लेख सार : जब हम अपना पूरा पुरुषार्थ हार जाते हैं और फिर भी विपत्ति हमें जकड़े रहती है तो हमें अंत में प्रभु की ही अंतिम विकल्प के रूप में याद आती है । पर समझदारी इसी में है कि विपत्ति आते ही प्रभु को याद कर लिया जाए और प्रभु की शरण में चला जाया जाए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
अंत में हमें प्रभु की ही याद आती है । जब किसी विपत्ति या प्रतिकूलता में हम अपना धनबल, बुद्धिबल, कुटुंबबल लगा लेते हैं और फिर भी हम हार जाते हैं और विपत्ति बढ़ती ही चली जाती है तो हमें अंत में प्रभु ही याद आते हैं । जिसने जीवन भर प्रभु को कभी याद नहीं किया ऐसा नास्तिक भी ऐसे समय प्रभु की शरण में चला जाता है ।
एक बड़े उद्योगपति के उदाहरण से हम इस तथ्य को समझ पाएंगे । कल्पना करें कि एक बहुत बड़े उद्योगपति की पत्नी और बच्चे एक बड़ी गाड़ी से कहीं जा रहे थे । गाड़ी एक जोरदार दुर्घटना में दुर्घटनाग्रस्त हो गई । पत्नी और बच्चे लहू-लुहान हो गए और गाड़ी में फँस गए । दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी से उन्हें बड़ी मुश्किल से किसी प्रकार निकाला गया । सूचना लगते ही उद्योगपति भी मौके पर पहुँच गया । वह अपनी पत्नी और बच्चों से अपनी जान से भी ज्यादा प्रेम करता था । उसकी फैक्टरी और ऑफिस के कर्मचारी भी बड़ी संख्या में पहुँचे । रुपयों के इंतजाम की कोई चिंता ही नहीं थी इसलिए एंबुलेंस से बड़े से बड़े अस्पताल में ले जाने की प्रक्रिया तुरंत प्रारंभ हुई ।
उद्योगपति बचपन से ही नास्तिक था । वह अब एंबुलेंस में लहू-लुहान अवस्था में पत्नी और बच्चों को लेकर रवाना हुआ । उद्योगपति की पहचान इतनी थी कि बड़े अस्पताल में आपातकालीन सभी तैयारियाँ कर डॉक्टर और नर्स इंतजार में खड़े हुए थे । रास्ते में ट्रैफिक सिग्नल में उसकी एंबुलेंस को आगे-से-आगे रास्ता दिया जा रहा था क्योंकि उसकी पहुँच के कारण प्रशासन भी हरकत में आ गया था ।
इतने में एंबुलेंस के डॉक्टर ने कहा कि उसकी पत्नी और बच्चों की सांसे टूट रही है । स्थिति बड़ी ही गंभीर है और वे शायद ही अस्पताल तक पहुँच पाएंगे । ऐसी बात सुनकर वह उद्योगपति अपनी जान पहचान के और धन के प्रभाव को भुला बैठा और उसे अब इस संकट में एकमात्र प्रभु की याद आने लगी । उद्योगपति जो नास्तिक था, अब सब कुछ भुलाकर लगातार मन-ही-मन प्रभु से प्रार्थना करने लगा ।
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि विपदा में, विपत्ति में और प्रतिकूलता में सभी को प्रभु की याद आती ही है । प्रतिकूलता में हमें प्रभु के अलावा कोई सहारा नजर नहीं आता । जो अपना धनबल, बुद्धिबल, कुटुंबबल सब कुछ हार जाता है उसे भी प्रभु ही सहारा देते हैं । इसलिए संतों ने प्रभु को "हारे का सहारा" के नाम से पुकारा है ।
इसलिए अनुकूलता में भी सदैव प्रभु को याद रखना चाहिए और जैसे ही विपत्ति के लक्षण प्रकट हों और प्रतिकूलता के बादल जीवन में छाएं तो तत्काल बिना विलंब प्रभु की शरण में चले जाना चाहिए । ऐसा करने पर ही हम उस विपत्ति और प्रतिकूलता से छूट सकते हैं ।