क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
1009 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरी कथाएं समस्त लोकों को पवित्र करने वाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं । श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहिए । बार-बार मेरे अवतार और लीलाओं का गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
यहाँ स्वयं प्रभु ने अपने श्रीवचन में प्रभु की कथाओं की महिमा का वर्णन किया है । प्रभु कहते हैं कि उनकी कथाएं समस्त लोकों को पवित्र करने वाली है और जीव के कल्याण का साधन है । इसलिए प्रभु की कथाओं को नित्य श्रद्धा के साथ सुनना चाहिए । प्रभु के अवतार काल की प्रभु की श्रीलीलाओं का गान एवं स्मरण करना चाहिए । दुष्टों का नाश तो प्रभु अपने धाम में बैठकर संकल्प मात्र से ही कर सकते हैं पर भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए और श्रीलीलाएं करने के लिए प्रभु अवतार लेते हैं । इन्हीं श्रीलीलाओं का गान भविष्य में जीव के पाप नाश एवं कल्याण का अचूक साधन बनता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की श्रीलीलाओं का नित्य श्रवण और चिंतन करें ।
प्रकाशन तिथि : 19 सितम्बर 2017 |
1010 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिए धर्म, काम और अर्थ का सेवन करना चाहिए । प्रिय उद्धव ! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जीव को सदैव प्रभु पर आश्रित रहना चाहिए । प्रभु की शरणागति से बड़ा कोई लक्ष्य जीव का नहीं होना चाहिए । हमें प्रभु के लिए ही धर्म, कर्म और अर्थ का सेवन करना चाहिए । जो जीव ऐसा कर पाता है उसे प्रभु की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त होती है । भक्ति वह साधन है जो हमें प्रभु तक पहुँचा देती है और उनकी शरण में ला देती है । जो जीव भक्ति करके प्रभु की शरण ग्रहण करता है और संसार में रहकर भी सिर्फ प्रभु पर ही आश्रित रहता है प्रभु तत्काल उसे अपना लेते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति करके प्रभु की शरणागति ग्रहण करें ।
प्रकाशन तिथि : 19 सितम्बर 2017 |
1011 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है, जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सानिध्य का अनुभव करता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि भक्ति सत्संग से प्राप्त होती है । जब हम सत्संग में प्रभु के बारे में सुनते हैं तो हमारे अंतःकरण में प्रभु के लिए प्रीति का निर्माण होता है । फिर हम प्रभु की तरफ आकर्षित होते हैं और भक्ति से प्रभु की प्राप्ति का प्रयास करते हैं । जब हमें प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है तो हम प्रभु की उपासना में लग जाते हैं । जब हम भक्ति मार्ग पर निरंतर अग्रसर होते हैं तो हमें प्रभु के सानिध्य का अनुभव होने लगता है । भक्ति हमें सर्वत्र प्रभु के दर्शन करना सिखाती है । एक सच्चा भक्त सभी जड़ और चेतन में प्रभु के दर्शन करता है । उस भक्त को सारा जगत ही प्रभुमय दिखता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति करके प्रभु के सानिध्य को प्राप्त करें ।
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2017 |
1012 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
श्री उद्धवजी ने प्रभु से पूछा कि भक्त के लक्षण क्या होते हैं तो प्रभु ने उन्हें बहुत सारे लक्षण बताए । उसमें से एक लक्षण यह है कि भक्तों को केवल प्रभु का ही भरोसा होता है । भक्त का भगवान पर अटूट विश्वास होता है । बड़ी-से-बड़ी विपदा में भी प्रभु पर से उसकी आस्था कभी किंचित मात्र भी कम नहीं होती । सभी भक्तों के चरित्र में यह बात देखने को मिलती है कि उन्होंने एक प्रभु पर ही भरोसा रखा । संसार को उन्होंने निमित्त माना पर देने वाले के रूप में सदैव उन्होंने प्रभु को ही देखा । जो एकमात्र प्रभु पर भरोसा रखता है प्रभु उसके लिए सब कुछ करते हैं । ऐसे भक्त पर प्रभु की कृपा और दया की दृष्टि सदैव बनी रहती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि केवल और केवल प्रभु पर ही भरोसा रखे ।
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2017 |
1013 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धव ! मेरी कथा सुनने में श्रद्धा रखे और निरंतर मेरा ध्यान करता रहे । जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभाव से मुझे आत्मनिवेदन करे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि भक्त को प्रभु की कथा सुनने में श्रद्धा रखनी चाहिए और नित्य प्रभु की कथा का श्रवण करना चाहिए । भक्त को प्रभु का सदैव ध्यान करते रहना चाहिए । भक्त को यह देखना चाहिए कि उसका ध्यान कभी भी प्रभु से हटे नहीं । निरंतर प्रभु का ध्यान करने वाला भक्त ही प्रभु को प्रिय होता है । भक्त को चाहिए कि जो कुछ भी उसे प्राप्त हो उसे प्रभु को समर्पित करें फिर प्रभु के प्रसाद रूप में उसे ग्रहण करें । भक्त को सदैव सब कुछ प्रभु को निवेदन करना चाहिए । भक्त को चाहिए कि प्रभु के साथ एक रिश्ता जोड़े और अपना आत्मनिवेदन प्रभु को करें ।
भक्त का आत्मनिवेदन प्रभु को करना भक्ति का गौरव है ।
प्रकाशन तिथि : 22 सितम्बर 2017 |
1014 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 41 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संसार में जो वस्तु अपने को सबसे प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे । ऐसा करने से वह वस्तु अनंत फल देने वाली हो जाती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो वस्तु संसार में एक जीव को सबसे प्रिय है उसे वह प्रभु को समर्पित कर दे । संसार में जीव आता है और अलग-अलग चीजों के मोह में फंसता है । कुछ उसकी प्रिय वस्तु होती है जिसके बिना वह स्वयं की कल्पना भी नहीं कर सकता । सच्ची भक्ति यह है कि सबसे प्रिय हमें प्रभु लगे और संसार में प्रिय लगने वाली वस्तु को हम सहर्ष प्रभु को समर्पित कर दें । यह देखकर कि हमने संसार में अपने को सबसे प्रिय लगने वाली वस्तु प्रभु को समर्पित कर दी है, प्रभु को प्रसन्नता होती है । यह हमारी तरफ से प्रभु को एक निवेदन होता है कि प्रभु से प्रिय हमें संसार में कुछ भी नहीं है । फिर प्रभु अनुग्रह करके संसार में हमें प्रिय लगने वाली वस्तु को अनंत गुना फल देने वाली बना देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपनी सबसे प्रिय वस्तु को प्रभु को समर्पित करें ।
प्रकाशन तिथि : 22 सितम्बर 2017 |
1015 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 48 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि संत पुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि भक्ति के अलावा संसार सागर को पार करने का अन्य कोई उपाय नहीं है । जो संत पुरुष प्रभु की भक्ति करते हैं और प्रभु को ही अपना एकमात्र आश्रय मानते हैं, प्रभु सदा सर्वदा उनके पास ही रहते हैं । मनुष्य जन्म पाकर प्रभु की भक्ति ही करनी चाहिए और केवल और केवल प्रभु पर ही आश्रित रहना चाहिए । प्रभु पर आश्रित रहा जीव सदा सर्वदा आनंद में रहता है क्योंकि उसकी सारी जिम्मेदारी प्रभु वहन करते हैं । प्रभु ने इस श्लोक में जो महत्वपूर्ण बात कही है वह यह कि प्रभु सदा भक्ति करने वालों के पास रहते हैं । एक भक्त को सदैव प्रभु का सानिध्य प्राप्त होता रहता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति करके प्रभु को अपना एकमात्र आश्रय माने ।
प्रकाशन तिथि : 23 सितम्बर 2017 |
1016 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 12
श्लो 07 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... बस, केवल सत्संग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
इस श्लोक में प्रभु ने सत्संग की महिमा बताई है । जगत की सारी आसक्ति सत्संग नष्ट कर देता है । योग, धर्मपालन, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग, व्रत, दान, यज्ञ, तीर्थ, यम-नियम से भी प्रभु उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सत्संग से होते हैं । प्रभु कहते हैं कि यह एक युग की बात नहीं बल्कि सभी युगों में यही बात लागू होती है । सत्संग से दैत्य, राक्षस, पशु, पक्षी, मनुष्य एवं रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति के लोग भी प्रभु को प्राप्त करते हैं । प्रभु ने एक लंबी सूची दी है जिन्होंने सत्संग के प्रभाव से प्रभु को प्राप्त किया है । सूची देने के बाद प्रभु ने कहा कि इतने ही नहीं ऐसे और भी बहुत हैं जिन्होंने सत्संग से प्रभु को प्राप्त किया और कृतकृत्य हुए । सत्संग द्वारा प्रभु अत्यंत सुलभता से मिलते हैं ।
सत्संग की महिमा अपार है और जीव को चाहिए कि अपना मन प्रभु में लगाने के लिए सत्संग का लाभ ले ।
प्रकाशन तिथि : 23 सितम्बर 2017 |
1017 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 12
श्लो 12 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही वे गोपियां परम प्रेम के द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गई थी कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलाने वाले पति-पुत्रादि की भी सुध-बुध नहीं रह गई थी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
श्रीगोपीजन प्रभु को कितना प्रेम करतीं हैं इसका वर्णन यहाँ प्रभु स्वयं अपने श्रीवचन में करते हैं । प्रभु कहते हैं कि जैसे नदियां समुद्रदेवजी में मिलकर अपना नाम और रूप खो देती है वैसे ही श्रीगोपीजन प्रभु के परम प्रेम में अपना अस्तित्व तक भूल गई । गोपियां प्रभु के परम प्रेम में इतनी तन्मय हो गई कि लोक, परलोक, शरीर, पति, पुत्र की सुध-बुध भी भूल गई । गोपियों ने प्रभु से वियोग होने के बाद भी सदा सर्वदा प्रभु का ही चिंतन किया । प्रभु ने भी दूर रहकर गोपियों को सदैव याद रखा और उनके प्रेम में बंधे रहे ।
भक्त और भगवान का रिश्ता ऐसा होता है कि भक्त भगवान में तन्मय रहता है और भगवान भक्त में तन्मय रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 24 सितम्बर 2017 |
1018 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 12
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... क्योंकि मेरी शरण में आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर अपनी शरणागति का महत्व बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि मेरी ही एकमात्र शरण संपूर्ण रूप से ग्रहण करने पर जीव का परम कल्याण होता है । जो प्रभु की शरण में आ जाते हैं वह सर्वथा निर्भय हो जाते हैं । शरणागत की रक्षा करने का प्रभु का व्रत है । शरण में आए हुए जीव को प्रभु कभी भी और किसी भी परिस्थिति में त्यागते नहीं हैं । पापी-से-पापी ने भी प्रभु की शरण ग्रहण की है और प्रभु ने उसका उद्धार किया है । शरणागति लेने पर शरणागत की पूरी जिम्मेदारी का वहन प्रभु करते हैं ।
प्रभु की शरणागति ग्रहण करने से बड़ा लाभ जगत में अन्य किसी भी चीज का नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 24 सितम्बर 2017 |
1019 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 12
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... किंतु यह जगत परमात्मस्वरूप ही है - परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जैसे वस्त्र में सूत ओतप्रोत रहते हैं वैसे ही पूरा विश्व प्रभु से ओतप्रोत है । सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं पर सूत अकेले बिना वस्त्र के भी रह सकता है । वैसे ही प्रभु के बिना जगत का कोई अस्तित्व नहीं पर जगत के न रहने पर भी प्रभु अकेले रहते हैं । यह जगत परमात्मा स्वरूप ही है क्योंकि परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है । इसलिए शास्त्रों ने और संतों ने पूरे जगत को ही प्रभुमय देखा और सर्वत्र हर जड़ और चेतन में प्रभु के दर्शन किए ।
भक्ति हमें पूरे जगत में प्रभु को देखने की दृष्टि प्रदान करती है ।
प्रकाशन तिथि : 25 सितम्बर 2017 |
1020 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 12
श्लो 23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वास्तव में मैं एक ही हूँ । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु यहाँ पर एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं । प्रभु कहते हैं कि वास्तव में प्रभु एक ही हैं । प्रभु अनेकों प्रकार के रूप धारण करते हैं पर वास्तव में वे एक ही हैं । इसलिए हम किसी भी रूप में प्रभु की पूजा और भक्ति करते हैं तो वह सब एक ही प्रभु को प्राप्त होती है । आज अलग-अलग धर्म हैं और धर्मों के अंतर्गत अलग-अलग पंथ हैं । पर सभी धर्मों एवं सभी पंथों की पहुँच एक ही प्रभु तक है । इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किस धर्म या पंथ से जाएं क्योंकि हम सबको पहुँचना एक प्रभु तक ही है ।
इस बात को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि प्रभु के सभी स्वरूप एक ही है ।
प्रकाशन तिथि : 25 सितम्बर 2017 |
1021 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 13
श्लो 02 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब सत्वगुण की वृद्धि होती है, तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जिस धर्म के पालन से सत्वगुण की वृद्धि होती है वही श्रेष्ठ है । जो धर्म सत्वगुण की वृद्धि करता है वह रजोगुण और तमोगुण को कम कर देता है । जब रजोगुण और तमोगुण कम हो जाते हैं तो उनके कारण होने वाले अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाते हैं । इसलिए सात्विक वस्तुओं का ही सेवन करना चाहिए जो सत्वगुण की वृद्धि करे । जब सत्वगुण की वृद्धि होती है तो जीव को प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है । भक्ति की प्रवृत्ति सत्वगुण की वृद्धि होने पर ही जीव को होगी ।
इसलिए जीव को चाहिए कि सात्विक दिनचर्या रखें जिससे वह भक्ति मार्ग पर अग्रसर हो पाए ।
प्रकाशन तिथि : 26 सितम्बर 2017 |
1022 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 13
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि साधक को चाहिए कि वो अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे अपना मन प्रभु में लगाने का अभ्यास करें । प्रभु कहते हैं कि इस तरह का अभ्यास करते समय साधक को चाहिए कि वो अपनी असफलता को देखकर तनिक भी घबराए नहीं बल्कि और भी उत्साह के साथ उसी अभ्यास में लग जाए । जब हम अपना मन प्रभु में लगाने का प्रयास करते हैं तो हमारा मन संसार की तरफ भागता है । हमें अपने मन को वहाँ से हटाकर प्रभु में लगाने का निरंतर प्रयास करना चाहिए । एक बार मन प्रभु में लगने लग गया तो साधक को इतना आनंद आएगा कि फिर उसका मन नीरस संसार की तरफ जाएगा ही नहीं ।
इसलिए जीव को प्रभु में अपना मन लगाने का अभ्यास जितनी जल्दी हो उतनी जल्दी करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 26 सितम्बर 2017 |
1023 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 13
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इंद्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री सनकादि ऋषियों को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि मन से और वाणी से जो कुछ भी हमारे द्वारा ग्रहण किया जाता है वह सब प्रभु ही हैं । हमारी दृष्टि से और हमारी इंद्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह सब प्रभु ही हैं । प्रभु के अलावा अन्य कुछ भी नहीं है । प्रभु से भिन्न कुछ भी नहीं है । शास्त्रों का सिद्धांत है कि एक प्रभु के अलावा जगत में अन्य कुछ भी नहीं है । प्रभु ही एक से अनेक होते हैं और जगत के हर जड़ और चेतन में प्रभु का वास है । इसलिए जीव जगत में आकर जो कुछ भी ग्रहण करता है उसमें सभी रूपों में प्रभु ही होते हैं ।
इसलिए सच्चा भक्त जगत को प्रभुमय देखता है और सर्वत्र प्रभु का दर्शन करता है ।
प्रकाशन तिथि : 28 सितम्बर 2017 |
1024 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इंद्र का, उसके मन में न तो सार्वभौम सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो भक्त अपने अंतःकरण को सब प्रकार से प्रभु को समर्पित कर चुका है वह परमानंद का अनुभव करता है जो विषयी प्राणियों को किसी भी प्रकार नहीं मिल सकता । ऐसे भक्त सदैव प्रभु के सानिध्य का अनुभव करके सदा सर्वदा पूर्ण संतोष का अनुभव करते हैं और उनके लिए जगत का एक-एक कोना आनंद से भरा हुआ होता है । प्रभु कहते हैं कि जिन भक्तों ने अपने आपको प्रभु को सौंप दिया है वे प्रभु श्री ब्रह्माजी का पद या देवराज श्री इंद्रजी का पद भी नहीं चाहते । वे न तो सम्राट बनने की इच्छा रखते हैं न स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल के स्वामी बनना चाहते हैं । इन भक्तों को सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं होती ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु को जितना प्रिय उनके ऐसे प्रेमी भक्त होते हैं उतना प्रिय उनको अपनी आत्मा भी नहीं होती ।
प्रकाशन तिथि : 28 सितम्बर 2017 |
1025 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 16 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं निरंतर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणों की धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाए और मैं पवित्र हो जाऊँ ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
यहाँ पर प्रभु ने अपनी भक्ति करने वाले भक्तों की महिमा बताई है जो कि पराकाष्ठा है । प्रभु ने जो भावना अपने भक्तों के लिए इस श्लोक में व्यक्त की है उसके आगे हम सोच भी नहीं सकते । प्रभु अपने भक्तों को कितना प्रेम करते हैं और उन्हें कितना मान देते हैं यह यहाँ पर देखने को मिलता है । प्रभु कहते हैं कि जो भक्त सब कुछ भूल कर केवल और केवल प्रभु के मनन चिंतन में तल्लीन रहता है प्रभु उस भक्त के पीछे-पीछे निरंतर घूमते हैं । प्रभु यह सोच कर घूमते हैं कि उस भक्त के चरण की धूल उड़कर प्रभु पर पड़ जाए और प्रभु पवित्र हो जाए । प्रभु पवित्रता की साक्षात मूर्ति है और देवता और ब्रह्मांड के समस्त जीव प्रभु के श्रीकमलचरणों की धूल पाने के लिए लालायित रहते हैं जिससे पवित्रता का संचार उनमें हो सके । फिर भी प्रभु ऐसे उद्गार व्यक्त करते हैं जिससे भक्ति की महिमा का पता चलता है ।
भक्त को प्रभु सदैव बहुत मान देते हैं और प्रभु की भक्ति करने वाले से प्रिय प्रभु को और कोई भी नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : 30 सितम्बर 2017 |
1026 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 18 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धवजी ! मेरा जो भक्त अभी जितेंद्रिय नहीं हो सका है और संसार के विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं, अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षण में बढ़ने वाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्रायः विषयों से पराजित नहीं होता ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु की भक्ति एक जीव में कितना परिवर्तन ला सकती है इस बात को प्रभु ने इस श्लोक में व्यक्त किया है । प्रभु कहते हैं कि जो साधक भक्ति पथ पर अभी-अभी आया है और जितेंद्रिय नहीं हो पाया है उसे संसार के विषय बार-बार खींचते हैं और आकर्षित करते हैं । पर वह साधक अगर भक्ति पथ को त्यागता नहीं और उस पर निरंतर अग्रसर होता चला जाता है तो क्षण-क्षण बढ़ने वाली भक्ति के प्रभाव से वह सांसारिक विषयों को पराजित कर देता है । भक्ति में इतना सामर्थ्य है कि सांसारिक विषय भक्ति करने वाले साधक को लुभा नहीं पाते ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति का अवलंबन लेकर अपना जीवन प्रभु की तरफ मोड़े ।
प्रकाशन तिथि : 30 सितम्बर 2017 |
1027 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धव ! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशि को पूर्णतया जला डालती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु इस श्लोक में भक्ति की महिमा बताते हैं । प्रभु कहते हैं कि जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को भी जलाकर खाक कर देती है वैसे ही प्रभु की भक्ति जीव के समस्त पापों को पूर्णतया जला डालती है । भक्ति का सामर्थ्य इतना बड़ा है कि भक्ति करने वाले जीव के पाप स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं और वह जीवात्मा शुद्ध हो जाता है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भक्ति जीव को प्रभु के श्रीकमलचरणों में लाकर समर्पित कर देती है और ऐसा तभी संभव हो सकता है जब जीव पापमुक्त होकर शुद्ध हो जाए ।
इसलिए पापमुक्त होने के लिए और प्रभु का सानिध्य प्राप्त करने के लिए हमें प्रभु की भक्ति ही करनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 03 अक्टूबर 2017 |
1028 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उद्धव ! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़ने वाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
भक्ति सभी साधनों में श्रेष्ठतम है प्रभु इस तथ्य का प्रतिपादन यहाँ पर करते हैं । प्रभु कहते हैं कि योग, ज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप, पाठ, तप, त्याग आदि साधन प्रभु की प्राप्ति करवाने में उतने समर्थ नहीं हैं जितना की भक्ति है । दिनों दिन बढ़ने वाली प्रभु की अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रभु जितनी जल्दी रीझते हैं उतना अन्य किसी भी साधन से नहीं रीझते । इसलिए भक्ति का साधन अन्य सभी साधनों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम है । इसलिए हमें भक्ति को ही मुख्य साधन के तौर पर रखना चाहिए क्योंकि भक्ति प्रभु की प्राप्ति कराने का सामर्थ्य रखती है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति पथ पर अग्रसर होकर प्रभु की प्राप्ति के लिए जीवन में प्रयास करें ।
प्रकाशन तिथि : 03 अक्टूबर 2017 |
1029 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ । मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु को पाने के लिए प्रभु यहाँ भक्ति का स्पष्ट प्रतिपादन करते हैं । प्रभु कहते हैं कि जीव अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति के द्वारा ही उन्हें प्राप्त कर सकता है । प्रभु यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि प्रभु को प्राप्त करने का यही एकमात्र उपाय है । भक्ति प्रभु को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है और इसलिए वह सभी साधनों में शिरोमणि है । भक्ति के बिना किया हुआ कोई भी साधन हमें प्रभु तक नहीं पहुँचा सकता । किसी भी साधन के साथ भक्ति का अवलंबन लेना अति आवश्यक है पर भक्ति में इतना सामर्थ्य है कि अकेली भक्ति जीव को प्रभु तक पहुँचा देती है । भक्ति को अन्य किसी साधन का अवलंबन लेने की आवश्यकता नहीं है ।
इसलिए जीव को अपना जीवन भक्तिमय बनाना चाहिए जिससे वह प्रभु तक पहुँच सकें ।
प्रकाशन तिथि : 04 अक्टूबर 2017 |
1030 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि सारे संसार को पवित्र कर देता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
भक्ति एक भक्त को कितना शुद्ध कर देती है इस तथ्य का प्रतिपादन प्रभु यहाँ पर करते हैं । प्रभु कहते हैं कि उनका भक्त न केवल अपने को अपितु पूरे संसार को पवित्र कर देता है । भक्ति जीव को पवित्र करने का अग्रणी साधन है । भक्ति के द्वारा भक्त तो शुद्ध होता ही है साथ ही उसके संपर्क में आने वाले भी पवित्र हो जाते हैं । भक्ति करने वाला जीव सदा प्रभु का गुणानुवाद करता है और उस गुणानुवाद को सुनने वाले जीव भी पवित्र हो जाते हैं । यह सामर्थ्य केवल और केवल भक्ति में ही है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि भक्ति का अवलंबन लेकर अपना जीवन सफल करें ।
प्रकाशन तिथि : 04 अक्टूबर 2017 |
1031 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो जीव भक्ति करता है वह वासनाओं से मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त कर लेता है । प्रभु की भक्ति ज्यों-ज्यों बढ़ती है त्यों-त्यों चित्त का मैल धुलता जाता है । भक्ति के बिना हमारा मन विषयों का चिंतन करता है और हमारा चित्त विषयों में फंस जाता है । पर भक्ति से जो जीव प्रभु का स्मरण करता है उसका चित्त प्रभु में तल्लीन हो जाता है । ऐसा होने पर उस जीव को फिर संसार के विषय अपनी ओर खींच नहीं सकते । संसार की विषय वासनाओं से निवृत्त होने का सबसे अच्छा साधन प्रभु की भक्ति है ।
भक्तों को प्रभु का इतना आकर्षण हो जाता है कि संसार का आकर्षण उसके सामने गौण हो जाता है ।
प्रकाशन तिथि : 05 अक्टूबर 2017 |
1032 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 14
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इसलिए मेरे चिंतन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से एकाग्रता से मुझमें ही लगा दो ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि प्रभु के चिंतन में जो अपना चित्त लगा देता है उसका चित्त शुद्ध हो जाता है । संसार की विषय वासनाएं हमारे चित्त पर प्रभाव डालती हैं और उसे अशुद्ध कर देती हैं । पर जैसे ही हम अपने चित्त को संसार की विषय वासना से हटाकर प्रभु में केंद्रित करते हैं तो वह शुद्ध हो जाता है । इसलिए प्रभु कहते हैं कि चित्त को पूरी तरह से एकाग्र करके उसे प्रभु में लगाना चाहिए । परम शांति और परमानंद का अनुभव हम तभी कर सकते हैं जब हमारा चित्त प्रभु का चिंतन करें और प्रभु में एकाग्र हो जाए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जीवन में प्रभु का चिंतन करें और अपने चित्त को प्रभु में एकाग्र करें ।
प्रकाशन तिथि : 05 अक्टूबर 2017 |