लेख सार : प्रभु के सानिध्य एवं माया के सानिध्य के बीच तुलना करने वाला लेख है । लेख में प्रकाश डाला गया है कि प्रभु के सानिध्य में रहने पर कैसे हमारा विकास एवं माया के सानिध्य में कैसे हमारा विनाश होता है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
प्रभु से दूर जाते ही हमारा पतन और विनाश सुनिश्चित हो जाता है । इसलिए जीवन के हर पल, पल-पल प्रभु के समीप, प्रभु के सानिध्य में रहना ही हमारे श्रेष्ठ हित में है ।
प्रभु के सानिध्य में रहने का जीवन में निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए क्योंकि प्रभु की माया का वेग इतना प्रबल है कि प्रभु से दूर होते ही वह हमें बहा कर ले जाती है । माया हमें फंसाती जाती है और हमारे भीतर कामनाओं और वासनाओं की अतृप्ति बढ़ती ही चली जाती है । यही माया का स्वभाव है ।
मेरे प्रभु का नैसर्गिक स्वभाव है कि वे जीव को माया से उबारते हैं एवं प्रभु का सानिध्य जीव को परमानंद से तृप्त करता जाता है ।
जीवन की यह दो विपरीत दिशाएं हैं जिसके फल भी एक दूसरे के विपरीत हैं । पर दुर्भाग्यवश हम माया के अशुभ फल को ही पाने के लिए लालायित रहते हैं, उसको पाने के लिए दौड़-भाग करते हैं । हम जीवन सागर में गोता लगाकर कंकड़ (माया) लेकर खुशी खुशी बाहर आते हैं और अनमोल रत्न (प्रभु सानिध्य) से वंचित रह जाते हैं ।
जीवन सागर में मनुष्य जन्म लेकर गोता लगाया था अनमोल रत्न पाने हेतु पर ले आए कंकड़, यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है । इससे भी बड़ी हानि यह है कि हम कंकड़ (माया) पाकर खुश होते रहते हैं और अपने दुर्भाग्य का हमें आभास भी नहीं होता क्योंकि हम उसे अपना सौभाग्य समझ बैठते हैं । हमारी स्थिति ठीक वैसी है जैसे एक बच्चा परीक्षा में फेल हो गया और फिर भी खुशी से फूला नहीं समा रहा और मिठाईयां खा और बांट रहा है ।
प्रभु से दूर जाने से हमारा पतन और विनाश एवं प्रभु सानिध्य में रहने से हमारा श्रेष्ठतम हित, अगर इतनी सी बात हमारे हृदय और बुद्धि में बैठ जाए तो हम सदैव प्रभु के सानिध्य में रहने के अवसर और बहाने खोजते नजर आएंगे । हमारी इच्छा प्रभु के विषय में पढ़ने, श्रवण करने की, प्रभु सेवा की, तीर्थ सेवन की होने लगेगी । यह शुभ वासना हमें कभी भी नए कर्म-बंधन में नहीं बांधती और पुराने पातक कर्म भी गला देती है ।
इसके ठीक विपरीत माया में फंसे जीव की अशुभ वासना उसके लिए नए कर्म-बंधन तैयार करती जाती है और पुराने कर्म-बंधन के बोझ से दबे जीव पर और भार बढ़ाती है ।
जीवन में प्रभु सानिध्य में रहने की आदत हो जाए तो प्रभु सानिध्य के प्रभाव के कारण हम विचारों से, हृदय से पवित्र होने लगते हैं । प्रभु के सानिध्य में एक अदृश्य गोलाकार रेखा बन जाती है जिसके अंदर हम सर्वदा और सदैव के लिए सुरक्षित हो जाते हैं । जैसे श्रीलक्ष्मण-रेखा को रावण भी नहीं लांघकर भीतर प्रवेश कर पाया, वैसे ही बुराइयां (काम, क्रोध, द्वेष, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार, हिंसा इत्यादि) प्रभु की गोलाकार रेखा के अंदर प्रवेश नहीं करती । प्रभु संरक्षण हमें बुराइयों से, माया के कुप्रभाव से बचाए रखने का एकमात्र सटीक और सरलतम उपाय है ।
पर हम प्रभु के संरक्षण की जगह माया के संरक्षण में बैठे हैं और तभी बुराइयों और माया के कुप्रभाव से हम घिरे रहते हैं। हमारे भीतर क्रोध, लालच, ईर्ष्या, बदले की भावना, एक आँख के बदले दो आँखें फोड़ने की भावना, हिंसा की प्रवृत्ति, कथनी और करनी में फर्क, अनैतिक धन अर्जन, अहंकार, दिखावा इत्यादि बड़ी लम्बी बुराइयों की फौज का आक्रमण होता रहता है । बुराइयों की जीत होती है और फिर बुराइयों का हमारे बुद्धि और हृदय पर कब्जा हो जाता है । जैसे युद्धभूमि में लड़े जाने वाले युद्ध में एक सेना का आक्रमण और विजय होने पर हारे हुए के राज्य पर कब्जा होता है, ऐसी ही प्रक्रिया इस आंतरिक युद्ध की भी है ।
अगर आक्रमण झेलने वाले के पास आक्रमण करने वाले से बड़ी शक्ति है तो आक्रमण करने वाला विफल हो जाता है । अगर हमारे पास प्रभु सानिध्य की शक्ति है तो हमारे ऊपर कोई भी आक्रमण विफल हो जाता है । पाण्डवों पर कितने प्रकार के आक्रमण हुए, कितनी विपदाएँ आईं पर प्रभु सानिध्य के बल पर उनको कौरवों पर विजय मिली । अश्वमेध का विजय अभियान हुआ । भावुक श्री युधिष्ठिरजी ने मेरे प्रभु से कहा कि पाण्डव अश्वमेध यज्ञ ख्याति अर्जित करने हेतु नहीं अपितु दुनिया को यह दिखाने और बताने के लिए कर रहे हैं कि पाण्डवों के जीवन की क्या दुर्दशा थी पर सिर्फ और सिर्फ प्रभु सानिध्य के बल पर उन्हें जीवन में इतनी ऊँचाईयां प्राप्त हुईं हैं ।
जीवन में प्रभु सानिध्य का प्रभाव बड़ा अदभुत होता है । श्रीपुराण और इतिहास इसके गवाह हैं । इसलिए जीवन में प्रभु सानिध्य अर्जित करने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए ।