श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
1033 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 14
श्लो 41
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उद्धव ! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जीव को प्रभु के सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को ध्यान के माध्यम से प्रभु के एक-एक श्रीअंगों में केंद्रित करना चाहिए । प्रभु का ध्यान करना बड़ा ही मंगलकारी होता है । प्रभु के रोम-रोम से शांति टपकती है और उनका मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुंदर है । प्रभु का एक-एक श्रीअंग अत्यंत सुंदर और हृदयस्पर्शी हैं । प्रभु के स्वरूप से प्रेम भरी कृपा प्रसादी की जीव पर वर्षा होती है । इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि अपने मन को संसार के विषयों से खींच ले और अपने मन को प्रभु के स्वरूप का ध्यान करने में केंद्रित करें ।

प्रभु के स्वरूप का नियमित ध्यान करने का अभ्यास साधक को जीवन में करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 08 अक्‍टूबर 2017
1034 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 15
श्लो 26
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस पुरुष ने मेरे सत्य संकल्प स्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसी के ध्यान में संलग्न है, वह अपने मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है, उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

जो जीव अपने चित्त को प्रभु के सत्य स्वरूप में स्थिर कर देता है और प्रभु के सत्य स्वरूप का ध्यान करने में तल्लीन हो जाता है उसका हर संकल्प पूर्ण होता है । वह जीव अपने मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है वह संकल्प सिद्ध हो जाता है । प्रभु की सिद्धियां ऐसा कार्य उस जीव के लिए करती है और उसके संकल्प को पूर्ण करती है । प्रभु सिद्धियों के स्वामी हैं इसलिए सिद्धियां प्रभु की आज्ञा टाल नहीं सकती । जो प्रभु के स्वरूप का चिंतन करके उसी भाव में स्थित हो जाता है प्रभु की सिद्धियां उस जीव की भी आज्ञा का पालन करती हैं और उस जीव के संकल्प को पूर्ण करती हैं ।

प्रभु में अपना चित्त को स्थिर करने वाले भक्तों की सेवा करने के लिए प्रभु की सिद्धियां तत्पर रहती है ।

प्रकाशन तिथि : 08 अक्‍टूबर 2017
1035 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 15
श्लो 30
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे अवतारों का ध्‍यान करता है, वह अजेय हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो जीव प्रभु का ध्यान करता है वह अजेय हो जाता है । प्रभु के विभिन्न अवतारों में प्रभु के स्वरूप का ध्यान करने वाला जीव कभी पराजित नहीं होता । संसार में जीव अपनी इंद्रियों से, संसार के विषयों से एवं शत्रुओं से पराजित होता है । पर जो जीव अपना ध्यान प्रभु में केंद्रित कर लेता है वह अजेय हो जाता है । ऐसे जीव को उसकी इंद्रियां, संसार के विषय और उसके शत्रु भी कभी पराजित नहीं कर सकते । प्रभु का ध्यान करना हमें जीवन में पराजित होने के भय से सर्वदा के लिए बचा लेता है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु का नियमित ध्यान करने का अभ्यास करें ।

प्रकाशन तिथि : 10 अक्‍टूबर 2017
1036 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 15
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही मैं समस्‍त प्राणियों के भीतर द्रष्टा रूप से और बाहर दृश्य रूप से स्थित हूँ । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि वे समस्त प्राणियों के भीतर द्रष्टा के रूप में स्थित हैं । प्रभु ही हमारे भीतर से द्रष्टा के रूप में समस्त दृश्यों को देखते हैं । प्रभु कहते हैं कि बाहर दृश्य रूप में भी प्रभु ही हैं । देखने वाले भी प्रभु ही हैं और जो दिख रहा है वह भी प्रभु ही है । इसलिए ही शास्त्रों ने, संतों ने और भक्तों ने जगत को प्रभुमय देखा और इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि जगत में प्रभु के अलावा कोई भी नहीं है । प्रलय के बाद प्रभु जब जगत की उत्पत्ति करते हैं तो वे ही एक से अनेक हो जाते हैं । फिर प्रलय काल में प्रभु अपने भीतर सब कुछ समा लेते हैं ।

हमें भी जगत के कण-कण में प्रभु के दर्शन करने की दृष्टि अर्जित करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 10 अक्‍टूबर 2017
1037 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 16
श्लो 36
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... त्वचा में स्पर्श की, नेत्रों में दर्शन की, रसना में स्वाद लेने की, कानों में श्रवण की और नासिका में सूंघने की शक्ति भी मैं ही हूँ । समस्त इंद्रियों की इंद्रिय-शक्ति मैं ही हूँ ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

हमारी इंद्रियों को और शरीर को चलाने वाली जो शक्तियां हैं वह सब प्रभु की है । हमारे पैरों में चलने की शक्ति, हमारी वाणी में बोलने की शक्ति, हमारे हाथों में पकड़ने की शक्ति प्रभु की ही है । हमारी त्वचा में स्पर्श की शक्ति, हमारे नेत्रों में दर्शन की शक्ति, हमारी रसना में स्वाद लेने की शक्ति, हमारे कानों में श्रवण की शक्ति, हमारी नासिका में सूंघने की शक्ति प्रभु की ही है । हमारी समस्त इंद्रियों को कार्यशील करने की शक्ति प्रभु की है । प्रभु की शक्ति के बिना जीव का कोई अस्तित्व ही नहीं है । प्रभु की शक्ति के बल पर ही जीव अपने जीवन का संचालन करता है ।

इसलिए हमें प्रभु का कृतज्ञ रहना चाहिए क्योंकि प्रभु के कारण ही हमारा अस्तित्व है ।

प्रकाशन तिथि : 12 अक्‍टूबर 2017
1038 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 16
श्लो 38
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि ब्रह्मांड में सब कुछ प्रभु ही हैं । प्रभु के अतिरिक्त अन्‍य कुछ भी कहीं भी नहीं है । पूरा जगत ही प्रभुमय है । प्रभु के अलावा जगत में अन्य कुछ भी नहीं है । जो भी हम कल्पना कर सकते हैं वह सब प्रभु ही हैं । प्रभु ही एक से अनेक होते हैं और ब्रह्मांड की हर चीज में प्रभु समाए हुए हैं । ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले भी प्रभु अकेले थे और ब्रह्मांड के विलीन होने पर भी प्रभु अकेले ही रहेंगे । प्रभु के अलावा अन्य कोई न था, न है और न रहेगा ।

इसलिए हमें प्रभु के ऐश्वर्य को समझना चाहिए और प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 12 अक्‍टूबर 2017
1039 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 18
श्लो 44
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... और समस्त प्राणियों में मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो जीव समस्त प्राणियों को प्रभुमय देखता है उसे प्रभु की भक्ति प्राप्त हो जाती है । शास्त्रों का यह सिद्धांत है कि प्रभु के अलावा जगत में कुछ भी नहीं है । इसलिए ऋषि, संत और भक्त जगत को सदैव प्रभुमय देखते हैं । उनकी दृष्टि ही ऐसी होती है कि वे कण-कण में प्रभु का दर्शन करते हैं । भक्ति का एक बड़ा लक्षण यह है कि हमें समस्त प्राणियों में प्रभु के स्वरूप का दर्शन हो । हर जड़ और चेतन में प्रभु का दर्शन हमें करना आना चाहिए क्योंकि यही भक्ति की कसौटी है ।

प्रभु की भक्ति जागृत होने पर हमें सर्वत्र प्रभु के दर्शन होने लगेंगे ।

प्रकाशन तिथि : 13 अक्‍टूबर 2017
1040 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 18
श्लो 45
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... नित्य-निरंतर बढ़ने वाली अखंड भक्ति के द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि नित्य-निरंतर बढ़ने वाली अखंड भक्ति से जीव प्रभु को प्राप्त कर लेता है । प्रभु को प्राप्त करने के लिए हमारी भक्ति नित्य-निरंतर होनी चाहिए एवं अखंड होनी चाहिए । प्रभु की सच्ची भक्ति नित्य-निरंतर और अखंड रूप से चलती है । जो जीव नित्य-निरंतर प्रभु की अखंड भक्ति करता है वह प्रभु का सानिध्य सहजता से प्राप्त कर लेता है । प्रभु को प्राप्त करना है तो हमें जीवन में भक्ति की प्रधानता रखनी होगी । भक्ति ही वह सर्वोच्च साधन है जो हमें प्रभु की प्राप्ति करवाती है ।

भक्ति मार्ग में हमें बाधा नहीं आए और वह नित्य-निरंतर और अखंड रूप से चलती रहे, ऐसी प्रभु कृपा हमें अर्जित करनी चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 13 अक्‍टूबर 2017
1041 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 19
श्लो 05
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तुम ज्ञान के सहित अपने आत्मस्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञान से संपन्न होकर भक्तिभाव से मेरा भजन करो ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि ज्ञान से आत्मस्वरूप प्रभु को जानना चाहिए और फिर भक्तिभाव से प्रभु का भजन करना चाहिए । प्रभु कहते हैं कि जो जीव ज्ञान से प्रभु को जान लेते हैं वे प्रभु के अतिरिक्त किसी भी पदार्थ से प्रेम नहीं करते । ज्ञान से जीव प्रभु को अपने अंतःकरण में अनुभव करता है । इसलिए पहले जरूरी है कि ज्ञान के द्वारा प्रभु को जान लिया जाए । जब हम प्रभु को जान लेते हैं तो प्रभु के लिए हमारा भक्तिभाव जागृत हो जाता है । भक्तिभाव जागृत होने के लिए सबसे पहले ज्ञान द्वारा प्रभु को जानना अनिवार्य है ।

अपने अंतःकरण में स्थित प्रभु के स्वरूप को जानने के बाद भक्तिभाव से प्रभु का भजन करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 14 अक्‍टूबर 2017
1042 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 19
श्लो 20
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथा में श्रद्धा रखें, निरंतर मेरे गुण-लीला और नामों का संकीर्तन करें, मेरी पूजा में अत्यंत निष्ठा रखें और स्‍तोत्रों के द्वारा मेरी स्तुति करे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

श्री उद्धवजी ने प्रभु से प्रश्न किया कि प्रभु की भक्ति जीव को किस प्रकार प्राप्त हो सकती है । प्रभु ने यहाँ पर प्रभु की भक्ति प्राप्त करने के साधन बताए हैं । प्रभु की भक्ति प्राप्त करने का पहला साधन है कि प्रभु की अमृतमयी कथा का श्रवण श्रद्धा के साथ किया जाए । दूसरा साधन यह है कि प्रभु के गुण, लीला और नाम का कीर्तन किया जाए । तीसरा साधन यह है कि प्रभु की सेवा और पूजा बड़े प्रेम और निष्ठा के साथ की जाए । चौथा साधन यह है कि स्तोत्रों और शास्त्रों के श्लोकों से प्रभु की स्तुति की जाए । प्रभु ने यह भी बताया कि प्रभु को साष्टांग लेटकर दंडवत प्रणाम करना चाहिए एवं समस्त प्राणियों में प्रभु का दर्शन करना चाहिए ।

प्रभु ने कई जगह पर भक्ति के रहस्य खोले हैं जिससे कि भक्ति मार्ग पर चलकर जीव प्रभु को प्राप्त कर सकें ।

प्रकाशन तिथि : 14 अक्‍टूबर 2017
1043 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 19
श्लो 22
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अपने एक-एक अंग की चेष्टा केवल मेरे ही लिए करें, वाणी से मेरे ही गुणों का गान करें और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएं छोड़ दे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु अपनी भक्ति का मर्म बताते हुए कहते हैं कि जीव को अपने सभी अंगों की चेष्टा केवल प्रभु के लिए ही करनी चाहिए । हमें अपने शरीर के प्रत्येक अंग और प्रत्येक इंद्रिय को प्रभु को समर्पित करना चाहिए । हमारे शरीर के प्रत्येक अंग प्रभु की सेवा में और प्रभु के कार्य में लगना चाहिए । हमारी वाणी से सदैव प्रभु का गुणगान होना चाहिए । हमारे नेत्र सदैव प्रभु के दर्शन करने चाहिए । हमारे कान सदैव प्रभु के बारे में श्रवण में लगने चाहिए । इन सभी के साथ सबसे जरूरी है कि हमारा मन सभी वासनाओं और कामनाओं का त्याग कर प्रभु में अर्पित होना चाहिए ।

जीव की सबसे बड़ी उपलब्धि तब होती है जब उसका मन संसार को छोड़कर प्रभु में लगने लग जाता है ।

प्रकाशन तिथि : 15 अक्‍टूबर 2017
1044 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 19
श्लो 23
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे लिए धन, भोग और प्राप्त सुख का भी परित्याग कर दें और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाए, वह सब मेरे लिए ही करे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जीव को चाहिए कि जो कुछ भी चर्या करे वह प्रभु को अर्पित करके प्रभु के लिए ही करें । यज्ञ, दान, जप, व्रत और तप किसी संसारी कामना की पूर्ति के लिए नहीं किया जाए अपितु प्रभु को प्रसन्न करने के लिए किया जाए । हमारे सभी कर्म प्रभु के लिए ही होने चाहिए । प्रभु कहते हैं कि जो जीव भक्ति मार्ग पर है उसे धन, भोग और प्राप्त सुख का भी प्रभु के लिए परित्याग कर देना चाहिए । उस जीव का सर्वोच्च लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति होना चाहिए ।

भक्ति करने वाला जीव सदैव अपने जीवन में प्रभु को आगे रखता है और सब कुछ प्रभु को समर्पित करके प्रभु के लिए ही करता है ।

प्रकाशन तिथि : 15 अक्‍टूबर 2017
1045 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 19
श्लो 24
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... जिसे मेरी भक्ति प्राप्‍त हो गई, उसके लिए और किस दूसरी वस्‍तु का प्राप्‍त होना शेष रह जाता है ?


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो अपना आत्मनिवेदन प्रभु को कर देता है उसके हृदय में प्रभु के लिए प्रेममयी भक्ति का उदय हो जाता है । प्रभु भक्ति की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जिसे प्रभु की भक्ति प्राप्त हो जाती है फिर उसके लिए जगत में कुछ भी पाना शेष नहीं बचता । भक्ति से बड़ा जगत में पाने योग्य कुछ भी नहीं है । भक्ति सर्वोच्च उपलब्धि है इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्रभु यहाँ स्वयं करते हैं । मानव जन्म लेकर हमें जीवन में प्रभु की भक्ति प्राप्त करने का लक्ष्य बनाना चाहिए तभी हमारा मानव के रूप में जन्म सफल माना जाएगा ।

इसलिए जीव को चाहिए कि उसका प्रयास प्रभु की भक्ति प्राप्त करने की दिशा में ही हो ।

प्रकाशन तिथि : 16 अक्‍टूबर 2017
1046 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 19
श्लो 40
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरी श्रेष्‍ठ भक्ति ही उत्तम 'लाभ' है, ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि सबसे उत्तम लाभ प्रभु की श्रेष्ठ भक्ति है । जो जीव संसार में जन्म लेता है वह अपने लाभ के लिए प्रयास करता है और उसकी पूर्ति के लिए श्रम करता है । पर हम संसारी लाभ में ही फंस जाते हैं और उसके आगे की सोचते भी नहीं । संसार में मिलने वाला लाभ बहुत दुर्बल है क्योंकि वह संसार तक ही सीमित रहता है । सबसे बड़ा लाभ प्रभु की भक्ति है जिसका प्रतिपादन प्रभु करते हैं । भक्ति से बड़ा लाभ जीव के लिए कुछ भी नहीं हो सकता ।

इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में प्रभु की भक्ति अर्जित करने का प्रयास करें ।

प्रकाशन तिथि : 16 अक्‍टूबर 2017
1047 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है । स्वर्ग और नर्क दोनों ही लोकों में रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि मनुष्य शरीर मिलना बहुत ही दुर्लभ है । स्वर्ग और नर्क दोनों में रहने वाले जीव मनुष्य शरीर पाने के लिए लालायित रहते हैं । वे मनुष्य शरीर की महिमा जानकर उसे पाने की अभिलाषा रखते हैं । स्वर्ग और नर्क का भोग प्रधान शरीर किसी भी साधन के लिए उपयुक्त नहीं है । केवल मनुष्य शरीर ही साधन करने के लिए उपयुक्त है । इसलिए मनुष्य शरीर पाने के बाद उसका व्यर्थ की सांसारिक चर्या में उपयोग नहीं करना चाहिए । मनुष्य शरीर पाने के बाद सबसे पहले हमें प्रभु का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने हमें कृपा करके मनुष्य शरीर दिया है । फिर उस मनुष्य शरीर का उपयोग भक्ति करके प्रभु की प्राप्ति करने के लिए करना चाहिए ।

मनुष्य शरीर का सबसे सार्थक उपयोग उसके द्वारा प्रभु की प्राप्ति करना है ।

प्रकाशन तिथि : 17 अक्‍टूबर 2017
1048 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मृत्यु होने के पूर्व ही सावधान होकर ऐसा साधन कर लें, जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदा के लिए छूट जाए, मुक्त हो जाए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि यद्यपि मनुष्य शरीर की अंतिम गति मृत्यु है फिर भी बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मृत्यु से पूर्व ही सावधान हो जाए । अपने मनुष्य शरीर से सावधान होकर प्रभु प्राप्ति के लिए साधन करें जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदैव के लिए छूटकर मुक्त हो जाए । मनुष्य शरीर का सबसे उत्तम उपयोग यह है कि भक्ति द्वारा प्रभु को प्राप्त किया जाए और संसार में जन्म लेकर पुनः पुनः आने की प्रक्रिया पर सदैव के लिए विराम लगाया जाए ।

मनुष्य शरीर को प्रभु की कृपा प्रसादी मानकर इसका सही उपयोग करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 17 अक्‍टूबर 2017
1049 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 17
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इतनी सुविधा होने पर भी जो इस शरीर के द्वारा संसार-सागर से पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्मा का हनन और अधःपतन कर रहा है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु इस श्लोक में मनुष्य शरीर का महत्व बतलाते हैं । प्रभु कहते हैं कि मनुष्य शरीर संसार सागर के पार जाने के लिए एक अति उत्तम साधन है । प्रभु कहते हैं कि मनुष्य शरीर एक नौका के समान है जो हमें संसार सागर के पार उतारने में सक्षम है । प्रभु कहते हैं कि जो जीव अपनी मनुष्य शरीर रूपी नौका से संसार सागर पार करने का प्रयास करता है प्रभु उसे अनुकूल वायु के रूप में उसके लक्ष्य की ओर बढ़ा देते हैं । पर जो जीव इतनी सुविधा मिलने पर भी अपने मनुष्य शरीर द्वारा संसार सागर को पार करने का प्रयास नहीं करता वह अपने हाथों अपने स्वयं का ही पतन करवा लेता है ।

मनुष्य शरीर को साधन के रूप में इस्तेमाल कर इससे मुक्ति और प्रभु प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए ।

प्रकाशन तिथि : 18 अक्‍टूबर 2017
1050 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 29
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... भक्तियोग के द्वारा निरंतर मेरा भजन करने से मैं उस साधक के हृदय में आकर बैठ जाता हूँ ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो भक्ति के द्वारा निरंतर प्रभु का भजन करते हैं प्रभु स्वयं उनके हृदय में विराजमान रहते हैं । प्रभु को अपने हृदय में विराजमान रखना है तो भक्ति का साधन करना अनिवार्य है । भक्ति करने वाले जीव के हृदय को छोड़कर प्रभु कभी नहीं जाते हैं । प्रभु को पाने का सबसे सुलभ साधन भक्ति है । भक्ति करने वाला जीव प्रभु को इतना प्रिय होता है कि प्रभु अपना सानिध्य सदैव उसे प्रदान करते हैं । भक्ति भक्त और भगवान को एकरूप कर देती है । इसलिए भक्ति की महिमा को शास्त्रों ने, ऋषियों ने, संतों ने और भक्तों ने गाया है ।

जीव को चाहिए कि भक्ति का आश्रय लेकर प्रभु प्राप्ति का लक्ष्य जीवन में रखें ।

प्रकाशन तिथि : 18 अक्‍टूबर 2017
1051 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 31
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... उसका कल्‍याण तो प्रायः मेरी भक्ति के द्वारा ही हो जाता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो जीव भक्ति से युक्त होता है और सर्वदा प्रभु का ही चिंतन करता है उसका स्वतः ही कल्याण हो जाता है । उस जीव को अपने कल्याण के लिए अन्य कोई श्रम करने की जरूरत नहीं होती । भक्ति जीव का अपने आप कल्याण करा देती है । इसलिए भक्ति के साधन को सभी साधनों में सर्वोच्च माना गया है । भक्ति करने वाले जीव को अपने कल्याण की चिंता करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उसका कल्याण होना निश्चित है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति का आश्रय लेकर अपना कल्याण सुनिश्चित करें ।

प्रकाशन तिथि : 19 अक्‍टूबर 2017
1052 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 33
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वह सब मेरा भक्‍त मेरे भक्तियोग के प्रभाव से ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्‍त कर लेता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

भक्ति की कितनी बड़ी महिमा है यह तथ्य इस श्लोक में देखने को मिलता है । प्रभु कहते हैं कि कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, दान, धर्म एवं अन्य साधनों से स्वर्ग या प्रभु का धाम या अन्य कोई भी वस्तु जो प्राप्त हो सकती है वह सब भक्त अनायास ही भक्ति से प्राप्त कर लेता है । भक्ति का इतना बड़ा सामर्थ्य है कि जो कुछ भी अन्य साधनों को करने से प्राप्त होता है प्रभु का भक्त उसे अनायास ही बिना परिश्रम अपनी भक्ति के बल पर प्राप्त कर लेता है ।

इसलिए ही भक्ति के साधन को सभी साधनों का शिरोमणि साधन कहा गया है ।

प्रकाशन तिथि : 19 अक्‍टूबर 2017
1053 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 34
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे अनन्य प्रेमी एवं धैर्यवान साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं, यदि मैं उन्‍हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या, वे कैवल्‍य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु का सच्चा भक्त प्रभु से प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं चाहता । प्रभु कहते हैं कि जो प्रभु के अनन्य प्रेमी भक्त होते हैं वे स्वयं तो प्रभु से कुछ मांगते ही नहीं पर अगर प्रभु अपनी तरफ से उन्हें कुछ देना भी चाहते हैं तो भी वे निष्काम रहते हैं । प्रभु कहते हैं कि दूसरी वस्तु की तो बात ही क्या है सच्चे भक्त प्रभु से मोक्ष का दान भी नहीं लेते । भक्ति में निष्काम होना भक्ति का गौरव है और प्रभु के सभी भक्त प्रायः निष्काम भक्ति करते हैं । सच्चे भक्त प्रभु के सानिध्य के अलावा प्रभु से कुछ भी नहीं चाहते ।

हम प्रभु से प्रभु को तभी मांग सकते हैं जब हमारी प्रभु से और कोई मांग नहीं हो ।

प्रकाशन तिथि : 20 अक्‍टूबर 2017
1054 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 20
श्लो 35
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसलिए जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसी को मेरी भक्ति प्राप्त होती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो जीव निष्काम होता है उसी को प्रभु की सच्ची भक्ति प्राप्त होती है । निष्काम भक्ति ही सच्ची भक्ति है । जब जीव में सकामता आ जाती है और वह प्रभु से मांगता है तो यह एक तरह का व्यापार हो जाता है क्योंकि हमने भक्ति के एवज में प्रभु से कुछ मांग लिया । पर जो निष्काम होता है और प्रभु से कुछ नहीं मांगता उसे प्रभु अपने स्वयं का भी दान कर देते हैं और साथ ही एक परमपिता की तरह उसकी सारी जरूरतों की पूर्ति भी स्वतः ही करते हैं । अगर हमने प्रभु से कुछ मांग लिया तो हमने अपनी भक्ति को भुना लिया । सच्चे भक्त ऐसा कभी नहीं करते और भक्ति करते हुए निष्काम बने रहते हैं ।

निष्काम भक्त प्रभु को सबसे प्रिय होते हैं और प्रभु उन्‍हें बहुत मान देते हैं ।

प्रकाशन तिथि : 20 अक्‍टूबर 2017
1055 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 21
श्लो 14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है । ....


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जिस जीव को अपने चित्त की शुद्धि करनी हो उसे प्रभु का स्मरण करना चाहिए । प्रभु का स्मरण करने से हमारा चित्त शुद्ध होता है । प्रभु का स्मरण करना चित्त शुद्धि का एक अचूक साधन है । संसार के विकारों के कारण हमारा चित्त अशुद्ध हो जाता है । इसलिए हमें अपने चित्त को संसार से खींचकर उसे प्रभु स्मरण में लगाना चाहिए । जैसे-जैसे हमारा प्रभु स्मरण होने का अभ्यास बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे हमारे चित्त की शुद्धि स्‍वतः होती चली जाएगी । प्रभु के स्मरण के अलावा चित्त शुद्धि का अन्य कोई उपाय नहीं है ।

इसलिए जीव को चाहिए कि वह जीवन में नित्य प्रभु के स्मरण का अभ्यास करें ।

प्रकाशन तिथि : 21 अक्‍टूबर 2017
1056 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध)
अ 22
श्लो 50
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... विषय भोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसीमें मोहित हो जाते हैं । इसीसे उन्हें जन्म-मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।

प्रभु कहते हैं कि जो जीव संसार के विषय भोगों को सच्चा सुख मान लेते हैं और विषय भोग की प्राप्ति के लिए अपने जीवन काल में प्रयासरत रहते हैं वे कभी भी मुक्त नहीं हो पाते । उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्कर में निरंतर भटकना पड़ता है । प्रभु कहते हैं कि जीव को संसार में उपलब्ध विषय भोग से कभी मोहित नहीं होना चाहिए । संसार के विषय भोग से जीव कभी भी तृप्त नहीं हो सकता । जितना वह भोगता है उससे अधिक भोगने की कामना उसके अंतःकरण में उदित होती रहती है । इस तरह वह अपने मानव जीवन को व्यर्थ कर लेता है और जन्म मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता ।

विषयों की ओर जीव का आकर्षण ही न हो इसलिए जीव को प्रभु की भक्ति करनी चाहिए जिससे उसके आकर्षण के केंद्र सदैव के लिए प्रभु बन जाएं ।

प्रकाशन तिथि : 21 अक्‍टूबर 2017