतर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगदगुरु, परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री मार्कण्डेय मुनि ने प्रभु की स्तुति करते वक्त कहे ।
इस श्लोक में प्रभु के लिए छह विशेषणों का प्रयोग किया गया है । प्रभु अंतर्यामी हैं यानी सब कुछ जानने वाले हैं । ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम प्रभु से छुपा सकते हैं । प्रभु सर्वव्यापक हैं यानी सभी जगह उपस्थित हैं । ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ प्रभु न हों । प्रभु सर्वस्वरूप है यानी सभी स्वरूपों में प्रभु ही हैं । प्रभु के अलावा जगत में कुछ अन्य है ही नहीं । प्रभु जगद्गुरु हैं यानी जगत के प्रथम गुरु प्रभु ही हैं । सभी गुरुओं के आदि गुरु प्रभु ही हैं । प्रभु परमाराध्य हैं यानी सभी जीवों, ऋषियों और संतों के एकमात्र आराध्य केवल प्रभु ही हैं । अतः प्रभु के अलावा अन्य कोई आराधना योग्य नहीं है । प्रभु शुद्धस्वरूप हैं यानी जगत में एकमात्र शुद्ध प्रभु ही हैं ।
कितने भी विशेषणों का प्रयोग हम प्रभु के लिए कर लें फिर भी प्रभु का किंचित मात्र भी वर्णन नहीं कर सकते ।
प्रकाशन तिथि : 21 नवम्बर 2017 |
1104 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(द्वादश स्कंध) |
अ 09
श्लो 08 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वे अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अंतःकरण में, और तो क्या, सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओं से उनका पूजन करते रहते । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की भक्ति किस स्तर तक एक साधक को ले जाती है यह यहाँ पर श्री मार्कण्डेय मुनि की अवस्था देखकर समझ में आता है ।
श्री मार्कण्डेय मुनि सर्वत्र प्रभु का दर्शन करते हैं । वे अग्नि में, श्री सूर्यदेवजी में, श्री चंद्रदेवजी में, जल में, पृथ्वी में, वायु में, आकाश में और यहाँ तक कि अपने अंतःकरण में सर्वत्र प्रभु का दर्शन करते हैं । पूरा जगत ही उन्हें प्रभुमय दिखता है । वे सर्वत्र प्रभु के दर्शन करके मानसिक वस्तुओं से ही प्रभु का पूजन किया करते हैं । यह भक्ति की एक बहुत ऊँची अवस्था है कि हमें सर्वत्र प्रभु के दर्शन होने लगे और हम मानसिक पूजा के लिए सिद्ध हो जाए । पूजन सामग्री से प्रभु का पूजन करने से भी बहुत ऊँची अवस्था है जब जीव कहीं भी बैठा प्रभु की मानसिक पूजा करने के लिए सक्षम हो जाता है ।
भक्ति की इतनी ऊँची अवस्था को जो प्राप्त कर लेता है वह धन्य हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 22 नवम्बर 2017 |