लेख सार : जीवन में जब प्रतिकूलता और दुःख आए तो उससे घबराना नहीं चाहिए बल्कि उसे प्रभु की तरफ मुड़ने का एक साधन मानना चाहिए और उसका उपयोग प्रभु सानिध्य प्राप्त करने के लिए करना चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
जीवन में दुःख आए तो उसे भी प्रभु से जुड़ने का साधन मानना चाहिए । यह सिद्धांत है कि दुःख में हम प्रभु के करीब पहुँचते हैं । दुःख हमें प्रभु के पास ला देता है ।
सुख और अनुकूलता में हम भोग और संग्रह में लग जाते हैं । औपचारिकता के लिए हम प्रभु को धन्यवाद देते हैं एवं अधिक सुख और अनुकूलता के लिए प्रभु की पूजा, पाठ और प्रार्थना करते रहते हैं । पर प्रभु से हमारा जुड़ाव नहीं होता । जो भी होता है वह औपचारिकता के लिए एवं अधिक कामना पूर्ति के लिए होता है ।
पर जब जीवन में दुःख और प्रतिकूलता की बेला आती है तो हमारा धनबल, बुद्धिबल, कुटुंबबल सब किनारे हो जाता है । तब हमें प्रभु की याद सच्चे रूप में आती है । प्रभु ही जीवन में सर्वोपरि हैं यह बात हमें तब समझ में आती है । फिर हमारा जीवन प्रभु को पाने के लिए मुड़ जाता है । प्रभु के लिए हमारे अंतःकरण में प्रेम जागृत होता है और हम प्रभु की भक्ति करने में लग जाते हैं । हमारे जीवन में प्रभु की शरणागति हो जाती है ।
ऐसा होने पर हमारा जीवन धन्य हो उठता है । इसलिए संतों ने जीवन में दुःख की घड़ी को प्रभु से जुड़ने का साधन माना है । संत यहाँ तक कहते हैं कि प्रभु जिनको अपनी ओर खींचना चाहते हैं, जिन पर कृपा करना चाहते हैं उनके जीवन में दुःख और प्रतिकूलता भेजते हैं ।
जीवन के दुःख और प्रतिकूलता हमें प्रभु सानिध्य प्राप्त करा देते हैं । इससे ज्यादा प्राप्त करने योग्य संसार में कुछ है ही नहीं । इसलिए जब जीवन में दुःख और प्रतिकूलता आए तो अपने प्रारब्ध और भाग्य को नहीं कोसना चाहिए बल्कि इसे प्रभु की तरफ मुड़ने का साधन बनाना चाहिए ।
सभी भक्तों के जीवन में दुःख और प्रतिकूलता आए जिसके कारण वे प्रभु की तरफ मुड़ गए । उस दुःख और प्रतिकूलता ने उनके प्रभु प्रेम, भक्ति और शरणागति को कई गुना बढ़ा दिया । भगवती कुंतीजी ने प्रभु से सुख और अनुकूलता आने के बाद भी दुःख मांग लिया । जब पांडव महाभारत का युद्ध प्रभु की कृपा से जीते और उन्हें राजसिंहासन मिला तो प्रभु उनका सब मंगल करके श्री द्वारिकाजी जाने लगे। तब भगवती कुंतीजी ने प्रभु के रथ के आगे आकर रथ को रोककर प्रभु से कुछ मांगने की इच्छा जाहिर की । प्रभु ने जब उन्हें मांगने को कहा तो उन्होंने दुःख मांगा । उनकी दलील थी कि दुःख की हर बेला में प्रभु पांडवों के साथ रहे और अब जब सुख आया तो प्रभु जाने लगे । उन्होंने कहा कि ऐसा सुख मुझे नहीं चाहिए जो जीवन से प्रभु को दूर कर दे । उन्हें वह दुःख चाहिए जो सदैव प्रभु का सानिध्य प्रदान करता रहे ।
इसलिए जीवन में दुःख और प्रतिकूलता से घबराना नहीं चाहिए बल्कि अगर वे जीवन में आए तो उनका स्वागत करना चाहिए क्योंकि वे हमारा जीवन प्रभुमय कर देते हैं । दुःख में हमें प्रभु की सच्ची याद आती है, प्रभु का सच्चा सुमिरन होता है और इस तरह प्रभु का सानिध्य प्राप्त होता है ।