क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
1057 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 22
श्लो 56 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रिय उद्धव ! इसलिए इन दुष्ट इंद्रियों से विषयों को मत भोगो । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु जीव की इंद्रियों को दुष्ट की संज्ञा देते हैं क्योंकि यह कभी भी तृप्त नहीं होती । प्रभु कहते हैं कि जो जीव अपना आत्म कल्याण चाहता है उसे अपनी इंद्रियों से विषयों को कभी नहीं भोगना चाहिए । जितना भी हम इंद्रियों से विषयों को भोगते हैं उतनी ही तृष्णा बढ़ती जाती है और हमारी इंद्रियां अतृप्त रहती है । इंद्रियों का सबसे सही उपयोग यह है कि उन्हें प्रभु की तरफ मोड़ा जाए । जब हम इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ते हैं तो वह स्वतः ही विषयों से दूर हो जाती है । हमारी इंद्रियों को विषयों से दूर करने का अन्य कोई उपाय नहीं है । उदाहरण के तौर पर देखें तो हमारे कानों का धर्म है सुनना । पर उन्हें संसार की व्यर्थ बातें न सुना कर प्रभु के गुणानुवाद का श्रवण कराएं तो फिर उन्हें संसार की बातों में कभी भी रुचि नहीं रहेगी ।
मनुष्य जन्म की सच्ची उपलब्धि यही है कि जीव अपनी सभी इंद्रियों को प्रभु की सेवा में लगाए ।
प्रकाशन तिथि : 22 अक्टूबर 2017 |
1058 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 23
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परीक्षित ! वास्तव में भगवान की लीला कथा ही श्रवण करने योग्य है । वे ही प्रेम और मुक्ति के दाता हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को कहे ।
हम अपने कानों से बहुत कुछ श्रवण करते हैं । पर वास्तव में श्रवण करने योग्य केवल प्रभु की श्रीलीला कथा है । प्रभु की श्रीलीला कथा और प्रभु के गुणानुवाद के अलावा हम जो कुछ भी श्रवण करते हैं वह सब व्यर्थ है । जिसको प्रभु की श्रीलीला कथा एवं गुणानुवाद के श्रवण में रस आ गया उसे फिर संसार की बातों के श्रवण में अरुचि हो जाती है । जो सच्चे मन से भाव विभोर होकर प्रभु की श्रीलीला कथा और गुणानुवाद का श्रवण कर लेता है वह अपने आपको धन्य कर लेता है । दूसरी बात जो श्लोक में कही गई है वह यह कि एकमात्र प्रभु ही प्रेम और मुक्ति के दाता हैं । जो प्रभु से प्रेम करते हैं प्रभु उन्हें अपने अलौकिक प्रेम का दान कर देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह प्रभु से प्रेम करे जिससे संसार चक्र से उसकी मुक्ति संभव हो सके ।
प्रकाशन तिथि : 22 अक्टूबर 2017 |
1059 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 23
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत, इन सबका अंतिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाए, भगवान में लग जाए । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने श्री उद्धवजी को उज्जैन के एक ब्राह्मण का इतिहास सुनाया ।
उज्जैन के उस ब्राह्मण के पास बहुत धन था जो सब नष्ट हो गया । इस कारण उसे संसार से वैराग्य हो गया और उसने अपना बचा हुआ जीवन प्रभु प्राप्ति के लिए अर्पित कर दिया । दान, धर्म का पालन, नियम, वेद का अध्ययन, सत्कर्म, ब्रह्मचर्य आदि श्रेष्ठ व्रत का अंतिम फल यही है कि हमारा मन एकाग्र होकर प्रभु में लग जाए । मन को प्रभु में लगाना मन पर सबसे बड़ी विजय है क्योंकि मन का स्वभाव है कि वह संसार में रमता है और मौका मिलते ही संसार की तरफ भागता है । इसलिए मन को संसार से खींचकर एकाग्र करके प्रभु में लगाना चाहिए ।
जो जीव अपने मन को प्रभु में लगा देता है वह प्रभु को अतिप्रिय हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 23 अक्टूबर 2017 |
1060 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 24
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भक्तियोग से मेरा परम धाम मिलता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर बताते हैं कि क्या-क्या कर्म करने से कौन-कौन से लोकों की जीव को प्राप्ति होती है । प्रभु यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि भक्ति करने पर ही जीव को प्रभु का परमधाम प्राप्त होता है । सिर्फ भक्ति का ही सामर्थ्य है कि वह जीव को प्रभु के परमधाम की प्राप्ति करवा सकती है । अन्य साधनों से जीव को अन्य लोकों की प्राप्ति होती है परंतु प्रभु के परमधाम की प्राप्ति केवल और केवल प्रभु की भक्ति से ही होती है । इसलिए मानव जन्म मिलने पर जीव को चाहिए कि वह अपने जीवन काल में प्रभु की भक्ति करें जिससे जीवन काल में उसे प्रभु का सानिध्य मिले और अंत में उसे प्रभु का परमधाम प्राप्त हो सके ।
हमें अपने जीवन में प्रभु के परमधाम को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाना चाहिए और इस दिशा में ही प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 23 अक्टूबर 2017 |
1061 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 25
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
पुरुष हो, चाहे स्त्री, जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्वगुणी जानना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जीव जब निष्काम होकर प्रभु की आराधना करता है तब उसे सत्वगुणी जानना चाहिए । जब जीव में सत्वगुण की प्रधानता होती है तो वह प्रभु की तरफ आकर्षित होता है । सत्वगुण के कारण ही जीव प्रभु के सानिध्य में आना चाहता है । प्रभु की निष्काम भक्ति सत्वगुण की वृद्धि का सूचक है । जीव को नित्य निरंतर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए जिससे सत्वगुण की वृद्धि हो सके । सत्वगुण की वृद्धि जीव को प्रभु की तरफ मोड़कर जीव का मंगल करती है । सत्वगुण प्रभु को प्राप्त करने का साधन है ।
इसलिए जीवन में सत्वगुण की प्रधानता रहे इस बात का निरंतर प्रयास जीव को करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 24 अक्टूबर 2017 |
1062 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 25
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब अपने धर्म का आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्काम भाव से किया जाता है, तब वह सात्विक होता है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जब जीव धर्म का आचरण करता है और अपना किया हुआ कर्म प्रभु को समर्पित करता है एवं अपना कर्म निष्काम भाव से करता है तब वह कर्म सात्विक कर्म होता है । हमारा कर्म धर्मयुक्त हो इसका हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए । दूसरी बात, हमारा प्रत्येक किया हुआ कर्म हमें प्रभु को समर्पित करना चाहिए । हमें जीवन में सावधान रहना चाहिए कि हमसे ऐसा कोई भी कर्म न हो जो हम प्रभु को समर्पित न कर पाए । तीसरी बात, हमारा हर कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए हो और निष्काम भाव से हो । हमारे द्वारा किए गए कर्म से हमारा कोई स्वार्थ नहीं जुड़ा हुआ होना चाहिए ।
जीव द्वारा किए गए सात्विक कर्म से प्रभु को प्रसन्नता होती है इसलिए जीव को सदैव सात्विक कर्म ही करने चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 24 अक्टूबर 2017 |
1063 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 25
श्लो 32 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भक्तियोग के द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अंततः मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जीव भक्ति के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सुलभ साधन प्रभु की भक्ति है । भक्ति के बल पर जीव मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । भक्ति हमें मोक्ष की प्राप्ति करवाने का सामर्थ्य रखती है । जीव संसार में असंख्य योनियों में जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है । यह जन्म-मृत्यु का चक्र चलता ही रहता है । पर मानव जन्म मिलने पर जो जीव प्रभु की भक्ति करता है वह मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है और सदा सर्वदा के लिए आवागमन से मुक्त हो जाता है ।
इसलिए जिस जीव को संसार चक्र से छूटने की एवं मोक्ष की अभिलाषा हो उसे प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 25 अक्टूबर 2017 |
1064 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 25
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है । .... इसलिए इसे पाकर बुद्धिमान पुरुषों को गुणों की आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि मनुष्य शरीर मिलना बड़ा ही दुर्लभ है । कितनी ही योनियों में भटकने के पश्चात दुर्लभ मनुष्य शरीर जीव को मिलता है । प्रभु की अत्यंत बड़ी कृपा होती है तब जीव मनुष्य के रूप में जन्म पाता है । इसलिए मनुष्य शरीर को कभी भी व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए । यह मनुष्य शरीर प्रभु प्राप्ति के लिए साधन करने हेतु सबसे उपयुक्त है । अन्य किसी भी योनि में किसी भी शरीर से साधन नहीं हो सकता । इसलिए प्रभु कहते हैं कि बुद्धिमान जीव को चाहिए कि मनुष्य शरीर का उपयोग प्रभु की भक्ति करने में करें ।
मनुष्य शरीर से प्रभु की भक्ति करना ही इस मनुष्य शरीर का सबसे उत्तम उपयोग है ।
प्रकाशन तिथि : 25 अक्टूबर 2017 |
1065 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 25
श्लो 34 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
विचारशील पुरुष को चाहिए कि बड़ी सावधानी से सत्वगुण के सेवन से रजोगुण और तमोगुण को जीत ले, इंद्रियों को वश में कर ले और मेरे स्वरूप को समझकर मेरे भजन में लग जाए । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि विचारशील जीव को चाहिए कि बड़ी सावधानी के साथ अपना जीवन सत्वगुण से युक्त रखें । उन्हें चाहिए कि जीवन में सत्वगुण की प्रधानता रखें और रजोगुण और तमोगुण को जीत लें । विचारशील जीव को चाहिए कि अपनी इंद्रियों को अपने वश में रखें और उन्हें प्रभु में लगाए । हमारी इंद्रियों का सबसे सही उपयोग यही है कि उनसे प्रभु की सेवा हो । सत्वगुण की प्रधानता रखते हुए और इंद्रियों को वश में रखते हुए जीव को चाहिए कि वह प्रभु की भक्ति करें ।
जो जीव प्रभु की भक्ति में लग जाता है वह प्रभु को पा लेता है ।
प्रकाशन तिथि : 26 अक्टूबर 2017 |
1066 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 26
श्लो 01 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धवजी ! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का, मेरी प्राप्ति का मुख्य साधन है । इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अंतःकरण में स्थित मुझ आनंदस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि मनुष्य शरीर प्रभु की प्राप्ति का मुख्य साधन है । मनुष्य शरीर से साधन करके ही हम प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं । मनुष्य शरीर के अलावा किसी भी अन्य शरीर से प्रभु को प्राप्त करना संभव नहीं है । इसलिए जो मनुष्य शरीर पाकर सच्चे प्रेम से प्रभु की भक्ति करता है वह आनंदस्वरूप प्रभु को प्राप्त कर लेता है । जीव को मनुष्य शरीर का सही उपयोग प्रभु प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए । मनुष्य शरीर प्राप्त करके हमने अन्य कुछ भी अर्जित कर लिया तो वह गौण है क्योंकि मनुष्य शरीर प्राप्त करने के पश्चात हमारा मुख्य लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति ही होनी चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मनुष्य शरीर से भक्ति का साधन करके प्रभु की प्राप्ति का प्रयास जीवन में करें ।
प्रकाशन तिथि : 26 अक्टूबर 2017 |
1067 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 26
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संत पुरुषों का लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती । उनका चित्त मुझमें लगा रहता है । उनके हृदय में शांति का अगाध समुद्र लहराता रहता है । वह सदा-सर्वदा सर्वत्र सब में सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते हैं । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि संत पुरुष कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखते । वे ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि उनका चित्त प्रभु में लगा हुआ होता है । जब हम अपने चित्त में प्रभु को स्थान दे देते हैं तो वहाँ अन्य किसी विषय वस्तु के लिए स्थान रिक्त ही नहीं रहता । प्रभु हमारे हृदय में अप्रकट रूप से स्थित हैं पर जब प्रभु भक्ति के कारण हमारे हृदय में प्रकट होते हैं तो विषय और वासना हमारे हृदय को छोड़कर भाग जाते हैं । तब हमारे हृदय में अगाध शांति का वास होता है और हमें सदा सर्वदा और सर्वत्र सभी में प्रभु के दर्शन होते हैं ।
भक्ति के द्वारा अप्रकट प्रभु हमारे हृदय में प्रकट होते हैं और हमें परमानंद प्रदान करते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 27 अक्टूबर 2017 |
1068 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 26
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरी कथाएं मनुष्यों के लिए परम हितकारी हैं, जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-तापों को वे धो डालती हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
इस श्लोक में प्रभु अपनी कथाओं का महत्व समझाते हैं । प्रभु कहते हैं कि प्रभु की कथाएं जीव के लिए परम हितकारी हैं । प्रभु की कथा सुनने से प्रभु के स्वभाव, प्रभाव, ऐश्वर्य, दया, कृपा और करुणा के दर्शन हमें होते हैं । ऐसा होने पर प्रभु के लिए स्वाभाविक प्रेम हमारे भीतर जागृत होता है । प्रभु के लिए जागृत प्रेम हमें प्रभु की भक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर देता है । जो प्रभु की कथाओं का सेवन करता है उसके सारे पाप और सांसारिक ताप नष्ट हो जाते हैं । जो प्रभु की श्रीलीला कथा का श्रवण या गान करता है वह प्रभु के परायण हो जाता है और प्रभु के लिए अनन्य प्रेममयी भक्ति उसके हृदय में जागृत हो जाती है ।
इसलिए जीव को प्रभु की कथा सुनने का नियम जीवन में बनाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 27 अक्टूबर 2017 |
1069 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 26
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जिसे मेरी भक्ति मिल गई, वह तो संत हो गया । अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जिसे प्रभु की भक्ति मिल गई वह तो संत हो गया । भक्ति मिलने के बाद अब उसे जीवन में कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता । प्रभु की भक्ति मिलने से बड़ी उपलब्धि जीव के लिए कुछ भी नहीं है । संसार हमें जो कुछ भी देता है या हम संसार में जो कुछ भी अर्जित करते हैं वह सब गौण है क्योंकि प्रभु की भक्ति ही सर्वोपरि है । प्रभु की भक्ति मिलना इस संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि प्रभु की भक्ति हमें प्रभु की प्राप्ति करवा देती है । इसलिए भक्ति ही सर्वोच्च उपलब्धि है ।
मनुष्य जन्म पाकर जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति अर्जित करने का लक्ष्य अपने जीवन में सर्वोपरि रखें ।
प्रकाशन तिथि : 29 अक्टूबर 2017 |
1070 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 27
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थों से और भावना मात्र से ही हृदय में मेरी पूजा कर लें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु की सकाम पूजा का शास्त्रों में बड़ा विस्तृत विधान है । कर्मकांड का भी बड़ा विधान है । पर प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु के निष्काम भक्त हैं उन्होंने अगर भावना मात्र से ही प्रभु की पूजा कर ली तो प्रभु उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । निष्काम भक्त अपने हृदय में प्रभु की मानसिक पूजा कर प्रभु को प्रसन्न कर सकते हैं । प्रभु निष्काम भक्तों के लिए बहुत सुलभ हैं और बहुत जल्दी उन पर प्रसन्न होते हैं । निष्काम भक्ति सर्वोपरि साधन है । निष्काम भक्ति से प्रभु की प्रसन्नता और प्रभु की प्राप्ति बहुत जल्दी होती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में निष्काम भाव से प्रभु की भक्ति कर प्रभु को प्रसन्न करें ।
प्रकाशन तिथि : 29 अक्टूबर 2017 |
1071 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 27
श्लो 17 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु इस श्लोक में श्रद्धा और भक्ति का महत्व बतलाते हैं । श्रद्धा और भक्ति से प्रभु कितनी जल्दी रीझते हैं यह तथ्य प्रभु यहाँ बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि जब कोई भक्त हृदय में श्रद्धा रख कर भक्तिपूर्वक प्रभु को केवल जल अर्पण करता है तब प्रभु बड़े ही प्रेम से उसे स्वीकार करते हैं । दूसरी तरफ बिना श्रद्धा के कोई अभक्त प्रभु को अगर बहुत सारी सामग्री भी निवेदन करता है तो प्रभु उससे संतुष्ट नहीं होते । इसका जीवंत उदाहरण है कि प्रभु ने भगवती विदुरानीजी के केले के छिलके खा लिए और दुर्योधन के छप्पन भोग को ठुकरा दिया क्योंकि भगवती विदुरानीजी की प्रभु के लिए असीम श्रद्धा थी जो दुर्योधन में एकदम नहीं थी ।
इसलिए हमें प्रभु के लिए असीम श्रद्धा और भक्ति रखनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 30 अक्टूबर 2017 |
1072 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 27
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरी लीला-कथाएं स्वयं सुने और दूसरों को सुनाएं । कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों-झगड़ों को भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु अपनी श्रीलीला कथा का महत्व बताते हैं कि वह जीव के लिए कितनी मंगलकारी है । प्रभु कहते हैं कि प्रभु की श्रीलीला कथा का गान करना चाहिए और दूसरों के समक्ष उनका वर्णन करना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि प्रभु की श्रीलीला कथा का अभिनय करना चाहिए और प्रेमोन्मत्त होकर नाचना चाहिए । प्रभु की श्रीलीला कथा का स्वयं श्रवण करना चाहिए और दूसरों को भी सुनाना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि संसार में रहकर भी संसार के रगड़ों-झगड़ों को भूलकर प्रभु में तन्मय होना चाहिए ।
संसार के व्यवधानों को भूलकर अगर हम प्रभु में तन्मय हो जाते हैं तभी हमारा जीवन सफल होगा ।
प्रकाशन तिथि : 30 अक्टूबर 2017 |
1073 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 27
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाए हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रों से मेरी स्तुति करके प्रार्थना करें, भगवन ! आप मुझ पर प्रसन्न हो । मुझे अपने कृपाप्रसाद से सराबोर कर दें । तदनंतर दंडवत-प्रणाम करें ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि ऋषियों, संतों और भक्तों द्वारा बनाए गए स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति और प्रार्थना करनी चाहिए । स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति करने से प्रभु का गुणगान होता है जो हमारा परम कल्याण करता है । प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु हम पर प्रसन्न हों । प्रभु जब जीव पर प्रसन्न होते हैं तो उस जीव का मंगल-ही-मंगल होता है । प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु की कृपा प्रसादी हमें प्राप्त हो । प्रभु की कृपा दृष्टि में हम रहे और प्रभु की कृपा सदैव हमें प्राप्त होती रहे ऐसा प्रयास जीव को सदैव करना चाहिए । प्रभु को रोजाना नियमानुसार साष्टांग दंडवत प्रणाम करना चाहिए । जितना-जितना हम प्रभु के समक्ष झुकेंगे उतना-उतना हम संसार में ऊँचा उठते चले जाएंगे ।
प्रभु की स्तुति करना, प्रभु से प्रार्थना करना, प्रभु की कृपा प्राप्त करना और प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम करना यह सभी भक्ति के अंग है जिसे जीव को अपने जीवन में अपनाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 31 अक्टूबर 2017 |
1074 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 27
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भगवन ! इस संसार-सागर में मैं डूब रहा हूँ । मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है । मैं डरकर आपकी शरण में आया हूँ । प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
यह मेरा एक प्रिय श्लोक है क्योंकि यहाँ पर शरणागति का प्रतिपादन होता है । प्रभु कहते हैं कि जीव को अपना मस्तक प्रभु के श्रीकमलचरणों में रख देना चाहिए और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें संसार सागर में डूबने से बचा लें । प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि संसार सागर में मृत्युरूप मगरमच्छ जीव के पीछे लगा हुआ है और कभी भी जीव को दबोच सकता है । प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि इस विपत्ति से डरकर जीव प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है । इस विपत्ति से जीव की रक्षा अन्य कोई भी नहीं कर सकता इसलिए प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए प्रभु हमारी रक्षा करें ।
प्रभु की शरणागति ग्रहण करने से हम निश्चिंत हो सकते हैं क्योंकि हमारा पूरा दायित्व फिर प्रभु स्वीकार कर लेते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 31 अक्टूबर 2017 |
1075 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 27
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो निष्काम भाव से मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोग के द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर निष्काम भक्ति का प्रतिपादन करते हैं । प्रभु कहते हैं कि जो निष्काम भाव से प्रभु की उपासना और पूजा करते हैं उन्हें प्रभु की भक्ति प्राप्त हो जाती है । जब हम अपनी उपासना और पूजा में निष्काम रहते हैं तो प्रभु प्रसन्न होकर हमें सबसे बड़ा दान जो कि भक्ति का दान है वह दे देते हैं । भक्ति से बड़ा कुछ भी नहीं है जो जीव प्राप्त कर सकता है । भक्ति का दान प्रभु की तरफ से दिया जाने वाला सबसे बड़ा दान है पर यह तभी मिलता है जब हम निष्काम रहते हैं । सकाम होने पर प्रभु हमारी इच्छाएं पूरी करते हैं पर निष्काम होने पर प्रभु भक्ति का दान दे देते हैं । प्रभु कहते हैं कि भक्ति का दान मिलने पर भक्ति के द्वारा जीव प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं ।
इसलिए जीव को सदैव प्रभु की निष्काम भक्ति प्राप्त करने का लक्ष्य जीवन में रखना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 01 नवम्बर 2017 |
1076 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 28
श्लो 40 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
काम-क्रोध आदि विघ्नों को मेरे चिंतन और नाम-संकीर्तन आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिए । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि संसार में जो जीव आया है वह विकारों से ग्रस्त है । जीव के साथ विकार चिपके हुए हैं । उन विकारों को दूर करने का सबसे उत्तम उपाय यह है कि अपने हृदय से प्रभु का चिंतन और अपनी वाणी से प्रभु का नाम संकीर्तन किया जाए । जब हम अपनी सभी इंद्रियों को प्रभु की तरफ मोड़ देते हैं तो हमारे विकार नष्ट हो जाते हैं । हमारी सभी इंद्रियां जब प्रभु की तरफ मुड़ जाती है तो हमारे अंदर प्रभु के लिए भक्ति जागृत होती है । जैसे ही भक्ति जागृत होती है हमारे विकार नष्ट होते चले जाते हैं ।
अपने विकारों को दूर करना हो तो हमें प्रभु के सानिध्य को प्राप्त करना होगा ।
प्रकाशन तिथि : 01 नवम्बर 2017 |
1077 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 28
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्ति के लिए ही संलग्न रहना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि वृक्ष में लगे हुए फल की तरह मानव शरीर का नाश भी अवश्यंभावी है । प्रभु कहते हैं कि बहुत दिनों तक निरंतर योग साधना करते रहने पर भी शरीर के अंत को हम बचा नहीं सकते । इसलिए मानव शरीर का सबसे सार्थक उपयोग यही है कि उसका उपयोग सर्वदा प्रभु की प्राप्ति के लिए ही किया जाए । मानव शरीर प्रभु प्राप्ति के लिए प्रभु द्वारा प्रदान किया गया एक सर्वोत्तम साधन है । इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि अपने मानव शरीर का लक्ष्य प्रभु प्राप्ति ही रखें ।
मानव शरीर पाकर भी अगर हमने प्रभु की प्राप्ति नहीं की तो हमारा मानव के रूप में जन्म ही बेकार चला जाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 03 नवम्बर 2017 |
1078 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 29
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... आप अपने अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने प्रभु को कहे ।
श्री उद्धवजी कहते हैं कि प्रभु अपने आश्रित और अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं । प्रभु अपने शरणागत भक्तों को जो कुछ भी संभव है वह सब कुछ दे देते हैं । प्रभु अपने शरणागत भक्तों से अति प्रेम करते हैं और उन पर सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं । यह अलग बात है कि प्रभु के सच्चे शरणागत भक्त प्रभु से कुछ भी नहीं लेते । ऐसे निष्काम शरणागत भक्तों को प्रभु अपने स्वयं तक का भी दान दे देते हैं । इसलिए प्रभु की शरणागति स्वीकार करना जीव की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है । प्रभु की शरणागति स्वीकार करते ही प्रभु उस जीव के संपूर्ण दायित्वों का वहन करते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की पूर्ण शरणागति ग्रहण करके जीवन में निश्चिंत हो जाए ।
प्रकाशन तिथि : 03 नवम्बर 2017 |
1079 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 29
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... हम लोग आपके चरणकमलों की रज की उपासक हैं । हमारे लिए दुर्लभ ही क्या है ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने प्रभु को कहे ।
यह श्लोक मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि यहाँ पर एक भक्त की भावना व्यक्त होती है । श्री उद्धवजी प्रभु को कहते हैं कि वे प्रभु के श्रीकमलचरणों के उपासक ही नहीं हैं अपितु प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज के उपासक हैं । उनका भाव यह है कि प्रभु के श्रीकमलचरणों की उपासना की पात्रता उनमें नहीं है इसलिए वे प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की उपासना करते हैं । प्रभु की उपासना करना या प्रभु के श्रीकमलचरणों की उपासना करने का फल अनंत गुना है पर अगर हम प्रभु के श्रीकमलचरणों की रज की भी उपासना कर लें तो भी हम कृतार्थ हो जाते हैं । फिर हमारे लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपना जीवन कृतार्थ करने के लिए प्रभु की उपासना और भक्ति करें ।
प्रकाशन तिथि : 04 नवम्बर 2017 |
1080 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 29
श्लो 09 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धवजी ! मेरे भक्त को चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करें और धीरे-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढ़ाए । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो भक्त अपना कल्याण चाहता है उसे चाहिए कि वह अपने सारे कर्म प्रभु के लिए करें और प्रभु को समर्पित करके करें । भक्त को कर्म करते समय यह भाव रखना चाहिए कि वह यह कर्म प्रभु के लिए और प्रभु की प्रसन्नता के लिए कर रहा है । भक्त को चाहिए कि कर्म करते समय धीरे-धीरे ऐसा अभ्यास करें कि उस समय उसे प्रभु का स्मरण होता रहे । जीव संसार में बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि हर समय उससे
कोई-न-कोई कर्म होते ही रहते हैं । ऐसे में हर कर्म प्रभु के लिए और प्रभु को समर्पित करके एवं प्रभु का स्मरण करके किया जाए तो वह श्रेष्ठ कर्म बन जाता है ।
हमारा हर कर्म प्रभु के लिए हो ऐसा अभ्यास हमें जीवन में बढ़ाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 04 नवम्बर 2017 |