लेख सार : परमपिता प्रभु से भक्ति के द्वारा रिश्ता बनाने से प्रभु हमारी सारी चिन्ताओं का वहन करते हैं । अगर हम प्रभु का चिन्तन करते हैं तो प्रभु हमारी चिन्ता करने लग जाते हैं । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
एक सांसारिक पिता को अपने पुत्र की चिन्ता होती है । यह स्वाभाविक है । इसका भी रहस्य यह है कि चिन्ता करने के लिए जरूरी पुत्र मोह या पुत्र हेतु ममता उस पिता को प्रभु ने ही दी हुई होती है । पर जब वह सांसारिक पिता व्यापार की परेशानियों में उलझ जाता है या स्वास्थ्य की परेशानी में घिर जाता है तो उसका केन्द्रबिन्दु पुत्र से हट कर व्यापार या स्वास्थ्य हो जाता है ।
पर परमपिता परमेश्वर के केन्द्रबिन्दु में सदैव ही उनके भक्त रहते हैं क्योंकि वे एक रूप से सदैव ही उन भक्तों पर अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं । हम भक्ति के बल पर प्रभु को बांध सकते हैं कि वे एक रूप में सिर्फ और सिर्फ हमारे बन कर रहें । ऐसा सिर्फ प्रभु ही कर सकते हैं । ऐसा सामर्थ्य सिर्फ प्रभु का ही है । इसका जीवन्त उदाहरण महारास का प्रसंग है जिसमें पहले तो एक प्रभु और भिन्न-भिन्न गोपियां थीं पर फिर जितनी गोपियां थीं प्रभु ने उतने ही रूप ले लिए । जितनी गोपियां उतने ही प्रभु हो गए । एक सांसारिक पिता अपने चार पुत्रों में बंट जाता है पर प्रभु अपने असंख्य भक्तों में कभी नहीं बंटते क्योंकि वे सभी के साथ एक रूप में एक साथ रहते हैं ।
सांसारिक पिता से कहीं बढ़कर परमपिता हमारी चिन्ता करते हैं । सांसारिक पिता चाह कर भी एक हद से ज्यादा अपने बच्चे की मदद नहीं कर सकता । उसकी एक सीमा है पर प्रभु की कोई सीमा नहीं । वे जितना हम सोच भी नहीं सकते उतना भला जीव का कर सकते हैं और करते हैं ।
इसलिए सांसारिक पिता से भी कहीं बड़ा रिश्ता हमें परमपिता से बनाना चाहिए क्योंकि वे ही हमारे हर जन्म के पिता हैं ।
सांसारिक पिता और पुत्र का रिश्ता तो वैसा है जैसे रेगिस्तान में मिट्टी के टीले की रेत का होता है । रेत के दो कण अभी एक साथ हैं फिर हवा चली और एक कण उड़ कर कहीं चला गया और दूसरा कण उड़ कर दूसरी तरफ चला गया । ऐसे ही एक जन्म का पिता और पुत्र का रिश्ता दूसरे जन्म में नहीं टिक पाता जैसे दो रेत के कण का संयोग हवा ने बिगाड़ दिया वैसे ही मृत्यु दो जीवों का संयोग बिगाड़ देती है । जैसे हवा चलने से पहला रेत का कण किसी अन्य जगह गिरा और वहाँ के रेत के कण से उसका नया संयोग बना वैसे ही मृत्यु के बाद नए जन्म में जीव नए जीवात्मा के साथ नया संयोग बनाता है । पर रेत का कण पहली जगह भी धरती से जुड़ा था और हवा से अलग होने के बाद भी दूसरी जगह जाने पर भी वहाँ भी धरती से जुड़ा हुआ होता है । वह कहीं भी चला जाए धरती से जुड़ाव सदा कायम रहता है । वैसे ही हर जन्म, हर योनि में परमपिता से हमारा जुड़ाव सदा कायम रहता है ।
एक परमपिता ही ऐसे हैं जिनका संयोग हर जन्म में, जन्मों-जन्मों तक एक ही रहता है । इसलिए हमें प्रभु से भक्ति के द्वारा अपने को जोड़ना चाहिए और ऐसी पात्रता बनानी चाहिए कि प्रभु एक रूप में सिर्फ हमारे ही बन जाएं ।
जो ऐसा कर पाता है उसकी चिन्ता का दायित्व प्रभु उठा लेते हैं । संतों ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जीव का काम भक्ति से प्रभु का चिन्तन करना है और प्रभु का काम भक्त की चिन्ता करना है । प्रभु अपना काम बखूबी करते हैं पर जीव ही अपनी भक्ति से विमुख हो जाता है । वह प्रभु का चिन्तन छोड़ अन्य सभी सांसारिक रिश्तों और वस्तुओं का चिन्तन करने लगता है ।
परमपिता को हमारी चिन्ता है इसके प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं । संतों ने कहा है कि प्रभु अमावस्या की काली रात में, कोयले की काली खान में, नन्हीं काली चींटी को भी देखते हैं और उसकी भी चिन्ता करते हैं । जीव प्रभु का अंश है इसलिए अपने अंश की चिन्ता प्रभु सदैव करते हैं । जैसे हमारा हाथ हमारे शरीर का अंश है तो हमारा हाथ घायल न हो इसकी चिन्ता हम सदैव करते हैं वैसे ही हर जीवात्मा प्रभु का अंश है इसलिए प्रभु सबकी चिंता करते हैं और जो प्रभु की भक्ति करते हैं प्रभु उनकी तो पूरी चिन्ता करते हैं ।
सांसारिक पिता एक मर्यादा के बाहर हमारी चिन्ता नहीं कर सकता । कोई बड़ी चिन्ता उसके आ जाए तो हमारी चिन्ता छूट जाएगी पर प्रभु सदैव हमारी चिन्ता करते हैं क्योंकि प्रभु को कोई बड़ी चिन्ता आ ही नहीं सकती । प्रभु चिन्ताओं से अतीत हैं, प्रभु विपदाओं से अतीत हैं, प्रभु समस्याओं से अतीत हैं । चिन्ताएं, विपदाएं और समस्याएं यह सांसारिक जीवों को प्रभावित करती हैं, यह परमपिता को प्रभावित नहीं कर सकती ।
इसलिए सर्वथा और सदैव हमारी चिन्ता रखने वाले प्रभु से हमें भक्ति के द्वारा पक्का रिश्ता बनाना चाहिए । यह हमारा कर्तव्य भी है और कृतज्ञता के रूप में भी हमें ऐसा करना चाहिए । परमपिता से रिश्ता बना लिया तो जन्मों-जन्मों तक हमारा कल्याण होता चला जाएगा क्योंकि प्रभु जन्मों-जन्मों तक हमारी चिन्ता करेंगे ।