लेख सार : मनुष्य जीवन में पाप नहीं करने पर और जीवन में पुण्य कमाने पर भी हमें संसार चक्र के आवागमन से मुक्ति नहीं मिलती । संसार में आवागमन से मुक्ति तो केवल प्रभु की भक्ति ही हमें दिला सकती है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
अगर मनुष्य जीवन में हमने कोई भी पाप नहीं किए, जो होना लगभग असंभव है, तो हमें नर्क नहीं भोगना पड़ेगा । साथ ही अगर हमने बहुत पुण्य किए हैं तो उसे भोगने के लिए स्वर्ग मिलेगा । पर जब हम स्वर्ग में अपने पुण्यों को भोग चुके होंगे तो हमें वहाँ से वापस मृत्युलोक यानी संसार में धकेल दिया जाएगा ।
ऊपर वर्णित स्थिति से बढ़िया किसी स्थिति की हम कल्पना नहीं कर सकते जिसमें कि पाप हमने एकदम नहीं किए और पुण्य बहुत सारे किए । पर फिर भी फल क्या मिला ? नर्क नहीं जाना पड़ा और स्वर्ग में पुण्य भोगकर फिर मृत्युलोक आना पड़ा ।
यह एक काल्पनिक उदाहरण है क्योंकि मनुष्य पाप तो करता ही रहता है और पुण्य बहुत कम कर पाता है । फिर भी अगर हम कल्पना में मान लें कि उसने पाप बिल्कुल नहीं किया और पुण्य बहुत किए तो भी उसे नर्क नहीं भोगकर और स्वर्ग भोगकर फिर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ेगा । उसे जन्म लेने से मुक्ति नहीं मिलेगी । उसे चौरासी लाख योनियों में जन्म तो लेना ही पड़ेगा ।
पर अगर उस जीव ने अपने मनुष्य जीवन में प्रभु की भक्ति की होती और पाप-पुण्य के चक्कर में ही नहीं पड़ता तो वह मुक्त होकर सीधे प्रभु के धाम में प्रभु के श्रीकमलचरणों में पहुँच जाता । वह सदैव के लिए चौरासी लाख योनियों के चक्र से मुक्त हो जाता । उसे फिर किसी माता के गर्भ में नहीं जाना पड़ता और वह जन्म-मृत्यु के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता ।
पर अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो क्या यह कम दंड है कि चौरासी लाख योनियों में हमें जन्म लेना पड़ेगा । ऐसा एक बार नहीं कितनी बार करना पड़ेगा । चौरासी लाख योनियों में निरंतर भ्रमण पता नहीं हम कब से करते आ रहे हैं और आगे भी कब तक करते रहेंगे । इस चौरासी लाख योनियों के भ्रमण में हमें वृक्ष बनना पड़ेगा जो एक जगह 100 से 125 वर्ष तक खड़ा हवा, तूफान, गर्मी और सर्दी को सहता है । हमें चौरासी लाख योनियों के भ्रमण के क्रम में कूकर-शूकर बनना पड़ेगा और गंदगी में रहकर जूठन खाना पड़ेगा । हमें चौरासी लाख योनियों के भ्रमण के अंतर्गत विष्ठा पर बैठने वाले कीड़े-मकोड़े बनने पड़ेंगे । क्या यह चौरासी लाख योनियों में भ्रमण अपने आप में कम दंड है ?
अगर हमने अपने मनुष्य जीवन में पाप नहीं किए और पुण्य कमाए तब भी चौरासी लाख योनियों का भ्रमण तो हमें करना ही पड़ेगा और उस भ्रमणरूपी दंड को सहना ही पड़ेगा । पाप नहीं करना और पुण्य करना भी हमें इस दंड से नहीं बचा सकता ।
इस दंड से केवल और केवल प्रभु की भक्ति ही हमें बचा सकती है । भक्ति इतनी श्रेष्ठ है कि वह हमें संसार में दोबारा आवागमन से ही मुक्ति दिला देती है । केवल भक्ति की ही पहुँच प्रभु तक है इसलिए जो भक्ति कर प्रभु तक पहुँच जाता है उसे फिर दोबारा संसार में किसी भी रूप में नहीं आना पड़ता ।