लेख सार : भ्रष्टाचार, अनीति, दुर्विनियोग तभी होते हैं जब हमारी अन्तरात्मा हमें ऐसा करने से रोकती नहीं है । प्रभु की सच्ची भक्ति में कमी के कारण आज हमने अपनी अन्तरात्मा की आवाज को दबा दिया है या शायद उसे मार ही दिया है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
एक मंदिर है जहाँ साफ सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है । मैं रोजाना वहाँ मंदिर सेवकों को नियमित सफाई करते और पोछा लगाते देखता हूँ । निरंतर मंदिर प्रांगण में पोछा लगते रहने पर भी रोजाना पोछे का पानी काला और मैला हो जाता है, यानी मैल निकल ही आता है । मैंने कभी ऐसा नहीं देखा कि पोछे का पानी, पोछा लगने के बाद साफ रहा हो । मैं वो दिन देखना चाहता हूँ जब पोछे के बाद पानी एकदम स्वच्छ दिखे यानी कोई गंदगी नहीं निकले । पर यह संभव नहीं लगता क्योंकि दिन भर मंदिर में दर्शनार्थी का और सामान-सामग्री का आना जाना लगा रहता है ।
ऐसे ही हमारे मन में भी सभी प्रकार के सांसारिक विचारों का निरंतर आना-जाना लगा रहता है और इससे गंदगी होती रहती है । शुद्ध अवस्था के मन को भी मैला होते देर नहीं लगती । उदाहरण स्वरूप आप देखें कि एक बच्चे की 2 - 3 वर्ष की अवस्था में मन कितना शुद्ध और विकार रहित होता है । फिर हर बढ़ते वर्ष में अशुद्धि बढ़ती जाती है । बड़ों को देखकर बच्चा झूठ बोलना सीखता है, अन्य बहुत सारी बुराइयां आती चली जाती है । अच्छाई को देखकर सीखने में और अच्छाई को अपने मन-मस्तिष्क में उतारने में बड़ा श्रम है पर बुराइयां बिना श्रम ही मन में उतर कर चिपक जाती हैं ।
अच्छाई को ग्रहण करना और बनाए रखना बड़ा कठिन है । पर बुराइयों को ग्रहण करना और अपनाए रखना बड़ा आसान है क्योंकि यह स्वतः होने वाली प्रक्रिया है, इसमें हमारे श्रम की आवश्यकता नहीं होती ।
बुराइयां हमसे चिपके नहीं, इसकी सावधानी रखने में श्रम की जरूरत होती है । जो बुराइयां हमारे मन-मस्तिष्क में वास कर रही हैं, उन्हें त्यागने में भी श्रम की जरूरत होती है । इसलिए सबसे सरलतम उपाय है, सबसे सरलतम साधन है कि नित्य प्रभु भक्ति द्वारा प्रभु सानिध्य में रहकर मन-मस्तिष्क को पोंछते रहना, भक्ति करते हुए मन को स्वच्छ रखना । प्रभु सानिध्य की एक विलक्षण और अदभुत शक्ति है कि स्वतः ही हमारे मन-मस्तिष्क की शुद्धिकरण और सफाई करती रहती है । जैसे कंप्यूटर में एंटीवायरस सॉफ्टवेयर अपना काम निरंतर करता रहता है, भीतर की सफाई करता है और बाहर से अवांछित चीजों को कंप्यूटर में प्रवेश करने से रोकता है । वैसे ही हमारे मन-मस्तिष्क में प्रभु भक्ति और प्रभु सानिध्य भी बुराइयों की सफाई करती है और बाहर से अवांछित बुराइयों और विकारों के लिए प्रवेश निषेध कर देती है ।
विश्व की किसी भी अन्य वस्तु में सामर्थ्य नहीं, किसी चीज में ताकत नहीं कि वह हमारे मन-मस्तिष्क को शुद्ध कर सके । यह ताकत, यह सामर्थ्य सिर्फ और सिर्फ प्रभु भक्ति में ही है । उदाहरण स्वरूप प्रभु सत्ता से डरने वाला, प्रभु की भक्ति करने वाला एक मनुष्य कभी अनैतिक कृत्य नहीं करेगा । उसे पता है कि अनैतिक कृत्य के लिए उसे मृत्यु उपरांत दंडित होना पड़ेगा और अपनी मैली चादर लेकर वह प्रभु के द्वार में प्रवेश नहीं कर पाएगा । प्रभु की भक्ति ने, प्रभु प्रेम ने उसके मन-मस्तिष्क को इतना पवित्र कर दिया कि वह बुराइयों से बचता-बचता जीवन यापन करता है । ऐसा व्यक्ति रिश्वत नहीं लेगा, अपने व्यापार में नाप-तोल में गड़बड़ी नहीं करेगा, मिलावट नहीं करेगा और किसी के हक को नहीं मारेगा ।
संसार में रहकर ऐसा दिन कभी भी नहीं आएगा कि हमारा मन मैला ही न हो । संसार तो हमेशा गंदगी देगा और प्रभु भक्ति से ही उसकी सफाई संभव है ।
रिश्वत का पैसा हमें आकर्षित नहीं करे, जीवन मूल्यों और सिद्धांतों से हम डिगे नहीं, व्यापार में नाप-तोल में हेराफेरी या मिलावट करने का विचार मन में आए ही नहीं, यह सिर्फ और सिर्फ प्रभु भक्ति में ही करवाने की ताकत है और प्रभु भक्ति के बल पर ही ऐसा संभव है । सच्ची प्रभु भक्ति की यह कसौटी है । अगर ऐसा नहीं है तो हमारी भक्ति सच्ची नहीं है अपितु दिखावटी है, जिसका कोई विशेष लाभ नहीं है ।
अशुद्ध विचार, अवांछित इच्छाओं और वासनाओं को मन-मस्तिष्क से दूर रखने का एकमात्र और सरलतम उपाय प्रभु की सच्ची भक्ति है । प्रभु की सच्ची भक्ति ही शुद्ध विचार, शुद्ध आचरण, शुद्ध इच्छा और शुद्ध वासना की कुंजी और स्त्रोत है ।