लेख सार : प्रभु ने अपनी भक्ति का अधिकार पतित से पतित को भी दे रखा है, यह प्रभु की कितनी बड़ी दयालुता है । पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि हम प्रभु से भक्ति नहीं मांग कर अन्य सब कुछ मांग लेते हैं । प्रभु द्वारा दिया जाने वाला सबसे बड़ा दान भक्ति का ही दान है पर इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
जीव प्रभु को अपनी किसी भी इच्छापूर्ति के लिए बाध्य नहीं कर सकता । उसकी इच्छापूर्ति उसके पूर्व कर्मों के फलस्वरूप प्रभु द्वारा प्रदान फल पर निर्भर करती है । पर जीव निश्चित तौर पर प्रभु को भक्ति का दान देने के लिए बाध्य कर सकता है । भक्त ऐसा करते आए हैं क्योंकि इतिहास गवाह है कि घोर दुराचारी, पापी, डाकू और कसाई भी प्रभु के श्रेष्ठ भक्त बने हैं ।
भक्ति का दान पाने का अधिकार प्रभु ने हर जीव को प्रदान कर रखा है । हमें जरूरत है बस उस अधिकार को सफलतापूर्वक इस्तेमाल करने की । पर जीव ऐसा नहीं कर पाता । आधुनिक युग में वह प्रभु से सब कुछ मांगता है, केवल भक्ति ही नहीं मांगता । जीव को प्रभु से धन, संपत्ति, पुत्र, पौत्र, आरोग्य सब कुछ चाहिए । जो जैसी कामना करता है प्रभु उसे वैसा देते हैं । पर प्रभु भी ऐसे भक्त की बाट जोहते हैं जो प्रभु से भक्ति के द्वारा प्रभु को ही मांग ले । करोड़ों में कोई एक बिरला ही होता है जो ऐसा कर पाता है ।
कलियुग में जीव प्रभु से भक्ति के अलावा सब कुछ मांग लेता है । पर प्रभु उस पर ही रिझते हैं जो प्रभु से प्रभु की भक्ति मांगता है । भक्ति का दान प्रभु द्वारा दिया हुआ सबसे बड़ा दान है । इस दान के आगे अन्य सभी दान तुच्छ हैं क्योंकि भक्ति सर्वोपरि है । भक्ति का सामर्थ्य है कि वह भक्त को प्रभु की गोद में बिठा देती है । प्रभु अपने भक्त के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं । भक्त से बड़ा प्रभु के लिए कोई भी नहीं होता ।
इतिहास गवाह है कि घोर दुराचारी, पापी, डाकू और कसाई भी प्रभु के श्रेष्ठ भक्त बन गए । श्रीमद् भागवतजी महापुराण में संत श्री अजामिलजी की कथा आती है । कोई ऐसा पाप नहीं था जो उन्होंने ने नहीं किया हो । वे एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे पर घोर पतित हो गए । इतने पतित हुए कि मृत्यु बेला पर प्रभु श्री यमराजजी के दूत उन्हें नर्क ले जाने आए । उस समय भय के कारण उन्होंने अपने बेटे को पुकारा जिसका नाम नारायण था । नारायण प्रभु का भी नाम है और प्रभु के नाम का उच्चारण होते ही मृत्यु बेला पर यमदूतों से उन्हें मुक्त करवाने के लिए प्रभु के पार्षद वहाँ आ पहुँचे । जब यमदूतों ने प्रभु के पार्षद के आगे श्री अजामिलजी की पापों की सूची गिनाई तो बहुत से ऐसे पाप थे जो श्री अजामिलजी करके भूल ही चुके थे । पर फिर भी अनन्त कोटि जन्मों के संचित पापों को दहन करने की शक्ति प्रभु के एक नाम में है, ऐसा कहकर प्रभु के पार्षदों ने उन्हें मुक्त करवा दिया । जब श्री अजामिलजी ने प्रभु के एक नाम के उच्चारण का महत्व अपनी आँखों से देखा तो उनका जीवन परिवर्तित हो गया । फिर उन्होंने अपना पूरा जीवन प्रभु की भक्ति में लगा दिया । प्रभु ने उन पर प्रसन्न होकर उन्हें भक्ति का दान दिया और वे अंत में मुक्त होकर प्रभु के धाम चले गए ।
इस दृष्टान्त से यह पता चलता है कि भक्ति का दान पाने का अधिकारी पतित से पतित भी होता है । प्रभु की भक्ति करने का अधिकार सभी को समान रूप से उपलब्ध है । पर इस अधिकार का इस्तेमाल बहुत ही कम लोग करते हैं । उसमें भी स्वार्थ सिद्धि के लिए भक्ति करने वालों की संख्या सबसे अधिक होती है । निष्काम, निस्वार्थ और अनन्य भक्ति करने वाला कोई बिरला ही होता है ।
जीव को चाहिए कि वह प्रभु की निस्वार्थ और अनन्य भक्ति करके प्रभु को रिझाए । निस्वार्थ और अनन्य भक्ति करने वाले पर प्रभु शीघ्र प्रसन्न होते हैं और उसका पूरा दायित्व भी प्रभु स्वतः ही उठाते हैं ।
जीव को प्रभु से प्रभु की भक्ति प्राप्त करने की ही लालसा रखनी चाहिए । जीव की सबसे बड़ी उपलब्धि तब है जब उसने प्रभु से प्रभु की भक्ति का दान प्राप्त कर लिया । प्रभु से सांसारिक चीजें प्राप्त करना बहुत गौण है, प्रभु से प्रभु की भक्ति प्राप्त करना सबसे श्रेष्ठ है । प्रभु से भक्ति प्राप्त करने का अधिकार प्रभु ने समान रूप से सबको प्रदान कर रखा है । उस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए हमें प्रभु से प्रभु की भक्ति का दान मांगना चाहिए । ऐसा करने वाला जीव अपना मानव जीवन सफल कर लेता है क्योंकि प्रभु की भक्ति पाना मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।